आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
प्रेम और मृत्यु बहुत भिन्न नहीं
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप कह रहे हैं कि खुद के प्रति प्रेम होना चाहिए। आपके अनुसार हमें अपने आंतरिक कष्ट से मुक्ति की कोशिश करनी चाहिए। एक तरह से ये स्वार्थ तो गहन अहंकार हुआ।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो वो गहन अहंकार चाहिए, गहन माने गहरा। गहरा अहंकार है जहाँ, वहाँ तो आत्मा है। अहंकार ये कह ही दे कि मुझे बाहर आना है तकलीफ़ से, बिल्कुल एक बार प्रण करके, तो काम हो जाएगा। वो ये नहीं कहता है ना। कहता है मलहम लगा दो, पट्टी बांध दो, सुला दो, नशा दे दो, बढ़िया खाना मिल जाए थोड़ा। वो ये थोड़े ही कहता है कि नाश हो जाए, अंत हो जाए इस पीड़ा का, ये वो कहता ही कहाँ है। खुद को ही बुद्धू बना लेता है बस।

श्रोता: यही प्रेम है। जब इतनी गहरी माँग हो तब शायद प्रेम भी गहरा आएगा।

आचार्य: इसीलिए प्रेम और मृत्यु बिलकुल साथ-साथ चलते हैं। जो जीवन है हमारा ये अप्रेम का है। जिस दिन प्रेम आएगा उस दिन मृत्यु शुरू हो जाएगी। किस मृत्यु की बात कर रहा हूँ समझ रहे हो न, शारीरिक नहीं। तो इसीलिए फिर इतना तो सन्तों ने गाया है कि इश्क और मौत साथ-साथ नहीं चले तो इश्क कैसा।

प्रेम जो तुम्हें तुम्हारे जैसा छोड़ दे वो प्रेम तो है ही नहीं। प्रेम का मतलब ही है कि आ गया तुम्हारे मौत का फरमान। और मौत का फरमान नहीं है वो ज़िंदगी का सामान है, आधा किलो धनिया, चार किलो लौकी, इससे ज़िंदगी चलती रहेगी, क्यों भाई? कुर्सी, बिस्तर, चौकी, तो फिर ये प्रेम नहीं है, ये तो ऐसे ही है।

प्रेम बहुत कातिल चीज़ होती है। जो स्वयं से प्रेम करेगा, स्वयं के प्रति संवेदना रखेगा, वो स्वयं को अंत की तरफ ले जाएगा। और जो अपने ही प्रति सहानुभूति नहीं रखता वो अपने-आपको जैसा है वैसा बचाए रखेगा, अधिक से अधिक ऊपर-ऊपर कुछ लीपा-पोती कर लेगा। कि जैसे किसी को हड्डी का कैंसर हो और वो अपनी खाल पर तेल मले। कि जैसे किसी की दांत की जड़ सड़ गई हो और वो बार-बार माऊथवाश करे। ये हमारा कांसेप्ट है प्रेम का। समझ में आ रही है बात? जल रही है तुम्हारी खाल क्योंकि तुमको त्वचा का कैंसर हो गया है तो तुम्हारा प्रेमी आके क्या कर रहा है? ऊपर-ऊपर कोई लोशन मल दिया, कुछ तेल मल दिया कि आराम आ जाएगा, सो जाएगा।

तुम इसीलिए कह सकते हो, कहने का एक तरीका हो सकता है कि ये दुनिया अप्रेम से चल रही है। जबतक अप्रेम है तब तक संसार है। संसार ही अप्रेम है। संसार वो बीमारी है जो प्रेम की कमी से पैदा होती है। और कुछ मूर्ख कहते हैं कि प्यार से बच्चे पैदा होते हैं। नहीं, उल्टा है। संसार ही पूरा किससे आता है?

श्रोतागण: अप्रेम से।

आचार्य: अप्रेम से, क्योंकि प्रेम जब आ गया तो अहम मिटेगा। अहम मिटा तो क्या मिटेगा साथ में?

श्रोतागण: संसार।

आचार्य: संसार मिटेगा। संसार जैसे तुम्हें प्रतीत होता है, जैसा चल रहा है वैसा वो है ही प्रेम की कमी की वजह से। प्रेम आया नहीं कि, सब साफ़।

प्र२: थोड़ा सा एक विरोधाभास प्रतीत हो रहा है कि जैसे अगर प्रेम है तो संसार चला जाएगा पर साथ में अगर कोई तकलीफ में है, कोई दूसरा दुःख में है तो वो संसार में ही है, तो क्या वो दुःखी प्राणी जो है संसार में वो भी दिखने बंद हो जाएंगे?

आचार्य: नहीं, दिखने नहीं बंद हो जायेगें। देखिए, एक आदमी दुःखी है तो उसके संसार का क्या नाम है? दुःख। संसार चला जाएगा, माने क्या चला जाएगा?

श्रोतागण: दुःख।

आचार्य: आप थोड़ा सा अच्छे से याद करिए जब आप बहुत बहुत बीमार थे तब ये दीवार भी कैसी थी? ये आपके दुःख का हिस्सा थी। एकदम उस जगह पर पहुँच जाइए जब आप बहुत बीमार पड़े हैं। जब आप बहुत बीमार पड़े हैं तो आपका ये बिस्तर, ये दीवारें, ये रौशनियाँ, पँखे, आसपास के लोगों की शक्लें, सब हिस्सा होती हैं आपके दुःख का। पूरा संसार ही क्या होता है फिर आपके लिए? दुःख मात्र। तो संसार के जाने का मतलब दुःख चला गया।

आप कहेंगे दीवार तो वही है। देखिए, बात आपके अनुभव की है। वैज्ञानिक प्रयोग की नहीं है कि आप कहेंगे कि देखो दीवार में अभी भी वही केमिकल है और वही पेंट है। उस दीवार को आपका जो पूरा अनुभव था वो पहले दुःख का था और आपका वो अनुभव बिल्कुल बदल गया। और आपकी सारी परेशानी क्या है, ऑब्जेक्टिव या सब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ)?

श्रोतागण: सब्जेक्टिव।

आचार्य: आपके अनुभव में आपकी परेशानी है न? आपकी परेशानी ये है कि आपको दुःख अनुभव हो रहा है, वो अनुभव बदल जाएगा। तो संसार गया न फिर। दीवार भले ही वही हो पर उस दीवार का आपको जो अनुभव होता था वो पूरी तरह बदल गया। तो क्या हमें ये कहना शोभा देता है कि दीवार वही है?

प्र२: तो अगर मैं इंटरप्रेट (समझ) कर रहा हूँ कि कोई इंसान दुखी है। मेरे आसपास कोई इंसान जो दुखी है, वो मेरा इंटरप्रेटेशन है, उसके बाद क्या वो इंसान बदल जाएगा जब संसार बदल जाएगा?

आचार्य: नहीं, आप में है वो तकलीफ या उस दुःखी व्यक्ति में है?

प्र२: दूसरे दुःखी व्यक्ति में तकलीफ है।

आचार्य: जब उसकी तकलीफ हट जाएगी तो वो आपको जैसे देखता है वो चीज़ बदल जाएगी। जब उसकी तकलीफ हट जाएगी तो वो आपको जैसे देखता है वो दृष्टि बदल जाएगी। क्योंकि एक दुःखी व्यक्ति के सब सम्बन्ध भी क्या हैं? उसके दुःख का ही रूप है। जब उस दुखी व्यक्ति का जो दुखी अंतस है वो मिटेगा, तो उसके संबंधों में भी जो दुःख का आधार है, वो भी हटेगा, तो उसके सारे संबंध बदल जायेंगे। उसका पूरा संसार बदल जाएगा।

प्र२: पर उसका मेरे से अगर संबंध है कोई, और सीधे तौर पर मैं उसके लिए कुछ कर नहीं पाता हूँ। तो क्या उसे अपने दुख से राहत और सच उसी रास्ते पर चलकर मिलेगी?

आचार्य: मौके तलाशते रहने होंगे। सब्र और बेसब्री एक साथ चाहिए। जैसे कोई अच्छा खिलाड़ी होता है न, वो बहुत सब्र से खड़ा होता है कि कब एक मौका मिले जब वो अपनी बेसब्री को पूरी अभिव्यक्ति दे सके। छक्का मारना है आपको, पर अपनी बेसब्री को आप दबा कर रखते हो सब्र के नीचे और सब्र करते रहते हो, करते रहते हो और अचानक मौका मिला नहीं कि अपनी बेसब्री का विस्फोट कर देते हो: वो गेंद गई सीधे नब्बे मीटर। बात समझ में आ रही है? तो सब्र रखिए और मौका मिलते ही छक्का मार दीजिए। लेकिन जहाँ मौका नहीं मिल रहा है वहाँ बल्ला मत घुमाइयेगा।

सबकुछ अपने ऊपर नहीं लेना चाहिए। सबकुछ अपने ऊपर ले लेने के बाद भी याद रखना चाहिए कि हमारी व्यक्तिगत सामर्थ्य बस थोड़ी सी ही है। बहुत दफ़े ऐसा होता है कि आपने अगर अपनी ओर से पूरा प्रयास किया है तो आपका वो प्रयास और कई बड़ी ताक़तों को सक्रिय कर देता है, आपसे ज़्यादा बड़ी ताकतों को। आप अपनी ओर से जो अधिकतम कर सकते हैं वो करिए बाकी दूसरी बड़ी ताकतों पर छोड़ दीजिए।

प्र३: जो आहत होने का जो वेग होता है या फिर किसी भी मनोस्थिति का वेग उसको उसी क्षण देख करके जल्दी से जल्दी तोड़ देने का क्या तरीका है? क्योंकि एक समय के बाद तो वो टूट जाती है।

आचार्य: जिस किसी ने तुमको बहुत जोर से झाड़ा। "बर्गर खा रहा है तू, दादी मर रही है वहाँ पर।" उसने तुमको उस पल कुछ याद दिला दिया न। जो याद दिलाई गई वो तुम्हारे लिए बहुत बड़ी होनी चाहिए। उसके आगे तुम्हारा जो व्यक्तिगत आहत होने का भाव है वो बहुत छोटा होना चाहिए। जिसने तुम्हें डाँटा, उसने तुम्हें आहत करा, ठीक? लेकिन आहत करने से पहले भी उसने तुम्हें क्या याद दिला दिया? दादी मर रही है तू उसके लिए दवा लेने आया था, ये बात तुम्हारे लिए बहुत बड़ी होनी चाहिए। तुम्हारी अपनी चोट उसके सामने बहुत छोटी बात है। तुम तो उसकी डाँट पूरी होने का भी इंतज़ार नहीं कर सकते। वो अब तुम्हें डाँटता जा रहा है तुम भाग दोगे, क्योंकि तुम्हें याद आ गया, उसने याद दिला दिया। क्या? दादी मर रही है। अब वो तुम्हें डाँटता जा रहा है पीछे से, ये तो छोड़ो कि तुम्हारे पास आहत होने का वक़्त है, तुम्हारे पास तो डाँट पूरी सुनने का भी वक्त नहीं है, तुम भाग दोगे।

देखो, उपचार तो एक ही है, प्रेम और समर्पण।

प्रेम और समर्पण नहीं है तो चोट भी खाओगे और बौराओगे भी।

बाइक बन जाओ बाइक। किक पड़ेगी तो दौड़ लगा दूँगा। किक पड़ना माने लात पड़ना ही तो होता है। बाइक ये थोड़ी कर सकती है, "किक मार दी, हाय! हाय! हाय! मुझे लात मार दी।" उसे किक मारते हो तो क्या करती है? वो दौड़ लगा देती है, ऐसे हो जाओ। किक तुम्हें इसलिए मारी गई है कि तुम दौड़ लगाओ, इसलिए नहीं मारी गई है कि वहीं खड़े होकर आँसू बहाने लगो। कुछ याद आ जाना चाहिए।

प्र४: संसार तभी आता है जब अप्रेम होता है। तो मेरी अभी किसी से बात हो रही थी। वो एंटी-डालिस्म को समर्थन करते हैं। तो वो मुझे बार बार इस बात को कह रहे थे कि आध्यात्मिक होने की ज़रूरत क्या है?

आचार्य: ये तो सवाल बहुत बाद का है। पहले सवाल होना चाहिए, अध्यात्म है क्या? मौलिक बातें पहले। असल में अध्यात्म का नाम इतना खराब हो गया है कि तुमने कहा नहीं कि अध्यात्म, कि उनके मन में छवि आ गयी होगी वाइब्रेशन और जंतर-मंतर, जादू-टोना, चमत्कार। अध्यात्म का रिश्ता इन चीज़ों से जुड़ गया है न। और वो अपनी तरफ से बहुत सीधी-साधी बात कर रहे हैं कि क्या ज़रूरत है आबादी बढ़ाने की। तो कह रहे हैं इतनी सीधी सी बात है मेरी जो बिल्कुल तार्किक है और सही है कि भईया बच्चे इतने न पैदा करो, तो बीच में उसमें ये वाइब्रेशन , फ्रीक्वेंसी और एनर्जी ये सब क्यों घुसेड़ रहे हो? तो ये दिक्कत हो रही है बातचीत में।

अध्यात्म का नाम बहुत खराब कर दिया गया है। तुम इस माहौल में हो इसलिए तुम जानते हो कि अध्यात्म का मतलब है सच्चाई की खोज, ईमानदारी, अहंकार का विश्लेषण। ये बात हम समझते हैं न कि अध्यात्म बड़ी शुद्ध परिभाषा रखता है। पर बाहर की जनता से अगर तुम बोलोगे कि तुम आध्यात्मिक हो तो तुरंत तुमसे पूछेगा कि बताइए आपको किस-किस तरीके के दैवीय अनुभव हुए हैं? अभी आपका कौन सा चक्र सक्रिय चल रहा है? आपके कौन से कान में घंटी बजती है? और आपको कलर्स सफ़ेद वाले दिखाई दे रहे हैं या गेरुए वाले? तो इन सब बेवकूफियों के कारण अध्यात्म का नाम बहुत खराब हुआ है।

प्र४: मैं उन्हें यही समझा रहा था कि बिना प्रेम और अध्यात्म के उनका मूवमेंट भी ज़्यादा लंबा नहीं चल सकता क्योंकि तर्क के ऊपर इसको कितना लम्बा खीचेंगे।

आचार्य: हाँ, तो जब उनमें भी प्रेम आएगा अपने मूवमेंट के प्रति तो उन्हें दिखाई देगा कि इस मूवमेंट को ही और चलाने के लिए उनको आध्यात्मिक होना पड़ेगा। आप एक अच्छा काम करना चाहते हैं और वो अच्छा काम दूर तक जाए उसकी शर्त ही यही है कि आप जीवन को गहराई से समझें, तो आप जीवन को गहराई से समझना चाहेंगे या नहीं, अपने अभियान की ही खातिर? आपका जो भी मिशन है अगर उसकी अनिवार्यता ही यही बन गई है कि जीवन को समझो तभी तुम्हारा मिशन आगे बढ़ेगा, तो तुम्हें झक मार के जीवन को समझना पड़ेगा न। तो यही बात है अध्यात्म की, कि तुम ज़िंदगी में अगर कोई भी काम बहुत आगे तक ले जाना चाहते हो, तुम्हें अपने काम से बहुत प्यार है तो तुम पाओगे कि तुम्हें आध्यात्मिक होना ही पड़ेगा।

कोई भी काम, अच्छा काम, एक बिंदू से आगे नहीं जा पाएगा अगर उसमें आध्यात्मिक स्पष्टता नहीं है, वो अटक जाएगा। चाहे वो विगनिस्म हो, चाहे क्रूरता विरोधी अभियान हो, चाहे समान अधिकार अभियान हो। जितने भी तथाकथित अच्छे काम हो रहे हैं दुनिया में, चाहे जलवायु परिवर्तन अभियान हो, वो सब एक बिंदु पर जाकर—कुछ प्रगति कर लेंगे वो लोग पर एक जगह पे जाकर के रुक जाएंगे अगर उनके पास आध्यात्मिक आधार और आध्यात्मिक स्पष्टता नहीं है। ऐसे बिंदु पर क्या होगा? ऐसे बिंदु पर ये होगा कि जो असली एक्टिविस्ट होगा वो आध्यात्मिक हो जाएगा, उसे आध्यात्मिक होना पड़ेगा। जो नकली एक्टिविस्ट होगा वो कहेगा, "नहीं साहब, भले ही मेरा मिशन आगे न बढ़ता हो पर अध्यात्म से मुझे तो डर लगता है।" वो फिर जहाँ तक पहुँच गया है वहाँ पहुँचने में अपने-आपको संतुष्ट लर लेगा।

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