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लेख
सारा संसार कहाँ से आया? कहाँ को जा रहा है? || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
21 मिनट
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आचार्य प्रशांत: हम एक भूत, माने एक पदार्थ की उत्पत्ति का कारण सदा दूसरे पदार्थ को मानते हैं और बात निपटा देते हैं। भूत माने मैटेरियल , भौतिक पदार्थ। जब आप एक भूत की उत्पत्ति का कारण दूसरे भूत को मानते हो और दूसरे की उत्पत्ति की वजह तीसरे को मानते हो, तो इसी को कहते हैं भौतिकता या मैटेरियलिस्म। आप कहते हो ये जो सब कुछ है अपने आप से ही आया है। एक चीज़ कहाँ से आई है? दूसरी चीज़ से। तो दुनिया में जो कुछ भी है वो कहाँ से आया है? दुनिया के भीतर की ही किसी चीज़ से आया है।

ये ही नियम हम अपने ऊपर भी फिर लागू करते हैं। 'मैं कहाँ से आया हूँ? मैं अपने माँ-बाप से आया हूँ'। बात ख़त्म हो गई। इससे आगे की जिज्ञासा करने के लिए जो मानसिक ऊर्जा चाहिए और जो छटपटाती हुई ईमानदारी चाहिए, वो हम कभी दिखाते नहीं। हम सस्ते जवाब से संतुष्ट हो जाते हैं और सस्ता जवाब हमारा ये ही होता है दुनिया की कोई भी चीज़ दुनिया से ही आई है। तो पूरी दुनिया ही कहाँ से आई, ये हम नहीं पूछते कभी फिर।

'मैं अपने माँ-बाप से आया हूँ, वो अपने माँ-बाप से आए हैं'। सबका बाप कौन है? पहला वाला कहाँ से आ गया? ये हम कभी नहीं पूछते। बहुत अगर हम बौद्धिक चपलता दिखाते हैं तो इतना कह जाते हैं कि, "नहीं साहब, हम पहले बन्दर थे, बन्दर पहले ये था, फिर वो ये था, फिर वो ये था, और सबसे पहले एक प्राणी आया था मात्र एक कोशिका का।" वो एक कोशिका कहाँ से आ गई? "वो पानी से आई थी, पानी से।" पानी में कहाँ से आ गई? "वो पानी में तमाम तरह के केमिकल्स थे, पॉलीमर्स थे वो इकट्ठा हो गए। फिर उन पर सूरज की धूप पड़ती रही। तो वो जो मिक्सचर था जो बहुत ही डैंस (सघन) हो गया और फिर उसमें प्राण आ गए।"

नहीं, यहाँ तक तो ठीक था कि एक, जिसको हम बोलते हैं प्राइमॉरडिअल सूप , वो कहीं पर तैयार हो गया, उसमें भाँति-भाँति के मिनरल्स और पॉलीमर्स इकट्ठा हो गए। फिर उस पर धूप पड़ रही है और ये सब हो रहा है तो भीतर कैटालिसिस वगैरह कुछ रिएक्शन शुरू हो गया। कॉन्शियसनेस कहाँ से आ गई, चेतना कहाँ से आ गई? ये हम कभी पूछते ही नहीं। चूँकि हम ये नहीं पूछते तो हमें सुविधा रहती है हम अपने आप को पूरी तरह शरीर मानें और अपने माँ-बाप को ही अपना जन्मदाता मान लें। उसके पीछे हम कभी जाएँगे ही नहीं। मैं कहाँ से आया? मम्मी-पापा से आया। चिज्जू कहाँ से आई? दुकान से आई। ख़त्म, कुछ पूछना ही नहीं है आगे।

वो भूत जो कारण भूत है सब भूतों का उसको परमात्मा कहते हैं। और वो कोई साधारण भूत नहीं हो सकता क्योंकि साधारण होता तो उसके पीछे भी कोई होता उसकी उत्पत्ति का कारक। तो वो अंतिम है और वो प्रथम है। वो ऐसा है जिससे सब कुछ है पर वो किसी से नहीं है। और उसका होना आवश्यक है क्योंकि अगर वो नहीं है तो हम नहीं हो सकते। हम हैं तो वो होगा ज़रूर।

बहुत ख़ूबसूरत सी वो ग़ज़ल है, "हर साँस ये कहती है, हम हैं तो ख़ुदा भी है।" "हर ज़र्रा चमकता है नूर-ए-इलाही से, और हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है।" सबूत क्या है कि वो है? तुम तो हो। वो नहीं है तो तुम कहाँ से टपके? तुम अपने बारे में ही कुछ बता दो।

तो तुम्हें विश्वास नहीं करना है। हम सोचते हैं अध्यात्म का अर्थ विश्वास है शायद, कुछ बातें माननी पड़ेंगी, कुछ बिलीफ्स (मान्यताएँ) होने चाहिए। नहीं, नहीं, नहीं। अध्यात्म का काम हमें कुछ बिलीफ्स देना या मान्यताएँ देना नहीं है, उसका काम हमारी मान्यताएँ खंडित करना है। वो हमसे कहता है कि वो सवाल भी पूछो जो तुम आमतौर पर पूछते ही नहीं। हमारे सस्ते सवाल, सस्ते जवाब चलते हैं।

अध्यात्म कहता है आगे बढ़ो, और गहरे सवाल तो पूछो। जब और आगे बढ़ते हो तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ है जो भौतिक नहीं है, और चूँकि वो भौतिक नहीं है इसीलिए वो मानसिक नहीं है, इसीलिए उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता। वो सबसे बड़ा है, सबसे आवश्यक है, सबसे पहला है लेकिन हमारी पहुँच से बाहर का है। अगर उसके बारे में हमने सोच लिया तो वो छोटी चीज़ ही हो जाएगा इस दुनिया की।

और चूँकि सब रूप, रंग, गुण उससे आते हैं, इसका मतलब है जिन भी चीज़ों में रूप, रंग, गुण हैं वो किसी और से आते हैं। समझो, सब रूप, रंग, गुण उससे आते हैं और हर चीज़ में रूप, रंग, गुण होते हैं, और जिस भी चीज़ में रूप, रंग, गुण हैं वो चीज़ किसी और चीज़ से आई होती है। और वो अगर किसी चीज़ से नहीं आया है तो उसका ना रूप हो सकता है, ना रंग हो सकता है, ना गुण हो सकता है। अगर उसमें भी रूप, रंग, गुण, नाम इत्यादि हैं तो फ़िर वो भी किसी और से आया होगा। फिर तो बात बनी नहीं। तो उसको तो निर्गुण, निराकार इत्यादि होना पड़ेगा। होना ही पड़ेगा नहीं तो फँस गए क्योंकि अगर वो नहीं है तो हम भी नहीं हैं। पर हम तो कह रहे हैं हम हैं। हम हैं तो फिर उसे होना पड़ेगा।

इसलिए नहीं कि उसने हमें बनाया है। यहाँ पर रचनाकार वगैरह की बात नहीं हो रही है, गॉड मेड मैन इत्यादि। ना। उपनिषद् उससे बहुत आगे की बात कर रहे हैं। वो सब बातें उपनिषदिक जिज्ञासा के आगे बच्चों से सवाल लगती हैं। यहाँ नहीं कहा जा रहा है कि कोई ईश्वर बैठा है जिसने निर्माण किया है पृथ्वी का और मानव का इत्यादि, इत्यादि। ना, ना, ना। बहुत दूसरी बात है ये। यहाँ तो अतीत को भी नाकारा जा रहा है। कोई अतीत नहीं है।

जब आप कहते हो गॉड मेड मैन (ईश्वर ने इंसान को बनाया) तो आप कहते हो इतने साल पहले कभी करा था, आठ-हज़ार साल पहले, अस्सी-हज़ार साल पहले, आठ-अरब साल पहले, कभी करा था। वेंदात तो समय को ही भ्रम कह देता है, तो अतीत में कैसे कह देगा कि किसी रचनाकार ने रचना की दुनिया की? कोई अतीत है ही नहीं, जो है यही है। तो रचना भी कब हो रही है? अभी हो रही है, पहले नहीं हुई थी। पहले की बातें हमारी कहानी हैं। कहानियाँ बच्चों को अच्छी लगती हैं, सुनते रहो बिग-बैंग इत्यादि। पर जो असली बात है वो अभी है, जो हो रहा है वो अभी हो रहा है।

समझ में आ रही है बात? कैसे समझ में आ गई? इतनी हल्की है कि समझ में आ जाएगी?

उपनिषदों के अनुसार ये जो कुछ है ये आपके मन का विस्तार है। और मन जिस बिंदु पर जाकर के मिट जाता है उसी को परमात्मा, या परब्रह्म, या ब्रह्म, या सत्य, या आत्मा कहते हैं। जिस बिंदु पर मन जाकर मिट जाता है वो वही बिंदु है जहाँ से मन की शुरुआत है। जहाँ से आए हो वहीं जाना है। यहाँ बीच में यात्रा में बैठे हुए हो इसीलिए तमाम तरह की बेचैनियाँ हैं। यात्रा ही जैसे मनगढ़ंत हो। कुछ ऐसा कर रहे हो जो असली नहीं है तभी तो बेचैन हो। उस यात्रा का नाम समय और संसार है।

तो वास्तव में क्या कोई यात्रा है भी? नहीं है। पर हम तो यही मानते हैं कि हम यात्री हैं। हमारी पहचान ही ये ही है कि हम यात्री हैं। यात्री वो जो कभी एक जगह, कभी दूसरी जगह। हमारा भी तो वही हाल है। तो हम ये ही मानते हैं हम यात्री है, हमारा पूरा वजूद ही यात्रा से जुड़ा हुआ है। ये यात्रा आपको करनी भी है और यही यात्रा आपका कष्ट भी है। तो उपनिषद् सिखाते हैं किस तरीके से इस यात्रा को बोधपूर्वक करा जा सकता है।

या तो हम ऐसे हों जो जान ही लें कि कोई यात्रा है ही नहीं, ओर ऐसे हम हैं नहीं। हमारी नज़रों में तो यात्रा है, समय है, संसार है, इधर जाना है, उधर जाना, अतीत है, भविष्य है, ये सब यात्रा की बातें हैं।

चूँकि हम नहीं मान पाते कि यात्रा भ्रम मात्र है तो फिर अगला विकल्प ये होता है कि यात्रा करना सीखो। उपनिषद् हमें अनुशासन देते हैं, मर्यादा देते हैं, विधि देते हैं, ज़मीनी तौर पर कहूँ तो तमीज़ देते हैं इस यात्रा को करने की, कैसे जीएँ। और कैसे जीएँ, ये जानने के लिए वो हमें बार-बार इस सवाल पर ले जाते हैं कि जीने वाला कौन है। कौन है जिसको तुम जीव मानते हो? तुम्हारी हस्ती के केंद्र पर कौन बैठा है? तुम्हारी आँखों से कौन झाँकता है भीतर से? सारे दुःख-सुख किसको हैं? कौन अपने आप को अमीर, गरीब, बच्चा या बड़ा, आदमी या औरत बोलता है? कौन है?

आपकी खाल जल गई हो और आपको मरहम दिया गया हो कि लगा लीजिएगा, और आप उसको समोसे में लगा कर खाना शुरू कर दें तो क्या मिलेगा? बदहज़मी मिलेगी और क्या मिलेगा। हम ऐसे ही हैं। किस दवा का उपयोग कैसे करना है हमको पता नहीं।

श्लोकों का उपयोग करना आना चाहिए, और उपयोग करने के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी है कि ये बोला क्यों होगा। क्या देखा उन्होंने जो उन्हें ये बोलना पड़ गया? क्योंकि पक्का समझिए ऋषियों को फालतू बातचीत में बिलकुल रुचि नहीं, और ना उनको इसमें बड़ा गौरव है कि वो किसी के गुरु कहलाएँ। वो तो अपने में निमग्न लोग हैं, आतंरिक मस्ती है। बहुत निजी आनंद है। उनको कुछ नहीं पड़ी है कि पाँच-सात लोगों को इकट्ठा करके उनको श्लोक बताएँ एक-एक करके।

ये तो खोजी हैं जो आए हैं गुरुओं के पास और तब के गुरु बहुत लम्बी चौड़ी भीड़ भी नहीं लगाते थे। ऐसे ही अपना पेड़ के नीचे बैठ गए, कुटिया के आगे बैठ गए, और फिर जितने लोग उतने में आ सकते हैं आ गए, दस-बीस बस। माइक तो था नहीं, तो ख़ुद ही सोच लीजिए कितने लोगों तक आवाज़ पहुँच सकती है। मुझे नहीं लगता कि बीस लोगों से ज़्यादा बैठे भी जा सकते हैं। कई बार शायद दो रहते हों, कभी एक। तो वो बोलते ही सिर्फ इसलिए थे क्योंकि लोगों ने जिज्ञासा करी। आप ना करिए जिज्ञासा, उन्हें नहीं बोलना है। ये कोई मत थोड़े ही है कि उन्हें प्रचार करना है। ये कोई विचारधारा, आइडियोलॉजी इत्यादि थोड़े ही है कि इसे प्रोपोगैंडा की ज़रूरत पड़े। ये कोई ' इज़्म ' नहीं है, ये ट्रीटमेंट है, उपचार।

जो कुछ भी चल रहा है उसके पीछे वो है क्योंकि जो कुछ भी चल रहा है उसके पास अपना कोई आधार नहीं है चलने के लिए। ऐसा बिलकुल हो सकता है कि कोई गियर असेंबली हो। गियर असेंबली समझते हैं? एक गियर है और उसके दाँत जुड़े हुए हैं एक दूसरे गियर से। और आप क्या देख पा रहे हो ऊपर से? जो सबसे आखिरी गियर है। तो आपको लग रहा है इस गियर को ड्राइव कहाँ से आ रही है? इस गियर को क्या घुमाता है? इसके पीछे वाला गियर , तो आपको लग रहा है कि इसको ऊर्जा या ड्राइव मिल रही है इसके पीछे वाले गियर से। ऐसा आपको क्यों लग रहा है? क्योंकि आप देख ही पा रहे हो बस इन दोनों को। आपने देखा चुन्नू और चुन्नू की मम्मी को। चुन्नू घूम रहा है, मम्मी घुमा रही है और आँखें इसके आगे देख ही नहीं पाईं।

और प्रकृति है एक विशाल तंत्र, कोलोसल सिस्टम। इसके पीछे ये, इसके पीछे ये है और एक गियर घुमाने वाले कई गियर भी हो सकते हैं। उनको देख कर ऐसा ही लगेगा कि इसकी ड्राइव का आपको विश्लेषण करना है तो आप कहोगे, "इसको इससे मिल रही है, इससे मिल रही है, ऐसे-ऐसे हो रहा है।" ये पूछना ही भूल गए कि इस पूरे तंत्र को ऊर्जा देने वाला कौन है? वो कहाँ से आ रहा है? किसके लिए है ये सब कुछ? किसके द्वारा है ये सबकुछ? उपनिषद् कहते हैं जिसके लिए है उसी के द्वारा है। ये सारी गति कहीं तक पहुँचना चाहती है, और जिस तक पहुँचना चाहती है उसी से आ रही है।

तुम्हारी एक-एक धड़कन, जगत का एक-एक स्पंदन व्यर्थ नहीं है, उसे प्रतीक्षा है। वो किसी की तरफ बढ़ रहा है, आपको पता हो चाहे ना पता हो। आप किधर को भी क़दम बढ़ा रहे हैं, आपके पास एक आस है। उसका हमें पता होता नहीं। हम सोचते हैं हम तो दुकान तक जा रहे हैं ऐसे ही शैम्पू खरीदने के लिए। मन में और गहरे जाएँ, और गहरे जाएँ तो आपको पता लगेगा कि आप किधर को भी जा रहे होते हैं, एक उम्मीद होती है कि वो मिल जाएगा। इसी को ऐसे भी कहते हैं कि उसी को तलाश रहे हैं आप शैम्पू में भी। इस बात को दत्तचित्त होकर नहीं सुनेंगे तो बहुत अजीब सी लगेगी। आप कहेंगे, " शैम्पू तो शैम्पू होता है, उसमें परमात्मा कौन खोज रहा है?" खोज तो रहे हैं।

ये सारा जगत किसके लिए है? वो जिसको इसका अनुभव होता है। और ये बात देखिए कितनी प्रत्यक्ष है और कितनी सहज है। पर हम देखते नहीं, मानते नहीं। ये पूरी दुनिया किसके लिए है? जो कह रहा है कि दुनिया है। कौन कह रहा है कि दुनिया है? वो जिसे दुनिया से कुछ चाहिए। तो दुनिया का मौजूद होना और आपका दुनिया से आग्रही होना बिलकुल एक चीज़ है, साथ-साथ है।

हम दुनिया में कुछ खोज रहे हैं। खोज में बुराई नहीं है। अगर आपको लगता ही है कि आपने खो दिया है तो खोजेंगे भी। ग़लत जगह खोजने में भूल है। अगर एकदम ही मुँहमाँगा हो जाए कुछ तो हमें ऐसा लगना चाहिए कि हमने कुछ खोया ही नहीं, कि हम यात्री हैं ही नहीं, कि हम घर से कभी निकले ही नहीं। घर में ही हैं, विश्राम में ही हैं।

पर अगर निकल भी पड़े हैं यात्रा पर, अगर ये लग भी गया है कि कुछ खो दिया है, तो कम-से-कम ग़लत रास्ते तो मत लो। ग़लत रास्ता कौनसा? जो आपको घर की तरफ नहीं लाएगा बल्कि घर से और दूर ले जाएगा। ग़लत खोज कौन सी? जो आपको वहाँ नहीं ले जाएगी जहाँ चीज़ मिल सकती है, बल्कि जहाँ मिल सकती है उसके विपरीत कहीं ले जाएगी। ज़्यादातर हमारा ये ही काम है। खोजी सब हैं और खोज का प्रमाण है कामना। जो कोई कुछ भी माँग रहा है, जिसकी कोई भी इच्छा है, गहराई में वो इच्छा आख़िरी और परम तत्व की ही है। और इसका प्रमाण ये है कि कोई भी इच्छा आपको पूरी नहीं पड़ती।

रूपए को ही ले लीजिए। आपसे कहा जाए आप एक संख्या लिख दीजिए कि इतना आपको दे दें रुपया तो आप संतुष्ट हो जाएँगे। आप संख्या लिख देंगे। वो पूरा पड़ेगा? जितना भी दिया गया आपको वो पूरा पड़ेगा? जो कुछ भी आपने लिखा है उसमें एक शून्य बढ़ाया जा सकता है न, और अगर बढ़ने की उसकी सम्भावना है तो आप मना नहीं कर पाएँगे। और फिर कितने शून्य बढ़ाए जा सकते हैं? अनंत।

तो वही हमारी इच्छा है, अनंत की। अनंत की इच्छा है हमारी। दिक़्क़त बस ये है कि हम अनंत को पाना चाहते हैं सांत के माध्यम से, जैसे हमें अनंतता तक पहुँचना हों एक के आगे कई शून्य लगा-लगा कर। तुम कितने भी शून्य लगा लो, कभी अनंत कर पाओगे इस संख्या को? तुम जितना भी लिखोगे उसका परिमाण होगा, उसकी एक सीमा होगी, उस सीमा से आगे वो नहीं होगा। आपने जो बड़ी-से-बड़ी भी संख्या लिख दी उसमें एक जोड़ा जा सकता है, और एक-एक जोड़ते ही आप फिर बेचैन।

तो अनंत हम सबको चाहिए, लेकिन हम अनंत को तलाश रहे हैं संख्याओं के माध्यम से, उन चीज़ों के माध्यम से जिनको संख्या में अभिव्यक्त किया सकता है। हम वो सब माँग रहे हैं जो संख्याबद्ध है, माने भौतिक है, माने प्राकृतिक है। वेदांत में जब प्रकृति बोला जाए तो उसका अर्थ जंगल, पेड़-पौधे, पहाड़ नहीं है। प्रकृति माने वो सब कुछ जो आपको दिखाई देता है। समस्त भूत, समस्त गतिविधि, समय, संसार, पदार्थ जहाँ है उसे प्रकृति कहते हैं। हम, आप सब प्रकृति हैं, ये रूमाल प्रकृति है, ये कैमरा प्रकृति है।

प्र१: अभी हमने श्लोक में जो बात की उससे मुझे ये समझ में आया परमात्मा से जो शुरू होता है वही जाकर परमात्मा में ही ख़त्म हो रहा है। तो क्या ये एक चक्र है, इसका कोई अतीत नहीं है और भविष्य नहीं है? ये मेरा पहला प्रश्न है। दूसरा प्रश्न है कि आपने कहा कि परमात्मा ही हम में से झाँक रहा है…

आचार्य: मैंने कहा कोई झाँक रहा है, मैंने परमात्मा नहीं कहा झाँक रहा है। परमात्मा क्या देखेगा झाँक करके? वो ही अंदर है, वो ही बाहर है वो किसको झाँकेगा? मैंने कहा पता करो कौन है जो आँखों के पीछे से झाँकता है। तुमने बहुत जल्दी पता कर किया कि परमात्मा है।

प्र१: आज अष्टावक्र गीता में आपने खोज की बात की कि हम कुछ खोज रहे हैं, उसे खोज रहे हैं। आज जो रीडिंग मैटेरियल मिला था उसको पढ़ते वक़्त ये पता चला कि जिसे हम खोज रहे हैं वो हमने पाया हुआ है।

आचार्य: जो कह रहे हैं कि जिसे तुम खोज रहे हो उसे तुमने पाया हुआ है, वो उन्होंने पाया हुआ है। जो पढ़ रहा है कि जिसे हम खोज रहे हैं उसे हमने पाया हुआ है उसने कुछ नहीं पाया हुआ। अष्टावक्र ने पाया हुआ है, आपने नहीं पाया हुआ। अष्टावक्र को ये कहने का हक़ है कि जिसे तुम खोज रहे हो उसे तुमने पाया ही हुआ है क्योंकि वो अष्टावक्र हैं, उन्होंने पाया हुआ है। वो खोज नहीं रहे कुछ, हम तो खोज रहे हैं। तो उनकी बात पर अपना नाम लिख देना ईमानदारी नहीं है।

और जो भीतर से झाँक रहा है न, उसे मन कहते हैं, उसे अहम् कहते हैं, परमात्मा नहीं। उसे अधिक-से-अधिक जीवात्मा कह सकते हो। वो खोज रहा है, वो बेचैन है।

पहला क्या था सवाल? हाँ, कि चक्र है क्या ये पूरा। हाँ, चक्र है। उसी में तो यात्रा है, चक्रीय यात्रा। और उस यात्रा के अंत में ये ही है कि ये चक्र था ही नहीं, बेकार ही घूमते रहे। तो जितना ज़्यादा तुम उसमें घूम रहे हो, उतना ज़्यादा तुम अपने लिए बस समय का निर्माण कर रहे हो, उतना ज़्यादा तुम अपने अंत को या अपनी मुक्ति को विलम्बित कर रहे हो।

वास्तव में जो सिद्धांत है वो ये है कि एक तत्व के अलावा दूसरी कोई चीज़ है नहीं। एक ही तत्व है, उसके अतिरिक्त कुछ है नहीं, है ही नहीं। तो उस तत्व से निकल करके ये पूरा चक्र कहाँ से आ गया? ये चक्र है ही नहीं इसका मतलब। पर हमें लगता है कि है, तभी तो हम हैं नहीं। हम भी नहीं हैं। हम भी नहीं है और इसीलिए हम तकलीफ़ में हैं क्योंकि जो नहीं है उसको माने बैठे हैं कि है।

प्र१: मान्यता हटाना ही खोज करना है?

आचार्य: ये पता करना कि ये मान्यता चीज़ क्या है। हटती तो फिर वो अपने आप है। आप उसे जबरन नहीं हटा सकते। आपको अगर लग ही रहा है कि आप हैं तो कोई कैसे यक़ीन दिला देगा कि आप नहीं हैं? तो पहले पता करना पड़ेगा मैं जिसको 'मैं' बोलता हूँ ये चीज़ क्या है। मेरे भी एक हाथ है, पड़ोसी के भी हाथ है। मेरे भी पाँच उँगलियाँ हैं, पड़ोसी के पाँच ही उँगलियाँ हैं। मैं जैसा हूँ, यूरोप वाला, अफ्रीका वाला निन्यानवे-प्रतिशत वैसा ही है। सब कुछ हमारी ज़िन्दगियों में साझा ही है। डर मुझे भी लगता है, उसको भी लगता है। पैसा मुझे भी चाहिए, उसको भी चाहिए। 'मैं' हूँ?

मैं का मतलब तो होता है इंडिविजुअल , 'मैं' का मतलब होता है वो जो दूसरे जैसा नहीं है। तभी तो कहते हो न 'मैं', (अन्य श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) आप, आप, आप, आप। इससे आशय क्या होता है? विविधता, डिफरेंसेस। पर यहाँ तो जो खेल है उसमें तो पता चल रहा है कि ऊपर-ऊपर विविधताएँ हैं, अंदर-अंदर मामला बिलकुल एक है। जैसे कि एक ही कार के कई मॉडल। रंग अलग-अलग हैं, भीतर कुछ छोटी-मोटी चीज़ें बदल दी हैं। सोलह इंच का टायर, सत्रह इंच का टायर, तो कोई साढ़े-पाँच फ़ीट का है तो कोई छः फ़ीट का है। मामला तो अंदर बिलकुल एक सा ही लग रहा है। मैं हूँ कहाँ?

तो अपने होने की जितनी तुम जाँच-पड़ताल करते हो, उतना ज़्यादा जो विश्वास होता है अपनी हस्ती में वो हटता जाता है। अपनी हस्ती में जब विश्वास हटता जाता है तो अपनी हस्ती से सम्बंधित जो हम मूर्खताएँ कर रहे थे, उन मूर्खताओं में हमारी जो ऊर्जा जा रही थी, वो लगनी बंद हो जाती है। हमारी हस्ती चूँकि है नहीं तो उसको बनाए रखने के लिए हमें बड़ी जान, बड़ी ऊर्जा लगानी पड़ती है।

पूरी ज़िन्दगी ही इसी में चली जाती है कि आपने रेत की एक चीज़ खड़ी कर दी है, अब वो कभी इधर से गिरती है कभी उधर से गिरती है। तो आप ज़िन्दगी भर कर क्या रहे हो? कभी इधर से उसको बचा रहे हो, सहारा दे रहे हो। जब तक इधर से सहारा देते हो तब तक वो उधर से लुढ़क जाती है, फिर उधर जाते हो तो इधर से। और महल बनाना है बहुत बड़ा, और जितना बड़ा महल होगा उतना ढुलकेगा। ये समझना कि ये ढुलक जाता क्यों है यही आत्मज्ञान, आत्मजिज्ञासा है। तुम एक ऐसी चीज़ के साथ जुड़ रहे हो जो नकली है और इस चक्कर में जो असली है उस तक जाने की सम्भावना बीती जा रही है।

सिर्फ़ नकली हटेगा ऐसा नहीं होता है। नकली के हटने के साथ ही वो मिलना शुरू हो जाता है जिसमें बड़ी तृप्ति है, बहुत मौज है, ज़बरदस्त आनंद। लेकिन वो तो तब आए न जब पिंड छूटे पहले नकली, फ़ालतू चीज़ों से।

प्र२: ये व्यक्तिगत जो अहंकार है, ये भी उसी में से आया है, जो सत्य है उसमें से आया है। तो क्यों आया?

आचार्य: किसके लिए आया? सबसे पहले ये पूछते हैं, किसके लिए आया। किसको अनुभव हो रहा है अहंकार का, सत्य को? तुमको हो रहा है न? तो जिसको अनुभव हो रहा है उसी की करतूत है, और उसी के पास ये विकल्प है कि ये अनुभव होना उसे बंद हो जाए।

अहंकार आया तो तुम ऐसे बोल रहे हो जैसे कि कोई ऑब्जेक्टिव घटना है। ये पहली चीज़ समझो कि वस्तुनिष्ठ, ऑब्जेक्टिव यहाँ कुछ नहीं है। (रुमाल उठाते हुए) इसका अपना कोई निजी या स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, इसका अस्तित्व उन आँखों से बंधा हुआ है जो इसको देख रही हैं, वो मन जो इसका अनुभव कर रहा है। तो तुम अहंकार की बात कर रहे हो तो अहंकार कोई ये थोड़े है कि अहंकार कहाँ से आया। (रिकॉर्डर उठाते हुए) ये कहाँ से आया? जो अहंकार का अनुभव कर रहा हो उसी से आया। तुम अहंकार की बात कर रहे हो तो तुमसे आया।

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