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लेख
सारे धर्मों का स्रोत क्या है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
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आचार्य प्रशांत: तुम पूछ रहे हो कि, "सारे धर्मों का स्रोत क्या है?" सारे धर्मों का स्रोत है जीवन। जिस किसी ने कहा कुछ भी, चाहे वो धार्मिक आदमी हो, चाहे वो अपने आप को धार्मिक ना बोलता हो; ‘धर्म’ सिर्फ एक शब्द है। जिस किसी ने जब भी कोई समझदारी की बात की, ज़िंदगी को देख कर के की। ध्यान रखना, ज़िंदगी के अलावा और कहीं से भी बोध जगता नहीं। जिसने भी जाना है, उसने जीवन को देख कर जाना है। तुम्हें हैरत होगी, ‘क्या देख कर जाना है?’

पौधों को देख कर जाना है, पहाड़ों को देख कर जाना है, आदमी की आँखों को देख कर जाना है, जन्म को देख कर जाना है, मृत्य को देख कर जाना है। सिर्फ इन्हीं को देख कर के जो जाना गया है, आज तक जाना गया है। इनके अलावा, यकीन मानो, कोई स्रोत नहीं है। कभी कोई देववाणी नहीं होती। कहते होंगे कि वेद आएँ हैं ब्रह्मा के मुख से, वो बात सिर्फ प्रतीक है। जिन ऋषियों ने वेदों की ऋचाएँ लिखीं, वो जीवन के संपर्क में थे, ब्रह्मा के संपर्क में नहीं। हाँ, अब तुम जीवन को ही ब्रह्मा कह दो, सो अलग बात है।

जीवन को देखते थे, देखते थे कि, "अच्छा, बच्चा जन्म लेता है तो कैसा होता है, अच्छा, फिर धीरे-धीरे वो आदतें ग्रहण करनी शुरू करता है, कैसे आता है ये सब?" जाते थे, देखते थे पत्ते आ रहे हैं पेड़ों में, और फिर एक दिन अचानक उसमें फूल भी आ गया, और चुप होकर, अवाक् होकर वो उसको देख रहे हैं, जैसे बच्चा देखता है न और देख रहे हैं कि, "ये हुआ क्या? जो था ही नहीं, वो प्रकट हो गया। कुछ नहीं से कुछ आ गया।" यहीं, यहीं से धर्म निकलता है। जब कोई आदमी निमग्न होकर के, मौन हो कर के, शांत होकर के, ध्यान से जीवन को देखता है, पूरा-पूरा डूब कर के, तब उसको जो बोध मिलता है, उसी का नाम ‘धर्म’ है। तुम शायद पूछोगे कि फिर धर्म अलग-अलग क्यों हैं? धर्म अलग सिर्फ इसलिए है, क्योंकि भाषाएँ अलग हैं। धर्मों का अलग होना, सिर्फ भाषा का अलग होना है। जिसने भी जाना है, ज़ीशान (एक श्रोता कि ओर इशारा करते हुए), एक ही को जाना है। मौन की कई भाषाएँ नहीं होती, उस मौन को व्यक्त करोगे तो भाषाएँ हो जाएँगी।

जिसने भी जाना है, मौन में जाना है। जिसने भी जाना है, मौन को ही जाना है।

हाँ, लेकिन जब उसको व्यक्त किया है, तो उसी भाषा में किया है जो भाषा उसे आती थी। उसी भाषा में किया है, जो भाषा उसके आस-पास के लोगों को समझ में आएगी। पर जाना हमेशा एक ही बात को गया है क्योंकि दूसरा कुछ है ही नहीं जानने को।

जीवन तो एक है, धर्म अलग-अलग कैसे हो सकते हैं?

सत्य तो एक है, तो सत्य अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? क्या तुम ये कहते हो, कि ईसाई का और हिन्दू का अलग-अलग विज्ञान होगा? अरे! जब विज्ञान तक एक है, तो सत्य दो-चार कैसे हो सकते हैं?

एक ही है जिसको जाना गया है, भाषा अलग हो जाती है, अभिव्यक्ति अलग हो जाती है। प्रेम एक ही होता है, प्रेम में कहे गए शब्द अलग हो सकते हैं। शब्दों में मत पड़ जाना, वो आचरण वाली बात हो जाएगी। हिबा, (श्रोता की ओर इशारा करते हुए) अभी हम बात कर रहे थे न, जिन्हें कुछ नहीं समझ आता न, वो शब्दों को पकड़ लेते हैं। बड़े गरीब लोग होते हैं वो, जो शब्दों को पकड़ कर बैठे रहते हैं, क्योंकि उन्हें जो असली चीज़ है, जो शब्द के पीछे है, जो शब्द का स्रोत है, वो उनको मिली नहीं, तो वो शब्द को ही पकड़ कर बैठ जाते हैं।

हर धर्म का स्रोत एक है; धर्मों का धर्म, जीवन है।

मैं यहाँ तक कहने जा रहा हूँ कि ‘धर्मों’ जैसा कोई शब्द हो नहीं सकता, धर्म ही है। भीड़ नहीं होती है धर्म, बहुत सारे धर्म नहीं हो सकते। बहुवचन में धर्म आना ही नहीं चाहिए, रिलीजन्स होना ही नहीं चाहिए, बहुवचन नहीं है। धर्म माने धर्म, और दो ही तरह के लोग होते हैं, या तो धार्मिक या अधार्मिक। ये कभी मत कहना कि हिन्दू जैन, बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई होते हैं, नहीं। अच्छा हिन्दू और अच्छा मुसलमान बिलकुल एक हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है, दोनों धार्मिक हैं। असली अन्तर सिर्फ़ एक है कि कौन धार्मिक है और कौन धार्मिक नहीं है और इस दुनिया के निन्यानवे-दशमलव-नौ लोग अधार्मिक हैं। ये तो पूछा ही नहीं जाना चाहिए कि, "तुम्हारा धर्म क्या है?" पर हम पागलों के बीच जी रहे हैं न। जब जन-गणना होती है तो भारत सरकार का अधिकारी आएगा, वो तुमसे पूछेगा, ‘तुम्हारा धर्म क्या है?’ सवाल बस ये पूछा जाना चाहिए, ‘धर्म है, कि नहीं है?’ और उत्तर उसका सिर्फ एक होना चाहिए कि ‘नहीं है।’ लाखों में कोई एक होता है जिसके पास धर्म होता है, बाकियों का तो सिर्फ एक उत्तर होगा, कि, "नहीं है।"

ये सवाल बेवकूफ़ी का सवाल है कि, "तुम्हारा धर्म क्या है?" अरे! कोई दो-चार धर्म होते हैं, कि धर्म क्या है? और तुम्हें दो-चार धर्म लगते भी इसीलिए हैं, क्योंकि तुम धर्म को जानते नहीं। अन्यथा तुम ये कह ही नहीं सकते थे कि कुरान और उपनिषद अलग-अलग हैं। बहुत नासमझी की बात होगी। तुम्हें न कुरान समझ में आई है, न उपनिषद समझ आया है, इसी कारण तुम्हें कोई अंतर दिखाई दे रहा है। जिसे समझ में आएँगे, वो कहेगा, कि, "दिखा दो अंतर है कहाँ पर? हमें तो नहीं दिखता" और ये बहुत मज़ेदार बात है। तुमने धर्मों की बात की है, वहाँ लाओ-त्ज़ु बैठा हुआ है, चीन में, और वहाँ पर हेराक्लिटस बैठा हुआ है, ग्रीस में, और दोनों के होने में सैकड़ों साल का फ़ासला है, और दोनों एक ही बात कर रहे हैं। सैकड़ों साल का फासला, और हजारों मील का फासला, और उसके बाद भी दोनों एक ही बात कर रहे हैं, ये कैसे संभव है?

इसका मतलब कि स्रोत एक है, जो भी पहुँचा है, और जब भी पहुँचा है, उस एक तक ही पहुँचा है। लाओ-त्ज़ु बताने तो नहीं गया था न उधर, कि, "हेराक्लिटस इधर आना, मैं तुम्हें बताऊँगा।" कई बार तो शब्द भी एक हैं। फ़रीद पुरुष हैं, और मुसलमान हैं, और मीरा स्त्री हैं, और हिन्दू हैं, और मीरा फ़रीद से बहुत बाद की हैं, लेकिन मीरा की बात सुनो और फ़रीद की बात सुनो, और तुम्हें कोई अंतर दिखाई ही नहीं देगा। अब या तो ये बोल दो कि मीरा ने फ़रीद की नक़ल करी थी, अब ऐसा तो हुआ नहीं। तो कैसे ऐसा हो गया? ये चमत्कार कैसे हो रहा है कि दो लोग, जिनमें कोई समानता नहीं, जो सैकड़ों मील, हज़ारों साल दूर हैं, वो एक ही बात कह रहे हैं, ऐसा हो कैसे रहा है? इसीलिए हो रहा है क्योंकि बात है ही एक, तो दो करें कैसे? जिनको दो दिखाई देता है, उनकी आँखे ख़राब हैं।

वहाँ से बुद्ध बोल रहे हैं, इधर नानक बोल रहे हैं, और बात एक बोल रहे हैं, अरे! कैसे हो गया? हो कैसे गया ये? उधर रूमी बैठे हैं, इधर कबीर बैठे हैं, और वो आपस में कभी मिले नहीं, और शब्दशः एक ही बात कह रहे हैं। कोई एक कॉमन (समान) किताब नहीं जो दोनों ने पढ़ी होगी, कि तुम कहो कि, "देखिए, उन्होंने (रूमी ने) भी वही किताब पढ़ी थी, इन्होनें (कबीर ने) भी वही किताब पढ़ी थी, इसीलिए दोनों एक ही बात कह रहे हैं।" ये अचम्भे से बड़ा अचम्भा है कि दोनों, एक ही बात कैसे कह रहे हैं; इसका अर्थ समझो, कि बात है ही एक, इसीलिए जिसने भी जाना, एक ही को जाना, और ये सब जब बातें कही गईं तब तो आपस में, विचारों के आदान-प्रदान के साधन भी बहुत कम थे। बहुत कम थे। तो एक की बात दूसरे तक पहुँच गई हो, इसकी संभावना थोड़ी कम ही है। किसी की बात किसी तक नहीं पहुँच रही, हर कोई अपने तक पहुँच रहा है। तुम्हारी जिंदगी में भी यही होगा। जब अपने तक पहुँचोगे, जब दिमाग थोड़ा साफ़ कर के जिंदगी को देखोगे, तो बड़ा मज़ा आएगा।

तुम लोग जवान लोग हो, अपने आप को मॉडर्न बोलते हो, और आज कल जो मॉडर्न लोग हैं उनमें थोड़ा फैशन नहीं है अपने आप को धार्मिक बोलने का, बड़ी पुरानी सी बात लगती है, "उफ्फ... दकियानूसी, कट्टर आदमी होगा!" पर मैं तुमसे कह रहा हूँ, धार्मिक हुए बिना, ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं है। मैंने कहा था न, दो ही तरह के लोग होते हैं, एक वो जो धार्मिक हैं, और दूसरे जो धार्मिक नहीं हैं। अब कह रहा हूँ, दो ही तरह के लोग हैं, एक वो, जिन्होंने जीवन जीया है, दूसरे वो, जो बस यूँ ही साँसें ले रहे हैं।

‘धर्म’ का अर्थ है कि मैं वास्तव में हूँ। ये गोरखधंधा मुझे समझ में आता है। मैं इसका शिकार नहीं हो गया हूँ। मैं तनाव में नहीं जीता हूँ। धर्म का अर्थ ये नहीं है कि मैं कुछ नियम कायदों का पालन करता हूँ। धर्म का अर्थ एक प्रकार का आचरण नहीं होता।

‘धर्म’ का अर्थ होता है- ‘बोध’, ‘धर्म’ का अर्थ होता है- ‘प्रेम’, ‘धर्म’ का अर्थ होता है- हल्का, तनावमुक्त जीवन।

अब तुममें से जिसको तनाव चाहिए हो, वो कह दे कि, "मुझे धर्म नहीं चाहिए" और ये होकर रहेगा, जहाँ धर्म नहीं है, वहाँ तनाव आकर रहेगा। सब युवा लोग हो, तुममें से जो लोग तैयार हो कि, "नहीं, हमें जीवन में प्रेम चाहिए ही नहीं", वो कह दें कि, "नहीं धर्म नहीं चाहिए", क्योंकि धर्म के अतिरिक्त प्रेम कहाँ से मिलेगा तुम्हें, मिलेगा कहाँ?

तुममें से जिन लोगों को बंदिशों में, जंजीरों में बँधे रहना पसंद हो, वो कह दो कि नहीं, धार्मिक नहीं होना है। बाकियों को तो पूर्णतया धार्मिक होना ही पड़ेगा, लेकिन मेरी बात को गलत मत समझ लेना, मैं दोहरा रहा हूँ, धर्म का अर्थ आचरण नहीं है। धर्म का अर्थ ये नहीं है कि तुम तिलक लगाते हो, या तुम टोपी पहनते हो, उसको धर्म मत समझ लेना। मैं किसी और चीज़ की बात कर रहा हूँ।

धर्म का अर्थ ये बिलकुल भी नहीं है कि तुम सिंदूर लगाओगी या तुम बुरका पहनोगी, वो सब कहीं से धर्म नहीं है। बड़ी छोटी और बेकार की बातें हैं, जिनको छोड़ ही देना चाहिए। मैं किसको धर्म कह रहा हूँ, बात समझ में आ रही है? मैं किसको धर्म कह रहा हूँ?

प्रश्नकर्ता: समाज को।

आचार्य: हाँ, जब मैं कहा रहा हूँ 'धर्म', मैंने कहा न, जीवन को देख कर ही सारे… क्या तुम्हें जीवन का कुछ पता है? क्या तुम ज़िंदगी को समझते हो? क्या तुमने जाना कि जन्म क्या है? क्या मौत तुम्हें डराती है? धर्म है इन सवालों के करीब आना। क्या तुम मन को समझते हो?

धर्म है ये जानना। हाँ?

अब उसके बाद तुम व्रत-उपवास, रोज़ा-रमज़ान रखते हो कि नहीं रखते हो, वो तुम्हारी तबियत पर है। रखना है तो रखो, नहीं रखना तो नहीं रखो, उनका धर्म से वास्तव में कोई सम्बन्ध है नहीं। ये तो यूँही, रस्मों-रवायत हैं। पालन कर लो ठीक, नहीं करा तो भी कोई बड़ी बात नहीं हो गई। वास्तविक धर्म जो है उसके करीब आओ।

पता नहीं, कह तो रहा हूँ, तुम्हें कितना मिल रहा है। देखो ये आखिरी बात है जो तुमसे कही जा सकती है, आखिरी और ऊँची-से-ऊँची, और मुझे पता है कि ये बात मैं बच्चों से नहीं कर रहा हूँ। आज शुरू हुआ था तभी कहा था कि तुम सब बड़े हो। बड़े हो, इसी कारण बड़ों वाली बातें कर रहा हूँ। साथ हो?

प्र: हाँ, सर।

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