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लेख
संसार से हमारा संबंध || आचार्य प्रशांत, वेदान्त पर (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, संसार से हमारे सम्बन्ध के बारे में बताइए।

आचार्य प्रशांत: जगत है किसके लिए? अहंकार के लिए। तो ‘जगत’ शब्द का प्रयोग करते ही एक नहीं, दो की बात हो रही है। जब हम कहते हैं, ‘आओ, जगत की बात करें’, तो ऐसा लगता है किसी एक इकाई की बात कर रहे हैं; किस इकाई की बात कर रहे हैं? जगत की। जबकि जैसे ही आप कहते हो, ‘जगत’, तो आप एक की नहीं, दो की बात कर रहे हो। दूसरा कौन है? जो जगत की बात कर रहा है।

जगत ख़ुद तो आकर कह नहीं रहा है न कि मेरी बात करो? कोई और है न जो जगत को देख रहा है, जगत के विषय में चर्चा करना चाहता है; जगत का दृष्टा। जगत दृश्य है। दो हैं; और इन दोनों के विषय में हम देख चुके हैं कि कैसे ये परस्पर आश्रित हैं। है न?

जगत की कोई बात ही न करे, अगर दृष्टा न हो उसका। और जो दृष्टा है जगत का, वो जगत के बिना रह ही नहीं सकता। कोई देखा है ऐसा व्यक्ति जो दुनिया में न रहता हो? मुझे कोई ऐसा इंसान दिखाओ जो दुनिया में नहीं रहता। वो, ये हो सकता है किसी और दुनिया में रहता हो, ये भी हो सकता है वो अपनी दुनिया में रहता हो, लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता न कि वो दुनिया में ही नहीं रहता?

तो इंसान का अर्थ ही है — दुनिया, जगत, संसार। संसार की कोई बात नहीं कर सकता, अगर नहीं होगा इंसान। और इंसान है अगर, तो दुनिया में ही है। इंसान किस पर आश्रित है?

प्र: दुनिया पर।

आचार्य: दुनिया किस पर आश्रित है?

प्र: इंसान पर।

आचार्य: तो ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। अब अगर कुछ है वास्तव में — या तो यह कह दो कि दोनों ही झूठे हैं, कुछ है ही नहीं, सब सपना है। ख़त्म करो।

पर अगर कुछ है जिसको तुम कहना चाहते हो, कि हाँ, सत्य है, तो वो सत्य इन दोनों से अलग और इन दोनों का आधार होगा। इन दोनों से अलग भी होगा और इन दोनों का आधार भी होगा। और अगर तुम्हारी बात को आगे बढ़ाने की इच्छा नहीं ही है; तुम कह रहे हो, ‘नहीं, हम किसी आधार का अनुमान क्यों करें, कल्पना क्यों करें, पोज़िट (तथ्य रखना) क्यों करें?’ तो ठीक है, अच्छी बात है। तुम ये भी कह सकते हो, ‘दोनों ही झूठे हैं, हैं ही नहीं।’ यहाँ पर भी बात ख़त्म कर सकते हो।

अगर यहाँ पर बात ख़त्म कर सकते हो, तो ब्रह्म तुम्हारे लिए ‘शून्य' बराबर है। और अगर ये कहना चाहते हो कि इन दोनों के नीचे, इनका एक मूल और विशुद्ध आधार है, तो फिर तुम ब्रह्म की बात कर रहे हो ‘पूर्ण' रूप में। दोनों तरीक़े से कह सकते हैं। बात बस ये है कि ये दोनों तो आधे-आधे हैं और ये दोनों मिलकर भी पूरे नहीं हो सकते, क्योंकि ये दोनों मिल सकते ही नहीं हैं।

एक को दूसरा चाहिए, एक को पराया चाहिए। दोनों का कोई अन्तिम सम्मिलन, इन दोनों की कोई अन्तिम युक्ति, योग नहीं हो सकता। व्यक्ति कभी संसार से पूरी तरह एक नहीं हो सकता।

समझ में आ रही है बात?

तो इनमें एक परायापन रहेगा ही। या तो दोनों को ही बस नकार दो, या दोनों को एक आधार दो। इन दोनों ही बातों में साझा क्या है? चाहे उनको तुम नकार रहे हो, चाहे उनको तुम आधार दे रहे हो, कम-से-कम उन दोनों की स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास तो नहीं कर रहे हो न।

और आम आदमी इसी अन्धविश्वास में फँसा रहता है। यही मूल अन्धविश्वास है। मूल अन्धविश्वास क्या है? ये दुनिया थी मेरे बिना भी, मैं इस दुनिया में आया हूँ। जैसे ही तुमने ये कहा, तुमने किसकी स्वतन्त्र सत्ता खड़ी कर दी? दुनिया की।

बात समझ में आ रही है?

और मेरे स्वार्थ, मेरा सुख इस दुनिया से अलग हैं। मैं इस दुनिया में आग लगाकर के स्वयं पूर्णता को, मुक्ति को या सुख को पा सकता हूँ। इसमें तुमने किसकी स्वतन्त्र सत्ता खड़ी कर दी? अपनी।

आम इंसान के यही दो मूल अन्धविश्वास हैं। पहला अन्धविश्वास है कि दुनिया मेरे बग़ैर भी है और दूसरा अन्धविश्वास है कि मैं दुनिया के बग़ैर भी हूँ। हम फिर इन दोनों को क्या मान लेते हैं? जब इन दोनों को हमने एक-दूसरे से पृथक मान लिया, इन्डिपेन्डेन्ट (स्वतन्त्र) मान लिया, तो हम इन दोनों को फिर क्या मान लेते हैं?

हम इन दोनों को फिर एब्सोल्यूट्स (पूर्ण) मान लेते हैं, हम इन दोनों को ही पूर्ण या सत्य मान लेते हैं। क्योंकि जो चीज़ अपनेआप में स्वतन्त्र है, मुक्त है, वो तो सत्य ही हो गयी न? इसी झूठ में तो हम जी रहे हैं न कि जगत सत्य है। इसीलिए फिर समझाने वालों को ज़ोर देना पड़ा कि नहीं, जगत मिथ्या है। हम जगत को क्या मान लेते हैं? सत्य है। जगत सत्य नहीं है।

फिर इसीलिए सन्तों ने अपनी भाषा में कहा, “तुम्हारी आँखों का धोखा है दुनिया बस।” ये बात हमारे गले नहीं उतरती — दुनिया आँखों का धोखा कैसे है? दुनिया आँखों का धोखा ऐसे नहीं है कि कुछ और है, तुम्हें कुछ और दिख रहा है; हम सोचते हैं, ‘आँखों का धोखा माने, है कुछ और दिख कुछ और रहा है।’

नहीं, बात ये नहीं है कि कुछ और है, कुछ और दिख रहा है; बात ये है कि दिख रहा है; ‘जगत वही है जो बस दिख रहा है।’ ये नहीं है कि कुछ और दिख रहा है, बात ये है कि दिख रहा है।

होना और दिखना एक हैं क्या? तुम्हें अपने दिखने पर इतना भरोसा हो गया कि तुम कह रहे हो कि जो दिख रहा है, वो होगा ज़रूर ही। क्या होना और दिखना एक ही हैं? या तुम इतने बड़े बादशाह हो गये कि तुम कहोगे, ‘हमें दिख रहा है तो है ज़रूर।’ पर अहंकार तो बादशाह अपनेआप को मानता ही है। ‘जगत है, निश्चित रूप से है, सत्य है।’ प्रमाण क्या है तुम्हारे पास? 'मैं देख रहा हूँ न! मैं बादशाह हूँ, मुझे दिख रहा है तो ज़रूर होगा!'

समझ में आ रही है बात?

यही बात तुम ख़ुद को लेकर भी बोलते हो; 'मैं स्वयं को दिख रहा हूँ न। मेरे अपने बारे में विचार हैं न, तो मैं होऊँगा ज़रूर।' तुम्हें ये भी कैसे पता कि तुम हो? तुम प्रमाण दो कि तुम हो। तुम्हें कैसे पता तुम हो? बोलो? तुम्हें तो बहुत चीज़ें लग जाती हैं कि हैं, वो होती हैं क्या? तुम्हें आज तक कुछ भी ठीक वैसा लगा है, जैसा वो है? तो स्वयं को भी तुम बस लगते ही तो हो।

जैसे तुम्हें लगी हुई हर चीज़ आज तक उल्टी-पुल्टी ही निकली, वैसे ही तुम लग ही तो रहे हो; तुम्हें लग ही तो रहा है कि तुम हो। क्या पता हो ही न? बुद्ध को यही बोलना पड़ा, “तुम हो ही नहीं।” ये नहीं बोला उन्होंने कि तुम ब्रह्म हो, उन्होंने कहा, “तुम नहीं हो। तुम हो कहाँ?”

तो उपनिषद् आपका बहुत सम्मान करते थे, तो आपको बोल गये थे, “ यू आर दैट (तुम वह हो)।” बुद्ध आये, बोले, “ यू आर नॉट (तुम नहीं हो)। तुम हो ही नहीं।" एक तरीक़े से बुद्ध ज़्यादा सही हैं। उन्होंने हमें वो दिया, जिसकी हमारी हैसियत है, जिसके हम अधिकारी हैं। उपनिषद् हमें वो दे रहे थे, जिसकी हममें सम्भावना है।

कुछ ज़्यादा ही सम्मान दे दिया, उन्होंने हमें सम्भावना बताकर। बुद्ध आये, बुद्ध ने हरकतें देखीं हमारी, कोई वहाँ यज्ञ के नाम पर जानवर काट रहा है, कोई जाति-पाति, छुआछूत चला रहा है; यही सब हो रहा था, उनके समय में। धर्म बिलकुल विकृत हो चुका था।

तो उन्होंने कहा, “हटाओ कि तुम ब्रह्म हो; तुम हो ही नहीं।” उन्होंने ये भी नहीं कहा कि तुम बुरे हो, क्योंकि इसमें भी तुम्हारा थोड़ा तो सम्मान बच जाता; क्योंकि तुम्हारा अस्तित्व बच जाता न। उन्होंने और तगड़ा झापड़ रसीद किया, उन्होंने कहा, “ये भी तुमसे क्यों कहें कि तुम बुरे हो; हम तुमसे कहेंगे, तुम नहीं हो।”

ये कभी देखा है न, तुम किसी को डाँट भी दो, तो तुमने कम-से-कम ये तो स्वीकार किया कि वो तुम्हारे लिए कोई अर्थ रखता है; तुम अगर किसी से बुरा भी मान लो, तो वो तुम्हारे लिए कुछ अर्थ तो रखता है न? किसी का बड़े-से-बड़ा अस्वीकार क्या होता है? कि तुम्हें उसकी किसी बात का बुरा भी न लगे, तुम उसकी हस्ती को ही वैधता न दो, एकनॉलेज (स्वीकार) ही न करो कि वो है, ये बड़े-से-बड़ा अस्वीकार है और अपमान है।

'तुम हो ही नहीं। चीख रहे हो, चीखो! मुझे फ़र्क ही नहीं पड़ रहा। तुम हो क्या? मुझे सुनायी नहीं पड़ा।'

मुझे सुनायी नहीं पड़ा।

तो ये दो तरीक़े हैं देखने के। इंसान की सम्भावना को देखोगे, तो कहोगे, “हाँ, ऊपर-ऊपर जो दिख रहा है, ये द्वैत का खेल है — प्रकृति है, पुरुष है, दृश्य है, दृष्टा है; ये ज़रूर मिथ्या है, लेकिन इसके नीचे ब्रह्म का आधार है।” ये तुम मनुष्य को उसकी गरिमा से परिचित करा रहे हो। ये तुम मनुष्य को उसका गौरव याद दिला रहे हो, कि तुम झूठ में जी रहे हो भले ही, लेकिन सत्य तुम्हारा आधार है और सत्य तुम्हारी सम्भावना है।

ये तब है, जब तुम्हें मनुष्य में कुछ ऐसा दिखायी दे जो सत्य तक पहुँचने को तत्पर हो। ये बात किसी ऐसे मनुष्य से कही जाएगी जिसमें मुमुक्षा हो, जिसमें कुछ प्रतिभा हो और जिसकी नीयत हो सच्चाई तक पहुँचने की। उससे कहा जाएगा, ‘देखो! तुम झूठ में हो, लेकिन तुम सच तक जाओ, झूठ को त्यागो। सच ही तुम्हारा यथार्थ है।’

और अगर किसी ऐसे को देखो, जो झूठ में जी रहा है और उसे झूठ में ही जीना है और झूठ को सच्चा मानने पर वो उतारू है, तो उससे बस इतना ही कह सकते हो, 'तुम भी झूठे, तुम्हारी दुनिया भी झूठी और इससे आगे तुम्हारे लिए कोई सच्चाई नहीं है। हटाओ आत्मा, हटाओ ब्रह्म, हटाओ सत्य। तुमसे तो बस यही कह सकते हैं कि तुम झूठ में हो और इससे आगे हम तुमसे कुछ कहेंगे भी नहीं।'

समझ में आ रही है बात?

तो मनुष्य की सम्भावना और गरिमा को जब सम्बोधित किया जाता है तो कहा जाता है — ब्रह्म। और मनुष्य के अनियन्त्रित, बेक़ाबू अहंकार को जब सम्बोधित किया जाता है तो कहा जाता है — शून्य। दोनों ही तरीक़ों से मनुष्य को सम्बोधित किया जा सकता है, वो इसपर निर्भर करता है कि अहंकार की स्थिति क्या है। अहंकार अगर जिज्ञासु है, शिष्य है, मुमुक्षु है, उत्सुक है, आग्रही है, समर्पित है, तो उससे कहेंगे, “ब्रह्म हो तुम।” और वही अहंकार अगर उद्दंडता कर रहा है, अकड़कर खड़ा हुआ है, ख़ुद में ही भरोसे और आत्मविश्वास से भरपूर बैठा है, तो उससे बस इतना कह दिया जाएगा, “अनात्मा, शून्य हो तुम।”

तो बात ये नहीं है कि इन दोनों में से ज़्यादा सही बात कौनसी है, शून्यता या पूर्णता; बात ये है कि ये दोनों बातें अलग-अलग लोगों से कही गयी हैं। जिसको कहा जाएगा, ‘पूर्ण हो तुम’, उससे नहीं कहा जा सकता, ‘शून्य हो तुम’; कह दिया तो ग़लत होगा। और जिससे कहा जा रहा है, ‘शून्य हो तुम’, वो इसी लायक़ है कि उससे यही कहा जाए कि शून्य हो तुम, उससे कह मत देना कि ब्रह्म हो तुम।

ये दोनों बातें अपनी-अपनी जगह सही हैं। हर बात अपनी जगह ही सही होती है।

स्पष्ट हो रहा है ये?

प्र: आचार्य जी, आपने समझाया कि दुनिया और अहंकार का क्या परस्पर सम्बन्ध है। तो ये बात फिर भी थोड़ा समझ आती है कि जो दुनिया के बारे में हम सोचते हैं, वो अहंकार है, लेकिन ये उल्टा जो है कि दुनिया भी अहंकार से परस्पर सम्बन्धित है, वो इतना अभी क्लियर (स्पष्ट) नहीं हो रहा।

आचार्य: नहीं, दो बातें हैं। तुम दुनिया पर आश्रित हो, दुनिया तुमपर आश्रित है। इसमें से कौनसी बात स्पष्ट नहीं हो रही है?

प्र: दुनिया मुझ पर कैसे आश्रित है?

आचार्य: तुम कुछ मान रहे हो दुनिया का ऐसा जो तुमपर आश्रित नहीं है? बताओ, ऐसा क्या है दुनिया का जो तुमसे बिलकुल मुक्त है, तुमपर आश्रित नहीं है, कुछ ऐसा बताओ। ये दुनिया है पूरी, इसमें से कोई एक उदाहरण बताओ जो चीज़ तुमपर आश्रित नहीं है, जो कि तुम्हारे बदलने पर भी वैसी ही रहेगी, जैसी वो है। तुमपर वो बिलकुल निर्भर नहीं करती, कोई ऐसी चीज़ बताओ।

चलो ठीक है, समझते हैं।

दुनिया के बारे में दो तरह के हमारे पास विचार या छवियाँ होती हैं। दो तरह के। ठीक है? एक तो ये कि उसका नाम इत्यादि क्या है, उसका मूल्य क्या है — किसी वस्तु का। दुनिया में वस्तुएँ ही होती हैं। (पहला) उसका नाम क्या है, उसका मूल्य क्या है, गुणवत्ता क्या है, इत्यादि-इत्यादि। और दूसरा, उसके बारे में हमारे पास ये छवि होती है कि उसका आकार क्या है या उसका रंग क्या है, इत्यादि। ठीक है?

आमतौर पर हम ऐसा मान लेते हैं कि उस वस्तु को लेकर जो हमारे पास मत हैं, विचार हैं, वो इस हद तक तो व्यक्तिगत हो सकते हैं कि उसका मूल्य क्या है या उसकी गुणवत्ता क्या है, लेकिन इस बात को हम कभी भी व्यक्तिगत मानते ही नहीं, सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) मानते ही नहीं कि वो वस्तु यथार्थ में है भी या नहीं, या उसका आकार इत्यादि क्या है।

खम्भा है। ठीक है? खम्भा। अब कोई आकर के इस खम्भे को देखकर कह सकता है, ‘क्या आलीशान खम्भा है! क्या मस्त खम्भा है!’ ठीक है न? वो ऐसा क्यों कह रहा है? क्योंकि हो सकता है इस खम्भे पर कोई बहुत महॅंगा पेंट (रंगलेप) किया गया हो, उस पेंट का जो ब्रांड (कम्पनी) है, वो ज़बरदस्त है। और इस खम्भे पर ही कहीं लिख भी दिया हुआ है कि इसपर एक बहुत ज़बरदस्त ब्रांड से पुताई की गयी है। ठीक है?

तो एक चीज़ तो ये होती है जो हम इस खम्भे के बारे में मानते हैं। क्या माना हमने? कि ये बड़ा ज़बरदस्त, आलीशान, मूल्यवान खम्भा है। और दूसरी चीज़, जो और ज़्यादा केन्द्रीय है और हमने मान ही ली, वो क्या है? कि खम्भा है।

इन दोनों बातों को समझना।

पहली बात पर्सनल (व्यक्तिगत) है, सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) है, ये भी कम लोग समझ पाते हैं, लेकिन फिर भी कुछ लोग समझ जाते हैं। वे मान लेते हैं, वे कहते हैं, ‘नहीं भाई, ये तो हमारा अपना वैल्यू-जजमेन्ट (मूल्यांकन) है, मूल्य का निर्धारण कर रहे हैं हम खम्भे का। हमने खम्भे का ऐसा मूल्य लगा दिया।’

उदाहरण के लिए — किसी को ऐसा लगता है कि सफ़ेद रंग बहुत मूल्यवान होता है, तो वो सफ़ेद खम्भा देखते ही बोलेगा, ‘आहाहा! क्या सुन्दर अनमोल खम्भा मिल गया हमको!’ वो जो कुछ बोल रहा है, वो खम्भे के बारे में नहीं बोल रहा है, वो अपनी आन्तरिक मूल्य-व्यवस्था के बारे में बोल रहा है न?

भाई! तुमको सफ़ेद रंग बहुत मूल्यवान लगता है, तो तुमने खम्भे को मूल्यवान बना दिया। खम्भा नहीं मूल्यवान था।

यहाँ तक तो बात समझ में आती है कि हम इसी तरह जब लोगों के सामने पड़ते हैं, तो उनके नाम और उनके अतीत को लेकर या उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है, उनका धर्म या जाति क्या है, उनकी शिक्षा कितनी हुई है, इस तरह की बातों को लेकर हम उनके बारे में धारणा बनाते हैं, ठीक वैसे जैसे हमने खम्भे के रंग को लेकर खम्भे के बारे में धारणा बना ली। ठीक है?

तो यहाँ तक समझ में आया कि दूसरे का जो अस्तित्व होता है, वो हमपर किस तरीक़े से आश्रित होता है; कम-से-कम एक बात तो समझ में आयी न?

अभी हम खम्भे के अस्तित्व के बारे में क्या बोल रहे थे? ‘आहाहा! क्या मस्त, शानदार खम्भा है!’ तो इसमें मस्त और शानदार शब्द जो थे, वो हमपर आश्रित थे। इतना समझ में आया?

हम यही समझना चाह रहे हैं न कि दुनिया हमपर कैसे आश्रित है? तो हमने कहा, ‘क्या शानदार खम्भा है!’ शानदार शब्द क्या खम्भे पर आश्रित था? शानदार शब्द हमपर आश्रित था। ये बिलकुल स्पष्ट हो गयी है बात? एक आदमी कह रहा है कि खम्भा शानदार है, दूसरा कहेगा, ‘शानदार नहीं है।’ अगर खम्भे में ही कोई शान निहित होती, तो वो शान सबको दिखायी देनी चाहिए थी। पर खम्भे में ऐसी कोई शान नहीं थी, आपको लग रहा था। मतलब, खम्भे का शानदार होना आप पर आश्रित था।

अब आगे आ जाओ! खम्भा है भी या नहीं, आपको कैसे पता? आपकी आँखें खम्भे को ठीक वैसे ही देखती हैं, जैसे आप अपने शरीर को देखते हो। आप देख रहे हो कि आपमें और उस खम्भे में एक बहुत मूलभूत समानता है। क्या?

प्र: दोनों ही आँखों से देखे जाते हैं।

आचार्य: दोनों ही आँखों से देखे जाते हैं और दोनों ही त्रिआयामी हैं, थ्री-डायमेन्शनल हैं। दोनों का ही अस्तित्व स्पेस-टाइम (समय और आकाश) में है। आपका जो मस्तिष्क है, वो आपके शरीर से सम्बन्धित है और ये जो मस्तिष्क है, ये रचा ही गया है एक त्रिआयामी जगत को प्रक्षेपित करने के लिए और अनुभव करने के लिए।

माने, उस खम्भे को त्रिआयामी देखने के लिए बहुत ज़रूरी है कि उसके सामने एक मस्तिष्क हो जो त्रिआयामी चीज़ों का ही अनुभव करता हो या एक त्रिआयामी रिएलिटी (वास्तविकता) को प्रोजेक्ट (प्रक्षेपित) करता हो।

ये समझ में आ रही है बात?

वर्ना वो खम्भा चलेगा नहीं। ठीक वैसे जैसे कि अगर सही कम्पाइलर (कम्प्यूटर भाषा का अनुवादक) न हो तो एक सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम नहीं चलेगा। वो खम्भा, खम्भा नहीं है, वो एक तरह का अधिक-से-अधिक एक कोड (कम्प्यूटर भाषा में लिखा एक अनुदेश) है। और आपका जो ब्रेन (मस्तिष्क) है, वो उस कोड का कम्पाइलर है।

तो कोड (अनुदेश) कम्पाइलर (अनुवादक) पर आश्रित होता है कि नहीं होता है? या बिना कम्पाइलर के ही कोड काम कर जाएगा और कुछ आउटपुट (परिणाम) देने लगेगा? खम्भा कोड है, आपका दिमाग क्या है?

प्र: कम्पाइलर है।

आचार्य: कम्पाइलर है। और आउटपुट क्या है इस कोड का? ये थ्री-डायमेन्शनल (त्रिआयामी) खम्भा, ये एक कोड का आउटपुट है। वो खम्भा नहीं एग्ज़िस्ट (विद्यमान होना) करता। एक कोड एग्ज़िस्ट करता है जो आपके ब्रेन (मस्तिष्क) में कम्पाइल (अनुवादित) होता है, रन (गति) करता है यहाँ (मस्तिष्क) पर, और आउटपुट (परिणाम) के तौर पर खम्भा खड़ा हो जाता है।

तो अब बताओ, खम्भा अपनेआप में कोई मुक्त सत्य है क्या? एक इन्डिपेन्डेन्ट रिएलिटी (मुक्त सत्य) हुआ क्या? खम्भा अपनेआप में कोई इन्डिपेन्डेन्ट रिएलिटी हुआ क्या?

ये बात समझ में आ रही है? नहीं समझ में आ रही है?

खम्भा है नहीं। कोड और कम्पाइलर मिलकर खम्भे का निर्माण करते हैं। तो जब आपने कहा था, ‘क्या शानदार खम्भा है!’, शानदार तो समझ में आ ही गया था, कि शानदार उसको आपने बना दिया, पर जब आप बोल रहे हैं, ‘क्या खम्भा है?’ तो अब ये भी समझिए कि खम्भा भी आप ही ने बनाया है। और ये आपकी मजबूरी है कि आपको खम्भा वैसे ही बनाना पड़ेगा, क्योंकि जैसे ये ब्रेन है, वैसे ही उस खम्भे को बना रहा है, वैसे ही ये इस शरीर को भी बना रहा है।

शरीर को अगर थ्री-डायमेन्शनल होना है, तो खम्भे को भी होना पड़ेगा। शरीर को अगर एक दिन पैदा होना और ख़त्म होना है, तो खम्भे को भी एक दिन पैदा होना और ख़त्म होना पड़ेगा। और खम्भे को उसी आयाम में एग्ज़िस्ट करना पड़ेगा, जिस आयाम में आपका शरीर है, जिस आयाम में आपका पूरा भौतिक यथार्थ है।

कोई खम्भा ऐसा है, जिस पर चढ़कर परलोक पहुँच सकते हो? आज तक कोई ऐसा खम्भा देखा क्या कि चढ़ जाओ, चलो वीर! ये खम्भा सीधे कहाँ पहुँचाएगा? परलोक पहुँचाएगा।

माने सारे खम्भे किस लोक के होते हैं?

प्र: मृत्युलोक।

आचार्य: अरे यार! तुम्हारे लोक के होते हैं। मृत्युलोक नहीं, तुम्हारा लोक। तुम जहाँ हो, हर खम्भा वहीं है। तुम्हारी पूरी दुनिया में जो कुछ है, वो ठीक वहीं है, जहाँ ‘तुम’ हो। तुम्हें सम्बन्ध दिखायी नहीं पड़ रहा? तो कुछ भी इस दुनिया का तुमसे अलग या मुक्त या इन्डिपेन्डेन्ट कहाँ है!

यहाँ कुछ स्वतन्त्र नहीं है। दुनिया तुमसे स्वतन्त्र नहीं है, तुम दुनिया से स्वतन्त्र नहीं हो। तुमसे खम्भा बन रहा है, खम्भे से तुम बन रहे हो। और तुम भी खम्भे से दो तरह से बनते हो।

जैसे हमने खम्भे का निर्माण दो तरीक़े से किया न — पहला, ये कहकर कि शानदार है और दूसरा, ये कहकर कि खम्भा है; वैसे ही खम्भा भी हमें दो तरीक़े से बनाता है। पूछो कैसे? वो लोहे का खम्भा है, थोड़ी देर में ऑक्सीडाइज़ (जंग लगना) हो गया, उसमें से जो मिनरल (खनिज) बन गया आयरन (लोहा) का, वो झड़ गया। वो कहाँ चला गया? मिट्टी में। उसी मिट्टी से क्या पैदा हुआ? अन्न। वो अन्न से क्या बन गया तुम्हारा? शरीर।

तो ये एक तरीक़ा है, जिससे खम्भे ने तुम्हारा निर्माण किया। इस जगत की हर भौतिक वस्तु किसी-न-किसी तरीक़े से तुम्हारा निर्माण कर रही है। ये एक तरीक़ा है। और दूसरा क्या तरीक़ा है? मानसिक रूप से भी तुम्हारा निर्माण खम्भे ही करते हैं।

खम्भा माने ‘प्रतिमा’, खम्भा माने ‘छवि’।

जो तुम्हारा अहंकार है, वो छवियों से ही तो निर्मित है न?

समझ में आ रही है बात?

तो सारी ये जो छवियाँ हैं। ये मिलकर के तुम्हारा निर्माण कर रही हैं। हो सकता है कि तुम किसी ऐसे पंथ से आते हो, जहाँ कोई एक खम्भा बहुत विशेष माना जाता हो। तो तुम्हारा जो पूरा आन्तरिक जगत है, वो केन्द्रित किसपर है? उस खम्भे पर। एक हिन्दू का जो आन्तरिक जगत होता है, वो ‘गंगा नदी’ पर केन्द्रित है। एक मुसलमान का आन्तरिक जगत ‘काबा’ पर केन्द्रित है।

बात समझ में आ रही है?

तो हमारे जो आन्तरिक जगत का निर्माण है, वो भी इसी जगत की छवियाँ ही तो करती हैं। उन्हीं छवियों में और भी छवियाँ जोड़ लो — माँ-बाप की छवि, प्रेमी-प्रेमिका की छवि, धन की छवि, घर की छवि, दौलत की छवि। बाहर के खम्भे ही तो हैं, ये सबकुछ।

खम्भा माने क्या? जो खड़ा है। और ये सब भी तो खड़े ही हुए हैं। कौन खड़ा है? हाँ, वो मेरा दोस्त खड़ा है, वो मेरा बॉस (मालिक) खड़ा है — ये सब भी तो खम्भे ही हैं। और इन खम्भों ने तुम्हारे आन्तरिक जगत का निर्माण किया है।

तो शरीर का निर्माण भी खम्भे ने किया है और मन का निर्माण भी खम्भे ने किया है। तुम खम्भे का दो तरीक़े से निर्माण करते हो, खम्भा तुम्हारा दो तरीक़े से निर्माण करता है। अब बताओ, कौन किसका निर्माण करता है?

समझ में आ रही है बात?

प्र: दोनों चीज़ें हैं कि नहीं हैं?

आचार्य: क्या पता? खम्भा, खम्भे से पूछ रहा है, ‘खम्भा है कि नहीं?’ तुम भी खम्भा, हम भी खम्भा। अब बताओ, खम्भा असली है कि नकली है?

“माटी कुदम करेंदी यार।”

क्या पता, वो असली है कि नकली है? जड़ है कि चेतन है? या क्या पता जड़ ही चेतन है और चेतन ही जड़ है?

नहीं समझ में आ रही बात? तुम्हारा कम्पाइलर (अनुवादक) अभी क्या आउटपुट (परिणाम) दे रहा है?

प्र: कम्पाइलर की वजह से कोड (क्रमादेश) है जो हम कह रहे हैं, पर उल्टा भी है कि कोड की वजह से कम्पाइलर भी है।

आचार्य: इसीलिए तो उसको फिर प्रोग्रामर बोलते हैं। आज तक किसी ने कोई ऐसी लैंग्वेज (प्रोग्रामिंग भाषा) ईजाद की है कि लैंग्वेज तो बना दी और कम्पाइलर नहीं बनाया? ऐसा हुआ है आज तक कि सिर्फ़ लैंग्वेज बना दी है, कम्पाइलर बनाना ही भूल गये?

सीधे बोल दो, ‘कौन इस झंझट में पड़े?’ टांग ऐसे फैला दो, हाथ ऐसे फेंक दो, छाती आसमान की तरफ़ करो और सो जाओ। काहे को फ़ालतू के झंझट में पड़ रहे हो! ये नहीं देख रहे कि जब तुम झंझट में पड़ रहे हो, तब भी रन (गति) कौन कर रहा है? कम्पाइलर को रन (गति) करा-कराकर कम्पाइलर के कोडर (अनुभाषक बनाने वाला) तक पहुँच जाओगे क्या?

नहीं समझ में आ रही बात?

किसी भी कम्पाइलर को कितना भी रन करो, उसमें से ये निकलवा लोगे क्या कि तुझे लिखा किसने था? तो खोपड़ा कितना भी चलाओ, खोपड़ा ख़ुद को रचने वाले तक नहीं पहुँच पाएगा, चल-चलकर।

प्र: आचार्य जी, इसमें एक चीज़ लग रही है, जैसे कि कुछ तो है, कुछ तो है। अब ये दिख रहा है कि अगर आप बोलो, कुछ तो है, तो अगर आप बोल रहे हो, मैं हूँ…।

आचार्य: ये कोड और कम्पाइलर के ही डोमेन (क्षेत्र) की बात है। कुछ होना या कुछ न होना, ये दोनों शब्द, ये दोनों सम्भावनाएँ, ये दोनों एक्सप्रेशन्स (अभिव्यक्तियाँ) किस डोमेन (क्षेत्र) के अन्दर के हैं? कोड और कम्पाइलर के अन्दर के ही।

तो तुम बीच में ही फँसे रहकर के बाहर की बात क्यों कर रहे हो? सारी बातें कहाँ की हैं? कोड और कम्पाइलर के बीच की ही न?

कोड और कम्पाइलर माने दृश्य और दृष्टा, जड़ और चेतन, पुरुष और प्रकृति।

इनके बीच में फँसे रहकर के इनके बाहर की बात कैसे कर सकते हो?

प्र: इनके बीच से अगर हटते हैं, तो फिर इसपर सवाल ही मिट जाता है।

आचार्य: बीच से तुम हटते हो तो तुम बचते ही नहीं, क्योंकि तुम ख़ुद बीच में हो। बीच से हटकर तुम थोड़े ही बच जाओगे।

तुम एक वीडियो गेम के अन्दर हो। उससे बाहर आओगे तो घूमते रहोगे? कभी देखा है, गेम के अन्दर से एक कैरेक्टर (चरित्र) निकलकर बाहर ऐसे ही घूम रहा है; वो कह रहा है, ‘मोमोज़ देना?’

ये तुम्हारे सारे सवाल भी उस वीडियो गेम के अन्दर के ही हैं न?

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