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Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: ज्योति दिये की दूजे घर को सजाए का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल सही जगह उंगली रखी है यही सवाल पूछने लायक है। बढ़िया!

गहरा ये भेद कोई मुझको बताए

किसने किया है मुझपर अन्याय

जिसका ही दीप वो बुझ नहीं पाए

ज्योति दिये की दूजे घर को सजाए

किस दीप की बात हो रही है? किस दूजे घर की बात हो रही है? और गाने वाला कौन है?

'मन' गा रहा है। यहाँ(अपनी आँखों की तरफ इशारा करते हुए) है ज्योति। इस ज्योति से सारा संसार अलंकृत है। आँखों की रोशनी कहाँ-कहाँ पड़ती है? आँखों की रोशनी इतनी प्रबल है कि उससे सूरज रौशन है। तुम्हारी आँखों में रोशनी न हो तो सूरज कहाँ रौशन है? तुम्हारी इंद्रियाँ पूरे संसार को देख रही हैं, पूरे संसार को रूप दे रही हैं। तुम्हारे कान सब कुछ सुन रहे हैं, इधर का, उधर का। तुम्हारी आँखें सब कुछ देख रही हैं - दाएं का, बाएं का, आकाश का, पाताल का। तुम्हारी त्वचा हर उस चीज का स्पर्श कर रही है जो बाहर कहीं है। तुम्हारा मन हर उस हस्ती का विचार कर रहा है जो बाहर दृश्यमान है, जो अनुभव के दायरे में आती है।

बस कुछ है, जहाँ रोशनी नहीं पड़ रही है आँखों की। बस कुछ है जिसको मन आलोकित नहीं कर सकता कौन है वो? मन ने सब के बारे में सोचा, किसके बारे में नहीं सोचा? मन के। आँखों ने सबको देखा, किसको नहीं देखा? स्वयं को। बड़ा अन्याय हो गया न? आँखें सबकुछ देखती हैं देखने वाले को नहीं देख पाती। कान सब कुछ सुनते हैं सुनने वाले को नहीं सुन पाते। मन हर दिशा में विचार कर लेता है पर उसे अपने स्रोत के बारे में विचार करने की उसको सामर्थ्य ही नहीं दी गई है। बड़ा अन्याय है। अब सुनो-

गहरा ये भेद कोई मुझको बताए

किसने किया है मुझपर अन्याय

जिसका ही दीप वो बुझ नहीं पाए

ज्योति दिये की दूजे घर को सजाए

ये दूजा घर है - दुनिया और तुम्हारी ज्योति इसको प्रकाशित कर रही लेकिन कोई नहीं होता जिसकी ज्योति स्वयं उसको प्रकाशित कर रही हो। वैसा कोई एक बिरला ही निकलता है, जो खुद को देख ले और खुद को देख लेने से तात्पर्य आवश्यकरूप से आत्मा को देख लेना नहीं है। मन मन को देख ले ये भी बड़ी विरल घटना है। मन आत्मा को देख ले ये तो करीब-करीब असंभव है। मन मन को देख ले ऐसा भी हजार में किसी एक के साथ होता है। नहीं तो हमें सब कुछ दिखता है अपना मन नहीं दिखता।

ज्योति दिये की दूजे घर को सजाए

तुम्हें खुशी अनुभव होती है, तुम ये देख लेते हो कि बाहर कोई कारण था जिसके कारण तुम्हें सुख हुआ। तुम ये न देख पाए कि भीतर कोई बैठा था जो पहले हीं तय कर चुका था कि जब अमुक घटना घटेगी बाहर तो मैं सुखी हो जाऊँगा। सच बताना सुख कभी अचरज की तरह आता है क्या? सुख कभी आश्चर्य है क्या? क्या तुम्हें आज ही नहीं पता कि दो साल बाद कौन-सी घटना घटेगी तो तुम्हें सुखी कर जाएगी? तुम भली-भाँति उस घटना को जानते हो तभी तो उस घटना की कोशिश और तैयारी में लगे हो। तुम कहते हो जिस दिन घर बड़ी गाड़ी आएगी मैं खुश हो जाऊँगा। तुम्हें तो अभी से सब पता है। बड़ी गाड़ी आती है तुम उसको तो देख लेते हो और कहते हो इसके कारण सुखी हुआ। तुम उसको नहीं देख पाते जो पहले ही भीतर सुख की पूरी तैयारी कर चुका था। ये तीन अलग-अलग चीजें हैं तीनों को जानना। जिनमें से दो ही चीज़ें हैं तीसरी चीज नहीं है।

एक मन वो होता है जो सिर्फ दुनिया को देख पाता है वो कहता है, "गाड़ी आई और गाड़ी ने मुझे सुख दे दिया।" दूसरा मन होता है जो कहता है - "मैंने परिभाषित किया था सुख को इस तरीके से कि गाड़ी मुझे जो दे उसका नाम है सुख। तो गाड़ी ने सुख नहीं दिया है मुझे। मैंने स्वयं ही सुख को इसप्रकार परिभाषित किया है। मैं परिभाषा बदल देता तो सुख न अनुभव होता और मैं परिभाषा बदल दूँ तो मुझे किसी अन्य वस्तु से भी, व्यक्ति से भी सुख का अनुभव होने लग जाएगा।" और फिर एक तीसरा मन होता है जो कहता है "न गाड़ी से, न स्वयं से, सुख मुझे किसी से अनुभव होता ही नहीं; मैं अनुभवों के पार हूँ।"

आम आदमी, दूसरी कोटि तक भी नहीं पहुँच पाता, ये तीसरी तो बहुत दूर की है। आम आदमी दुनिया की ही ओर देखता रह जाता है इसीलिए दुनिया के हाथों खिलौना, कठपुतली बना रह जाता है। दुनिया को खुद उसने रूप दिया है, रंग दिया है, परिभाषा दी है ये उसको पता ही नहीं चलता।

बौद्ध भिक्षु हुए नागार्जुन, उन्होंने एक सुंदर दृष्टांत दिया बोले आदमी ऐसा है कि दीवार पर एक खौफ़नाक चित्र बनाता है और फिर उस चित्र को देखकर दहशत में आ जाता है। दहशत में आ कर के दुःख पाता है। उस दृष्टांत को मैं आगे बढ़ाता हूँ- इस दीवार पर चित्र बनाया खौंफनाक और उसको देख कर के, खौंफ छा गया, दुःख मिला तो आदमी भागता है पर्दे के उस पार वहाँ भी दीवार है वहाँ जाकर के खूबसूरत चित्र बनाता है और उससे मोह में पड़ जाता है और दुःख पाता है।

यहाँ खौंफ में दुःख पाया, वहाँ मोह में दुःख पाया लेकिन दोनों ही स्थितियों में दुःख उसने स्वयं रचा। ये हम कह रहे हैं।

जो दुःख पा रहा है उससे पूछो तो कहेगा, "दीवार ने दुःख दिया।" ये तीसरी कोटि का मन है ये देख ही नहीं पाता कि बाहर जो कुछ है वो तुम्हारे द्वारा ही रचा हुआ है, तुम्हारे द्वारा ही प्रक्षेपित है। तुम पहले ही जानते थे कि क्या खौफ़नाक है? तभी तो तुमने खौफ़नाक चित्र बनाया। ऐसा थोड़े ही हुआ है कि तुमने कुछ भी बना दिया और उससे डर गए। तुमने स्वयं तय किया कि मैं राक्षस बनाऊँगा और राक्षस की क्या परिभाषा? वो जो डरा दे। क्या ऐसा हुआ था कि तुम गये और तुमने कुछ भी उकेरा और फिर जो उकेरा वो तुमको डरा गया? न! परिभाषा पहले आयी थी, रचना बाद में आयी थी, कुछ नया नहीं हो रहा है यहाँ। नये से, नूतन से तो मन सदा अछूता रहता है। ये सबसे निचली कोटि का मन है जो अपनी ही रचना से दुःख पाता है।

उससे ऊपर वो आया जिसने कहना शुरू कर दिया कि हाँ, ये सब मेरी ही रचना है। जिसने ये कहना शुरू कर दिया उसके जीवन में उदासीनता छा जाएगी। एक कोरी विरक्ति आ जाएगी। अनुभवों के प्रति त्याग का भाव आ जाएगा। लेकिन फिर भी खालीपन रहेगा, अपूर्णता रहेगी। क्योंकि मान तो अभी भी वो अपने आपको 'मन' ही रहा है। मान तो अभी भी वो अपने आपको चित्रकार ही रहा है, रचयिता ही रहा है। एक तीसरी अवस्था होती है- जिसमें आप कहते हो, ठीक है, कोई है जो कुछ उकेरना चाहता है और कोई है, जो उकेरे हुए का मूल्याँकन करता है। कभी उसे खौफ़नाक कहता है, कभी उसे मोहक कहता है और ये सब चल रहा है। प्रकृति की कूद-फाँद है, चल रही है। चलना उसका काम है। वो हमारे चलाने से नहीं चल रही है। हमारा उससे कोई लेना-देना नहीं। वो चल रही है उसे चलने दो। तुम्हारे रोके वैसे भी नहीं रुकेगी। तुम उसे जब रोकने की कोशिश कर रहे हो तो तुम उसमें इज़ाफ़ा ही कर रहे हो, उसे कोई रोक नहीं सकता।

जैसे कि एक भीड़ भागी जा रही हो और तुम उसे रोकने के लिए दौड़ पड़ो। भीड़ की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हो गयी। इतने लोग दौड़ रहे थे एक और दौड़ पड़ा और फिर दौड़ते-दौड़ते तुमने एक को रोका। बोला, "व्यर्थ दौड़ रहे हो।" वो बोला, "वो तो मैं जानता हूँ इन सबको यही समझाने के लिए दौड़ रहा हूँ कि व्यर्थ दौड़ रहे हो।" मैंने कहा ठीक! ये समझदार आदमी है, मेरे ही जैसा है। तुमने तीसरे को पकड़ा, उसको कहा, "व्यर्थ दौड़ रहे हो।" वो बोला "मैं भी जानता हूँ। मैं भी इन सब को समझाने के लिए ही दौड़ रहा हूँ कि व्यर्थ दौड़ रहे हो।" धीरे-धीरे राज़ ये खुला कि यहाँ सब एक दूसरे को यही समझाने के लिए दौड़ रहे हैं कि तुम सब व्यर्थ दौड़ रहे हो।

उस दौड़ को चलने दो, तुम मत दौड़ो इतना बहुत है। आ रही है बात समझ में? अन्तर्गमन, भीतर को मुड़ जाना। जो बाहर जा रहा है वो भीतर को मुड़े। भीतर को मुड़ता है, शुभ घटना घटती है। शुभ घटना यही नहीं है कि भीतर को मुड़ गया। शुभ घटना ये है कि बाहर को जाएगा तो बाहर कोई अंत नहीं है, चलता ही चला जाएगा, चलता ही चला जाएगा। भीतर को जाएगा तो कुछ काल बाद, कुछ दूरी जाकर के वो मिट जाएगा।

बाहर जाने वाले और भीतर जाने वाले में ये अंतर समझना। बाहर सब अनंत है, वहाँ तुम जाते जाओ, जाते जाओ, इच्छाएँ कभी तृप्त नहीं होती जो भीतर को मुड़ा वो मानो अपने खात्मे की ओर मुड़ा। भीतर अनंत यात्रा नहीं है। भीतर तुम थोड़ी दूरी तक जाओगे, उसके बाद मिटने लगोगे, फिर खत्म हो जाओगे। तुम खत्म, यात्रा खत्म, मौज, सो जाओ, समाधि और बाहर- जागते रहो, भागते रहो। बाहर सो नहीं सकते, बाहर थम नहीं सकते।

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