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साहब, नज़र रखना

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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साहब, नज़र रखना

साहब नज़र रखना, मौला नज़र रखना तेरा करम सबको मिले, सबकी फ़िक्र रखना न आदमी की आदमी झेले गुलामियाँ, न आदमी से आदमी मांगे सलामियाँ जो फ़र्क पैदा हो रहे, वो फ़र्क गर्क हों सबको बराबर बाँट, ये धरती ये आसमान कोई भी न हो दर्द में, सबकी ख़बर रखना

प्रश्न: सर, कृपया इस गाने का अर्थ बताईये।

उत्तर: भास्कर,

हमें लगातार लगता रहता है कि हमारे करे हो रहा है। हम खुद को डूअर – कर्ता – माने रहते हैं.ध्यान से देखें तो मन की दो स्थितियां हैं:

१. यांत्रिक- कंडीशन्ड। इस स्थिति में निश्चित रूप से हम कुछ नहीं कर रहे। जो कर रही है, हमारी प्रोग्रामिंग कर रही है.

२. बोधयुक्त – इंटेलिजेंट। इस स्थिति में भी हम कुछ नहीं कर रहे। जो हो रहा है, वो स्वतः हो रहा है।

इसलिए, समझने वालों ने कहा है कि हम कुछ नहीं करते, करने वाला कोई और है। चूंकि उसके होने से सब है, उसके करने से सारे कर्म हैँ, इसलिये उसे साहब कहा जाता है.

तुम्हारे गीत में साहब शब्द का प्रयोग बार-बार हुआ है। अब समझ रहे होगे।

साहब तेरी साहबी, सब घट रही समाय ज्यों मेहँदी के पात्र में, लाली लखी न जाय ~ कबीर साहब

साहब, तू हर जगह इतना मौज़ूद है कि तुझे देख पाना ही मुश्किल है। जैसे कि मेहँदी के कटोरे में बता पाना मुश्किल है कि लाल रंग कहाँ है।

या फिर:

साहब से सब होत है, बन्दे से कुछ नाहीँ राई से परबत करे, परबत राई माहीं ~ कबीर साहब

और:

ना कुछ किया न कर सका, ना करने जोग शरीर जो कुछ किया साहिब किया, ताते भया कबीर ~ कबीर साहब

फिर प्रश्न ये है, कि जब सब कुछ साहब को ही करना है, तब हमारे (अहम) के करने के लिये क्या शेष है?

हमें यही करना है कि समर्पित रहें, अहंकार को साहब के सामने रख दें, और फिर जो होता है, होने देँ। अहंकार मन पर बोझ ही होता है, एक बार उसे साहब को सौंप दिया, फिर जीवन बड़ा हल्का, बड़ा मधुर, बड़ा सहज हो जाता है।

अब आते हैं तुम्हारी दूसरी बात पर, कि दुनिया मेँ बच्चों के प्रति, असहायों के प्रति, जानवरों के प्रति, सभी के प्रति, इतनी क्रूरता क्यों है?

कारण स्पष्ट है: जब अहंकार साहब के सामने झुका नहीं होत, साहब से मिलकर गला नहीँ होता, तब तक:१. अहंकार स्वयं को ही साहब मानता रहता है, और दुनिया को अपना ग़ुलाम।२. अहंकार डरा-डरा रहता है, अपनी रक्षा के लिये चिंतित। दुनिया दुश्मन सी लगती है।

समझ ही गये होगे कि ऐसे डरे हुए चित्त से हिंसा और क्रूरता ही निकलेगी। जो खुद अभी अपनी रक्षा को लेकर आशंकित है, वो दूसरे की मदद नहीं करेगा। जिसे खुद ही अभी गरीबी सता रही है (‘मुझे और कमाना है’), वो कैसे खुले दिल से बाँट पायेगा?

अहम-वृत्ति से हिंसा निकलेगी ही निकलेगी।

-विभिन्न ई-फोरम पर मेरे प्रश्न और उत्तर सेशन पर आधारित ।

दिनांक: 6 मई, 2014

YouTube Link: https://youtu.be/0.0

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