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लेख
प्याज़-लहसुन, और यम-नियम का आचरण || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमन आचार्य जी। हार्दिक आभार आपको। मेरी सुई एक जगह पर बहुत गहरी अटकी हुई है — साधना में प्याज़-लहसुन का सेवन वर्जित कहा जाता है, तो मैं जब विदेश जाती हूँ तो मुझे वहाँ खाना पड़ता है। और जिह्वा दोष भी है, मुझे अच्छा भी लगता है, तो मैं खा लेती हूँ कुछ परहेज़ के बाद। तो मेरा प्रश्न है कि यम-नियम कहाँ तक सही है?

और दूसरा प्रश्न है कि जब हम किसी अच्छे काम को करने जाते हैं तो मन इतना ज़ोर से विरोध करता है, ये मैं इस सत्र के लिए बहुत बारीकी से देख पायी। बहुत विरोध था उसका, लेकिन कहीं-न-कहीं उसको जीत भी पायी, इस बात की प्रसन्नता है। बहुत-बहुत धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: जो प्याज़-लहसुन इत्यादि वाली बात कही, उसके दो पक्ष हैं और दोनों को समझना होगा।

एक ओर तो ये बात बिलकुल सही है कि आप जो कुछ खाते हैं उसका आपकी मनोस्थिति पर अन्तर पड़ता है। जिसको हम शाकाहारी भोजन कहते हैं उसमें भी सब शाक-पत्ते एक समान नहीं होते। अलग-अलग खाद्य पदार्थों के अलग-अलग गुण होते हैं और जब वो भीतर जाते हैं तो अपनी प्रकृति के अनुसार शरीर पर प्रभाव डालते हैं। शरीर पर प्रभाव पड़ा नहीं कि मन पर प्रभाव भी पड़ ही जाएगा।

तो जो कहा गया है कि साधक को या सतोगुण के उपासकों को प्याज़-लहसुन इत्यादि से परहेज़ करना चाहिए, वो बात अपनी जगह बिलकुल ठीक है। आप वैज्ञानिकों से पूछेंगे तो वो भी आपको प्याज़ इत्यादि में कुछ रसायनों की उपस्थिति के बारे में बता देंगे जो शरीर को उत्तेजित करते हैं, स्थिरता में थोड़ा विघ्न लाते हैं इत्यादि।

और आप वैज्ञानिकों से न पूछें, आप स्वयं ही प्रयोग करके देख लें, तो भी आपको पता चल जाएगा कि हाँ, कुछ अन्तर तो पड़ता ही है। आप किसी दिन, उदाहरण के लिए, प्याज़ से ही भरपूर भोजन कर लें, उसके बाद आप दिनभर अपनेआप को देखिएगा, अपनी चेतना की स्थिति में, मनोभावों में थोड़ा अन्तर पाएँगे। ये बात का एक पक्ष है कि हाँ, निश्चित रूप से आप जो कुछ इस शरीर में प्रविष्ट करा रहे हैं उसका शरीर पर और मन पर प्रभाव पड़ता है।

दूसरा पक्ष थोड़ा सा सूक्ष्म है, उस पर ध्यान दीजिएगा।

आपसे कहा जाए कि आपका एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: (१२३४५६) रुपये का नुक़सान हो रहा है, एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: कितना हुआ? तो आपका एक-लाख-तेईस-हज़ार-चार-सौ-छप्पन रुपये का नुक़सान हो रहा है कहीं पर, किसी चीज़ में। ठीक है न? और आपसे कहा जाए कि ये जो आपको छः संख्याएँ दी गयी हैं इसमें से किसी एक को आप अपनी मर्ज़ी अनुसार कम कर सकते हैं।

आपका एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: यानी छः संख्याएँ, एक-लाख-तेईस-हज़ार-चार-सौ-छप्पन रुपये का नुक़सान हो रहा है और आपसे कहा गया है कि इन छः संख्याओं में से किसी एक को आप अपना नुक़सान घटाने के लिए कम कर सकते हैं, तो आप इसमें से किस संख्या पर ध्यान देकर उसे घटाना चाहेंगी?

प्र: एक पर।

आचार्य: छः पर क्यों नहीं? छः तो इतनी बड़ी संख्या है। छः इतनी बड़ी संख्या है, छः को घटाइए न। छः को क्यों नहीं घटाते, एक को क्यों घटा रहे हो? वो तो बेचारा दुबला-पतला एक अकेला, इकलौता, आगे खड़ा हुआ है, उसकी काहे जान ले रहे हो? ठीक है, छः को घटा देते हैं, सहमत हैं?

प्र: नहीं।

आचार्य: क्यों?

प्र: उससे ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा।

आचार्य: हाँ। ऐसा नहीं है कि छः को घटाने से लाभ नहीं है, बहुत लाभ नहीं है, क्योंकि वो कतार में सबसे अन्त में आता है।

साधक अक्सर यही ग़लती कर देता है — वो स्थूल वज़न पर चला जाता है। तो अब एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: में स्थूल वज़न सबसे ज़्यादा किसका है? छः का। तो वो छः के पीछे हाथ धोकर पड़ जाएगा, वो कहेगा, ‘इसी को कम करना है।’ और उसको कम करना आसान भी लगता है, क्योंकि वो चीज़ ही सबसे कम मूल्य की है, सबसे पीछे है। जब सबसे कम मूल्य की है तो कम भी सबसे कम मूल्य में हो जाएगी।

बात समझ रहे हैं?

तो जो लोग नेक नीयत भी रखते हैं, वो इस धोखे में फँस जाते हैं। वो अपना श्रम किसी ऐसी जगह लगा देते हैं जहाँ फ़ायदा तो होगा लेकिन कम फ़ायदा होगा।

छः को आप घटा करके शून्य भी कर दें, तो आपने अपने कितने रुपये बचा लिये? कुल छः रुपये बचा लिये। और जान लगा दी आपने छः को शून्य तक लाने में। और आप अपनी दृष्टि में हो सकता है बड़े राजा भी बन जाएँ। कहें कि मुझसे पूछो न छः को पकड़कर शून्य किया है मैंने। लेकिन उससे कुल लाभ कितने का हुआ? कुल छः रुपये का।

लाभ हुआ, हम इसमें इनकार नहीं कर रहे, लाभ तो हुआ।

हमें बस यही नहीं देखना है कि कौनसी चीज़ बहुत ज़्यादा दिख रही है, हमें ये भी देखना है कि कौनसी चीज़ पूरी व्यवस्था के केन्द्र पर बैठी हुई है। ये जो एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: में ‘एक’ है, अगर इस ‘एक’ को शून्य कर दें, तो उसके बाद दो-तीन-चार-पाँच-छ: बच भी जाएँ तो भी अस्सी प्रतिशत काम तो हो गया। हो गया कि नहीं हो गया?

अगर साधक कहे कि दो-तीन-चार-पाँच-छ: की तो मैं कर रहा हूँ उपेक्षा और अवहेलना, पड़े रहने दो, इन पर बाद में ध्यान देंगे, सबसे पहले तो मैं बुल्स आइ मारूँगा, सबसे पहले तो मैं केन्द्र पर निशाना साधूँगा। बुल्स आइ माने 'एक'। ई-वाइ-ई नहीं, बुल्स आइ (हाथ से एक का इशारा करते हुए), आइ , एक।

कबीर साहब हमारे कह गये, “एक साधे सब सधे”, वो यही एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: को तो बोल गये थे। उस एक को साधो न। उसको साधो जो हर चीज़ की शुरुआत में बैठा हुआ है। जिसका केन्द्रीय महत्व है, उसको पकड़ लिया, तो पीछे का जो मामला है वो तो अपनेआप ठीक हो जाएगा। और नहीं भी ठीक होगा तो बीस प्रतिशत ही दिक्क़त बचेगी। बाक़ी काम तो कर ही लोगे।

अब एक को शून्य करने पर ध्यान दें या छः को शून्य करने पर ध्यान दें? बोलिए। और लाभ तो देखिए दोनों में है। आप छः को शून्य कर देंगी, और एक को शून्य कर देंगी, दोनों ही स्थितियों में लाभ तो मिलेगा ही। ऐसा नहीं कि नुक़सान हो जाना है। लेकिन विवेक का तकाज़ा क्या है? किसपर केन्द्रित हुआ जाए — एक पर न? छः पर नहीं।

ठीक है?

छः माने बहुत सारा। ये छिटपुट चीज़ें, हम इनके पीछे लग जाते हैं। और ये सब अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं, हम नहीं इनकार कर रहे। आचरण सम्बन्धी पचास बातें हैं — ये करो, वो करो। ये सब अपना-अपना महत्व रखती हैं। पर इनका बड़ा सतही और कम महत्व है, पारिधिक महत्व है।

दिक्क़त क्या होती है, जब आप छः के पीछे पड़ोगे तो आप भूल किसको जाओगे? एक को। ये है नुक़सान। ये प्याज़-लहसुन के चक्कर में एक को भुला दिया, ये नुक़सान हो जाता है।

कर्मकांडियों के साथ अक्सर यही होता है। वो कोई ग़लत काम नहीं कर रहे, लेकिन उनकी सारी उर्जा, सारा ध्यान, किस चीज़ में लगा हुआ है? 'कितने बजे उठना है? कितने बजे नहाना है? क्या खाना है? क्या नहीं खाना है? किस बर्तन में खाना है? कितने बजे खाना है? कौनसा त्योहार किस विधि से मनाना है?' और इन सब चीज़ों में अगर ध्यान लगा है तो कोई बुरी बात नहीं हो गयी, क्योंकि ये सब चीज़ें अपना-अपना महत्व ज़रूर रखती हैं। लेकिन आप समझो न, एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: में छः की फ़िक्र करने में ही सारी ऊर्जा लग गयी, एक को तो याद ही नहीं किया। हो गयी न गड़बड़, हो गयी या नहीं हो गयी?

तो इसका तरीक़ा ये है कि हम कहें कि ये जो छः के छः हैं, एक से लेकर छः तक — एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ: — हमें ये सब कम करने हैं। हम इन सबको कम करेंगे लेकिन पहले किसको कम करेंगे? एक को। फिर किसको कम करेंगे? दो को, फिर तीन को, फिर चार को, फिर पाँच को, फिर छः को। ये बात कुछ जमी न! कि पहले एक को शून्य कर दो, फिर दो पर आओ, उसको कम करो, फिर तीन पर आओ, उसको कम करो। ये बात साधक को पता होनी चाहिए, वरीयता क्रम, किस चीज़ की प्राथमिकता कितनी है।

बात समझ रहे हैं?

आप बहुत बीमार हैं, आप किस चीज़ को प्राथमिकता देंगी? तीन चीज़ें हैं — मान लीजिए, फेफड़ों में कुछ दोष हो गया है — फेफड़े हैं, त्वचा है और कपड़े हैं। और देखिए तीनों का ही ठीक होना, चुस्त-दुरुस्त होना ज़रूरी है, है न? कपड़े साफ़ होने चाहिए, खाल भी साफ़ होनी चाहिए, और फेफड़े भी साफ़ होने चाहिए। लेकिन अगर तीनों ही गन्दे हों, मान लीजिए फेफड़ों में धुआँ, टार भर गया है, खाल भी गन्दी है और वस्त्र भी गन्दे हैं। और आपको शुरुआत करनी है सफ़ाई की, तो तीनों में से वरीयता किसको देनी है? फेफड़ों को। फिर अगली वरीयता किसको देनी है? त्वचा को। फिर आख़िरी वरीयता किसको देनी है? कपड़ों को।

दिक्क़त तब हो जाती है जब हमारा वरीयता क्रम उलट-पुलट हो जाता है। फेफड़ा गन्दा पड़ा हुआ है और हम लगे हुए हैं कपड़ों की सफ़ाई करने में। और मैं फिर निवेदन कर रहा हूँ, कपड़ों की सफ़ाई करने में कोई बुराई नहीं है। कपड़े साफ़ होने चाहिए लेकिन ये न हो कि कपड़े साफ़ करने के चक्कर में फेफड़ों पर ध्यान देना ही भूल गये।

तो पहले एक पर ध्यान दीजिए, फिर दो पर, फिर तीन पर, फिर चार पर, फिर पाँच पर; छः आख़िरी चीज़ है। लेकिन कई साधक छः को बना लेते हैं पहली चीज़। और पहली चीज़ क्यों बना लेते हैं, उसका कारण भी स्पष्ट है। एक को शून्य करने में लगती है मेहनत और चुकाना पड़ता है दाम। ये प्याज़-लहसुन का खेल आसान है।

कोई जीवन में कोई क़ुर्बानी न दे, कोई अपने जीवन में किसी तरह का बदलाव लाने को तैयार न हो, तो इतना तो कर ही सकता है न कि मैं सत्य का इतना प्रेमी हूँ कि मैंने प्याज़ छोड़ दी। ‘लो! हमने भी कुछ किया। अरे! बुद्ध ने राज्य छोड़ा होगा, हमने प्याज़ छोड़ी है। तुमने राज छोड़ा, हमने प्याज़ छोड़ी, हम किसी से कम नहीं।’

मैं ये चौथी-पाँचवी बार फिर से कह रहा हूँ कि मैं प्याज़ खाने का हिमायती नहीं हूँ। आरम्भ में ही मैंने कहा कि इस तरह के तमोगुणी पदार्थ या रजोगुणी पदार्थ शरीर के लिए हानिकारक तो होते ही हैं। अल्प मात्रा में ठीक है, औषधि की तरह भी ठीक है, पर आप उसकी आदत ही लगा लो तो हानि तो होती ही है। लेकिन हानि और हानि में कुछ तुलना करनी पड़ेगी न?

मच्छर काट जाए आपको और साँप काट जाए, तो कुछ तो अन्तर रखना पड़ेगा न? क्यों भई? विकल्प दे रहे हैं, कि मच्छर काटे और नागराज काटे, किंग कोबरा, किससे कटवाना है? भगवान करे दोनों में से कोई न काटे, लेकिन इन दोनों में से अगर एक को भगाना ही है तो मच्छर को भगाओगे क्या? पहले वरीयता किसको भगाने में दोगे?

प्र: साँप को।

आचार्य: इसी तरीक़े से पहले एक का उपचार करो फिर दो, तीन, चार, पाँच, छः पर आना। पाँच और छः के चक्कर में एक और दो को मत भूल जाना।

ऐसी ग़लती कई बच्चे अपनी बोर्ड इत्यादि की परीक्षाओं में करते हैं। एक सवाल होगा दस नम्बर का और एक सवाल होगा आधे नम्बर का, ज़ीरो प्वाइंट फ़ाइव का, वो जो आधे नम्बर वाला सवाल है उसमें उलझकर आधा घंटा लगा देंगे और फिर बड़ी सन्तुष्टि के साथ कहेंगे, 'फोड़ दिया, देखा! हल कर दिया।'

अरे! उसको तुमने हल भी कर दिया तो क्या पाया? उसको हल करने का नतीजा ये हुआ कि दस नम्बर के सवाल के लिए तुम्हारे पास अब ऊर्जा और समय बहुत कम बचे भाई।

अधिकांश ऊर्जा दीजिए अहम् के अवलोकन को। ठीक है?

जैसे कि एक-लाख-तेईस-हज़ार-चार-सौ-छप्पन में, ये जो ‘एक’ है इसकी क़ीमत कितनी है? एक-लाख की है। ‘दो’ की क़ीमत बीस-हज़ार की है, ‘तीन’ की क़ीमत तीन-हज़ार की है, ‘चार’ की क़ीमत चार-सौ की है और ‘पाँच’ की क़ीमत पचास की है, और ‘छः’ की क़ीमत छः की है। तो ‘एक’ को एक-लाख का वज़न देना है, ‘एक’ को कितनी क़ीमत देनी है? एक-लाख की। और ‘दो’ को क़ीमत देनी है बीस-हज़ार की। इस अनुपात में क़ीमतें बाँटिए। ‘तीन’ को क़ीमत देनी है तीन-हज़ार की।

समझ रहे हैं बात को?

तो अब अगर चुनाव करना है कि ‘एक’ को कितना समय दें और ‘तीन’ को कितना समय दें, तो आप कहेंगे, ‘वही रेशियो , वही अनुपात होना चाहिए जो एक-लाख और तीन-हज़ार में है।’ और अब अगर कोई पूछे कि ‘एक’ और ‘छः’ में से किसको कितनी वरीयता दें? तो क्या उत्तर देंगे आप तत्काल? ‘एक-लाख और छः।’

तो अगर एक-लाख बार मैं ध्यान दूँगा अहम् पर, अपनी दिनचर्या पर, अपने आचरण, विचारों और कर्मों के अवलोकन पर, तो छः बार मैं फिर ध्यान दे लूँगा ये प्याज़-लहसुन पर भी। पर छः बार मैं अगर प्याज़-लहसुन पर ध्यान दूँ, तो उसके लिए ज़रूरी है कि पहले एक-लाख बार ध्यान दूँ मूल वृत्ति पर, अहम् पर। एक-लाख बार उस पर ध्यान दे लीजिए, फिर छः बार इस पर भी ध्यान दे लीजिएगा।

ये सबकुछ बहुत हुआ है, तभी तो फिर सन्तों को ये गाना पड़ा था न कि

नहाए-धोए क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।।

~ कबीर साहब

पंडितों ने यही बना लिया था कि नहाना-धोना बहुत ज़रूरी है। कबीर दास कहते थे — जहाँ असली सफ़ाई होनी चाहिए वहाँ तो तुम्हारी सफ़ाई है नहीं, दिल काला करके घूम रहे हो। ‘एक’ पर ध्यान दिया नहीं, ‘छः’ पर तुमने पूरा ध्यान दे दिया है कि नहाना-धोना, नहाना-धोना। और बाल बिलकुल मुंडे हुए होने चाहिए। मूंड मुंडाये क्या हुआ!

मूंड मुंडाये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। बार-बार के मूंडते, भेड़ न बैकुंठ जाए।।

~ कबीर साहब

क्या करोगे साधना के इन सब बाह्य अंगों में उलझकर, अगर जो केन्द्रीय चीज़ है उस पर ध्यान नहीं दे रहे? और अक्सर आप केन्द्रीय चीज़ पर ध्यान इसीलिए नहीं देते क्योंकि आप बाहर उलझे हुए हैं।

बाल कैसे होने चाहिए? खाना-पीना कैसा होना चाहिए? किससे बात करनी है? किससे नहीं करनी है? कौनसी पूजा कब करनी है? यही सब है। ये कर लिया, ये कर लिया। अरे! पूरा एक विज्ञान होता है, शास्त्र होता है, ये चीज़, वो चीज़, ऐसी, वैसी। आप उसमें प्रवेश करें तो आपको दिखायी देगा कि सारी ऊर्जा ये खा ले, तो भी पूरा नहीं पड़ेगा, इतनी चीज़ें होती हैं। और उनमें से हर एक चीज़ का अपना महत्व होता है।

तो प्रश्न ये नहीं है कि महत्व है या नहीं है, प्रश्न ये है कि कितना महत्व है। कितना तुलनात्मक महत्व है?

ठीक है?

प्र: प्रणाम आचार्य जी। आपने जैसे बताया कि ये बाहर की चीज़ है, बहुत ज़्यादा इसका मूल्य नहीं है। लेकिन जो थोड़े हाइयर ऑर्डर के लोग थे उन्होंने कंडक्ट (आचरण) का मूल्य बहुत बताया। जैसे शिक्षक हैं तो बात भी उस शिक्षक की प्रभावशाली होती है जिसका कंडक्ट एक स्तर का होता है। तो वो बात इससे कुछ कॉन्ट्रेडिक्टरी (विरोधाभासी) है क्या?

आचार्य: नहीं, कॉन्ट्रेडिक्ट नहीं कर रही है। दिक्क़त क्या हो जाती है कि कंडक्ट , माने आचरण, की जब हम बात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि जैसे आचरण पहली चीज़ है।

हम आचरण से अर्थ समझते हैं कि जो भी किया वही आचरण है। जो भी किया, वही आचरण है। और आचरण के तल पर बदलाव लाना हमें सबसे आसान लगता है, क्योंकि आचरण तो कृत्रिम होकर के, नकली होकर के, मुखौटा पहनकर भी बदला जा सकता है। बदला जा सकता है न?

आप भीतर से जैसे हैं वैसे रहते हुए भी, बिलकुल शत-प्रतिशत वैसे ही बने रहते हुए भी आप आचरण तो अपना बदल ही सकते हैं न? बदल देते हैं न कि ऐसे कर दिया, वैसे कर दिया। बाहर-बाहर से कुछ और, अन्दर कुछ और। "तन उजला मन काला, बगुला कपटी अंग।"

क्यों कहना पड़ा कबीर साहब को?

तन उजला मन काला, बगुला कपटी अंग। तासे तो कौआ भला, तन मन एक ही रंग।।

~ कबीर साहब

क्योंकि आचरण के तल पर कुछ करना कपटी मन के लिए सबसे आसान है। लेकिन जब सिखाने वालों ने आचरण की बात करी, तो दूसरी बात कह रहे थे।

वो ये कह रहे थे कि तुम जो हो, वो अन्ततः तुम्हारे आचरण में परिलक्षित होता है। वो आचरण को बिलकुल तुम्हारी हस्ती के आख़िरी उत्पाद की तरह ले रहे थे। कह रहे थे — तुम जो कुछ हो वो अन्ततः दिखायी कहाँ देगा? तुम्हारे कर्म में दिखायी देगा न भाई।

तो उन्होंने पाखंड को काटने के लिए समझ लो एक पैमाना दिया, एक कसौटी दी। उन्होंने कहा कि ज्ञान वगैरह तुम्हें जो भी हो गया हो, वो सब तो ठीक है, अन्ततः तो हम ये देखना चाहते हैं कि तुम्हारा आचरण कैसा है। तुम बता दो कि तुम्हें अहिंसा का बहुत ज्ञान है और दिखायी देते हो तुम सबके प्रति विद्वेष से ही भरे हुए, तो तुम्हारा ज्ञान किसी काम का नहीं है। वास्तव में ज्ञान तुम्हें हुआ ही नहीं है।

वो आचरण को ले रहे थे आपकी हस्ती के आख़िरी प्रमाण की तरह। वो वस्तुतः सीधे-साधे लोग थे। उन्होंने कहा, ‘जैसे हो, वैसा आचरण करोगे। आचरण पर निगाह रख लेना, बात पकड़ में आ जाएगी कि कितने पानी में हो।’

हम ज़रा धूर्त लोग हैं, हम क्या करते हैं? हम अपनी हस्ती को जस-का-तस बचा जाते हैं और हस्ती के ऊपर आचरण का नकाब डाल लेते हैं। अब गड़बड़ हो जाती है, उन्होंने कुछ और समझाया था और उन्होंने जो समझाया था हमने उस बात की काट निकाल ली है।

समझ रहे हो बात को?

तो कोई विरोधाभास नहीं है। उन्होंने भी यही कहा था कि एक पर ध्यान दो तो जो छठी चीज़ है वो अपनेआप ठीक हो जाएगी। वो कह रहे थे कि अगर दिल साफ़ हो गया तो फिर तुम्हारा जो बाहरी बोलचाल, बात-व्यवहार है, इसमें अपनेआप सफ़ाई आ जाएगी। और दिल की सफ़ाई दिख तो सकती नहीं, दिल की सफ़ाई पता कैसे चले? बोले — दिल की सफ़ाई पता करनी है तो आचरण से पता कर लो, कंडक्ट से। ये उनके कहने का सार था।

और हमने उसमें क्या तरक़ीब लगा दी? हमने कहा, ‘अच्छा! तो जब सबकुछ पता आचरण से ही चलना है, तो हम आचरण को ही ठीक कर देते हैं न, पीछे का काम करने की ज़रूरत ही क्या है!’

वो कह रहे थे, ‘पीछे की सफ़ाई करो, तो आचरण अपनेआप चमक जाएगा।’ हमने कहा — पीछे गन्दगी भी पड़ी हुई है तो कोई बात नहीं, हम आचरण को चमका देते हैं। "तन उजरा, मन काला" हमने कर डाला।

तो नतीजा होता है कि बहुत सारे धार्मिक लोग बस आचरणवादी होकर रह जाते हैं। उनके आचरण में आप कोई कमी पा ही नहीं सकते। कॉपी बुक होगा, लगेगा कि एक-एक बात जो किताब में लिखी हुई है, ये उसके प्रत्यक्ष जीवित उदाहरण हैं, क़तई आदर्श हैं। आप उनमें कोई खोट निकाल ही नहीं पाएँगे। एक-एक शब्द उनका नपा-तुला होगा, एक-एक कदम जैसे माप-मापकर रखते होंगे। लेकिन दिल कैसा होगा?

गड़बड़ हो गयी न!

देखिए, गुरुओं की, ज्ञानियों की बातें एक अर्थ में किसी महामनीषी की बातें होती हैं। और दूसरी तरफ़ से देखोगे न तो किसी मासूम बच्चे की बातें होती हैं। उनमें कपट नहीं होता। जिनके माध्यम से ये बातें संसार में आयीं, वो कपटी लोग होते तो उनके माध्यम से ये बातें संसार में आ नहीं सकती थीं। कम-से-कम जिस क्षण में ये भीतर उद्घाटन होता है, उस क्षण में तो आप पूरे तरीक़े से निर्दोष हो जाते हो।

निर्दोषिता को ही कहते हैं मासूमियत। उस क्षण में आपमें कोई विकार नहीं बचता है क्योंकि विकार होता तो वो चीज़ आप पर उतरती ही नहीं।

तो बात बहुत-बहुत-बहुत सीधी-सादी होती है। और उस बात को फिर समझने के लिए और उस पर अमल करने के लिए उतना ही सीधा-सादा मन भी चाहिए। वो मासूम बात जब किसी खिलाड़ी, तजुर्बेकार खिलाड़ी के हाथ में पड़ जाती है तो वो उसका फिर कुछ भी कर सकता है।

हम बड़े खिलाड़ी लोग हैं। जिन्होंने वो बातें कही थीं, वही आकर के देखें कि उनकी बातों का अर्थ क्या किया गया, माने अनर्थ क्या किया गया और फिर उन पर अमल कैसे किया गया, तो वो थोड़ा हँसेंगे, थोड़ा रोएँगे, फिर थोड़ा हँसेंगे, फिर थोड़ा रोएँगे। हँसेंगे इंसान की मूर्खता देखकर, और रोएँगे अपनी विफलता देखकर। कहेंगे, ‘किस उद्देश्य से दुनिया को ये सब बातें बतायीं, और हाय रे दुनिया! क्या कर डाला उन बातों का!’

आचरण को साधना का आख़िरी फल मानना, आख़िरी फल। जैसे कि छोटा सा, नन्हा सा पौधा हो, उससे भी पहले बीज हो, फिर कोपलें फूटें, फिर बड़ा हो, फिर शाखें आती हैं, फिर भर जाता है पत्तियों से, फिर फूल लगते हैं, फिर फल हो जाते हैं। तो आख़िरी चीज़ होती है आचरण, फल। आख़िरी चीज़।

अगर सही रास्ता लिया है तो आचरण हमेशा आख़िरी चीज़ होगा। अगर आत्मिक तरक़्क़ी का आपने सही रास्ता लिया है तो आचरण में वो बात हमेशा सबसे अन्त में दिखायी देगी। जब भीतर का सारा काम पूरा हो जाएगा, तब अन्ततः आपके आचरण में भी एक रूहानियत आ जाएगी। जैसे कि जब पेड़ में सबकुछ ठीक-ठाक होता है, तब अन्ततः उसमें फल लग जाते हैं।

और आप दूसरा काम भी कर सकते हो — कि कौन इतनी मेहनत करे कि बीज डाले, सेवा करे, फिर नन्हे पौधे को बचाये गाय-बकरी से, और फिर इंतज़ार करे और लम्बा इंतज़ार करे और फिर जाकर के पाँच साल, दस साल में उसमें फल लगे। कौन इतना इंतज़ार करे! तो ऐसा करते हैं चलो, क्या है, बबूल का पेड़ है? अच्छा, छुन्नू, जाना ज़रा प्लास्टिक वाले आम ले आना।

समझ गये बात? क्या?

‘कौन लम्बा-चौड़ा काम और इंतज़ार करे! बबूल के पेड़ पर लटका दो प्लास्टिक के आम।’ और ये जो प्लास्टिक के आम हैं, ये दिखते हैं बिलकुल असली आम जैसे।

तो अधिकांश तुम धर्मावलंबियों को बिलकुल बहुत सुन्दर और खुशबूदार आम जैसा ही पाओगे। बस जब पास जाकर के तहक़ीक़ात करोगे, तब पता चलेगा कि इस आम में रस नहीं है और प्राण नहीं है, जीवन नहीं है।

प्रमाण क्या है कि उनका आम नकली है? किसी को मिठास नहीं दे पाता, किसी को प्राणदायक रस नहीं दे पाता। और उससे भी आगे का प्रमाण ये है कि उस आम की गुठली से कोई नया आम पैदा नहीं होता।

जो असली लोग थे, उनकी असलियत का सबूत ये था कि वो बीज की तरह ज़मीन में गड़ गये। और उनके पीछे बहुत बड़ा दरख़्त पैदा हुआ, जिसमें फिर उन्हीं के जैसे सैकड़ों और आम लगे।

बात समझ में आ रही है?

और नकली आदमी नकली आम जैसा होता है। वो अधिक-से-अधिक ये कर सकता है कि जो उसे दूर से देख रहे हों, उनकी तारीफ़ें बटोर ले। लेकिन वो अपने पीछे कभी एक पूरी पौध, एक पूरा बाग नहीं छोड़ पाएगा क्योंकि उसमें प्राण ही नहीं हैं न।

बात समझ में आ रही है?

तो हमने फल को पूरी साधना के परिणाम की जगह, साधना का आरम्भ और अन्त, दोनों बना लिया। हमने कहा, ‘हम अपना पेड़ तो बदलेंगे ही नहीं, न ही नया पेड़ लगाएँगे।’ किस पेड़ की बात कर रहा हूँ? जो हस्ती का पेड़ है हमारी, जो हमारे अस्तित्व का पेड़ है, जिसके केन्द्र पर अहंकार का बीज बैठा हुआ है। वो बबूल का पेड़ है हमारा। हमने कहा, ‘इसको नहीं बदलेंगे।’

गुरु साहब यही तो बोल गये थे कि अगर तुमने सब कुछ ठीक करा है तो देखो, आचरण ऐसा होता है, आचरण ऐसा होना चाहिए। ये भी उन्होंने नहीं कहा था कि सबकुछ ठीक करा तो आचरण ऐसा होगा, उन्होंने कहा था, ‘आचरण ऐसा रखो।’

बोले, ‘यही तो बोल गये थे न गुरु साहब कि आचरण ऐसा रखो, हम रखे देते हैं। छुन्नू, लाया नहीं अभी तक प्लास्टिक वाले आम? ये लो लटका दिये बबूल के पेड़ पर प्लास्टिक वाले आम।’

आ रही है बात समझ में?

और अंधी है सारी दुनिया भी, आम दिखे नहीं कि बावरी हो जाती है। वो फिर ये पूछती भी नहीं कि आम तो ठीक है पर महाराज आपकी ज़िन्दगी में इतने काँटे क्यों हैं? वो जो पहले-पहल जब आम हुए थे, उन्होंने तो आम भी दिये थे, खुशबू भी बाँटी थी और छाया भी बाँटी थी। उनसे दुनिया को सिर्फ़ फल ही नहीं मिले, फलों के साथ-साथ खुशबू भी मिली और छाया भी मिली। पर आपके फल तो दिखायी दे रहे हैं बढ़िया, मस्त, पीले-पीले आम लटक रहे हैं। लेकिन आम के साथ ये काँटें क्यों हैं और छाया क्यों नहीं देते?

ये हम पूछते ही नहीं। हमें आम दिखे नहीं कि हम बिलकुल! कहे, ‘यही तो बात है, सब धर्मग्रन्थों में इसी आम को तो आख़िरी चीज़ बोला गया है। आख़िरी चीज़ हमें दिखायी दे रही है माने सब ठीक ही होगा।’ जाँचते भी नहीं हम, ये भी नहीं कहते कि एक फल थोड़ा इधर भी दीजिएगा। बस दूर से ही प्रणाम किया और बोले, ‘ठीक है, बढ़िया।’

इस बात को अच्छे से समझ लीजिए।

जैसे आपने यम-नियम की बात करी थी, उनमें भी कई बातें आचरण से ही सम्बन्धित हैं। जब कभी ये कहा भी गया है कि आचरण पर ध्यान रखो, तो आचरण को सिर्फ़ विधि बनाया गया है आंतरिक बदलाव तक पहुँचने की। जैसे कि कोई आम से शुरुआत करे, पर उसका इरादा ये हो कि गुठली रोप कर नया पेड़ खड़ा करना है।

तो वहाँ आख़िरी चीज़ को क्या बना दिया गया — पहली चीज़; कि बात आम की करी पर आम की बात इसलिए करी क्योंकि आम आपको अगर मिल गया है तो फिर उसकी गुठली आप गाड़ दोगे, उससे फिर पूरा वृक्ष मिल जाएगा। नयी शुरुआत हो जाएगी। अगर आपने आचरण पर ध्यान दे लिया तो एक नयी शुरुआत हो सकती है।

लेकिन अन्ततः उद्देश्य तो सदा यही था न कि पूरा पेड़ मिले? आम भी बस पहचान के लिए कहा गया, क्योंकि फल लगते हैं तो पहचानना आसान हो जाता है कि पेड़ है। जीसस ने कहा है न, क्या? "अ ट्री इज़ नोन बाय इट्स फ्रूट्स।" (एक पेड़ की पहचान उसके फल से होती है।)

अन्ततः तो जीवन आम भर भी नहीं है, जीवन क्या है? समूचा पेड़ है। तो बात ये थी कि जब उन्होंने कहा भी कि आचरण पर ध्यान दो, फल पर, आम पर ध्यान दो तो वो यही कह रहे थे कि ये आम है, इसमें गुठली होगी, इससे एक नया, पूरा, तुम्हारे जीवन का वृक्ष खड़ा हो जाएगा।

ले-देकर के चाहते वो यही थे कि ज़िन्दगी का एक नया, सुन्दर, स्वस्थ वृक्ष ही खड़ा हो जाए। ये भूलिएगा नहीं कभी भी। ये उन्होंने कभी और क़तई नहीं चाहा कि आपके बबूलों पर ही नकली आम लटक जाएँ। और हम अपने बबूलों को ही बचाने के लिए कटिबद्ध रहते हैं।

बात आ रही है समझ में?

तो आचरण एक विधि भी हो सकता है आंतरिक परिवर्तन की।

लेकिन अगर वो आंतरिक परिवर्तन की विधि है भी, तो भी बात तो यही पता चलती है न कि उद्देश्य अन्ततः क्या है? आंतरिक परिवर्तन, भाई। बाहरी आचरण कभी उद्देश्य नहीं है, उद्देश्य तो आंतरिक परिवर्तन है।

आप देखिए, जब यम-नियम को थोड़ा आगे बढ़ाइए, वहाँ जो सारी बातें करी जाती हैं या कम-से-कम अस्सी-नब्बे प्रतिशत जो शब्द हैं, आप देखेंगे कि वो नकार के शब्द हैं। अस्तेय; अस्तेय माने? चोरी नहीं करना। किसी चीज़ को मना करा गया है, है न? असत्य से बचना है; अपरिग्रह, अहिंसा — ये सब क्या हो रहा है? ये आपसे कहा जा रहा है कि देखो, तुम कैसे हो, तुम्हारा पेड़ बबूल का है।

समझ में आ रही है बात?

प्र: जी नमन, लेकिन जब हमने बहुत ऊँची साधना का लक्ष्य बनाया है तो तैयारी तो हमें करनी होगी न, छोटी-छोटी ही सही। किसी भी मंदिर में प्याज़-लहसुन का भोग क्यों नहीं लगता है? और कोई भी साधु-सन्त इसका सेवन नहीं करते हैं। माँसाहार को भी वर्जित कहते हैं। और मैंने ख़ुद भी इसका सेवन करके देखा है, ये उत्तेजित करता है हमारे शरीर को।

आचार्य: करता है। एक-दो-तीन-चार-पाँच-छ: है, ठीक है, एक-लाख-तेईस-हज़ार-चार-सौ-छप्पन का नुक़सान है। कोई ऐसा है जिसने एक-लाख-तेईस-हज़ार-चार-सौ-पचास का नुक़सान अब रोक दिया है पूरे तरीक़े से। उन मोर्चों पर उसको अब पूर्ण विजय मिल गयी है।

‘एक’ का मोर्चा जीत लिया, एक-लाख का मोर्चा जीत लिया, फिर ‘दो’ माने बीस-हज़ार का मोर्चा जीत लिया, फिर ‘तीन’ माने तीन-हज़ार का मोर्चा जीत लिया, फिर ‘चार’ माने चार-सौ का मोर्चा, फिर ‘पाँच’ माने पचास का मोर्चा जीत लिया। तो अब कुल मोर्चा कौनसा बचा है? ‘छः’ का। वो कहता है, ‘अब चलो, इसको भी जीत लेंगे। आख़िरी है, इसको भी जीत लेंगे।’ पर जिसने अभी एक-लाख वाला ही मोर्चा न जीता हो, वो ‘छः’ की बात करे या ‘एक’ की?

साधु क्या कर रहा है, वो वही चीज़ नहीं हो सकती जो आपको करनी है। साधु हो सकता है अपने सारे मोर्चे जीतकर बैठा हो, उसका आख़िरी बस यही बचा हो, तो कहता है कि चलो अब इसको भी ठीक कर देते हैं।

लेकिन आपके तो अभी बहुत बड़े-बड़े नुक़सान खुले हुए हैं, पहले उनको निपटाना है न? फिर इस पर आना। फिर कौन मना कर रहा है! मैंने चार बार निवेदन करके कहा कि हाँ, उन चीज़ों का फ़र्क तो पड़ता ही है, प्याज़-लहसुन वगैरह का फ़र्क तो पड़ता ही है। प्रश्न ये नहीं है कि फ़र्क पड़ता है या नहीं, प्रश्न ये है कि तुलनात्मक रूप से कितना फ़र्क पड़ता है। फ़र्क तो पड़ता ही है।

असली चीज़ पर पहले ध्यान दीजिए।

मैं क्यों कह रहा हूँ असली चीज़ पर पहले ध्यान दीजिए? देखिए, अगर आपके पास अनन्त समय होता तो मैं कहता कि आप किसी भी मोर्चे पर पहले भिड़ जाइए, बहुत समय है। पर आपके पास समय है कुल दस-बीस साल का, मान लीजिए चालीस साल का, तो आपको फिर प्रायोरिटाइज़ करना पड़ेगा न, वरीयता बनानी पड़ेगी न।

जैसे कि दो घंटे की परीक्षा में आपके सामने बीस सवाल हैं और आपको दिख रहा है कि हर सवाल का मूल्य अलग-अलग है। तो वरीयता कुछ बनाते हो न कि पहले कौनसा हल करना है। फिर अगर समय बचेगा तो ये अन्त में एक-एक, दो-दो नम्बर वाले भी कर देंगे। पर पहले उन सवालों पर ज़रा हाथ साफ़ किया जाए जो दस-दस, बीस-बीस नम्बर वाले सवाल हैं।

अगर आपके पास अनन्त समय होता परीक्षा में, टेक होम एग्ज़ामिनेशन है, एक हफ़्ते बाद कॉपी लाकर दे देना, तो फिर तो कोई दिक्क़त नहीं है। फिर तो किसी भी सवाल पर आप जी भर कर एक दिन, दो दिन लगा दें। दो नम्बर के सवाल पर दो दिन लगा दीजिए, तब कोई बात नहीं थी।

लेकिन जो सीमित समय के जीव हैं, उनको ये देखना होगा कि अपने सीमित समय का अच्छे-से-अच्छा, ऊँचे-से-ऊँचा इस्तेमाल किस तरह से करा जा सकता है। पहले बड़े मोर्चे जीते, उसके बाद जो ऊर्जा बचे, जो समय बचे वो सब ध्यान बाक़ी चीज़ों पर लगाए।

अच्छा बताइएगा, ये सत्र हो रहा है, ठीक है? यहाँ पर एक चीज़ है कि ये जो चादरें हैं जिन पर आप बैठे हैं, ये कितनी साफ़ हैं। एक चीज़ है कि भीतर कोई मच्छर इत्यादि तो नहीं है, कहीं काट न ले। दो बातें बता दीं। तीसरी चीज़ है कि पंखा, एसी, कितना और कैसा लगा हुआ है। चौथी चीज़ है लाइटें, पाँचवीं चीज़ है ये रिकॉर्डिंग, और छठी चीज़ हैं ये वक्ता श्री। ये सब-के-सब महत्वपूर्ण हैं न इस सत्र के लिए? इनमें से आपको कहा जाए कि आपको कोई एक ही चीज़ मिल सकती है, किसी एक चीज़ का ही प्रबन्ध किया जा सकता है।

ये छः चीजें हैं, और छः की छः महत्वपूर्ण हैं, कौनसी छः चीज़ें? ये पंखा, ये चादर, ये मक्खी-मच्छर, ये लाइट इत्यादि, वो कैमरा रिकॉर्डिंग और ये वक्ता। आपसे कहा जाए, ‘वैसे तो ये छः हैं और इन छः के छः का अपना-अपना महत्व है, पर छः में से, देखो, एक का ही प्रबन्ध हो सकता है।’ तो किस चीज़ का प्रबन्ध करना चाहेंगे? कि पंखा बढ़िया चले?

प्र: गुरुजी का।

आचार्य: ठीक है। अब गुरुजी का प्रबन्ध हो गया, आ गये गुरुजी। अब किस चीज़ का प्रबन्ध किया जाए? गुरुजी आ गये, चलो वो मोर्चा जीत लिया। अब किसका प्रबन्ध किया जाए? अब कैमरे का किया जाए। अब कैमरा भी है, तो कैमरे की ही क्वालिटी (गुणवत्ता) को, रिकॉर्डिंग को, और बेहतर बनाने के लिए किस चीज़ का प्रबन्ध किया जाए? लाइट्स का। चलो, अब ये मोर्चा भी जीत लिया।

अब किस चीज़ पर आया जाए? चलो, पंखा इत्यादि देख लेते हैं। अब किस चीज़ पर आया जाए? मक्खी-मच्छर देख लेते हैं। फिर आख़िरी चीज़ क्या देख ली जाए? कि चादर कैसी है। बात समझ में आ रही है न? नहीं तो चादर बिछा लीजिए, उसी से कैम्प हो जाएगा, हम हटे जाते हैं।

अधिकांश धार्मिक साधना ऐसी ही हो जाती है। वहाँ चादरें बहुत साफ़-साफ़ बिछी हुई हैं, केन्द्र पर जिसको बैठना चाहिए था, वो नदारद है। ठीक?

इसका माने, मैंने क्या ये कहा कि चादरें गन्दी रखनी हैं? चादरें साफ़ रखनी हैं, पर क्या होगा चादर साफ़ रखकर अगर चादर साफ़ रखने के चक्कर में गद्दी खाली रह गयी? “सेज पूरी सजा दी, का करूँ सजनी आये न बालम।” अधिकांश धार्मिक साधना ऐसी ही रह जाती है, सबकुछ सजा हुआ है, बलमा नदारद है। वो नहीं होने देना है।

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