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लेख
प्रकृति क्या है, क्या सिखाती है, क्यों भाती है? || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रकृति हमें क्या सिखाती है?

आचार्य प्रशांत: कुछ सिखाती नहीं है, बस है। आप प्रकृति की बात कर रहे हैं। प्रकृति से तो यही जान लीजिए कि आपके भीतर जो प्रकृति बैठी है, वो बिलकुल वैसी ही है जैसे ये पेड़-पौधे, जानवर।

प्र: प्रकृति कितनी स्थिर और शांत लगती है।

आचार्य: दो बातें हैं देखने लायक। एक तो ये कि किस सीमा तक इनमें शान्ति है, और दूसरी बात ये कि कैसे इनकी शान्ति की सीमा है। आपका शरीर और किसी पेड़ का शरीर और किसी जानवर का शरीर बहुत हद तक एक जैसा है। तो आपके शरीर की माँगें, शरीर की वृत्तियाँ भी वही हैं जो किसी जानवर की हैं। इस बात को भूलना नहीं चाहिए।

चाहे वो कुत्ता हो जो भौंक रहा हो, या चाहे एक आदमी हो जो इस बात पर नाराज़ हो रहा हो कि उसके क्षेत्र में कोई और क्यों घुस आया, इन दोनों में कोई बहुत अंतर नहीं है।

(एक कुत्ता भौंकता है)

अभी आपने बोला था कि आपको प्रकृति शांत नज़र आती है, तो ये कुत्ता क्यों भौंका? तो शान्ति कहाँ गई? ये सब बड़े रूमानी ख्याल हैं कि प्रकृति में शान्ति है और ये है और वो है। मुझे बताइए न वो कुत्ता क्यों भौंका? वो प्रकृति ही तो है। और व्यर्थ भौंका। यहाँ कोई उसका अहित नहीं करने जा रहा था लेकिन फिर भी उसने अपना भी माथा ख़राब किया, शोर मचाया और जो लोग आस-पास हैं उनको भी परेशान किया।

तो ये ख़्याल छोड़िए कि प्रकृति में शान्ति-ही-शान्ति है। प्रकृति में तो लगातार चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है। वहाँ शान्ति पल भर की है सिर्फ़ तब जब पेट भरा हुआ हो। पेट भरा हो तो शेर भी शांत हो जाता है और थोड़ी देर बाद फिर उपद्रव करता है, फिर शिकार करता है।

तो प्रकृति की शान्ति को शान्ति मत मान लीजिएगा। इतना आसान होता, इतनी सस्ती होती शान्ति तो फिर तो जानवर ही बनना ठीक रहता कि बड़ी शान्ति रहेगी। फिर किसी साधना की, किसी बुद्धत्व की क्या ज़रूरत थी?

एक ओर तो ये देखना ज़रूरी है कि प्रकृति में अशांति है और दूसरी ओर ये भी बात है कि समाज प्रकृति से भी ज़्यादा अशांत है। इसलिए लोग समाज छोड़-छोड़कर जिम कॉर्बेट आते हैं कि ज़रा शान्ति मिल जाएगी। तो हम इतने ज़्यादा अशांत हैं कि प्रकृति भी हमें अपने से ज़्यादा शांत पता चलती है।

प्र२: आचार्य जी, किताबों में प्रकृति तो सिर्फ़ इन्हीं पेड़-पौधों को बताया गया है, आपसे ही सुना है कि शरीर भी प्रकृति है।

आचार्य: (शरीर को इंगित करते हुए) सर्वप्रथम प्रकृति ये है। अहंकार बहुत हैं न हममें। हमें लगता है, "ये सब जंगल-झाड़ी ही प्रकृति हैं, हम थोड़े ही प्रकृति हैं। हम तो कुछ और हैं।" तो कोई पूछे, "प्रकृति कहाँ है?" तो कहोगे, "नदियाँ, पहाड़, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी ये सब प्रकृति हैं।" पहली प्रकृति तो तुम्हारा मस्तिष्क है। ये बुद्धि, ये स्मृति, ये सब प्रकृति है, बाकी तो सब बाद में आते हैं।

जैसे वो कुछ नियमों से संचालित हो रहे हैं और उन नियमों को वो तोड़ नहीं सकते, वैसे ही हम भी नियमों पर ही चल रहे हैं। हमारा शरीर ही नहीं उन नियमों पर चल रहा है, ग़ौर करना, हमारा मस्तिष्क भी उन्हीं नियमों पर चल रहा है। इसीलिए इस मस्तिष्क को चैतन्य कहना भूल होगी, ये तो मात्र प्राकृतिक है। चैतन्य कुछ और होता है, उसका लेना-देना मस्तिष्क से नहीं है। मस्तिष्क और मन अलग-अलग होते हैं, ब्रेन और माइंड अलग हैं। मस्तिष्क प्रकृति मात्र है।

प्र३: आचार्य जी, मस्तिष्क का रिमोट कंट्रोल (दूरस्थ नियंत्रण) कहीं और है न, हमारे हाथ में तो नहीं है।

आचार्य: तुम्हारे हाथ में तो कुछ भी नहीं है। तुम इस नदी को बहने से नहीं रोक सकते, तुम बादल को बरसने से नहीं रोक सकते, तुम सूरज को तपने से नहीं रोक सकते और तुम अपना गुस्सा भी नहीं रोक सकते। ये सब प्राकृतिक बातें हैं।

तुम अपनी बढ़ती हुई उम्र रोक सकते हो? तुम कह सकते हो कि, "आज मैं चालीस साल का हूँ, अगले साल भी चालीस का ही रहूँगा"? रोक सकते हो क्या? कुछ नहीं रोक सकते। तुम पृथ्वी को उसकी कक्षा में घूमने से नहीं रोक सकते, तुम अपनी बढ़ती उम्र नहीं रोक सकते, तुम अपना गुस्सा भी कहाँ रोक सकते हो।

जो ऐसा हो जाए कि इन सब चीज़ों से ज़रा अछूता हो जाए — अपनी बढ़ती हुई उम्र से भी और अपने गुस्से से भी, उसको जानना कि वो पुरुष हुआ, वरना सब प्रकृति है। जो अपने क्रोध से भी हट सके और जो अपनी उम्र से भी हट सके, मात्र वो पुरुष हुआ, अन्यथा तो प्रकृति-ही-प्रकृति है।

प्र२: आचार्य जी, ये प्रकृति अपनी ओर हमें खींचती क्यों है?

आचार्य: वो नहीं खींचती, आप जाते हो उसकी तरफ। उसको क्या करना है।

प्र२: पानी की आवाज़ जैसे अपनी ओर खींच रही है।

आचार्य: आपके कान सामाजिक शोर से ऊबे हुए हैं इसलिए आपको ये (नदी की) आवाज़ बहुत प्यारी लग रही है। दस दिन यहीं बैठ जाओ तो भागोगे। कहोगे, "शोर मचाता है।"

प्र३: अकेलापन लगेगा।

आचार्य: नहीं, अकेलापन नहीं कुछ और कह रहा हूँ। प्रकृति में कुछ ख़ास नहीं है। तुम धुँए और शोर और प्रदुषण में पड़े रहते हो इसलिए तुम्हें यहाँ बहुत कुछ ख़ास लगता है। यहाँ क्या ख़ास है? प्रकृति में अगर कुछ ख़ास होता तो जितने लोग प्रकृति के पास रहते थे वो सब फिर बुद्ध ही हो गए होते। उत्तराखंड की पूरी आबादी बुद्धों की और कृष्णों की होती।

प्रकृति में कुछ नहीं है। हाँ, तुम जहाँ रहते हो वो जगह प्रकृति से भी गई-गुज़री है इसलिए उसकी तुलना में प्रकृति तुम्हें ख़ास लगती है। इसलिए आदमी बार-बार जंगल की ओर, पहाड़ की ओर, नदी की ओर भागता है क्योंकि हम बहुत घटिया जगहों पर रहते हैं।

प्र४: तुलनात्मक रूप से नर्क है।

आचार्य: बस तुलनात्मक रूप से। ये (जिम कार्बेट भी) एक सामान्य साधारण जगह है, पर जो नर्क में रहता हो उसको ये जगह भी स्वर्ग लगेगी। तुम्हें लगेगा यही स्वर्ग है। क्या स्वर्ग है? तुम हिमालय की चोटी पर चढ़ जाओ वहाँ भी स्वर्ग नहीं है। क्या है? बर्फ है, पत्थर है, उसमें ऐसा क्या है कि पागल हो रहे हो?

तो ये सब जो तुम वृतांत पढ़ते हो कि, "मैं फैलाने सरोवर पर पहुँच गया और मैं समझ गया कि यही तो स्वर्ग है।" या कि कहा जा रहा है कि ज़मीन पर अगर कहीं स्वर्ग है तो बस कश्मीर में है, कश्मीर में है। ये सब बातें अतिश्योक्तियाँ हैं।

प्र५: आचार्य जी, क्या स्वर्ग और नर्क मन की स्थितियाँ हैं?

आचार्य: हाँ, तुम परेशान हो तो नर्क है, और तुम परेशानी से छूटने के ख़्वाब ले रहे हो तो स्वर्ग है। और जब परेशानी से छूट ही गए तब ना स्वर्ग है ना नर्क है।

कल हम बात कर रहे थे न कि आदमी हर चीज़ को भोगना चाहता है — अनुभववाद। तो प्रकृति को भोगना भी उसी में शामिल है कि पचास जगहों पर जाएँ और प्रकृति का रस चूस लें बिलकुल, और ऐसा लगता है कि, "वाह! जीवन में न जाने क्या मिल गया।" फलाने रेगिस्तान में घूम आए, फलाने देश हो आए, फलाने पहाड़ पर चढ़ गए, फलाने समंदर में गोता मार दिया, तो लगता है यही तो है सब कुछ। लेह हो आए, मानसरोवर हो आए, सिक्किम घूम रहे हैं, फिर चलो साइबेरिया चलते हैं।

क्या पा जाओगे वहाँ पर? नदी, पानी, हवा, पत्थर, पहाड़ इनसे हटकर कोई और जगह है क्या कहीं? तुम चाँद पर चढ़ जाओ, वहाँ भी और क्या पा जाओगे? वहाँ भी और क्या है?

लेकिन आदमी उपभोक्ता है, अनुभवों का बहुत बड़ा उपभोक्ता है आदमी। हमें सब भोगना है। तो नदी के पास भी आते हैं तो यहाँ पर फोटो खिचवाएँगे और फिर (सोशल मीडिया पर) डालेंगे। कुछ नहीं कर रहे हो तुम, भोग रहे हो उसको और उस भोग से तुम्हारी प्यास बुझेगी नहीं। तुम नदी किनारे आकर, नदी में गोता मारकर भी प्यासे ही लौटोगे। यात्राएँ कर-करके, अनुभव ले-लेकर अगर मुक्ति मिल गई होती, तो सब बस कंडक्टर और एयर होस्टेस बिलकुल मुक्त ही हो गए होते।

श्रोता: स्विट्ज़रलैंड में सारे बुद्ध होते।

आचार्य: बिलकुल।

प्र६: आचार्य जी, जब हम प्रकृति के पास होते हैं तो हमारे मन में प्रकृति के लिए बहुत कृतज्ञता होती है। वो हमारी रोज़मर्रा के जीवन में क्यों नहीं होती?

आचार्य: यही तो कृतज्ञता होती है कि उस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से छूटे। और वो कृतज्ञता भी इसलिए होती है कि इस प्रकृति के पास तुम महीने में दो ही बार आ पाती हो। अट्ठाइस दिन वहाँ नौकरी पर जाती हो फिर दो दिन यहाँ आती हो, तो मन में बड़ा धन्यवाद उठता है कि दो दिन के लिए ही सही नर्क से छूटे। अगर तुम्हारा वहाँ सब धंधा-पानी बंद कर दिया जाए, कि अब वहाँ से तुम्हारी रोज़ी-रोटी नहीं चलेगी, यहीं पर (नदी किनारे) बसो, फिर देखते हैं कि कितनी तुममें कृतज्ञता रहती है।

पहाड़ी सारे भागते हैं मैदानों की ओर, शहरों की ओर कि दिल्ली पहुँच जाएँ और नौकरी मिल जाए, तुम यहाँ को भागते हो। जो जहाँ है वहीं असंतुष्ट है। पहाड़ी गाँवों में चले जाओ वहाँ तुमको जवान लोग बहुत कम मिलेंगे, सारे जवान कहाँ गए? शहर में।

लेकिन अच्छा है। जो लोग शहरों में, धूल में और शहरों के कुचक्र में फँसे हुए हैं, उनको प्रकृति के पास आना चाहिए। इसलिए नहीं कि प्रकृति उन्हें कुछ दे देगी, इसलिए कि यहाँ आएँगे तो उन्हें पता चलेगा कि शहर कितना बड़ा नर्क है।

प्र२: यहाँ पर बसने का मन करता है।

आचार्य: बस जाओगे तो भागोगे, तुम भी भागोगे। बस जाओगे तो भागना पड़ेगा।

प्र३: अनुभव है इसलिए अच्छा लगता है।

आचार्य: वही है। तुम भोगने आते हो। वहाँ भोग रहे थे तो जिस चीज़ को भोग रहे थे वो कड़वी लगने लग गई है अब। तो यहाँ आओगे, कुछ दिन इसको भोगोगे फिर ये भी कड़वा लगने लगेगा। अरे कुछ दिन छोड़ दो तुम्हें घण्टे भर यहाँ खड़ा रहना पड़ जाए, तुम्हें कड़वा लगने लगेगा। कहोगे, "ठण्ड हो गई, अँधेरा हो गया, चाय पिला दो।"

प्र४: जो संवेदनशील लोग होते हैं उनको ज़्यादा दुःख क्यों अनुभव होता है?

आचार्य: उनको पता चल जाता है कि दुःख इतना है। उनका दुःख प्रकट हो जाता है। बाकियों का दुःख अप्रकट रहता है, उनको भीतर-भीतर दीमक की तरह खाता है। जिनको तुम कहते हो सेंसिटिव (संवेदनशील) लोग, वो पीड़ा के प्रति सजग हो जाते हैं। बाकी अपनी ही पीड़ा के प्रति सोये हुए रहते हैं। पीड़ित तो सभी हैं।

प्र४: " सफरिंग इज़ अ टीचर (पीड़ा शिक्षक है)" इसका अर्थ समझाने की कृपा करें।

आचार्य: अ टीचर, अ मैसेंजर (एक शिक्षक, एक संदेशवाहक)।

प्र४: जाग्रति का बुलावा।

आचार्य: बताने आती है कि कुछ ग़लत है, ठीक करो।

प्र४: जब देखते हैं तो बहुत ज़्यादा ग़लत नज़र आता है।

आचार्य: तो तुम कहते हो, "इतना कौन ठीक करे। सो जाओ।"

पीड़ा आती है तो दो तुम उत्तर दे सकते हो उसको। एक तो ये कि जग जाओ, और दूसरा ये कि और भी गहरा सो जाओ। ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या उत्तर देना चाहते हो।

प्र४: आचार्य जी, शुरुआती झलक के बाद सोना बहुत मुश्किल है।

आचार्य: अरे, हम कुछ भी करके दिखा सकते हैं। सोना मुश्किल है तो भांग की गोली ले लो, कोई और नशा कर लो। नींद आ नहीं रही तो लाई भी तो जा सकती है।

प्र५: डायरेक्ट परसेप्शन (प्रत्यक्ष अनुभूति) में हम क्या अनुभव कर रहे होते हैं?

आचार्य: कुछ नहीं। डायरेक्ट परसेप्शन का मतलब ही है कि अनुभूति करने वाला नहीं है।

इनडाइरेक्ट परसेप्शन क्या होता है? जिसमें परसीवर (अनुभूति करने वाला) बीच में बैठ गया है। परसीवर अपने माध्यम से देख रहा है, परसीवर अपने माध्यम से देख रहा है दृश्य को। तो वो दृश्य क्या देखेगा, खुद को ही देखेगा। जैसे मेरी आँखों के आगे मैं ही खड़ा हो गया हूँ, तो मुझे क्या दिखाई देगा सदा? मैं ही तो दिखाई दूँगा। ये हमारा सामान्य दर्शन होता है। हमारी आँखों के आगे हम ही खड़े होते हैं।

प्र४: आचार्य जी, प्रत्यक्ष जानने में क्या विश्लेषण चल रहा होता है?

आचार्य: प्रत्यक्ष जानने में जानने वाला नहीं होता तो विश्लेषण कौन करेगा? प्रत्यक्ष जानना होता है एक झटके में। उसमें बीच में किसी बिचौलिए की ज़रूरत नहीं होती है। खड़े हो, खड़े हो और कुछ बात कौंध गईं, ये है प्रत्यक्ष जानना या प्रत्यक्ष सुनना या प्रत्यक्ष अनुभूति होना, जो भी बोलो। खुद तुम बीच में आए ही नहीं। ना तुम बीच में आए, ना तुम्हारी बुद्धि बीच में आई, ना स्मृति बीच में आई। बस बात समझ में आ गई।

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