आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
ऋण चुकाने में ही जीवन बिताना है? || महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
7 मिनट
41 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा था कि पहले अपने सारे ऋण चुका लो, फिर मेरे पास आना। पर ऋण चुकाने के प्रयास में मैं सांसारिक चीज़ों में उलझ करके समय व्यतीत कर रहा हूँ। परिस्थितियाँ मेरी बड़ी जटिल हैं, मेरे भीतर एक चिड़चिड़ापन है। मैं इस चक्रव्यूह से कैसे निजात पाऊँ? मुक्ति कैसे हो? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: ऋण लिया है तो कोई सम्पदा भी तैयार की होगी, कुछ माल भी तो तैयार किया होगा न। ऋण लिया माने पैसे आए, उन पैसों से कुछ ख़रीदा भी तो होगा। ऋण चुकाना तो तभी भारी पड़ेगा जब जो सम्पदा तैयार कर ली है, उससे बड़ा मोह हो गया हो। ऐसा तो किसी के पास नहीं होता कि उसके पास ऋण चुकाने लायक राशि न हो, बस उसने वो राशि फँसा रखी होती है। कहाँ? सम्पत्ति में। अचल सम्पत्ति हो गई होती है जो लिक्विडेट (परिसमाप्त) नहीं हो रही होती है, है न?

भाई, मान लीजिए कि आपने ऋण लिया और उस ऋण से आपने मकान खड़ा कर दिया है, और आपने और ऋण लिया और मकान खड़ा कर दिया; और ऋण लिया, उससे आपने कहीं दुकान खरीद ली; और ऋण लिया, उससे आपने सोना-चाँदी, गहना खरीद लिया है। अब ऋण बढ़ गया है, आप उसे चुका रहे हैं, पर वो चुकाया नहीं जा रहा। और आप कह रहे हैं, “मैं क्या करूँ? मैं बेबस हूँ।”

आप बेबस तो नहीं हैं। राह तो बहुत आसान है। ये सब कुछ जो ऋण ले करके खड़ा कर लिया है, जमा कर लिया है, ये आपकी सम्पत्ति ही तो है। इसी से ऋण चुका दो न। पर नहीं, हमारा इरादा ये रहता है कि ऋण से जो कुछ बना लिया, वो तो बना ही रहे। अगर ऋण से घर खड़ा कर लिया, ऋण से गाड़ी खड़ी कर ली, ऋण से दुकान खड़ी कर ली, व्यवसाय खड़ा कर लिया, गहने खड़े कर लिए, तो वो सब तो बचे रहें। वो सब बचे भी रहें और ऋण चुका भी दिया जाए। ये लालच है।

अरे! जितना ऋण बचा हो, वो अगर बहुत भारी पड़ता हो तो उतने की जायदाद बेच दो, भाई। काहे उसको गले से बाँधे फिरना? क्यों आवश्यक है एसेट्स (सम्पत्तियों) को बचाए रखना? और फिर जितना ऋण लिया था, उतना पूरा-का-पूरा तो अभी शेष नहीं होगा, बहुत कुछ तो चुका चुके होओगे। तो ऐसा भी नहीं है कि सब ज़मीन-जायदाद बेच देनी पड़ेगी ऋण उतारने के लिए।

अब अगर उस मुकाम पर आ गए हैं आप कि बड़ी अकुलाहट होती है, बड़ा चिड़चिड़ापन उठता है, ऋण से मुक्ति पाने की प्रबल इच्छा होती है, तो फिर आप उस जायदाद में रहकर भी क्या करेंगे जो आपने ऋण से खरीदी है? क़र्ज़ा ले करके घर खरीद लिया, अब रह तो उस घर में रहे हो, लेकिन क़र्ज़े के कारण दम घुटता है, तो उस घर में रहकर भी क्या चैन पाओगे? भला है, बेहतर है कि मुद्दा ख़त्म करो, लेना-देना सब एक बराबर करो। इस हाथ दो, इस हाथ लो और बेड़ियाँ तोड़ो, मौज मनाओ। वो चक्कर ख़त्म हुआ।

मैं छोटा था, एक बार गहनों की दुकान में गया परिवार वालों के साथ, बड़ी दुकान थी। वहाँ मैंने कान के बाले देखे, नाक की नथुनी देखी, कंठहार देखे। और मैं छोटा, मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। इतने बड़े-बड़े कानों के बाले, भारी, और छोटे बच्चे को तो और भारी लगें, वैसे ही नाक की नथुनी, तो मैंने पूछा कि “ये जब औरतें कान में पहनती हैं, तो कान नहीं फट जाता?”

आशय समझिएगा। उस छोटे से बच्चे को भी यह बात स्पष्ट थी कि ऐसी सम्पदा लटकाए रखने से क्या फ़ायदा जो कान ही फाड़ दे। और जितना वो बड़ा होगा और जितना वो भारी होगा, उतना ही महँगा होगा। पर यह तो बड़े सम्मान की बात हुई, बड़ी क़िस्मत की बात हुई कि इतनी भारी, महँगी चीज़ कान में लटकाए घूम रहे हो। पर वो बच्चा तो सवाल यह पूछ रहा है कि जितना भारी होगा और जितना महँगा होगा, उतना ही ज़्यादा वो तुम्हारा कान फाड़ देगा, नाक फाड़ देगा। इतने भारी क्या कुंडल लटकाए घूम रहे हैं जो कान ही फाड़े दे रहे हों? कुछ हल्का-फुल्का धारण करिए, आगे बढ़िए।

इधर माऊंट आबू आए हुए हैं हम। एक यहाँ पर दुकान है। जगह-जगह उसके विज्ञापन, और एक-से-एक अभद्र, भौंडे विज्ञापन। ऐसी चीज़ें देखकर मेरी जिज्ञासा बढ़ती-ही-बढ़ती है कि आदमी इतना अश्लील कैसे हो सकता है। जहाँ देखो, वहाँ टाँग रखा है, ‘आई लव चाचा’। तो मैं घुस गया उस दुकान में, तो वहाँ वो बोल रहे हैं कि ये हाथीदाँत का सामान है।

अब मैं हाथीदाँत को देखूँ वो तो कोई बहुत बड़ा नहीं, कुल इतना (छोटा-सा), बड़े-से-बड़ा हाथीदाँत कुल इतना। उसके लिए पूरे हाथी की जान जाती है। हाथी के पास चूँकि हाथीदाँत है, इसीलिए दुनिया उसकी जान ले लेती है। आपकी भी जान इसीलिए ली जा रही है क्योंकि आपके पास हाथीदाँत है।

ऐसे ही घटना परसों घटी, जाने कल। दिलवाड़ा मंदिर है न, गुरुशिखर के रास्ते में जो पड़ते हैं, उससे थोड़ा आगे बढ़े, तो वहाँ लिखा हुआ है, ‘*रैबिट फार्म*’। किसी ने ग़ौर किया था? फिर मेरी उत्सुकता, मैंने कहा कि ये कर क्या रहे हैं बेचारे खरगोशों के साथ, जाकर देखूँ। तो वहाँ गया, वहाँ एक-से-एक प्यारे अंगोरा खरगोश, जैसे रुई का गोला, और उनको इतने-इतने पिंजड़ों में कैद कर रखा है। उनके बाल काट-काटकर निकाले जा रहे हैं और उनकी बुनाई चल रही है।

इतना बड़ा खरगोश और इतना ही बड़ा उसका पिंजड़ा, जिसमें वो ठीक से चल-फिर ही नहीं सकता। अरे! खेलना, दौड़ना-भागना, क्रीड़ा करना, खरगोश जैसा मुक्त जीवन बिताना तो दूर की बात है, वो उसमें ठीक से मुड़ भी नहीं सकता। मैंने कहा कि इसके बालों के कारण इसकी जान गयी। आप भी बहुत उपयोगी हैं, आपके पास भी या तो हाथी की तरह दाँत हैं या अंगोरा खरगोश की तरह बाल हैं, तो दुनिया आपको पकड़े हुए है। क़र्ज़ उतार दीजिए।

मुझे हाथी मिले तो मैं हाथी से कहूँगा कि तू अपने दाँत उतार दे, अंगोरा खरगोश मिले तो उससे कहूँगा कि तू अपने बाल उतार दे। तुम्हारे पास जो कुछ भी ऐसा है जो दूसरों के लिए कीमती हो, सब उतार दो। आप लालची आदमी तो हो नहीं, अपने लिए तो क़र्ज़ लिया नहीं होगा। ठीक वैसे जैसे हाथी के दाँत उसके किसी काम के नहीं होते, वैसे ही आपने जो क़र्ज़ उठाया है, आपके किसी काम का नहीं है।

हाथी के जो दाँत होते हैं, उसके किसी काम के थोड़े ही होते हैं। सुना है न? हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और। हाथी के लिए उसके अपने दाँतों का कोई व्यक्तिगत लाभ या मूल्य नहीं है, पर फिर भी बेचारे की जान जाती है। वैसे ही बहुत दूसरे लोग होते हैं, उन्होंने बड़े क़र्ज़े उठा रखे होते हैं। भले ही उन क़र्ज़ों से उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ ना मिल रहा हो, पर उन क़र्ज़ों के नीचे उनकी जान जाती है। मत करिए ये सब। बाल उतार दो, दाँत तोड़ दो।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें