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रमाबाई सरस्वती - जीवन वृतांत

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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उन्होंने भारतीय स्त्रियों को दयनीय स्थिति से बाहर निकालने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर व्यक्ति दृढ़ निश्चय कर ले तो गरीबी, अभाव, व दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है।

हम बात कर रहे हैं - पंडिता रमाबाई सरस्वती की।

वर्ष 1858 में उनका जन्म मैसूर रियासत में हुआ था। उनके पिता विद्वान और स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे। पर उस समय की पारिवारिक रूढ़िवादिता इसमें बाधा बनी रही थी।

रमा ने बचपन से ही घर पर खूब साधु-संतों को आते देखा। लेकिन उनके परिवार कि आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उनका पूरा परिवार गाँव-गाँव घूम कर पौराणिक कथाएँ सुनाकर पेट भरा करते थे।

पंडिता रमाबाई असाधारण प्रतिभा की धनी थीं। अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके 12 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने बीस हजार श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण उन्होंने मराठी के साथ-साथ कन्नड़, हिंदी, तथा बांग्ला भाषाएँ भी सीख लीं थी।

20 वर्ष की उम्र में ही रमाबाई को संस्कृत ज्ञान के लिए 'सरस्वती' और 'पंडिता' की उपाधियाँ प्रदान की गई थीं। तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी जाने लगीं थी।

1876-1877 के भीषण अकाल में उनके पिता और माता का देहांत हो गया। रमाबाई व उनके छोटे भाई-बहन पैदल भटकते रहे और तीन वर्ष में इन्होंने चार हजार मील की यात्रा की।

22 वर्ष की उम्र में अपने भाई की मृत्यु के बाद, रमाबाई ने एक तथाकथित नीची जाति के एक वकील से विवाह किया। पर एक नन्ही बच्ची को छोड़कर, डेढ़ वर्ष बाद हैजे से उनके पति की भी मृत्यु हो गई।

नीची जाति में विवाह करने के कारण रमाबाई को कट्टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। और वे पूना आकर स्त्री-शिक्षा के काम में लग गईं। उन्होंने 'आर्य महिला समाज' नामक संस्था की स्थापना की। जिसकी शीघ्र ही महाराष्ट्र भर में शाखाएँ खुल गईं।

रमाबाई वर्ष 1883 में डॉक्टर बनने की इच्छा से ब्रिटेन गईं। लेकिन सुनने की शक्ति लगातार कम होने की वजह से कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला।

अपने प्रवास के दौरान वे ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गईं। हिंदू धर्म की रूढ़िवादिता व महिलाओं के अधिकारों के प्रति असम्मान को उन्होंने धर्म परिवर्तन का मुख्य कारण बताया।

वर्षों बाद अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, "केवल दो चीजें थीं जिन पर वे धर्म-शास्त्र, महाकाव्य, पुराण और आधुनिक कवि, व वर्तमान समय के लोकप्रिय कथावाचक, उच्च जाति के पुरुष व रूढ़िवादी सहमत थे: उच्च और निम्न जाति की महिलाएँ, एक वर्ग के रूप में बुरी, राक्षसों से भी बदतर, असत्य के समान अपवित्र थीं; और उन्हें पुरुषों की तरह मोक्ष नहीं मिल सकता था।"

लेकिन इसके बाद उनका ईसाई धर्म की रूढ़िवादिता से भी सामना हुआ। विदेशी धरती पर रहकर भी उन्होंने कई तरीकों से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने का प्रयास किया: उन्होंने शाकाहारी भोजन नहीं छोड़ा, उन ईसाई सिद्धांतों को खारिज कर दिया जिन्हें वह तर्कहीन मानती थीं।

वर्ष 1889 में भारत लौटने पर उन्होंने विधवाओं के लिए 'शारदा सदन' की स्थापना की। बाद में 'कृपा सदन' नामक एक और महिला आश्रम भी बनाया।

पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी, जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सकें। उन्होंने मुक्ति मिशन शुरू किया, जो ठुकराई गई महिलाओं-बच्चों का ठिकाना था।

भारत में रूढ़िवादी लोगों द्वारा उनके धर्म परिवर्तन का विरोध हुआ। एक अखबार ने उन पर विदेशियों की मदद से अपने हमवतन लोगों के प्राचीन धर्म में आग लगाने का आरोप लगाया। ऐसे में श्री ज्योतिबा फुले व श्रीमती सावित्रीबाई फुले ने उनका साथ दिया।

उनकी बेटी मनोरमा ने एक साझेदार के रूप में उनके साथ काम किया, स्कूलों और मिशन को चलाने में मदद की। लेकिन उनका स्वास्थ्य खराब था, संभवतः अधिक काम करने के कारण। और 40 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। इसके तुरंत बाद, 5 अप्रैल, 1922 को रमाबाई की मृत्यु भी हो गई। इस समय वह 63 वर्ष की थीं।

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