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सही संगति कैसे चुनें? || आचार्य प्रशांत, त्रिपुरा रहस्य पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: त्रिपुरा रहस्य में संगति के बारे में बहुत बोला गया है। मतलब सत्संगति आपको मोक्ष की ओर ले जाती है। क्या अपनी संगति हम चुन सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: बिलकुल! वहीं एक चुनाव है जो आपको जी-जान से करना चाहिए, जिस पर अड़ जाना चाहिए।

प्र: मेरे जीवन में तो ऐसा लग रहा है कि जो संगति मेरे पास है, वो सब ख़ुद से हैं।

आचार्य: संगति अगर आप चुनना चाहते हैं, तो सूत्र बताए देता हूँ। ये पूछ लीजिए कि 'किसकी संगत में मन कैसा हो जाता है। किसकी संगत में परमात्मा की सुध आती है, और किसकी संगत में परमात्मा बिलकुल भूल ही जाता है। किसके साथ बैठकर अगर सत्य का नाम लूँगा, तो साथी कहेगा – क्या खूब! और किसके साथ बैठूँगा और सत्य वचन बोल दिया, तो साथी कहेगा – अब कभी मुँह मत दिखाना मुझें।' यही है चुनाव।

जिसके साथ बैठकर के परमात्मा का नाम लेना आसान हो जाता हो, बस उसके साथ बैठो। और जिसके साथ बैठकर परमात्मा का नाम लेने के लिए मुँह छुपाना पड़ता हो, उसे तुरन्त त्याग दो, वो ज़हर है।

प्र२: नहीं, लेकिन अलग-अलग तरह के लोग हैं न। एक तो चलो बिलकुल ही भौतिकवादी हो गये, जो कि अपना बस कमा रहे हैं, खा रहे हैं, अपनी चीज़ों का स्तर बढ़ाते जा रहे हैं। दूसरे हैं जो धार्मिक हैं, पूजा भी कर रहे हैं, परमात्मा का नाम भी ले रहे हैं, लेकिन अंदर उनके वही सब है कि ऐसे नहीं तो ऐसे बचा लें, वैसे नहीं तो वैसे बचा लें। मतलब असली तो फिर वो साधु वाली बात आ जाती है कि जो आचार्य जी हैं, या इस तरह के, तो ऐसे लोग तो फिर बहुत ही कम हैं। तब असली अगर...।

आचार्य: तुम इनके साथ बैठी हो और त्रिपुरा रहस्य पढ़ रही हो, और ये बोलें कि, 'यार ये बंद करो न, ये लो फिल्मफेयर।' तो? तो ये कुसंगति कहलाएगी।

बात समझ में आ गयी न?

और तुम फिल्मफेयर पढ़ रही हो, और ये लाकर दें कि ये लो, ये त्रिपुरा रहस्य पढ़ लो। तो ये क्या कहलाएगी? सुसंगति।

उसके साथ बैठो जो तुम्हारे जीवन में ज़रा बोध का, ज़रा चेतना का, ज़रा गहराई का संचार करे। उसके साथ मत बैठो कि जिसके साथ तुमने बात करनी शुरू की नहीं, और उसने उथली, सतही, कुत्सित बातें शुरु कर दी कि, 'वो गंदा है, फ़लाने को मार देते हैं, फ़लाने की बेटी भाग गयी है, और उसके यहाँ पर क़बाब बहुत अच्छा बनता है।' जो तुम्हारे साथ यही सब बातें करता हो, उसकी संगत काहे करते हो?

प्र२: फिर तो अनलाइन संगति करनी पड़ेगी (हँसते हुए)।

आचार्य: हाँ, तो करो। बिलकुल! बिलकुल! क्यों घबराते हो?

प्र१: कुछ संगति तो मजबूरी में भी करनी पड़ती हैं?

आचार्य: नहीं, मजबूरी नहीं है। याद रखना कि तुम्हें मजबूरी का एहसास बार-बार कराया जाता है। तुमसे ये बोला गया है कि, 'अगर संगत में नहीं रहोगे तो मर जाओगे।' उस संगत से आज़ाद होकर देखो, बहुत मज़ा आएगा।

आदत गन्दी लग गयी है कि घटिया लोगों से ही सही लेकिन घिरे रहो; ये हमारी आदत है।

प्र१: लेकिन कई बार इसमें भी किसी-किसी को तो मज़ा आता है, ये देखा हैं मैंने।

प्र२: बिलकुल! अच्छा भी लगता है कई बार, इसमें क्या बात है!

आचार्य: वो थोड़े ही ज़बरदस्ती तुम्हारे पास रहेंगे, अगर उन्हें तुमसे वहीं न मिल रहा हो जो तुम्हें उनसे मिल रहा है।

वो तुम्हें क़बाब खिला रहे हैं, तो बदले में तुम भी तो उन्हें कुछ चटा ही रहे होगे न? वो भी तो तुम्हारे पास उन्हीं कारणों से आ रहे हैं, जिन कारणों से तुम उनकी ओर जा रहे हो; तो ये तो बराबर की बात है।

उनको बुलाकर अभी पूछो, तो वो ये कहेंगे कि, 'ये बड़ी कुसंगत है। इसके साथ रहता हूँ, या रहती हूँ, तो दुनियाभर की गॉसिप!'

प्र१: आचार्य जी, ये परम्पराओं का क्या मह्त्व है हमारे जीवन में?

आचार्य: अनुशासन है परम्परा। आमतौर पर जो परम्परा होती है, जब वो बनाई जाती है तो इसलिए बनाई जाती है ताकि कोई जो अतीत का ढ़र्रा है वो टूटे।

आपने एक परम्परा पहले ही बना रखी है - तामसी मन के चलते - कि मैं तो आठ बजे उठूँगा सोकर। तो फिर आएगा कोई गुरु और कहेगा कि, 'अब मैं तुम्हें दूसरी परम्परा देता हूँ, दूसरी प्रथा-परम्परा कि पाँच बजे मंदिर में शंखघोष होना है, कि पाँच बजे गुरुद्वारे में माथा टेकना है।'

अब गुरु ने आपको ये दूसरी प्रथा दी, ताकि आपके भीतर जो घटिया प्रथा पहले से चल रही थी, वो तोड़ी जा सके। तो एक अनुशासन है।

समझो बात को!

चूँकि हम प्रथाओं पर चलने वाले लोग हैं, तो सन्त कहते हैं कि, 'मैं तुम्हें अब एक सतोगुणी प्रथा दूँगा, ताकि तुम तामसिक प्रथाओं से, रजोगुणी प्रथाओं से, मुक्त हो सको।'

फिर एक मुक़ाम वो भी आता है जब आपको किसी प्रथा की ज़रूरत नहीं होती; हम उस मुक़ाम की बात नहीं करेंगें।

हम तो वो लोग हैं, जो प्रथाओं में ही घिरे हुए हैं न। अगर तुम सन्तों की प्रथाओं पर नहीं चले, तो तुम समाज की प्रथाओं पर चलोगे। तुम समाज की प्रथाओं से मुक्त हो सको, इसके लिए सन्त तुम्हें एक सात्विक-धार्मिक परम्परा देता है। उस धार्मिक परम्परा का यही लक्ष्य है कि तुम उन प्रथाओं से मुक्त हो सको; अन्यथा प्रथा देने में सन्त की कोई रुचि नहीं। वो तो उस देश का निवासी है जहाँ प्रथाएँ होती ही नहीं।

सन्त से पूछो कि, 'तुम्हारे लोक में कोई प्रथा, परम्परा, रिवाज़ चलते हैं?'

तो कहेगा कि, 'क्या बात करते हो! हम जहाँ हैं, वहाँ तो मुक्त आकाश है। वहाँ न कोई परम्परा, न रिवाज़, न क़ायदा, न अनुशासन, वहाँ कुछ नहीं।'

पर तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि तुम्हारे पास कोई क़ायदा हो, और तुम उस क़ायदे का जी-जान से पालन करना, तोड़ मत देना। तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि तुम अनुशासन में रहो। हर परम्परा एक अनुशासन है, उसका पालन करना, बड़े अनुशासन की बात है।

प्र१: कंडिशनिंग से क्या फर्क़ है? कंडिशनिंग भी तो है ये?

आचार्य: कंडिशनिंग तो है ही है, और आप कंडिशनिंग के बिना जियोगे नहीं; तो इसीलिए आपको दी जाती है ऐसी कंडिशनिंग जो पुरानी कंडिशनिंग को तोड़ सके। ये किसने कह दिया आपसे कि कंडिशनिंग बुरी बात है?

याद रखिए कि दुनिया में जो भी कुछ है, वो तीन प्रकार का है — तमोगुणी, रजोगुणी, सतोगुणी। और नीचे के दो गुणों (रजोगुण, तमोगुण) को काटने के लिए ऊपर के गुण (सतगुण) की ज़रूरत पड़ती है।

माया दो प्रकार की जो जाने सो खाए, एक मिलावे राम से दूजी नरक ले जाये ~ कबीर साहब

माया में तो तुम घिरे ही हुए हो; तुम वो वाली माया चुनो जो तुम्हें राम से मिला दे।

तो इन बातों पर मत चलिएगा कि सारी कंडिशनिंग बुरी हैं। ये अगर कोई गुरु आप से कहता है कि, 'नहीं-नहीं, सारी कंडिशनिंग बेकार है।' तो फिर वो अभी गुरुत्व का क़ायदा नहीं जानता। वो किताबी बात कर रहा है, उसकी बात फिर व्यवहारिक नहीं है, प्रयोग में नहीं आने वाली।

और अगर कोई आपसे कह रहा कि, 'बाहर से आया हुआ सारा अनुशासन खराब है।' तो वो भी किताबी कर रहा है, उसको आदमी के मन का नहीं पता। बाहर से तो तुम अनुशासन ले ही रहे हो, सवाल ये है कि बाहर तुमने किससे लिया अनुशासन? रावण से लिया, कि राम से लिया?

तुम रावण के पास जाओगे, वो भी तुम्हें एक अनुशासन देगा। वो क्या अनुशासन देगा? 'जाओ! और रोज़ दो लोगों का सिर काटकर लाओ।' ये रावण के यहाँ का क़ायदा है।

और तुम राम के यहाँ जाओगे, अनुशासन तो वहाँ भी मिलेगा। और राम भी बाहरी ही हैं। जैसे रावण एक बाहरी जीव खड़ा होकर के तुम्हें अनुशासन दे रहा है, वैसे राम भी तो एक अवतार हैं, और अवतार हुए तो जीव हुए, वो भी तो तुम्हें दे रहे हैं अनुशासन; पर राम के यहाँ का अनुशासन दूसरा होगा।

तो इस पर मत आ जाना कि बाहर से जो भी मिलता है वो कंडिशनिंग है, और व्यर्थ है। और बाहर से आयी हुई सारी बातें, ये तो बाहरी हैं, इनका तो पालन नहीं करना हैं। न!

बंधन सब तुम्हें दुनिया ने दिये हैं, और तुम्हें आज़ादी देने के लिए परमात्मा भी दुनिया में ही उतरेगा। तो ये मत कह देना कि, 'दुनिया से जो मिले, सब बंधन है।' फिर तो तुम्हारे सामने राम आ गये, और कृष्ण आ गये, और अष्टावक्र, और नानक, और कबीर आ गये, तो तुम उन्हें भी कह दोगे कि, 'ये भी तो दुनिया के लोग हैं, इनकी क्यों सुननी है? किसी की नहीं सुननी चाहिए।'

ये तो मूढ़ता है कि तुमने राम और रावण दोनों को एक ही कोटि में खड़ा कर दिया। कह दिया कि, 'दोनों की ही बातें कंडिशनिंग हैं।' ऐसे नहीं करते। ये काम हुआ है, और ये काम जब भी हुआ है तब बड़ी गड़बड़ हुई है।

आजकल ये प्रचलन चल पड़ा है कि, 'पीछे का जो कुछ है, हम नहीं सुनते। हमारे तो भीतर ही हमारा दीपक है, हम तो अपनी सुनेंगे; तुम तो अपनी बात करो।' और ये कह करके हजारों-लाखों लोगों को, कृष्ण से और कबीर से काट दिया गया है।

समझाने वाले हुए जो कह गये कि, 'सारे पुराने ग्रंथ व्यर्थ हैं।' ठीक है, तुम सारे पुराने ग्रंथ नहीं पढ़ रहे, तो तुम क्या पढ़ रहे हो ये भी तो देखो!

अगर तुम ऐसे होते कि तुमने सारे संसारी ग्रंथ छोड़ दिये होते, तो फिर ठीक है। फिर तुम कबीर की सखियाँ भी मत पढ़ो, फिर तुम गुरु ग्रंथ साहिब भी मत पढ़ो, फिर अष्टावक्र को मत पढ़ो। पर दुनिया में जितनी बेवकूफ़ी है, वो तो तुम पढ़े ही जा रहे हो, और तुम हवाला देकर ये बोल रहे हो कि कृष्णमूर्ति बोल गये हैं कि, 'नही नहीं नहीं! सारे ग्रंथ बेकार हैं, और सारे गुरू बेकार हैं।'

जिसके लिए कबीर बेकार हो गये, वो दुनिया में और कहीं जाकर के सर झुका देगा, क्योंकि सिर तो झुक ही रहा है उसका। इस चक्कर में मत रहना कि ये सिर कहीं झुकेगा नहीं; इस सिर का झुकना तय है। ये तो भूल ही जाओ कि ये कहीं नहीं झुकेगा, बस तुम ये देख लो कि सही जगह कौनसी है जहाँ ये झुके। इसे मदिरालय में झुकाना है या देवालय में झुकाना है? ये तय कर लो, झुकेगा तो है ही।

हाँ, ये हो सकता है कि तुम इतनी मूर्छा में हो, कि तुम्हें पता भी न हो कि तुम्हारा सिर झुका हुआ है। तुमसे पूछा जाए, तो तुम कहो, हमारी गणना अनुसार तो हम कहीं सर झुकाते नहीं। और हालत ये है कि अभी जो तुम्हारा दस लाख लेकर भाग जाये, उसी के सामने सिर झुका दोगे। और जो तुमसे बोल दे कि पाँच करोड़ दूँगा, वहीं सिर झुका दोगे।

लेकिन दावा तुम्हारा, शाब्दिक दावा ये है कि, 'ये सिर तो कहीं झुकता नहीं, तो हम कबीर के सामने भी नहीं झुकाते।'

जिसका सिर कबीर के सामने नहीं झुका है, उसका सिर धन के सामने झुकेगा, बल के सामने झुकेगा, संसार के सामने झुकेगा, पचास तरीक़े की और चीज़ों के सामने झुकेगा। वहाँ तो झुक ही रहा है न, तो अपना भला करो, और इस सिर को जाकर के बेहतर होगा कि देवालय में झुकाओ।

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