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रोशनी को रोशन आँखें ही देख पाती हैं || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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रोशनी को रोशन आँखें ही देख पाती हैं || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

मंनै सुरति होवै मनि बुधि

~ जपुजी साहब

(The faithful have intuitive Awareness and Intelligence)

वक्ता: पश्चमी दार्शनिक – स्पिनोज़ा , उसने एक शब्द प्रयोग किया है – इनटियूटिव प्री-अंडरस्टेंडिंग (सहज ज्ञान युक्त पूर्व समझ)। उसने कहा वही असली चीज़ है। कोई भी बात समझ में उसे ही आती है जिसके पास पहले से ही उसकी समझ हो।

अंडरस्टेंडिंग इज़ पोसिबल ओनली व्हेन देयर इज़ अ प्री-अंडरस्टेंडिंग। (समझ तभी संभव होती है जब पूर्व-समझ मौजूद होती है)

तो इसीलिए गुरु तुम्हें कुछ देता नहीं है। वह मात्र उसको जगाता है जो तुम्हारे भीतर पहले ही मौजूद है। वह प्री-एक्सिस्टेंट (पूर्व-विद्यमान) है। प्री-अंडरस्टेंडिंग (पूर्व-समझ) है। वह उसको बस समझ में तब्दील कर देता है। यूँ कह दो जगा देता है। वह यही है। फेथ (आस्था) का अर्थ ही यही है कि मुझे पहले ही पता है। और फेथ (आस्था) क्या होती है? तुम और किसमें श्रद्धा करोगे? तुम इसी बात में तो श्रद्धा रखते हो न कि जो कुछ जानने लायक है वो मुझे पहले ही पता है। वो कहीं दब गया है, छुप गया है, सो गया है, ज़रा उसको जगा दो। थोड़ा आह्वान कर दो।

इस बात को भूलना नहीं – इनटियूटिव प्री-अंडरस्टेंडिंग (सहज ज्ञान युक्त पूर्व समझ)। और यह आपने देखा होगा कि बात कान में पड़ती है और हमें लगता है कि ‘हाँ हाँ पता है’। पता है। बस शब्द दे दो। मैं शब्द नहीं खोज पा रहा हूँ, पर पता है। यह जो कहा जा रहा है, मैं पूरी तरह से इसको जानता हूँ। यह आवाज़ सुनी हुई है। यह सत्य जाना हुआ है। यह मेरा ही सत्य है। भले ही कह अभी कोई और रहा है, पर यह सत्य मेरा ही है। और जब तुम्हें यह लगने लगे की ‘हाँ हाँ हाँ हाँ…कह कोई और रहा होगा पर बात मेरी ही है, तब समझना कि तुमने समझा। जब तक बात किसी दूसरे की है तब तक कुछ नहीं समझा। और यह प्रतीति तुम्हें पक्के तौर पर होके रहेगी। गहराई से सुनने के षणों में तुम्हें यह प्रतीति होकर के रहेगी कि यह जो बात है वह निर्विवाद रूप से सत्य है। क्यूंकि मुझे पहले से ही पता है। मैं प्रमाण हूँ इस बात का कि यह सत्य है। बड़ा पुराना सत्य है, पर पता नहीं कितना पुराना। जितना पुराना मैं हूँ, उतना पुराना। मैं जानता हूँ। किसी प्रमाण की ज़रुरत नहीं है। प्रमाण की ज़रुरत तो तब पड़ती है जब संदेह हो। जहाँ संदेह ही नहीं है वहाँ प्रमाण कौन मांगेगा? तुम्हें संदेह ही नहीं रह जाता। इतनी पक्की रहती है बात। पक्की इसलिए नहीं कि किसी और ने बोल दी जिसपर तुम्हें विश्वास है। पक्की इसलिए है क्यूंकि तुम कहते हो ‘अच्छा ठीक है पता ही थी’ – इनटियूटिव प्री अंडरस्टेंडिंग (सहज ज्ञान युक्त पूर्व समझ)।

श्रोता: मेडिटेटिव नौलिज। (ध्येय ज्ञान)

वक्ता: प्रातिभ ज्ञान – मेडिटेटिव नौलिज – हाँ वही है, बिलकुल वही है। तो तुम्हारा साधारण ज्ञान वही है जो तुम प्राप्त करते हो – जो बहार से पाया जाता है। प्रातिभ ज्ञान वो है जो भीतर से उठता है। और तुम जान नहीं पाओगे कि कहाँ से तुम्हें यह बात पता चल गयी। अचानक तुम पाओगे कि कोई नई परिभाषा तुम्हारे हाथ लग गयी है। सत्य के बिलकुल निकट आ गए हो। कैसे आ गए हो? पता नहीं। तुम खुद परेशान हो जाओगे कि यह बात मुझे पता कहाँ से लगी? न मैंने कहीं पढ़ी, न मैंने कहीं सुनी, और यह बिलकुल अनोखी बात जिसका मेरे पुराने से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यह मुझे कहाँ से पता लग गयी? यह प्रातिभ ज्ञान है। यह उठता है भीतर से। उठता है का अर्थ यही है कि हमेशा से मौजूद था, आज जग गया। तुम्हारा ही था, बस माहोल मिला उचित तो जग गया।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/ArmxxFhd38I

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