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साधु और शराबी || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य जी और संस्था के कुछ सदस्य ऋषिकेश में मध्यरात्रि में घूमने निकले, और किसी विषय पर बातचीत कर रहे थे, तभी पास में एक मन्दिर में राम-धुन चल रही थी। राम-धुन में इतनी लयबद्धता और मधुरता थी कि संस्था के कुछ सदस्यों ने साधुओं से प्रार्थना की कि उन्हें भी अन्दर आकर राम-धुन का रसपान करने दें।

साधुओं ने अन्दर आने की अनुमति दी। जिसके बाद संस्था के सदस्यों ने राम-धुन का रसपान किया, और वापिस आकर आचार्य जी से इसी विषय पर वार्ता करते हैं—

प्रश्नकर्ता: ऋषिकेश में अभी रात के एक बज रहे हैं। यह अलग मन्दिर जिसमें तीन साधु, इन्हें कोई देख नहीं रहा है, कोई सुनने वाला नहीं है; ये मगन हैं?

आचार्य प्रशांत: साधु की जो मस्ती है, एकदम अनूठी होती है। भारत में साधु एक बहुत अद्भुत हस्ती रहा है। कैसे अद्भुत रहा है? अभी रात का एक बज रहा है, पूरी दुनिया सो रही है। है न? और ये चार-पाँच साधु न सिर्फ़ जग रहे हैं; बल्कि अपने में मगन हैं। कोई इनके पास दर्शक नहीं, श्रोता नहीं, न इनकी कोई ख़्वाहिश है कि कोई इनको देखे, कोई सुनें। ये अपने में मगन हैं।

तो साधु की जो मौज़ूदगी रही है न समाज में, वो समाज को यही बताने के लिए रही है कि तुम जिन तरीक़ों से सुख खोजते हो, समाज जिन तरीक़ों से सुख खोजता है। उन तरीक़ों के अलावा भी सुख के तरीक़े हैं। अब देखो, समाज सुख कैसे खोजेगा?

समाज सुख ऐसे खोजेगा कि पहली बात तो अगर समाज में किसी को प्रतिभा प्रदर्शन करना है तो दिन में करेगा। दिन में इसलिए करेगा ताकि दूसरे लोग मौज़ूद हों, उनसे वाह-वाही मिले, हो सकता है रूपया-पैसा मिले।

प्र: कैफ़े में भी गिटार बजाते हैं लोग।

आचार्य: कैफ़े में भी गिटार तब बजता है जब वहाँ पर ऑडियन्स (दर्शक) सामने होती है। ठीक है न? यहाँ पर राम भजन तब हो रहा है, जब कोई देखने वाला नहीं है। वैसे तो यहाँ पर चौबीस घण्टे होता है। पर यह समझो की जब कोई देखने वाला नहीं भी है, तो भी हो रहा है। और ये सुख किसी बाहरी व्यक्ति की प्रशंसा से नहीं पा रहे हैं। न किसी और ने कोई इनको पैसा दिया है गाने के लिए, उससे पा रहे हैं।

साधु की जो विशिष्टता है वो इसमें है कि उसको सुख अपने अन्दर से मिल रहा है। इस वक़्त ये राम भजन करके कैसा अनुभव कर रहे हैं। ये हमारे लिए बड़ा मुश्किल है समझना। लेकिन इनको इस वक़्त जो मिल रहा है राम भजन में, वो ऐसी चीज़ है कि जिसके लिए इन्होंने ज़माना छोड़ दिया। ज़माने की सब सहूलियतें इन्होंने छोड़ दीं, राग-रंग छोड़ दिये, जितने आमतौर पर सुख होते हैं जिसके लिए दुनिया मरती है वो सब इन्होंने छोड़ दिया। किस चीज़ के लिए? ये रात में एक बजे जो हो रहा है न, इसके लिए।

तो साधु की जो मौज़ूदगी समाज में यही बताती है समाज को कि सुख के पीछे और सुख पाने के लिए तुमने जो तरीक़े लगा रखे हैं, उनके पीछे इतने पागल मत हो जाओ, सुख अपने अन्दर भी मिल सकता है। और उसका प्रमाण कौन है? साधु।

तुमने कैफ़े की बात करी। कैफ़े में कुछ ऐसा गाया जा रहा होता है न, जो दूसरों को अच्छा लगेगा? कैफ़े में क्या गाया जा रहा होता है? जो किसी दूसरे को अच्छा लगेगा।

प्र: वह तो डिमान्ड (माँग) पर चलता है।

आचार्य: बहुत बार खेल डिमान्ड पर चलता है। डिमान्ड की जा रही है कि बर्थ डे (जन्मदिवस) सॉन्ग (गीत) लगा दीजिए, रोमांटिक सॉन्ग (रोमानी गीत) लगा दीजिए। और लगा दिया गया, वही बजा देते हैं। यहाँ क्या गाया जा रहा है? वो तुमसे पूछकर नहीं गा रहे, उन्हें कोई मतलब भी नहीं है, तुम्हें अच्छा लग रहा है या बुरा लग रहा है। वो अपने में मगन है।

तो जो असली साधु होता है, वो अनूठा होता है, और उसकी जो मौज़ूदगी ही होती है वो इतना ज़बरदस्त सन्देश दे देती है देखने वाले को कि उसकी मौज़ूदगी भर से समाज शुद्ध हो जाता है।

ऐसे ही थोड़ी कबीर साहब ने फिर बोला है कि,"कबीर दर्शन साधु के, कीजे कई-कई बार" कि बार-बार जाकर के दर्शन करो। फिर कहते हैं कि, रोज़ नहीं कर सकते तो दो दिन में एक बार करो। कहते हैं, 'दो दिन में एक बार नहीं कर सकते तो हफ़्ते में एक बार करो, नहीं तो पखवाड़े में एक बार करो, नहीं तो मास में एक बार करो, नहीं तो छः मास में एक बार करो।' और फिर कहते हैं, 'अगर तुम इतना भी तुम साधु का दर्शन नहीं कर सकते, तो बेटा तुम्हें कोई नहीं बचा सकता फिर।'

कहते हैं—

साधु दर्शन न करे, ताको लागे दोष कबीर ऐसे जीव सो, कभी न पावे मोष।।

कि जो साधु दर्शन नहीं करता, उसको दोष लगता है और उसको कभी मोक्ष नहीं मिलता, मुक्ति नहीं मिलती।

वजह वही है। ये जो साधु का दर्शन है और मैं असली साधु की बात कर रहा हूँ, नक़ली ढोंगी बाबाओं की बात नहीं कर रहा। वो अलग चीज़ है। अगर जो असली साधु को आप देख लेते हैं, तो एक झटका लगता है आपको, क्योंकि…

प्र: जैसे हमको लगा। हम जा रहे थे और हमको अचानक...।

आचार्य: हाँ, हाँ। आप कहते हैं कि मैं अपने तरीक़ों में ही धँसा रहता हूँ, मैं ये कर लूँ, मैं वो कर लूँ, मैं ये पा लूँ, वो पा लूँ, और यह सब मैं क्यों कर रहा हूँ? हैप्पीनेस (खुशी)के लिए, सुख के लिए। और इधर देखो— जिस हैप्पीनेस के लिए मैं मरा जा रहा हूँ, वो वहाँ मिली हुई है इन लोगों को। और कैसे मिली हुई है? मेरे तरीक़ों से नहीं मिली हुई है, उनके तरीक़े कुछ और हैं।

पहली बात तो ये माया को नहीं भज रहे, संसार को नहीं भज रहे। ये किसको भज रहे हैं? राम को भज रहे हैं। दूसरी बात— ये अपने में भज रहे हैं। इनको जो सुख मिल रहा है, वो किसी और पर निर्भर नहीं है। वो एक डिपेन्डेन्ट हैप्पीनेस (परनिर्भर सुख) नहीं है। और जो सुख किसी और पर निर्भर नहीं करता, वो हैप्पीनेस जो किसी और पर डिपेंड (निर्भर) नहीं करती, उसके लिए नाम दूसरा होता है, उसको जॉय (आनन्द) बोलते हैं।

तो दुनिया सुख माँगती है और वो भी नहीं पाती। साधु सुख से भी ऊँची चीज़ माँगता है। क्या? आनन्द, और वो पा भी जाता है। तो साधु की मौज़ूदगी ज़माने को झटका दे देती है और साथ ही सीख भी। झटका यह दे देती है कि तुम जैसा कर रहे हो, वो मामला गड़बड़ है, और सीख ये दे देती है कि सही तरीक़ा क्या है वो पाने का जो तुम पाना चाहते हो, बल्कि वो पाने का, जो उससे भी ऊँचा है जो तुम पाना चाहते हो।

प्र: और ये झटका और सीख मिल सके, इसीलिए साधु दर्शन करवाया जाता है?

आचार्य: इसीलिए साधु दर्शन करवाया जाता है। इसीलिए साधु दर्शन...। तुम देखोगे कि कितनी ज़्यादा बार जितने भी हमारे सन्त, कवि हुए हैं, उन्होनें साधु दर्शन की, साधुओं से मेल-जोल करने की, साधुओं के साथ थोड़ा समय बिताने की महत्ता पर जोर दिया है।

तब तुम्हें समझ में आएगा कि साधु एक क्लीनजिंग इफेक्ट (सफ़ाई प्रभाव) होता है। उसका प्रभाव तुम्हें शुद्ध करता है, इसीलिए समाज पर यह दायित्व डाला गया कि साधु जब तुम्हारे दरवाजे पर आए तो उसे भूखा मत जाने देना, जो कुछ भी दे सकते हो थोड़ा-बहुत उसे दे ज़रूर देना।

इसपर भी कबीर साहब के इतने सारे दोहे हैं न कि जब साधु सामने आए तो जो भी दे सकते हो, उसको दे ज़रूर दो। समझ में आ रही है बात?

क्यों दे दो? क्योंकि तुम तो उसे दो रोटी ही दे रहे हो, पर वो तुमको दो जहान का चैन दे जाएगा। तो साधु को कुछ देना बहुत फ़ायदे की बात है, इसीलिए भारत में यह रहा है कि हर शहर ने, हर गाँव ने, हर कस्बे ने साधुओं को इतना दे दिया है कि वो अपना शारीरिक निर्वाह कर सकें। ठीक है?

साधु पैसा तो वैसे भी कभी इकठ्ठा नहीं करता, अगर असली साधु है, बाक़ी उसको जो चाहिए दो कपड़ा, दो रोटी, वो समाज ने अपने ऊपर दायित्व लिया कि हम साधु को देगें ज़रूर। क्यों? क्योंकि हम तो उसे दो रोटी दे रहे हैं, और वो हमको मुक्ति और मस्ती दिये दे रहा है।

इनकी मस्ती देखो! मतलब अमीर से अमीर लोग, सफल से सफल लोग जान दे दें उस रस को पाने के लिए, उस मस्ती को पाने के लिए जो इन लोगों को यहाँ यूँही अनायास, यूँही सुलभ ही मिली हुई है बिलकुल।

प्र: हम लोग या सामान्य लोग जिस चीज़ के लिए खटते हैं, वो ये पाकर ये कर रहे हैं।

आचार्य: वो ये पाकर कर रहे हैं। हम जो पाना चाह रहे हैं—अभी कहा तो—हमें वो भी नहीं मिलता नॉर्मल हैप्पीनेस (सामान्य खुशी), हमें उतना भी नहीं मिलता। ये उस नॉर्मल हैप्पीनेस से भी आगे का कुछ पा चुके हैं।

तो हम छोटी चीज़ पर निशाना लगा रहे हैं और वो भी नहीं पा रहे हैं, और ये बड़ी चीज़ को बिना निशाना लगाए पा जा रहे हैं। तो इनके सामने तो जो आम संसारी है वो डबल फेलियर (दोहरा असफल) है। उसकी दूनी हार है, और ये दो तरीक़े से जीते हुए लोग हैं।

प्र: आचार्य जी, अभी कुछ देर पहले मैं गया था अन्दर तो उन्हें प्रणाम करकर आया। आप लोग थोड़ा आगे थे। पहली चीज़— जो हारमोनियम बजा रहे हैं, उन्होनें जो करी वो इतनी मेरे लिए टचिंग (करुणात्मक) थी, सो हम्बल (अति विनम्र) मेरे घुसते ही कहते हैं, 'आप भी बजाते होगें, आइए बजा लीजिए।'

आचार्य: हाँ, हाँ। तुम देख नहीं रहे हो—अब पता नहीं अब ये इन लोगों ने रिकॉर्ड किया कि नहीं किया—ये दरवाज़ा बन्द था (एक दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए)। तुमने ज़रा सा आग्रह किया, उन्होनें खोल दिया। और हम यहाँ बाहर सीढ़ियों पर बैठे हैं, और वो हमसे कह रहे हैं कि नहीं, आप अन्दर आइए, साथ बैठिए। हम नहीं जा रहे अन्दर, कि हम बातचीत करेगें तो वो लोग बेकार में बाधा मानेगें डिस्टर्ब (परेशान) हो जाएँगे।

लेकिन उनका बाँटने का भाव देखो! वो कह रहे हैं, 'हमारे पास कुछ है, हम तुम्हें भी देना चाहते हैं। आओ, अन्दर आओ, हमारे साथ बैठो।' बाँटने का भाव सिर्फ़ किसमें हो सकता है?

प्र: जिसके पास है, बहुत सारा है।

आचार्य: बहुत सारा है। तो समाज कुछ कमा ले धन-दौलत, तो भी ग़रीब रहता है, क्योंकि और चाहिए। कुछ न कमाये तब तो ग़रीब है ही, क्योंकि मिला नहीं। इनको देखो कि ये बाँटने पर उतारू हैं, बाटें ही जा रहे हैं, बाटें ही जा रहे हैं।

और तुम ये भी देखो यहाँ पर कि एक आम परफॉर्मर (प्रदर्शनकारी) होता है, आर्टिस्ट (कलाकार) होता है, उसकी ऑडियन्स (दर्शक) में कुछ खलबली होने लगे, ऊँच-नीच होने लगे, वो तुरन्त डिस्टर्ब हो जाता है। यहाँ अभी तुम गये, पहले इनको एक बार प्रणाम करकर आये, बात करकर आये। उसके बाद हम यहाँ सीढ़ियों पर बैठे हैं, हम बात कर रहे हैं। इधर ये कैमरा वगैरह लगा हुआ है, इन्हें धेले भर का फर्क़ नहीं पड़ रहा है।

ये अपने रस में लीन हैं। किस रस में? किसी बाहर के रस में नहीं, आत्मरस में, ये अपनेआप में ही डूबे हुए हैं, और इससे बड़ा सुख नहीं हो सकता कि तुम अपनेआप में ही डूबे हुए हो, और बिलकुल मौज में हो, मस्ती में हो। हम यहाँ हैं कि नहीं हैं, सच पूछो तो इन्हें दो धेले का अन्तर नहीं पड़ता इस बात से।

प्र: अभी भी आई कॉन्टैक्ट (नेत्र सम्पर्क) नहीं है।

आचार्य: कुछ नहीं, कुछ नहीं उन्हें राम दिख रहा है। उन्हें न अंशु, न प्रशांत, कोई नहीं, उन्हें राम दिख रहा है।

प्र: पूछा भी था, ‘गेट खोल दें?’ बोले, ‘हाँ, हाँ’ (हाथ से गेट खोलने का इशारा करते हुए)। मुझे लगा हम दिल्ली से आये हैं भाई तो ये बोलेगें आइए शूटिंग करिए, आइए, आइए।

कबीर साहब ने कहा है कि—

"ज्यौं-ज्यौं पग आगे धरे, कोटि यज्ञ समान। सन्त मिलन को जाइए।"

आचार्य: माने तुम जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड कर सकते हो, उससे कोटि गुना ज़्यादा माने लाखों गुना ज़्यादा महत्वपूर्ण है किसी जीवित साधु या सन्त के दर्शन कर लेना। दियर वेरी प्रजेन्स इज़ प्योरीफाइंग एण्ड ट्रान्सफॉर्मेटिव (उनकी उपस्थिति ही शुद्ध करने वाली और परिवर्तनकारी है)।

क्योंकि देखो, कॉन्सेप्ट (सिद्धान्त) तुम्हें कभी कोई चीज़ पूरे तरीक़े से साबित नहीं कर पाएगा। तुम्हें कन्सेप्टचुअली मतलब सिद्धान्त रूप में बता दी जाए तो उसे सुन लोगे, बुद्धि से सुन लोगे, इन्टेलेक्टचुअली सुन लोगे, पर पूरा भरोसा नहीं आ पाएगा।

पूरा भरोसा कब आता है? जब उसका कोई जीवित प्रमाण सामने दिखाई देता है। अध्यात्म जितनी बातें बोलता है, साधु उनका जीवित प्रमाण है। तो इसीलिए साधु की मौज़ूदगी समाज के लिए बहुत ज़रूरी होती है, बशर्ते साधु असली हो।

और इतना हमें शक्की क़िस्म का या सस्पीसियस (संदेहजनक) या सिनिकल (सबको स्वार्थ की नज़र से देखने वाला) नहीं हो जाना चाहिए कि हम सोचने लग जाएँ कि अब असली साधु, असली सन्त या असली ज्ञानी कहीं कोई बचा ही नहीं है। कम हैं, बहुत कम हैं, पर अभी भी होते हैं। आपकी नज़र अगर साफ़ है तो आपको दिखाई देगें। आपकी नज़र नहीं साफ़ है तो आप भी किसी ढोगीं के चक्कर में फँस जाएँगे।

प्र: आचार्य जी, नहीं होते हैं यह बहाना लगाकर एक बजे लोग अपने कमरे में भी तो रह सकते हैं। एक बजे आप बाहर थे तभी आपको ये मिले?

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल, बिलकुल।

प्र: आप यह बोल दो कि कोई नहीं होता सब ऐसे ही हैं। आप अपने कमरे में ही बैठे रहते।

आचार्य: रात में एक बजे तुम भी ढूँढने निकलो। जाओ किसी ऐसे मन्दिर में जहाँ पर कोई गा रहा है, बिना किसी लाभ की उम्मीद के तो तुम्हें भी मिल जाएगा असली साधु। रात में एक बजे जो गा रहा है वो इसलिए तो गा नहीं रहा है कि उसका सीधा प्रसारण बीबीसी पर होगा। इस भजन से इस राम-धुन से इन्हें किसी तरीक़े का कोई भौतिक लाभ मटेरियल बेनेफिट नहीं हो सकता।

तुमको लेकिन फिर ढूँढने निकलना पड़ेगा, तुम्हें भी रात में एक बजे जगना होगा, किसी मन्दिर के सामने खड़ा होना पड़ेगा, तो तुम्हें भी किसी असली के दर्शन होगें। वरना तुम्हें अगर वही चाहिए कि दिन में कोई फाइव स्टार (पाँच सितारा) वाला तुम्हें बाबा मिल जाए तो फिर तुम्हारी क़िस्मत।

प्र: हमारे कान भी हैं न, ऐसे ट्रेन (प्रशिक्षित) कर दिए हैं बॉलीवुड ने कि एकदम जो स्किल्ड (कुशल) और पचास इन्सट्रूमेन्ट (बाद्ययंत्र) वाले और हा, हा, हा, ही, ही ,ही करने वाले सिंगर्स (गायक) होते हैं वो अपील करते हैं। मैं ख़ुद संगीत में थोड़ी जानकारी रखता हूँ तो बहुत साधारण बजा रहे हैं लेकिन फिर भी छू रहा है।

आचार्य: और जो तुम अभी कह रहे हो बिलकुल अभी ठीक यही विचार मुझे था। बिलकुल अभी यही विचार मुझे था। न तो शब्दों का बहुत विस्तार है, हाँ, न संगीत में बहुत धार है, जो कुछ है, सरल, सहज, साधारण है, लेकिन आत्मिक है, सुन्दर है, क्योंकि असली है।

अभी ये फिसलकर गिर गये होते (आचार्य जी की नज़र एक शराबी पर पड़ी)। अब एक तरफ़ अन्दर साधुओं का संसार है, वो भी एक रस में डूबे हुएँ हैं। दूसरी तरफ़ रात के एक बजे, दो बजे सड़क पर शराबी भी घूम रहे हैं। हाँ, और वो भी किसी रस में ही डूबे हुए हैं। अन्तर बस यह है कि ये जिस रस में डूबे हैं, वो इनका होश बढ़ा दे रहा है, और ये जो शराबी घूम रहे हैं, ये जिस रस में डूबे हैं वो इनके होश को और ज़्यादा दबा दे रहा है।

तलाश दोनों की एक ही है। बस एक ने उस चीज़ को जिसे वो तलाश रहा था ज़रा बुद्धिमानी से पाने की कोशिश की है, और दूसरे ने उसी चीज़ को बहुत बेवकूफ़ी भरे तरीक़े से पाने की कोशिश की है। शान्ति इनको भी चाहिए, मुक्ति इनको भी चाहिए, आनन्द इनको भी चाहिए, साधुओं को, और ये उसको बहुत बुद्धिमानी से बल्कि बोध से पा रहे हैं; राम रस में डूबकर के।

और वही शान्ति, वही चैन एक शराबी को भी चाहिए होता है, पर वो उसको पाने की कोशिश करता है, शराब के रस में डूबकर के। नहीं पाता है, जितना ज़्यादा कोई ग़लत रस में डूबेगा, उतना ज़्यादा वो और उसी चीज़ में डूब जाएगा जिससे निकलने के लिए वो एक ग़लत रास्ता पकड़ रहा है।

प्र: और आचार्य जी, रस की माँग तो मन को है।

आचार्य: रस की माँग तो मन को है।

प्र: बिना रस के मन नहीं रह सकता। रस तो चाहिए?

आचार्य: रस तो चाहिए।

प्र: चाहे कैसा भी हो? चाहे ये, चाहे वो, कैसा भी?

आचार्य: रस तो चाहिए। रस चाहिए, आपकी ज़िंदगी कैसी बीतेगी, आपका भाग्य क्या होने वाला है, सबकुछ इसी से तय हो जाता है कि उस रस को आप तलाशते कहाँ हो। हर आदमी अपने-अपने तरीक़े से उसी रस को तलाश रहा है। ठीक है? जिसका तरीक़ा सही हुआ, उसकी ज़िंदगी सफल हुई, और उसी रस को जिसने ग़लत तरीक़े से तलाशने की कोशिश की उसकी ज़िंदगी बर्बाद हो जानी है।

प्र: बहुत सिम्बोलिक (प्रतीकात्मक) लग रहा है मुझे, दोनों ही कोण के बीच में बैठे हैं हम।

आचार्य: हाँ, हाँ, हमारे पीछे साधु हैं और हमारे सामने शराबी महोदय हैं।

प्र: चुनाव की बात है। इन्होंने राम नाम चुन लिया, उन्होनें बोतल चुन ली?

आचार्य: तो उसी चुनाव से ही तो सबकुछ तय हो जाना है। मैं हमेंशा क्या बोला करता हूँ? मैन इज एन एजेन्सी दैट चूजेस (मनुष्य एक एजेंसी है जो चुनाव करता है) आदमी को जो हक़ मिला हुआ है चुनने का, निर्णय करने का, चुनाव करने का वही आदमी का या तो निर्माण कर देगा, या आदमी को बर्बाद कर देगा। सबकुछ इसी पर निर्भर करता है कि तुमने ज़िन्दगी में चुनाव कैसे करे।

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