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लेख
रिश्ते में अगर आज़ादी नहीं तो रिश्ता झूठा है || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
49 मिनट
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रिश्ते में अगर आज़ादी नहीं तो रिश्ता झूठा है |

आचार्य प्रशांत : मालिक मने क्या?

श्रोता : अधिकार जमाने वाला।

वक्ता : अधिकारी?

श्रोता : सर, हमारा जो अहंकार वो हमें एक भ्रम दे देता है की हम मालिक हैं|

वक्ता : सत्य से सम्बंधित एक बहुत मूलभूत बात, पर ज़रा गौर करेंगे। आध्यात्मिकता में, जो कुछ भी केंद्रीय है उसका कोई अर्थ नहीं होता। कम से कम, उसका कोई विधायक अर्थ नहीं होता; ऐफिरमेटिव, पॉजिटिव अर्थ नहीं होता। प्रत्येक शब्द, आध्यात्मिकता में अर्थ-हीन है। तो आप कहेंगे, “जब अर्थ-हीन है, तो उसका प्रयोग ही क्यों किया जाता है? जिसका कोई अर्थ नहीं उसकी उपयोगिता क्या?” उसकी उपयोगिता मात्र इतनी होती है कि वो अपने विपरीत का नकार करता है।

हमने सत्य को कभी परम कहा है, कभी मालिक कहा है, कभी खुदा कहा है, कभी स्वामी कहा है। तो मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, “मालिक माने क्या?” सवाल दूर तक जाता है, क्योंकी हमने जिसे हमने आखिरी बात माना है — आखिरी भी, पहला भी और बीच का भी, हमने जिसे सब कुछ माना है — हम उसे मालिक बोलते हैं। हम उसे प्रभु बोलते हैं, उसे परमेश्वर बोलते हैं, उसे स्वामी बोलते हैं । और मैं आपसे कह रहा हूँ कि आध्यात्मिकता में इन शब्दों का कोई अर्थ होता नहीं । मैंने आपसे पूछा, “मालिक माने क्या?” किसी ने कहा, “जिसका नेतृत्व चलता हो”, किसी ने कहा, “जिस का राज चलता हो”, किसी ने कहा, “जिसका हुकुम चलता हो”, किसी ने अहंकार के संबंध में कुछ कहा। नहीं, ये सब नहीं।

मालिक , का इतना ही अर्थ है कि जो ग़ुलाम हो अपने से विपरीत का निषेध। अपने से विपरीत के निषेध का मतलब ये नहीं होता कि आप विपरीत का विपरीत बन गए। इतना ही कहा जा रहा है, ‘ना-ग़ुलाम’, ग़ुलाम मालिक माने वो, जो ग़ुलाम नहीं है। इसके अलावा मालिक का कोई अर्थ नहीं है। आप कहें, “तो मालिक कौन हुआ?” कोई उत्तर दिया ही नहीं जा सकता। क्योंकि मालकियत जैसा कुछ होता नहीं।

लेकिन आध्यात्मिकता में भी भाषा का इस्तेमाल तो होता ही है। और जब भी भाषा का इस्तेमाल होता है तो गुण सूचक कुछ शब्द हमेशा आ जाते हैं। कह दिया जाएगा, “कृपालु है” , कह दिया जाएगा, “चिरंतन है”, कह दिया जाएगा, “नित्य है”, कह दिया जाएगा, “सुंदर है”, कह दिया जाएगा, “शांत है”, कह दिया जाएगा , “केंद्रीय है।” इन सारे शब्दों का इस्तेमाल सत्य के संदर्भ में होता है। और इंसान, ये बड़ी गलती करता रहा है कि इन शब्दों से वो ये समझ लेता है कि जैसे ये सारे शब्द सत्य के लिए गुण वाचक हैं। जैसे उनसे कुछ पता चलता हो सत्य के बारे में।

इन सारे शब्दों का उपयोग बस इतना है कि इनसे ये पता चलता है कि वो इनका विपरीत नहीं। और यदि कोई वास्तव में आपको समझाने वाला हो, और यदि आप किसी एक शब्द पर जा कर के अटक गए हों, आपकी उस शब्द में रूचि बैठ गयी हो, और आप सोचने लग गए हों, कि परमात्मा, या सत्य, या ईश्वर किसी तरीके से उस शब्द से संबंधित है, तो फिर गुरु का दायित्व होगा कि वो परमात्मा को इंगित करने के लिए आपके शब्द के विपरीत का प्रयोग करें। आप बोलें वो निर्गुण है, तो फिर गुरु का दायित्व होगा कि वो बोले कि समस्त गुण उसके हैं। आप बोलो निराकार है, तो वो बोले ना, सारे आकार उसमें हैं।

जब कहने वालों ने कहा कि निराकार है, तो वो नहीं कहना चाहते थे कि निराकार जैसा कुछ होता है । शब्द पर गौर करिये, निर- आकार, वो सिर्फ हमारी इस धारणा को खंडित कर रहे थे कि उसका कोई आकार है । क्योंकि आकार माने सीमा । हम वैसे ही सीमाओं में इतने गुत्थे, बंधे रहते हैं, हम एक और सीमा खड़ी कर लेते हैं, जब हम सत्य को भी मूर्त रूप देते हैं, कोई आकार थमा देते हैं । तो कहने वालों को कहना पड़ा, निराकार है । हाँ, आप निराकार से बड़ा मन लगा लोगे, तो फिर कहने वाले को कहना पड़ेगा, साकार है । है न वो निराकार और न ही साकार।

अब, मालिक शब्द पर दोबारा लौट के आते हैं| मालिक वो नहीं, जिसके पास कोई अधिकार हो| मालिक वो नहीं जो कुछ करता हो। मालिक शब्द का, हमारे संदर्भ में, इतना ही अर्थ है कि जो बंधा हुआ न हो, जो दास न हो। किसका दास न हो? जैसा की आप नाटक में देख रहे थे वृत्तियों का दास न हो, संसार का दास न हो, विषय-वस्तुओं का दास न हो। बस वही मालिक है। मालिक, वो नहीं जिसके पास कोई अधिकार है।

मालिक, वो नहीं जो उस अधिकार का प्रयोग करता है, अधिकारपूर्वक कुछ करता हो। सत्य तो परम अकर्ता है। उसके करने को कुछ है नहीं। और चूंकि उसके करने को कुछ है नहीं, इसलिए सबकुछ सुगमता से, सुचारू रूप से होता रहता है। समझ रहे हैं?

बहुत सारे लोग हैं जो आध्यात्मिकता की तरफ आते हैं, और उनका उद्देश्य यही होता है कि स्वामी बन जाएँ। हमारे यहाँ पर, संन्यासी को स्वामी कहा गया है, स्वामी कह कर के आदर से उसको सम्बोधित किया जाता है। यही कारण था कि बुद्ध को कहना पड़ा, “भिक्षु।” अब संन्यासी, वास्तव में न स्वामी है न भिक्षु है। पर भिक्षु इसलिए कहना पड़ा क्योंकि स्वामी शब्द बड़ा प्रचलित हो गया था । इनमें से किसी को भी लेकर के कोई मान्यता न बैठा ले । न स्वामी है, ना भिक्षु है ।

पर मन, बड़ा आकृष्ट होता है जब कहा जाता है, स्वामी, गुरु, आचार्य, मालिक। मन को बड़ा अच्छा लगता है । मन कहता है, “वाह! कुछ इधर छोड़ा था, राग-रंग, तो उधर जा कर के कुछ मिला, सम्मान, प्रतिष्ठा। लोग बड़े आदर से बुला रहे हैं, कई तरह के फायदे होते हैं।” कुछ भी मान मत लीजियेगा।

आध्यात्मिकता, बड़ी मालकियत है, इसमें कोई शक़ नहीं, पर वो मालकियत अर्थहीन है, अनुपयोगी है, और यही उसकी खूबसूरती है। कि आप उसपर आधिपत्य नहीं जमा सकते, उस पर कब्ज़ा कर के उसका उपयोग नहीं कर सकते। वो अपनी चाल चलती है। वो स्वयं प्रभु है। और उसकी जो सम्प्रुभता है उस पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती। समझ रहे हैं?

कोई भी शब्द, जो सत्य से सम्बंधित होता है, जब भी अर्थ लेने लगेगा आपके दिमाग में, अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। शान्ति कुछ नहीं होती, इसलिए सब से ज़्यादा अशांत आपको शांत होने की कामना करती है। शान्ति कुछ भी नहीं होती । पर शान्ति से संबंधित कितनी तो छवियाँ हैं हमारे पास। थोड़ा आपको अटपटा लगेगा, पर आपको कह दूँ कि प्रेम भी कुछ नहीं होता। लेकिन शान्ति को लेकर जितनी छवियाँ हैं, उससे हज़ार गुनी प्रेम को लेकर के हैं।

जिसकी अनुभूति हो , जिसका एहसास हो , जो दर्ज़ कराये अपनी उपस्थिति , वो प्रेम नहीं जो कुछ भी असली है , उसकी कृपा ही यही है , कि वो कभी बोझ नहीं बनेगा वो अपना होना कभी दर्ज़ नहीं कराएगा जो कुछ भी अपना होना आपके मन में दर्ज़ कराये , समझ लीजिये कि नकली है , समझ लीजिये कि मात्र मन की एक लहर है लहरें ही होती हैं जो उठती हैं , गिरती हैं , अपने होने का एहसास कराती हैं बादल ही होते हैं जो अपने होने का एहसास कराते हैं , आते हैं जाते हैं आसमान तो खाली है , निर्विशेष

उम्र निकल जाती है इंसान की “कुछ” की तालाश करते हुए। वो ‘कुछ’, कुछ भी हो सकता है। तुम्हें सफलता की तालाश है, तुम्हें इज़्ज़त की तलाश है, तुम्हें साथी की तालाश है, ज़माने की तालाश है, तुम्हें समाधि की तलाश है ,शान्ति की तालाश है, मोक्ष की तालाश है । ये जो “कुछ” होता है ना, इसकी तालाश लगातार बानी रहती है । समझिये साफ़ साफ़ कि जो भी असली है, वो ‘कुछ नहीं’है। वो अकिंचन है। वो है ही नहीं।

बड़ा धक्का सा लगता है मन को, मन को पकड़ने के लिए कुछ चाहिए। मन सब कुछ छोड़ कर भी, ‘कुछ’ पकड़ने की चाह में हमेशा रहता है। कितना प्यारा लगता है ना, की कोई धूम रहा है जोगी, पूरी दुनिया छोड़ के आया, लोग बोल रहे हैं उसको, मालिक, स्वामी, महाराज। मन को कुछ तो चाहिए। और जो भी ये ‘कुछ’ है, जो आपको चाहिए, वही सत्य के ऊपर का पर्दा है। फर्क नहीं पड़ता आपको क्या चाहिए। फर्क नहीं पड़ता कि आपने सत्य को कैसे निरूपित किया है, आपने रूप दे दिया ना? जो भी आपने रूप दे दिया वही नकली है। नकली सिर्फ इस अर्थ में है कि वो आपको रिझाता रहेगा, घुमाता रहेगा। कभी सार्थक नहीं होगा।

जो ये समझ गया कि ग़ुलामी क्या है, उसे मालिकियत नहीं चाहिए। जिसे अभी मालकियत चाहिए, वो तो अभी ग़ुलामी में ही फंसा हुआ है। बात को समझियेगा। मालकियत शब्द से अगर आपको लगाव ही हो, उसे कोई अर्थ ही देना हो तो ये समझ लीजिये कि मालिक वो, जिसे अब मालिक होना नहीं। या कि मालिक वो, जो ना अब मालिक है, ना ग़ुलाम है। कदापि ये भूल मत करियेगा कि मालिक वो जो ग़ुलाम का विपरीत। नहीं। अगर अभी आप इसी द्वैत में घूम रहे हैं कि मैं मालिक, अगर कोई और ग़ुलाम, मैं मालिक, अगर मेरा किसी और पर अधिकार, मैं मालिक, अगर मेरा हुकुम चले, मेरा राज चले; तो आप मालिक नहीं हैं, आप ग़ुलाम हैं। इसको और अगर ठोस बोलूं, तो आप मालिक-ग़ुलाम हैं, या आप ग़ुलाम-मालिक हैं। क्योंकि ये मालिकियत द्वैतात्मक है, इसमें ग़ुलामी साथ साथ चलती है।

भाषा यदि कभी और परिष्कृत हुई, ज़रा और विकसित हुई, तो ये जितने द्वैतात्मक शब्द हैं, जो कि तकरीबन सभी हैं, इनको हमेशा इनके युग्म के साथ बोला जाएगा। कभी नहीं कहा जाएगा ‘सुख’, कहा जाएगा? ‘सुख-दुःख’। क्या अनुभव हो रहा है अभी? ‘सुख-दुःख’। जब आप कहते हो कि सुख अनुभव हो रहा है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि सुख और दुःख का अस्तित्व भिन्न है। जैसे कि सुख का अनुभव करके दुःख से बच गए हो या दुःख से अभी दूरी है। सुख में दुःख छिपा है, ये बात ज़ाहिर ही नहीं होती जब बोलते हो सिर्फ सुख।

इसी तरह से जब बोलते हो, मालिक, तो ज़ाहिर ही नहीं होता कि ग़ुलामी साथ चल रही है, अन्यथा मालकियत की बात क्यों करते? इसी तरीके से मुक्ति, इसी तरीके से बंधन। मुक्ति कुछ नहीं होती, मुक्ति की तालाश में भटकना ही बंधन है । जो वास्तव में मुक्त है, वो मुक्ति से भी मुक्त हो गया। और बंधन बड़ा बंधन है, लेकिन मुक्ति, बंधन से भी बड़ा बंधन है । जिन्हे मुक्ति चाहिए वो मुक्ति से बंधे हुए हैं अभी। और यहाँ बंधे ही रह जाएंगे, क्योंकि नाम मुक्ति का है। जब बंधन से छूटना चाहते हो, तो कम से कम नाम तो बंधन का होता है। लेकिन, मुक्ति से कोई छूटना ही नहीं चाहेगा, क्योंकि नाम मुक्ति का है। तो मुक्ति को बंधन से बड़ा बंधन जानना। मालकियत को ग़ुलामी से बड़ी ग़ुलामी जानना। सुख को दुःख से बड़ा दुःख जानना। बड़ा नहीं जान सकते तो बराबर का जानना कम से कम। और इन्हें कभी अलग अलग मत जानना।

अभी देख रहा था, शंकराचार्य ने एक शब्द का प्रयोग किया है, ‘शब्दजंजाल’। कहते हैं, जब तक इसको नहीं काटा, तब तक कुछ नहीं काटा। एक सज्जन आये, बोले, “कुछ तो चाहिए ही होता है ना, आदमी जीएगा कैसे?” मैंने कहा “ठीक है, कुछ आपको चाहिए, आप उसके बिना जी ही नहीं पा रहे, तो कुछ चाह लीजिये।” बस एक शर्त दूंगा, उसका पालन करियेगा । वो बोले, बस ये मत बोलियेगा कि कुछ चाहना नहीं है। मैंने कहा ठीक है। मैंने कहा उसको चाहो जिसके लिए भाषा में कोई शब्द ना हो। जो चाह रहे हो, उसके लिए यदि भाषा में शब्द है, तो तुम फंस गए । अब अंतर नहीं पड़ता कि वो कितना ऊँचा शब्द है, अंतर नहीं पड़ता कि वो कितना आध्यात्मिक शब्द है, अंतर नहीं पड़ता कि वो कितना नैतिक शब्द है। हो सकता है वो सामाजिक रूप से बड़ा स्वीकार्य शब्द हो, बड़ा सुंदर शब्द हो। फर्क नहीं पड़ता कि क्या है? यदि भाषा में उसके लिए शब्द है तो वो आदमी के दिमाग की उपज है । तो चाह लो, पर फिर उसको चाहना, जो शब्द के द्वारा कभी इंगित हो ही ना सके।

तो मालिक माने क्या?

श्रोता : जो ग़ुलाम न हो|

वक्ता : और एक स्थिति ऐसी आती है, कि जब ये भी कहना कि हम ग़ुलाम नहीं हैं, सिर्फ ग़ुलामी की याद दिलाता है। अगर पूरी तरह से मुक्त होते ग़ुलामी से, तो फिर ये भी क्यों कहते कि हम ग़ुलाम नहीं हैं। जो पूर्णतया स्वस्थ होगा वो ये क्यों दोहराएगा बार बार कि हम बीमार नहीं हैं। कहीं न कहीं बीमारी छुपी होती है, तभी ये कह रहे हो कि बीमार नहीं हैं। या कम से कम बीमारी की पुनरावृति का डर होता है। बीमारी की पुनरावृति का यदि डर भी ना हो तो क्यों कहोगे कि हम बीमार नहीं हैं । बार बार कह रहे हो अगर की हम बीमार नहीं हैं, ग़ुलाम नहीं हैं, तो इसका अर्थ यही है कि अभी बीमारी और ग़ुलामी की आशंका अभी नहीं गई है।

ग़ुलामी से तब छूटे जब ग़ुलामी की स्मृति ही मन से निकल गयी। जब ग़ुलामी के दाग ही मन से निकल गए। जब ये भय भी छूट गया की कहीं हम ग़ुलाम ना हो जाएँ। ये बड़ी मज़ेदार बात हो गयी, जिसके मन से ये भय छूट गया कि हम ग़ुलाम न हो जाएँ, अब उसे ग़ुलाम होने में कोई दिक्क्त भी नहीं होती। मालिकियत की बात यहाँ से शुरू हुई थी कि जो ग़ुलाम ना हो, पर जो ग़ुलाम नहीं है, उसे अब हर क़िस्म की ग़ुलामी अपनी मालकियत के सामने बड़ी छोटी बात लगेगी। समझ रहे हैं?

तीन तल देख लिए हमने, पहला सर्वथा ग़ुलामी का, काया के ग़ुलाम हो, संसार के ग़ुलाम हो, भय के ग़ुलाम हो, पैसे के, प्रतिष्ठा के ग़ुलाम हो। दूसरा, ग़ुलामी से विद्रोह का, नेति का कह दिया कि हम ग़ुलाम नहीं हैं, ये भी कहने में अभी ग़ुलामी के ज़रा अवशेष बाकी हैं। ग़ुलामी चली गयी है लेकिन पीछे अपने अवशेष छोड़ गयी है। जैसे कि कोई घाव सूख गया हो लेकिन अपने दाग़ छोड़ गया हो। और वो दाग़ बारबार याद दिलाते हों, मन में जम के बैठ गयें हों, डर जम गया हो।

फिर तीसरा तल आता है, जहाँ पर ऐसे मुक्त होते हो कि अब ग़ुलामी भी नहीं डराती। ये जो तल है ये भ्रमित कर सकता है, क्योंकि इसकी बात बड़ी आकर्षित कर सकती है। जो पहले तल पर जी रहा है, जो नितांत ग़ुलाम है उसको ये तीसरा तल शब्दों के तौर पर बड़ा आकर्षित लगता है। वो कहता है ठीक है, उच्चतम तल तो यही है ना कि ग़ुलाम हैं और ग़ुलामी से कोई दिक्क्त भी नहीं। वही तो हम हैं। हम भी तो ग़ुलाम हैं, और हमें ग़ुलामी से कोई दिक्क्त भी नहीं। नहीं। ये बिलकुल अलग बात है, अपने आप को धोखे में मत डाल दीजियेगा।

वो महामुक्ति है, और आप अभी अमुक्ति में जी रहे हो। आप पहले तल पर हो, वो तीसरा तल है। वो असल में बात तलों से आगे की है, तलातीत है। लेकिन ये पहले तल वाले को बहुत सुहाएगी, पहले तल वाला उसको समेट लेना चाहेगा, उसे रट लेना चाहेगा, उसका बार बार अपने तरीके से निष्पादन करेगा। अपने तरीके से। जो पहले तल पर हो, उसको तो अभी विद्रोह चाहिए।

जो पहले तल पर हो, उसको तो अभी क्रांति चाहिए। उसको तो खड़े होना है, उसको तो अभी अपनी बेड़ियाँ तोड़नी हैं। मन ने जो ग़ुलामी को मान्यता दे रखी है, उस मान्यता को तोड़ना है। और जब लगे कि हर तरह की ग़ुलामी को तोड़ दिया है, तब इस तोड़ने वाले से भी आज़ाद हो जाना है, वो है महामुक्ति। जिसने तोड़ दिया हर ज़ंजीर को, उसको क्यों ढोये ढोये फिरें? एक कुल्हाड़ी उठाई थी, अपनी ज़ंजीरें काटने के लिए, काट दी सारी ज़ंजीरें, अब क्या बचा है? कुल्हाड़ी। अब कुल्हाड़ी को भी छोड़ना है, और वो है महामुक्ति। अन्यथा कुल्हाड़ी स्वयं एक बोझ बन जाएगी। जिस औज़ार से तुमने नेति नेति करी, वो औज़ार खुद एक बोझ बन जाएगा।

वो हुई फिर असली मालकियत, कि ना ग़ुलामी का पता है, ना मालकियत का पता है। मालिक तो मालिक, ग़ुलाम तो ग़ुलाम। जैसे हैं, मस्त हैं। कभी ग़ुलामी करनी पड़ी, बिलकुल कर लेंगे, हँसते हँसते कर लेंगे। और, कभी नहीं मन है ग़ुलामी करने का, तो क़तई नहीं करेंगे। मन-मौला हैं ।

वो सुनी है ना कहानी, ग्रीस की। एक दार्शनिक था, संत ही कह लीजिये, तो वो घूम रहा है । उन दिनों वहाँ पर दास प्रथा चलती थी, तो उसको पकड़ के ले जाने लगे कि इसको बाज़ार में, ग़ुलाम की तरह बेचेंगे। आम तौर पर यदि कोई ऐसे पकड़ा जाए तो वो छूटने की कोशिश करे, प्रतिरोध करे, भागे। इसको पकड़ा तो यह सहर्ष खड़ा हो गया, हाँ पकड़ लो । कहता है, किधर है बाज़ार, ले चलो, खुद ही आगे आगे जा रहा है। उसको ले जा कर के, उसकी बोली लगाने के लिए खड़ा कर दिया। वो कह रहा है, है कोई ग़ुलाम जो इस मालिक को खरीद सके?

तो वो जो तीसरा तल होता है जीवन वहाँ पर ऐसे ही मज़ेदार होता है। इतनी गहरी मालकियत, कि कोई ग़ुलामी उस पर घब्बा नहीं लगा सकती, चोट नहीं पहुंचा सकती। अब, आप कुछ करें या कुछ ना करें, इससे आप के केंद्रीय होने पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। नतीजा ये है कि अब आपकी कोई बाध्यता नहीं रह जाती है किन्ही आदर्शों पर चलने की। आप यदि अभी ग़ुलामी से विद्रोह कर रहे हो तो अभी आप ग़ुलामी से बंधे हुए हैं, आपको वो सब करना पड़ेगा जो ग़ुलामी के खिलाफ है। आप समझ रहे हैं, आप एक सीमा से बाहर नहीं जा सकते। आप का आचरण बंधा हुआ होगा, अभी आपके सामने एक लक्ष्य है, वो लक्ष्य आपकी गतिविधियों को संचालित करेगा। लक्ष्य क्या है? ग़ुलामी से बाहर आना है। तो इसलिए आप अभी कुछ भी करने के लिए मुक्त नहीं हो। अभी तो आपके सामने एक मिशन है। अभी तो आपको वो सब कुछ करना पड़ेगा जो उस मिशन को साकार करे। तो अभी आप मुक्त नहीं हो।

ये जो तीसरा तल होता है, यहाँ पर मुक्ति है, यहाँ कुछ भी होता है। यही कारण होता है कि संतों को, ज्ञानियों को, भक्तों को, रह्स्यवादियों को आम तौर पर लोग समझ नहीं पाते। लोग इसलिए नहीं समझ पाते क्योंकि हम जिसे समझना कहते हैं उसका अर्थ होता है, प्रिडिक्टेबिलिटी, जिसका अर्थ होता है कि कोई आपके अनुमान के दायरे में आता है कि नहीं। इसका अर्थ होता है, कि कोई आपके ढर्रों से मेल खाता है कि नहीं। पैटर्न आइडेंटिफिकेशन। आप जिन ढर्रों को जानते हैं उन ढर्रों से किसी चीज़ का अगर मिलान हो जाए तो आप कहते हैं हम इस बात को समझ गए। हमारे समझने का यही अर्थ होता है।

और जो तीसरे तल पर है, उसका आचरण पूर्व नियोजित होता नहीं, किसी ढर्रे से मेल खाता नहीं ।उसको कहते हैं, अन-अनुमेय, उसका अनुमान ही ना लगाया जा सके पहले से। तो फिर हम चौंक जाते हैं, पहेली जैसा लगता है, कि ये क्या कर रहा है, जो सोचा था उससे बिलकुल अलग। और इसकी बातें तो वैसी लगती ही नहीं अरे संत हो तो संतों की तरह व्यवहार करो ना। और ये कभी बच्चे की तरह दौड़ लगाएगा, कभी बिलकुल बुज़ुर्ग बन जायेगा। कभी ऐसा लगेगा की प्रेम सागर है, और कभी बिलकुल कसाई। कुछ पकड़ में ही नहीं आता, सीधे चलते चलते अचानक मुड़ जाता है, अकारण। गोल घूमते-घूमते, नाचते-नाचते, अचानक ठिठक जाता है। और हम जान ही नहीं पाते कि यह हुआ क्या? रेल जा रही थी पटरी पे, अचानक उतरी क्यों? पटरी तो ढर्रा है, चलनी चाहिए उसी पे।

अब यदि श्रद्धा होती है तो उसके समक्ष नमन कर दिया जाता है, कि हम जान नहीं पा रहे, और तुम नमन योग्य हो ये इसी से सिद्ध होता है कि हम जान ही नहीं पा रहे कि तुम क्या कर रहे हो। और यदि श्रद्धा नहीं है, तो हम कहते हैं, चूंकि हम जान नहीं पा रहे इसलिए तुम नमन योग्य हुए नहीं। हम आदर तुम्हें तभी देंगे जब तुम वो सब करो जो हम चाहते हैं कि तुम करो । और अगर तुम्हारा आचरण, तुम्हारा वक्तव्य, तुम्हारी ज़िन्दगी, हमारी समझ से परे है तो हम तुम्हे ही अयोग्य या अज्ञानी घोषित कर देंगे।

मालिकियत है, केंद्र विहीन मुक्ति। हम मुक्त होते भी हैं, तो कोई न कोई केंद्र साबुत रहता है। और वो केंद्र जितना पक्का होता जाए, उसका दायरा जितना व्यापक होता जाए हम अपने आप को उतना मुक्त मानते हैं । उदाहरण के लिए, कोई यदि कहे कि मुक्ति इसमें है कि मैं बहुत सारा पैसा कमा लूँ। तो वो जितना पैसा कमायेगा अपने आप को उतना ही मुक्त घोषित करेगा। कोई कहे कि मुक्ति इसमें है कि मैं बहुत सारा ज्ञान संचित कर लूँ, तो वो जितना ज्ञान इक्कठा करेगा अपने आप को उतना ही मुक्त घोषित करेगा। कोई कहे कि मुक्ति इसमें है कि मैं दुनिया की हर चीज़ छोड़ दूँ, तो वो जितनी चीज़ें छोड़ेगा अपने आप को उतना मुक्त घोषित करेगा। इन तीनों ने क्या किया? इन तीनों ने एक केंद्र-सापेक्ष मुक्ति को मुक्ति मान लिया। ये मुक्त नहीं हुए हैं, ये उस गाय की तरह हैं जो खूंटे से बंधी हुई है, पर रस्सी लम्बी है तो सोचती है कि मैं मुक्त हूँ। खूंटा है, केंद्र है। लेकिन रस्सी लम्बी कर के ये अपने आप को मुक्त मानती जा रही है। वास्तविक मुक्ति में कोई केंद्र होता ही नहीं।

मैं भी अकसर आप लोगों से बात करता हूँ तो हृदय कहता हूँ, तो केंद्र कहता हूँ, आत्मा कहता हूँ। आत्मा कोई केंद्र नहीं है, क्योंकि आत्मा केंद्र है ही नहीं। जो बिना केंद्र के आपको संचालित कर ले, उसको आत्मा जानिये। केंद्र तो सारे अहंकार के होते हैं । आप लोग अपने छात्रों को भी पढ़ा आये हो, रियल सेंटर, फाल्स सेंटर| वास्तव में जितने भी सेंटर होते हैं वो फाल्स ही होते हैं। वास्तविक केंद्र कोई नहीं होता। जब भी कभी पाओ, कि कोई केंद्र, कोई खूंटा जीवन में आ गया है जिसने तुम्हें बाँध लिया है रस्सी की तरह, तो उसको नकली ही जानना । असली कुछ होता नहीं। असली तो सिर्फ आसमान है, आसमान में कहाँ केंद्र है कोई? किसी ने आजतक आसमान का केंद्र देखा? वहाँ केंद्र विहीन मुक्ति है। बल्कि यह कह लो कि वहाँ अनगिनत केंद्र हैं, जहाँ जाओ वहीं केंद्र है।

केंद्र को यदि घर कहोगे, तो आसमान में जहाँ चाहो घर बना सकते हो, सब जगह एक सी। केंद्र को यदि उदगम कहोगे तो जहाँ से चाहो वहाँ से शुरू कर सकते हो, आसमान में सबकुछ एक सा है। केंद्र को यदि अंत कहोगे तो जहाँ चाहोगे ठिठक सकते हो, ठहर सकते हो, सब स्थान एक से हैं । आदमी की ग़ुलामी इसी में है कि हम सब ने कुछ न कुछ, कभी न कभी, कहीं न कहीं, सत्य मान रखा है। ऐसी हालत है हमारी की दस भ्रम ठुकराते हैं तो ग्यारहवें में फंस जाते हैं।

अब क्या फर्क पड़ता है, कोई ऐसा है जो पहले ही में फंस गया । बहुत सारी चूहेदानियाँ सजा के रख दीं गयी हों, कोई चूहा है जो आके पहली में ही फंस गया । और कोई ज़रा हिम्मतवर संन्यासी चूहा है, ज्ञानी, वो एक से बचा, दो से बचा, तीसरे को काटा, चौथे पर छलांग लगाई, पांचवे को दरकिनार किया, वो जा कर के बारहवें में फंस गया । दोनों में कोई फर्क है? पहली में ही फंस गए हो, या बारवीह में फंस गए हो, क्या फर्क है? बल्कि जो बारवीह चूहेदानी में फंसा, वो ज़रा ज़्यादा अभागा चूहा है । बड़ी मेहनत कर के फंसा । उससे बढ़िया तो पहले वाला है, वो आराम से फंस गया । हम काटते हैं, काटते हैं, काटते हैं, और अंततः जा कर कहीं न कहीं उलझ जाते हैं ।

उलझने की वजह सिर्फ एक होती है । ध्यान रखियेगा, गाय पीछा करने नहीं आयी थी, गाय का तथाकथित मालिक पीछा करने गया था । उलझने की वजह सिर्फ एक होती है, जिससे उलझे, उसको असली मान लिया । जिससे उलझे, मन बिलकुल उसके सामने समर्पित कर दिया । उलझे हम सभी हैं, उलझने का जो विषय है उसमें भेद हो सकता है । उलझन से छूटो तो मोह पकड़ता है, लगता है छोड़ा तो जिससे उलझे हैं वो छूट जाएगा । अभी भी कहाँ उसे पकड़ पाए हो, बस डरे ही तो जा रहे हो कि छूट जायेगा । पा थोड़े ही लिया है उसे । शब्द पर गौर करो, “उलझे हो” ।

चूहे और चूहेदानी का, कोई प्रेम का संबंध होता है? कि चूहे को बड़ा मोह है कि चूहेदानी छोड़ दी तो घर छूट जायेगा । अरे, फंसे हो वहाँ पर । कोई प्यार थोड़ी है तुमको, अब फंस गए हो तो मज़बूरी के नाते उसे प्यार बोलो या जो चाहे बोलो । अगर तुम्हे कह दिया जाए कि एक दूसरा अवसर मिलेगा, तो तुम कहोगे कि फिर नहीं फंसेंगे । ज़िंदगी अगर समय में पीछे खींच दी जाए, रिवाइंड कर दी जाए , उसी मुक़ाम पर तुम्हे दोबारा लाया जाए जहाँ फंसे थे, तो चूहा अब न फंसेगा ।

(अट्टाहस)

हाँ, फंसने के बाद हज़ार तरीके के तर्क मन में खड़े हो जाते हैं कि प्रेम है, दायित्व है ।

चूहे से चूहे का इतिहास छीन लो, चूहे से वो सारी घटनाएं छीन लो जो अतीत में हुई, चूहा अभी भी जाएगा चूहेदानी में? चूहे का चूहत्व ही तो उसको चूहेदानी में डालता है ।

(अट्टाहस)

हटा दो चूहे से वो सब कुछ जिसने उसे खींचा था चूहेदानी की ओर, जिसने क़ैद किया था उसे पिंजड़े में, वो क्या जाएगा दोबारा? तो फिर ये डर क्यों बताते हो कि उलझाव छोड़ दिया तो तमाम विषय छूट जायेंगे? तुम्हें वास्तव में उन विषयों से प्रेम है? और ये बात भी बिलकुल ठीक है कि प्रेम हो न, तो व्यक्ति कह सकता है, प्रेम की संभावना तो हो सकती है । मन का विकास हो सकता है, प्यार आगे तो हो सकता है? बिलकुल हो सकता है । पर चूहे को चूहेदानी से प्यार कम से कम तब तक तो नहीं होगा जब तक उसमें फंसा हुआ है । चूहा भी यदि प्रेम करेगा तो मुक्त हो के ही कर सकता है । इस बात की संभावना बहुत कम है कि चूहे को चूहेदानी से प्रेम हो । मुक्त चूहा, चूहेदानी के प्यार में पड़े, इसकी एक प्रतिशत संभावना होगी । लेकिन बंधन में चूहा चूहेदानी से प्रेम कर ले, इसकी संभावना तो शून्य है ।

प्रेम की यदि कोई संभावना पैदा भी करना चाहते हो, तो वो तभी होगी जब बाहर आ जाओ । जो जाल में फंसा हुआ है, वो जाल का प्रेमी तो नहीं हो सकता ना? जो ग़ुलामी में है, वो अपने मालिक के प्रति सद्भावना से भरा तो नहीं हो सकता ना? ग़ुलाम यदि ये तर्क दे भी कि मालिक से प्रेम है या प्रेम होना चाहिए, तो प्रेम के लिए उसे सर्वप्रथम मालिक से आज़ाद होना पड़ेगा ।

ग़ुलामी और प्रेम तो साथ साथ नहीं चलते । लेकिन ग़ुलामी से न छूटने के लिए सबसे ज़्यादा प्रेम का बहाना दे दिया जाता है । कहा जाता है, “देखिये हमें प्यार हो गया है इनसे, इन्हें अब छोड़ कैसे दें” । सर्वप्रथम तो ये देखो कि प्यार नहीं है, चूहादानी है । और दूसरी बात ये कि प्रेम, बड़ी मीठी, मधुर बात है । लेकिन प्रेम होता सिर्फ आज़ादी में है । प्रेम कोई दायित्व नहीं होता जिसका निर्वाह करोगे । प्रेम कोई बंधन नहीं होता जिसमें फंसे रह जाओगे ।

जब पूरे तरीके से मौलिक हो तभी मालिक हो सकते हो ।

आज़ाद हो, एक संप्रभुता है, एक निजता है, कुछ हो तुम । तभी तो कहोगे, कि मैं प्यार करता हूँ । तुम कुछ हो ही नहीं, धड़कन धड़कन दूसरों की है, अब कैसे कहोगे कि प्यार है? किसको प्यार है फिर? कोई तो होगा जिसे है?

मायूस ना हों । (मुस्कुरा कर)

मैं कह रहा हूँ, “मुक्ति का मतलब है, छोड़ने के लिए भी मुक्त, और पकड़ने के लिए भी मुक्त|” कोई बाध्यता नहीं है कि छोड़ छाड़ ही देना है । पकड़ो, लेकिन ग़ुलाम की तरह नहीं । आज़ादी में पकड़ो ।

“सर, बड़ी उदासी छा जाती है कि ये तो चूहेदानी को छोड़ने की बातें हो रही हैं|” तुम पकड़ लो चूहेदानी को, लेकिन अंदर से नहीं । अंदर से पकड़ा तो, फंसे हुए हो ।

चूहेदानी से तुम्हें अगर इतना ही प्यार है, हो सकता है बड़ी सुन्दर हो, तो बाहर से पकड़ो ना, दाएं से पकड़ो, बाएँ से पकड़ो, बस अंदर से मत पकड़ो ।

अभी भी तकलीफ है? (श्रोतागण को देखते हुए, मुस्कुरा कर)

चूहेदानी आपकी हुई, बस अंदर से मत पकड़ियेगा ।

नहीं, देखिये, पकड़ना तो कुछ न कुछ पड़ेगा ही, नहीं तो जियेंगे कैसे? पर याद रखना, जैसा नाटक में था, हम गाय को पकड़े हैं या गाय हमें पकड़े है – ये अंतर याद रहे| चूहेदानी में बंद चूहा, बेशक़ ये दावा कर सकता है, “अरे ये चूहेदानी हमने पकड़ रखी है, अरे चूहेदानी हमारा घर है, हम राज करते हैं, हमारा एक क्षत्र राज चलता है| देखो ना अंदर कोई नहीं है।” तो इन भ्रमों में ना रहे, बस ये ध्यान रखें कि हमने पकड़ रखा है या उसने हमें पकड़ रखा है । चूहे और चूहेदानी के रिश्ते की हक़ीक़त याद रहे ।

जैसे वो पात्र कह रहा था, “मेरी गाय”, वैसे ही आप जब इस तरह शब्दों का इस्तेमाल करें तो जरा सचेत हो जाएँ| “मेरी नौकरी”, तो नौकरी आप की है, या आप नौकरी के हैं? (मुस्कुराते हुए) अंतर याद रखें । “मेरे दायित्व।” आपके दायित्व हैं? आपका यदि कुछ होता है तो आप आज़ाद होते हैं पकड़ने के लिए और छोड़ने के लिए । आज़ाद हो? पकड़ने के लिए और छोड़ने के लिए भी । जब आज़ाद हो छोड़ने के लिए, तब पकड़ने में खेल है, मज़ा है । पर आज़ादी है वो? छोड़ने की पूरी आज़ादी हो, तो फिर ठीक है ।

आप सब यहाँ बैठे हो ज़मीन पर, अच्छा लग रहा है, हम सब बैठे हैं । शान्ति है, मज़ा है । और अगर ज़मीन ने पकड़ रखा हो आपको तो? (हँसते हुए) तो सज़ा है । अब आप बैठे नहीं हो, अब आप फंसे हुए हो । अभी आप बैठे हो, आपका जल्दी से उठ जाने का कोई इरादा भी नहीं । लेकिन आप जानते हो कि बंधे हुए नहीं हो । और ऐसे ही बैठे हो, क्योंकि इस कारण बैठे हो कि बाँध दिए गए हो – तो गड़बड़ हो जाएगी ।

तो जीवन में कुछ न कुछ पकड़ना होता है, बेशक़ पकड़ो । नहीं कहा जा रहा है कि मुक्ति का अर्थ है कि कुछ छूना भी नहीं है । बेशक छुओ, बेशक़ पकड़ो, पर ये कभी मत भूलना कि पकड़ने से पहले आज़ादी आती है, पकड़ना बाद में है । पकड़ना कभी आज़ादी की क़ीमत पर ना हो । छोड़ना भी आज़ादी की क़ीमत पर ना हो । पता चले कि छोड़े इसलिए जा रहे हो क्योंकि छूने से डर लगता है । तो छोड़ छोड़ के भाग रहे हो । वो भी एक ग़ुलामी है ।

कोई भी सुन्दर रिश्ता, मुक्ति में ही सुन्दर होता है । ये पक्ष भी मुक्त है, वो पक्ष भी मुक्त है, उनकी मुक्ति उनका सम्बन्ध बनती है । मुक्ति ही जोड़ बनती है । मुक्ति ही उनका साझापन बनती है । हममें, तुममें क्या नाता? आज़ादी का । नाता बाद में, मुक्ति पहले । हमें तुम में भाता ही यही है कि तुम आज़ाद हो । हम आज़ाद हैं, इसलिए हमें तुम में तुम्हारी आज़ादी ही भाती है । तुम्हारी आज़ादी से ही प्यार है हम को । हमारी आज़ादी से तुमको प्यार है । आज़ादी को आज़ादी से प्यार है । सत्य को सत्य से प्यार है, और किसको किससे होगा?

अब रिश्ते रखो, नाते रखो । रिश्ता यदि आज़ाद रिश्ता नहीं है, तो झूठा है । और हमारी विडंबना यही है कि हम रिश्ते का अर्थ ही यही समझते हैं कि अब हमने अपनी आज़ादी तिरोहित कर दी । आज से तुम रिश्ते में “बंध गए” । बात उलटी है, रिश्ता होता ही आज़ादी में है, अन्यथा रिश्ता ही नहीं है । कोई प्रपंच चल रहा हो, कोई नाटक चल रहा होगा, रिश्ता नहीं होगा फिर । वास्तविक रिश्ता तो सिर्फ दो आज़ाद पक्षियों में ही हो सकता है । एक पिंजरे में ये, एक पिंजरे में वो, क्या रिश्ता है? या एक ही पिंजरे में दोनों, तो भी क्या रिश्ता है? अब ये दोनों साथ साथ रो सकते हैं, साथ साथ उड़ नहीं सकते । रिश्ता तब है, जब दोनों साथ साथ उड़ सकें ।

पक्षी का , आकाश से जो रिश्ता है , वही पक्षी का दूसरे पक्षी से होता है और इन दोनों रिश्तों में अगर ज़रा भी अंतर है तो रिश्ता झूठा है, है ही नहीं । पक्षी का आकाश से जो रिश्ता है, वही पक्षी का अपने प्रेमी से होना चाहिए ।

श्रोता : अगर पिंजरा बहुत बड़ा हो, उड़ पा रहे हों उसके अंदर, तो कैसे पता चलेगा कि ये आज़ादी है या ग़ुलामी?

वक्ता : असल में छोटा – बड़ा, कम – ज़्यादा, ये सारे तुलनात्मक शब्द हैं । अनंतता के सामने छोटा और बड़ा दोनों एक बराबर होते हैं । वहाँ तुलनाएं नहीं चलती । वहाँ तो तुलना करने वाला ही नहीं होता, तो छोटे बड़े में कोई अंतर ही नहीं है । दस का यदि आपका पैमाना है, तो दो और पांच में अंतर दिखाई देगा । पर जब अनंतता पैमाना हो तो दो में, पांच में, पचास में, और पांच सौ में, कोई अंतर नहीं है । सब एक बराबर हैं, सब सीमित हैं । और सब इसलिए अनंत के सामने नगण्य हो गए, शून्य ।

मन जिन संख्याओं में उलझता है, वो सारी संख्याएं उसके अपने इतिहास का उत्पाद हैं । किसी क्षण में आपको लगता है, कि दो छोटा है, पचास बड़ा है । कभी आपको लगता है कि पचास छोटा है और पांच सौ बड़ा है । इनका अपना कोई एब्सोल्यूट अर्थ नहीं होता । ये सब आपके इतिहास से आती हैं बातें । आपको अगर लगेगा कि आपको मीटर भर की उड़ान भरनी है, तो पिंजरा आपके लिए अभी बहुत बड़ा है । पर यदि कोई आपको आपके सिखा जाए कि नहीं दस मीटर की उड़ान भरनी है, तो पिंजरा आपके लिए बहुत छोटा हो जायेगा । स्वभाव आपका अनंतता है, स्वभाव आपका असीमित है । वहाँ पर कोई भी सीमा नहीं चलेगी, और सारी सीमाएं एक बराबर हैं, चाहे आप एक मीटर का पिंजरा बनाओ, और चाहे दस मीटर का बनाओ, उसमें बराबर का दुःख मिलेगा ।

देखिये, जिस के पास एक बहुत छोटा सा पिंजरा है, वो स्वयं छोटा रह जाएगा । तो उसका और पिंजरे का जो अनुपात है उसको देख लीजिये, जिसका पिंजरा ज़रा बड़ा है, पिंजरा माने आपके संस्कार, आपकी मान्यताएं, वो वर्जनाएं जिनमें आप रहे हैं । तो जिसका ज़रा ज़्यादा बड़ा पिंजरा है, वो स्वयं भी उस पिंजरे के अनुसार ज़रा ज़्यादा बड़ा हो जायेगा । तो उसका और पिंजरे का अनुपात देख लीजिये, अनुपात एक ही आ जायेगा । तो दोनों को बराबर का दुःख मिलना है । एक गरीब व्यक्ति है, उसकी एक तरह की आमदनी है, एक अमीर व्यक्ति है, उसकी दूसरी तरह की आमदनी है । दोनों से यदि आप पूछें कि तंगी कितनी है? शोध हुआ है इसपर ।

मरते हुए लोगों से पूछा गया कि कितना और होता, तो सुखपूर्वक मरते? जिनके पास दस हज़ार था, उन्होंने कहा, देखिये पचास हज़ार होता । जिनके पास दस करोड़ थे, उन्होने कहा, पचास करोड़ । जिनके पास हज़ार करोड़ थे, उन्होने कहा पचास हज़ार करोड़ । कुल मिला जुला के देखा गया कि करीब करीब पाँच और सात का अनुपात हर जगह बैठ रहा था । अंतर नहीं पड़ता कि आपके पास कितना है, आपको जिस अनुपात में और चाहिए वो अनुपात एक ही रहता है । तो आप कितना भी आगे बड़ जाओ, अभी आपको उतना ही आगे चाहिए होगा । पिंजरा बड़ा होता जाता है, आपकी कामनाएं भी बड़ी होती जाती हैं । पिंजरा बड़ा होता है तो आपकी मांगने वाली दृष्टि भी उतनी ही दूर तक जाती है ।

तो इसलिए ये तर्क या ये बहाना, कि पिंजरे से मुक्ति यदि नहीं मिल सकती तो चलो पिंजरे को बड़ा कर लेते हैं, इसमें मत फंस जाईयेगा ।

मुक्ति इसमें नहीं है कि पिंजरा बड़ा कर लिया, मुक्ति इसमें है कि पिंजरे से रिश्ता अब ग़ुलामी का नहीं रहा । पिंजरा छोड़ने का मतलब यही है कि अब पिंजरे से जो रिश्ता है ग़ुलामी का नहीं है । पिंजरा पड़ा हुआ है, चिड़िया एक दिन उड़ते उड़ते आयी और उसके ऊपर बैठ गयी । ऊपर बैठ कर गाना गा रही है । अभी भी वो पिंजरे के पास है, पर अब आज़ाद पक्षी की तरह उसके पास है । अब बैठ कर के गा सकती है । क़ैद में तो सिर्फ रो सकती है ।

तो न छोड़ना हो यदि उस सबको जिसकी संज्ञा अभी पिंजरे से दी जा रही है, तो उससे जुड़े रहिये, पर आज़ादी में । आध्यात्मिकता अक्सर ये बोलती है, कि ये त्याग दो, वो छोड़ दो, नकार की भाषा खूब बोलती है तो डरा देती है| तो डरा देती है । इसलिए आम मन उससे दूर भागता है, कि ये सब ग्रंथ पड़ के तो सब छोड़ देना पड़ेगा ।

विषय नहीं छोड़ने होते, विषयों की ग़ुलामी छोड़नी होती है ।

ग़ुलामी छोड़ दी, अब विषय के पास जाओ ना, खेलो, कौन मना कर रहा है । ग़ुलामी छोड़ दी ना, अब जाओ पिंजरे के पास भी । तुम्हें बहुत सुहाता है, तुम जाओ, उसके ऊपर बैठ जाओ । विषय नहीं छोड़ने हैं, ग़ुलामी छोड़नी है, विषय बाहर हैं, ग़ुलामी? भीतर है । विषय चाहोगे भी तो कभी छोड़ नहीं पाओगे, क्योंकि शरीर ही विषय है पहला तो। जब तक जी रहे हो, तब तक कम से कम एक विषय तो पकड़ ही रखा है, कौन सा?

श्रोतागण : शरीर

वक्ता : दूसरा विषय है, सांस । जब तक जी रहे हो, सांस तो अंदर बाहर कर ही रहे हो ना? हवा तो पकड़ ही रखी है? सूरज की रौशनी और मिट्टी तो पकड़ ही रखी है? हवा, पानी, अन्न तो पकड़ ही रखा है? या इन विषयों से भी आज़ाद हो जाओगे?

तो विषयों से आज़ादी का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है, और वहाँ पे कोई सीमा बनाना भी मत । कि बच्चे को स्पर्श कर लेंगे, बूढ़े को स्पर्श कर लेंगे, स्त्री अस्पृश्य है । ये तुमने अपनी सुवुधा रे सीमा खींच ली है, ये बेकार की बात है । या तो कह दो कि कुछ भी नहीं छुएंगे । फिर तो शरीर का ही परित्याग करना पड़ेगा, वो तुम कर नहीं सकते । या ये कह दो कि जो सामने आएगा वो सब ग्रहण करेंगे, लेकिन ग़ुलामी में नहीं मुक्ति में । छुएंगे, बंधेंगे नहीं । संसार जो कुछ भी प्रस्तुत करेगा, हम उसके लिए प्रस्तुत हैं । खेलेंगे, क़ैद नहीं हो जायेंगे । प्रेम जानेंगे, दासता नहीं ।

श्रोता : सर, जो आज़ादी है या मुक्ति है, उसमें स्थापित कैसे रहे? जैसे कई बार विषय की तरफ जाते हैं तो पुरानी वृत्तियाँ हैं, संस्कार हैं, वो फिर से ग़ुलामी की तरफ लौटने के लिए तैयार कर देते हैं । तो आज़ादी में स्थापित कैसे हुआ जाए?

वक्ता : नहीं, आज़ादी कुछ है नहीं । आज़ादी शब्द का अस्तित्व ही मात्र ग़ुलामी को नकारने के लिए है । आपको ये याद दिलाने के लिए है, कि ग़ुलामी से हट कर भी कुछ है । आज़ादी में इसलिए स्थापित नहीं रहा जाता । स्थापित आप उसमें हो । आसमान का पक्षी कहाँ चला जाएगा कि वो आसमान में स्थापित ना रहे? वो जहाँ भी जाएगा, आसमान में ही तो स्थापित है । तो आप कितना भी भटक जाओ, बहक जाओ, घर से दूर निकल जाओ, गिर जाओ, उठ जाओ, दाएं चले जाओ, बाएं चले जाओ, जिस दिशा में भटकना हो वहाँ घूम आओ, स्थापित कहाँ हो? आकाश में ही हो । और उसमें कोई केंद्र नहीं होता । उसमें कोई बिंदु नहीं होता कि यहाँ पर हैं, तब तो हम कहेंगे की स्थापित हैं, अन्यथा नहीं हैं ।

हमने बात की थी ना, कि मुक्ति केंद्र हीनता है । तो उसमें स्थापित होने का सवाल ही नहीं पैदा होता, क्योंकि आप उससे कभी विस्थापित हो ही नहीं सकते । जो विस्थापित होता हो उसको तो दोबारा लाओगे उसके स्थान पर, जो विस्थापित ही नहीं हुआ हो, उसके कैसे? जिसका घर हर जगह हो वो कभी बेघर कैसे हो सकता है? या हो सकता है?

ये भावना देखनी है, कि हम कैसे ये मान लेते हैं कि शान्ति से विस्थापित हो गए । वो कहाँ से आ जाती है? वो ठीक वहाँ से आती है जहाँ ये कहा जाता है कि शान्ति ‘कहीं’ पर है । यदि तुम्हें पता है कि आसमान में जहाँ जाओ वहीं शान्ति है, तो कभी कहोगे क्या कि शान्ति अब नहीं है? अगर पक्का पता हो कि जहाँ जाओ वहीं शान्ति है और वो इतनी सर्वत्र है कि उसकी बात करना ही बेकार है, जहाँ जाओ वहीं है, तो कभी उसकी बात भी करोगे? पर हमें पढ़ा ये दिया गया है कि शान्ति कुछ है, जो कहीं पर है । वहाँ चले जाओगे तो मिलेगी, और अगर वहाँ पहुँच नहीं पाते तो क्या बोलते हो?

श्रोतागण : शान्ति नहीं है

वक्ता : शान्ति नहीं है । इस बात को समझना, शान्ति कुछ नहीं है, इसीलिए हर जगह है, इसलिए उसकी बात करना ही व्यर्थ है । तुम जहाँ जाओ वहीं शान्ति है । तुम्हारा स्वभाव ही शान्ति है, तुम ही शान्ति हो । तो उसे खो कैसे सकते हो । लेकिन जैसे ही ये धारणा बनाते हो, कि वहाँ पर शान्ति है, उस कमरे में, तो तुमने क्या कह दिया, कि बाकी कमरों में?

श्रोतागण : अशान्ति

वक्ता : और वो जो कमरा तुम बनाते हो जिसमें शान्ति है, वो कमरा भी बड़ा दैवीय, बड़ा काल्पनिक । किसी खोजी उपन्यास जैसा होता है । कहीं तहखाने में सुरंग जा रही है, वहाँ वो मिलेगा, साधना करो । और जब तक एक विशिष्ट आसन नहीं लगाया तब तक उस कमरे में पहुँच नहीं सकते । और वो कमरा कभी मिलता नहीं । और बाकी सारे कमरों में तुमने क्या लेबल चिपका रखा है? यहाँ शान्ति नहीं है । जब तक शान्ति को किसी विशिष्ट जगह, विशिष्ठ स्थिति, विशिष्ट व्यक्ति, में खोजोगे, तब तक लगातार अशांत रहोगे । ये छोटी सी बात है, इसको समझ लो । शान्ति कुछ नहीं है, उसे कहीं नहीं खोजा जा सकता । कहीं नहीं पाओगे ।

जहाँ कुछ नहीं होता उसको आसमान कहते हैं । खाली-स्थान को आकाश कहते हैं । उसे कहाँ खोजोगे? खोओगे, तब ना खोजोगे । खो ही नहीं सकते तो खोजोगे कैसे? खोजने मत निकल जाना, वहीं गड़बड़ हो जाती है । कहीं है ही नहीं तो मिलेगी कैसे? खोजने वाला ठहर जाए, तो खोज पूरी हो गई । और जब तक खोजने वाला लगा हुआ है खोजने में, तब तक खोजते रह जाओगे । ये जितनी बातें मन में बैठा रखी हैं, कि ये मिल जायेगा तो कुछ ख़ास हो जायेगा, वो मिल जायगा तो कुछ ख़ास हो जायेगा, ये आशाएं, ये उम्मीदें, निकाल दो ना मन से ।

सत्य को यूँ ही जानने वालों ने निर्विशेष नहीं कहा है, कुछ विशेष नहीं होगा आपके जीवन में, क्यों झूठी उम्मीदें बाँध कर बैठे हो, “वहाँ पहुँच जाएंगे तो कुछ विशेष हो जायेगा|” कुछ ख़ास हो जायेगा? होना ही नहीं है । दो साल बाद, कुछ विशेष हो जायेगा, होना ही नहीं है । घर बन जाएगा, कुछ ख़ास हो जाएगा । समृद्धि आ जाएगी कुछ ख़ास हो जायेगा, बच्चा बड़ा हो जायेंगे कुछ ख़ास हो जायेगा ।

नहीं होना है । क्यों नहीं होना है? क्योंकि है ।

विशेष से विशेष, परम विशेष जो हो सकता था, वो है, तुम उससे बाहर नहीं जा सकते । तुम लगातार स्थापित हो उसमें । अब किसकी तालाश कर रहे हो? इसलिए, ना-उम्मीदी, तुरंत सत्य का दर्शन है, तत्काल । उम्मीद का अर्थ होता है, कि सत्य भविष्य में है । उम्मीद का अर्थ होता है, कि शान्ति भविष्य में है । और ना-उम्मीदी का अर्थ होता है, कि अगर भविष्य में नहीं है, तो कहाँ है?

अभी है, अभी है ।

जान लो की उसमें स्थापित हो, फिर उसे खोजो, फिर खेल है, फिर मज़ा है । मिली हुई चीज़ को भी खोजना बड़ा मनोरंजक खेल है । खेलो उसे । कोई ज़रुरत नहीं है गाने कि, की मुझे मिल गया, मुझे मिल गया । ये जाने रहो कि मिला हुआ है, फिर कहो, खो गया, खो गया, अब ठीक है । संतों ने, आधे से ज़्यादा तो विरह और वियोग के गीत गायें हैं । क्या वास्तव में उनका कुछ खो गया था, जो गाये जा रहे थे? नहीं । पर बड़ा मजा आता है । जब पता हो कि है, तब बड़ा मजा आता है, ये कहने में कि खो गया है। जिसका पता हो, कि कभी छूट नहीं सकता, उसके रूठने में बड़ा मजा आता है । और वो ना रूठता हो, तो खुद ही रूठो । क्योंकि कितना भी रूठोगे, टूटोगे नहीं । अब खेल है । अब लीला है ।

लेकिन अगर रिश्ता कच्चा हो, रिश्ता ग़ुलामी का हो, तो फिर रूठने पर भी पाबंदियाँ होती हैं । रूठने में भी डरते हो । कहीं ज़्यादा रूठ गए तो टूट ही ना जाए । तो सहम सहम के रूठते हो, फिर देखते हो पीछे, अभी ठीक है? चलो थोड़ा और रूठ लो ।

(अट्टाहस)

अब देख रहे हैं कि ज़्यादा रूठेंगे तो भाव नहीं मिलेगा । तो रूठना बंद ।

जब जान जाओ, रिश्ता पक्का है, की स्थापित हैं हम इसी रिश्ते में, की जैसे आसमान और पंछी का रिश्ता है, पक्षी कभी आसमान से बाहर जा ही नहीं सकता, अब बोलो कि आसमान खो गया । और खोजने निकलो, बड़ा मज़ा आता है । पक्षी उड़ान भर रहा है, क्या करने के लिए? आसमान खोजने के लिए । करो । जितनी उड़ान भरनी है भरो, और खोजो आसमान को । पर पता रहे कि आसमान में उड़ान भर रहे हैं, आसमान खोजने के लिए । अब ये जो मूर्खता होती है, ये बड़ी प्यारी होती है । ये जो मूर्खता होती है, अब ये बड़ी मधुर होती है । इसी मूर्खता का नाम आध्यात्मिकता है ।

(मुस्कुराते हुए श्रोतागण)

कोई रोक नहीं है खोजने में, कोई रोक नहीं है लक्ष्य बनाने में । जो करना है करो, पर जानते रहो कि कुछ खो नहीं गया है ।

श्रोता : सर, जो पिंजरे में है, वो तो इस बात का प्रयोग कर सकता है, कि ग़ुलाम हूँ तो क्या हुआ, आकाश में ही तो हूँ । तो बाहर आने के लिए उसके पास कोई तो मुद्दा होना चाहिए, क्योंकि पिंजरे की दुनिया तो उसको अपने आप में पूर्ण ही लग रही है । उसको अभी वो तीसरा तल नहीं पता है ।

वक्ता : अगर पूर्ण लग रही होती तो पिंजरे के साथ उड़ रहा होता ना । पिंजरे और पंख में कोई सम-आयोजन होता ही नहीं । वहाँ तो विभाजन होता है । वहाँ तो कटुता होती है । वहाँ तो अलगाव है । पिंजरे और पंख का क्या मेल? पक्षी को कुछ भी लगता रहे, पंख तो सच्चाई बयान कर देते हैं ना । काश कि ऐसा होता कि पंछी, पिंजरा देख कर इतना मन्त्रमुद्ध हो जाए कि अपने पंख ही काट दे । पंख कटते नहीं । पंख पक्षी के जिस्म पर ही नहीं होते, उसके मन में भी होते हैं ना । आसमान उसके बाहर ही नहीं होता, उसके भीतर भी होता है ना । ऊपर ऊपर से तो पंख काट भी सकते हो एक बार को, भीतर वाले पंख कैसे काटोगे? पंख तो रहेंगे ही, और पंखों का सलाखों से कभी कोई मेल होगा नहीं ।

श्रोता : भ्रम में भी नहीं होगा?

वक्ता : भ्रम में हो सकता है, लेकिन पंख जब भी फड़फड़ायेंगे तो चोट लगेगी, भ्रम टूट जायेंगे । आपको ये भ्रम हो सकता है कि बड़े आनंद में हैं ।

श्रोता : वो गाना है ना सर, “ये बंधन तो प्यार का बंधन है”

वक्ता : हाँ, वो गाना गाये, और गाते गाते पंख फड़फड़ा दिए, और पंख सलाखों में, और लगी ज़ोर की चोट, और गाना गया रुक । तो भ्रम हो सकता है । लेकिन भ्रम जितना गहराएगा, उसका टूटना उतना ही निश्चित होता जायेगा, और उतनी ही ज़्यादा चलगेगी । पिंजरे के भीतर का पक्षी कह सकता है मैं आज़ाद हूँ, और इतनी ज़ोर से बोल सकता है कि खुद उसे ही यकीन हो जाए कि आज़ाद हूँ । और जैसे ही यकीन हुआ, क्या करेगा? उड़ेगा, और जैसे ही उड़ेगा लगेगी चोट । तो भ्रमों का गहराना अच्छी बात है । भ्रम जितना ही गहरा होता है, उसके टूटने की सम्भावना उतनी ही बढ़ती है ।

श्रोता : सर, हमें सिखाया यही जाता है, बचपन से कि अरे देखो तुम्हें तो इतना बड़ा पिंजरा मिला है, हमें और कम में गुज़ारा करना है, अपनी आकांक्षाओं को और कम में रहना है| उससे हम और कम बंधे रहेंगे लोगों से विषयों से और हम स्वकेंद्रित हो कर मुक्त होंगे । ऐसा धार्मिक रूप से घुट्टी में पिलाया जाता है, और अगर ज़्यादा उड़ोगे तो ये ये ये होगा ।

वक्ता : इच्छाएं अलग हैं, स्वभाव अलग है । पक्षी के पास न उड़ने का कोई विकल्प नहीं है । उड़ना, पक्षी की इच्छा नहीं है, उसकी ज़िन्दगी है । ये वक्तव्य कि मैं उड़ना नहीं चाहता, ये अंतर्विरोधी वक्तव्य है । पक्षी का अर्थ ही है उड़ना, पक्षी ये कह ही नहीं सकता कि मैं उड़ना नहीं चाहता । उड़ना उसकी इच्छा की बात है ही नहीं । उड़ना उसकी ज़िन्दगी है । वो इच्छा करे, चाहे ना करे । इच्छा होगी, तो भी उड़ेगा, इच्छा नहीं, तो भी उड़ेगा । पक्षी माने उड़ान । उड़ान वैकल्पिक नहीं होती । स्वभाव का कोई विकल्प नहीं होता । कोई कहे मुझे शान्ति नहीं चाहिए, मूर्खता पूर्ण वक्तव्य है । और लोग मिलते हैं ना, कि नहीं भाई हमें नहीं जाना है किसी चर्चा में, हमें नहीं पड़नी कोई किताब । नहीं हमें प्रेम वगैरह नहीं चाहिए, हमें आज़ादी नहीं चाहिए, हम ऐसे ही ठीक हैं । मूर्खतापूर्ण बात है । तुम्हें अगर आज़ादी नहीं चाहिए तो तुम ग़ुलामी में खुश हो? आओ हम तुम्हें ग़ुलाम बना के लिए चलते हैं फिर । तब तो तुम कहोगे, नहीं हमें क्यों लेजा रहे हो, हमारी मर्ज़ी नहीं है । पर अभी अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हें आज़ादी नहीं चाहिए । जिसे आज़ादी नहीं चाहिए फिर वो अपनी मर्ज़ी की बात क्यों कर रहा है । ये साधारण सा कॉनट्रेडिक्शन, आपको दिखना बंद हो जाता है, जब आप डरे हुए होते हैं ।

अभी जो रविवार को नाटक हो रहा था, उसमें ठीक यही था । एक सज्जन थे, उनसे कहा गया, ज़रा नाटक ही देख लीजियेगा । बोले नहीं भइया, हम ऐसे ही ठीक हैं, हमें आज़ादी नहीं चाहिए । तो जो कह रहे थे, उन्होने कहा ठीक है हम आपको बलपूर्वक लिए चलते हैं । अब आपको आज़ादी नहीं चाहिए, तो साधारण सी बात है कि आपको क्या चाहिए? ग़ुलामी । चलिए, फिर ग़ुलाम की तरह चलिए । तो बोले, क्या कह रहे हो? हम कहाँ कह रहे हैं, आपने ही तो कहा । और आपको पता भी नहीं कि आपने क्या कहा ।

(अट्टाहस)

कुछ बातें, चाहने की नहीं होती हैं । वो होती हैं । वो चाहो या न चाहो, हैं ।

श्रोता : सर, हम सब की हालत तो यही है, कि हम बंधे हुए आज़ादी चाहते हैं ।

वक्ता : और प्रतीकों को भूला मत करिये । देखिये जैसे कि आपने कहा कि लोग होते हैं, वो कहते हैं कि छोटा पिंजरा, बड़ा पिंजरा, छोटे में रहो, अभी तो बड़ा वाला मिल रहा है, ये सारी बातें । पिंजरा माने क्या? पिंजरा माने यही सारी बातें तो, पिंजरा कोई होता थोड़े ही है वस्तु रूप में । पिंजरा शब्द, जो हम इस्तेमाक्ल कर रहे हैं, प्रतीकात्मक ही तो है । इन सारी बातों को ही तो पिंजरा कहा जाता है । और ये बातें जब तक बातें हैं, तब तक अभी पिंजरा हुई नहीं । ये बातें जिस समय आपके भीतर घर कर लेती हैं, वो पिंजरा बन जाती हैं । पिंजरा माने क्या? कोई आएगा क्या आपको दीवारों के बीच में क़ैद करने के लिए? नहीं । यही सब बातें जब आपके भीतर घुस जाती हैं, तो पिंजरा बन जाती हैं ।

तो, जो लोग आपसे कह रहे हैं कि देखो, पिंजरा अच्छा है, उन्हें ही पिंजरा जानिये । जो आपसे कहे कि पिंजरा अच्छा है, उस आवाज़ को ही पिंजरा जानिये । अन्यथा पिंजरा कहाँ है? जो कोई तुमसे कहे कि ग़ुलामी बढ़िया बात, उसको ही जान लेना कि वही मालिक बनना चाहता है तुम्हारा । जिसको, मालिक बनने में रूचि नहीं होगी, वो ग़ुलामी क्यों बेचेगा? ग़ुलामी की तरफदारी तो वही करेगा, जो कहीं न कहीं मालिक बनना चाहता है । खुद ग़ुलाम है, मालिक बनना चाहता है, तो और ग़ुलाम तैयार कर रहा है, जिन पर मालकियत कर सके ।

जब भी कभी पिंजरे के पक्ष में, ग़ुलामी के पक्ष में तर्क सुनना, तो उन तर्कों को काटना मत । बस ज़रा सा दूर हो जाना । क्योंकि वो तर्क नहीं हैं, वो पिंजरे की सलाखें ही हैं, जो तुम्हारी तरफ आ रही हैं, तर्क बन के । जो व्यक्ति तुम्हें कह रहा हो, कि पिंजरा सुन्दर है, और वहाँ सुविधाएं है, और आराम है, वो व्यक्ति नहीं है, वो स्वयं पिंजरा ही है । बस ज़रा सा पीछे हो जाएँ । पिंजरा कहीं आसमान से थोड़े ही गिरता है, ऐसे ही बनता है । धीरे, धीरे, हौले हौले, जब तुम्हें पता भी नहीं होता तब ।

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