आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों में छुपे झूठ || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर भाषा से मन बनता भी है और प्रदर्शित भी होता है। बचपन से ही कुछ मुहावरे, जुमले इतने ज़्यादा सुने कि अब वो भीतर की धारणा बन गए हैं। मैं चाहता हूँ कि आप इन पर कुछ बोलें। कुछ उदाहरण हैं — आइए अपना ही घर समझिए, बी पॉजिटिव , भगवान पर भरोसा रखो, दुनिया ऐसे ही चलती है, सीखो डूब कर, ऊपर वाला जो करता है सही ही करता है। इसी तरह के कई अन्य मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं। बचपन से ही हमें इनके द्वारा संस्कारित कर दिया जाता है। कुछ कहिए।

आचार्य प्रशांत: जान तो तुम खुद ही रहे हो कि ये सब बातें कैसी हैं। मेरे मुँह से लेकिन सुनना चाहते हो। दिख भी रहा है कहीं गंदगी है पर साफ़ मुझसे करवानी है। चलो भई झाड़ू लगाते हैं।

'आइए अपना ही घर समझिए।' कहाँ से शुरू करूँ? जो कह रहे हैं कि आइए इसे अपना ही घर समझिए वह खुद बड़े बेघर हैं। तुम दूसरे को क्या बता रहे हो कि, "मेरे घर को अपना घर समझो"? तुम्हारे पास ही कहाँ घर है। तो पहला झूठ तो यह कि तुम दूसरे को कह रहे हो कि मेरे घर को अपना समझो जबकि तुम ही बेघर हो। और दूसरा झूठ यह कि दूसरे से तुम्हारा ऐसा कोई प्रेम नहीं है कि तुम अपनी कोई बड़ी कीमती चीज़ उसके साथ बाँट लोगे।

वह वाकई ही अगर तुम्हारे घर को अपना घर समझने लगे तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी तुमको। तो तुम वास्तव में उसे मूर्ख बना रहे हो, धोखा ही दे रहे हो। तुम कह रहे हो — आइए अपना घर समझिए। अब वह बेचारा अगर सीधा-सादा हुआ तो वह तो कहेगा कि, "इन्होंने मुझे बहुत बड़ी चीज़ दे दी, इतना अपनापन। अपनी पूरी कोठी मेरे हवाले कर दी तो बदले में मेरा भी कुछ कर्तव्य बनता है।" फ़िर वह भी तुम्हें कोई बहुत कीमती चीज़ दे देगा। और यही तुम चाहते हो। किसी से झूठ बोलने का कुछ-न-कुछ मकसद तो होता है न। जब तुम किसी से कहते हो कि, "आओ-आओ।" जैसे छोटे बच्चे करते हैं स्कूल के दिनों में।

मेरी माता जी को बड़ा शौक था। बढ़िया वाला टिफिन तैयार करके दिया करें मुझे। उनको बड़ा डर रहा करे कि किसी भी क़ीमत पर यह जो स्कूल की कैंटीन में सामग्री मिलती है, समोसे वगैरह, यह खा ना ले। वो तो खैर मैं वैसे भी नहीं ले सकता था मुझे पैसे ही नहीं देते थे। तो सोचें कि कहीं किसी और के टिफिन का कुछ इसमें ना चला जाए। तो बढ़िया सामग्री वो मुझे दिया करें।

तो बहुत सारे मेरे सहपाठी थे वो कहा करें, "आओ प्रशांत हमारा टिफिन खाओ न, आओ न। बाँटो न, इसे अपना ही टिफिन समझो।" बात समझ रहे हो न? क्या? एक ही दो थे जिनमें इतनी इमानदारी या मासूमियत होती थी कि सीधे आकर के कह दें कि, "वो आधा सैंडविच दे दो प्रशांत।" इतनी ईमानदारी एक या दो में ही होती थी कि सीधा आकर कह दें कि, "वह सैंडविच मुझे चाहिए।" और वो कह देते थे तो मैं दे भी देता था।

बाकी ऐसे नहीं कहते थे। बाकी अपना खोल कर ले आते थे। दो सड़े, सूखे हुए पराठे पिछली-से-पिछली रात के जो उनकी अम्मा ने बिलकुल ताजी प्याज़ की चटनी के साथ सुबह-सुबह पैक कर दिए हैं। पूरे टिफिन में ताजा क्या है? प्याज़ की चटनी जो सुबह-सुबह बनाई गई है। बाकी जो पराठे हैं वह पिछली से पिछली रात के हैं। वो मुझे बड़े सप्रेम भेंट करने आते थे — लो-लो खाओ-खाओ। अरे सीधे कह दो तुम्हें मेरा चाहिए न। यह क्यों कह रहे हो कि, "मेरे टिफिन को अपना ही टिफिन समझो"?

वैसे ही यह है — आइए मेरे घर को अपना ही घर समझिए। तुम्हारा घर उसका घर हो गया तो उसका धन तुम्हारा धन हो गया। बात और दूर तक भी जा सकती है। कल्पना उड़ा लो। तो जिसको आप कहते हो न व्यवहार, दुनियादारी; ये दुनियादारी ही इतनी सड़ी हुई चीज़ है कि किसी ने ग्रंथ का पाठ ना किया हो, गुरु की संगत ना की हो तो भी उसे संसार से विरक्ति तो सांसारिकता देखकर ही हो जाए।

दुनिया से मन उठने के लिए कोई तुमको परम ज्ञान होना ज़रूरी नहीं है। सब इतने सौभाग्यशाली होते भी नहीं है कि उनको बचपन से ही गीता मिल जाए या कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो उन्हें निर्देश दे, समुचित दिशा और दीक्षा दे। सबकी नहीं ऐसी किस्मत होती। लेकिन दुनिया में तो सभी होते हैं न। दुनियादारी व दुनिया का चाल चलन तो सभी देख रहे हैं न, यही काफ़ी है।

जो दुनिया के तरीक़े देखकर भी दुनिया से उब नहीं गया, दुनिया से विरक्त नहीं हो गया, दुनिया से चिढ़ सा नहीं गया वो आदमी कैसा है? छोटे बच्चे अक्सर इस बात को पकड़ लेते हैं। बहुत छोटे नहीं पर अगर आठ से बारह साल के हैं तो पकड़ लेंगे। और उनको दिख जाएगा तुरंत कि यह जो अभी आंटी जी आई थी यह कितनी फेक (नकली) थी न। उनको दिख जाएगा पर उनकी मॉम को नहीं दिखता। यह कैसे हो रहा है? छोटे बच्चों को तुरंत दिख जाता है कि यह जो आंटी हैं, रीना आंटी, यह एक नंबर की फेक हैं। घुसते ही लंबी-लंबी फेकेंगी, इधर-उधर की बातें करेंगी। कहना कुछ होगा कहेंगी कुछ और। कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना। कोई बात इन की सीधी होती नहीं। इरादे इनके हमेशा नकली होते हैं। जैसे कह लो इरादे हमेशा निकृष्ट और तरीके हमेशा नकली होते हैं। ये देखकर एक बारह-चौदह साल का बच्चा या बच्ची भी दुनिया से ज़रा बैरागी हो जाए। कहे, "यही अगर दुनियादारी है तो छोड़ो फ़िर!"

'आइए अपना ही घर समझिए।' अभी घंटी बजी दरवाज़े पर टंडन भाई साहब थे। पॉप्स ने दरवाज़ा खोला बोल रहे हैं — आइए-आइए टंडन जी, अपना ही घर समझिए। अब टंडन को सोफे पर बैठाया ड्राइंगरुम में। और अंदर आ करके लिविंग रूम में मॉम से बोलते हैं — आ गया वो टंडन। बिलकुल टंडन को स्वर्ण अक्षरों से, शुभकामनाओं से आभुषित करते हुए। और टंडन का नाम इतने प्यार से लिया कि टंडन के पूरे कुल-खानदान को याद कर लिया, ख़ासतौर से खानदान की स्त्रियों को।

"भाई हम टंडन से इतना प्यार करते हैं तो सिर्फ़ टंडन के नाम को क्यों सुसज्जित करें? जब टंडन को याद कर रहे हैं तब टंडन का पूरा खानदान याद कर लिए!" और जो घर का छोटा टिंकू है यह सब देख रहा है कि अभी दरवाज़े पर टंडन को बोले, "आइए इसे अपना ही घर समझिए" और यहाँ माताजी के पास जाकर टंडन की मदर-सिस्टर कर रहे हैं।

मैं क्या बोलूँ तुमने इतनी लंबी सूची दे दी है। कुछ अच्छा बुलवाओ यार। क्यों मेरा भी मन दूषित और मुँह गंदा करते हो?

बी पॉज़िटिव ताकि तुम इस दुनिया से और ज़्यादा लूट सको। बी पॉज़िटिव माने उम्मीदें बुलंद रखो। उम्मीद है किस बात की? तुम्हें सच्चाई की उम्मीद है, तुम्हें मुक्ति की उम्मीद है, तुम्हें सच्चे प्यार की उम्मीद है? या कोई तुम्हें तुम्हारे झूठे सपनों से झंझोड़ कर जगा देगा ये है तुम्हारी उम्मीदें?

पॉज़िटिविटी का मतलब यही होता है न कि दिल मत छोटा करो, हार मत मानो, निराश मत हो जाओ। (व्यंग्य करते हुए) तुम्हारे साथ अभी वह घटना घटेगी जिसका तुम्हें इंतज़ार है, बालक तेरी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। यही है ना बी पॉज़िटिव का मतलब?

इसमें यह बात तो पूछी ही नहीं जाती कि, "तुम्हारी मनोकामना है कौन-सी बालक?" यह बात तो बहुत गुप्त दबा कर रखी जाती है। क्योंकि बालक की मनोकामना अगर शब्दों में प्रकट हो गई तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। बालक की मनोकामना तो यह है कि पूरी दुनिया को वो भोग डाले। जो हो नहीं सकता। इसीलिए बार-बार बालक को फ़िर नीचे से गैस मारनी पड़ती है *बी पॉज़िटिव*।

अगर पूरी दुनिया को इतना ज़्यादा इस पॉज़िटिव विटामिन की ज़रूरत पड़ती है, इतना पंप लगाना पड़ता है तो इसका मतलब तो यही है न कि तुम जो चाह रहे हो वह हो रहा नहीं होता है। तभी बार-बार उत्साहवर्धन करना पड़ता है। तुमसे कहा जाता है कि, "नहीं-नहीं हार मत मानिए मैदान मत छोड़िए।" वजह तो समझो न। तुम जो चाह रहे हो वह चीज़ ही ऐसी है कि जो पूरी हो ही नहीं सकती। और अगर पूरी हो रही हो तो भगवान ना करे कि वह पूरी हो। तुम जो माँग रहे हो अगर वह हो गया तो तुम्हारा ही नहीं पूरी दुनिया का अनिष्ठ है।

वास्तव में इस समय दुनिया को जो सबसे ज़्यादा ज़रूरत है वह है *बी नेगेटिव*। "बेटा जो तुम चाह रहे हो वह चाहने लायक नहीं है। मत चाहो।" सिर्फ अपनी इच्छाओं के प्रति ही नकारात्मक ना रहो, बल्कि अपने प्रति भी नकारात्मक रहो। तुम्हारी कामनाएँ भी मूर्खतापूर्ण हैं क्योंकि सबसे पहले तुम ही मूर्ख हो। चूँकि तुम्हें अपना ही कुछ पता नहीं इसलिए तुम सब अंट-संट चीज़ें चाहते रहते हो।

तुम्हें नकारना पड़ेगा अपनी इच्छाओं को और अपने आपको भी, इसी को कहते हैं *निगेशन*। इसीलिए *बी नेगेटिव*। पर तुम पाते ही नहीं हो कि कोई किसी को बोल रहा हो कि *बी नेगेटिव*। बल्कि तुम्हें जब किसी को बुरा ठहराना होता है, किसी की बुराई करनी होती है तो तुम कहते हो, "बड़ा नेगेटिव इंसान है!" इस दुनिया को और ज़्यादा नेगेटिव इंसान चाहिए। इस अर्थ में नहीं कि वो निंदा करते रहें, मज़ाक बनाते रहें वगैरह-वगैरह। उस अर्थ में नहीं। इस अर्थ में कि वो तुम्हें तुम्हारी हस्ती का झूठ दिखाते रहें। वो नकारते रहें उन सभी चीज़ों को जिनको तुम स्वीकारते रहते हो। उस अर्थ में नेगेटिव कह रहा हूँ मैं।

यह जो पॉज़िटिविटी का कल्चर है, इसी ने पिछले पचास-सौ साल में पूरी दुनिया की दुर्गति कर दी है। पॉज़िटिविटी का मतलब समझते हो क्या है? जो तुम्हें चाहिए वही इसको चाहिए, वही उसको चाहिए। और तुम सबसे क्या कह रहे हो? " बी पॉज़िटिव , तुम सबको मिलेगा।" चाह तुम क्या रहे हो? तुम भी यही चाह रहे हो कि भोगूँ, वह क्या चाह रहा है मैं भी भोगूँ। और तुमने सबको पंप मार रखा है कि बी पॉज़िटिव * । नतीजा क्या होगा? तुम भी ज़्यादा-से-ज़्यादा * कंज़्यूम (भोगना) करोगे और वो भी करेगा। और वह बेचारा पाँचवाँ छठवाँ सातवाँ आठवाँ है कतार में, वह अगर नहीं कर पा रहा तो फ़िर वह भोगने के नए-नए तरीक़े निकालेगा। यही कर-कर के तो तुमने पृथ्वी को कहीं का नहीं छोड़ा न।

कहाँ गए सारे जंगल? वो बी पॉज़िटिव की भेंट चढ़ गए। कहाँ गई वो लाखों प्रजातियाँ पौधों की, पक्षियों की, पशुओं की, कीट-पतंगों की जो विलुप्त हो गई और रोज़ विलुप्त हो रही हैं दर्जनों में, सैकड़ों में? कहाँ गई वो? वो हमारी पॉज़िटिविटी की आग में स्वाहा हो गई। कभी समझो तो कि पॉज़िटिविटी का और कंज़म्प्शन (भोग) का कितना गहरा अनन्य संबंध है। ये एक ही शब्द हैं सकारात्मकता और भोगवादिता। ये बिलकुल एक हैं।

ग़ौर से देखना जिसको भी तुम कहोगे बड़ा पॉज़िटिव आदमी है, वह किस बारे में पॉज़िटिव है। कभी यह तो पूछ लिया करो। किस चीज़ को लेकर उसने मंसूबे बाँध रखे हैं? क्या पाने की उम्मीद में वह पॉज़िटिव ही बने हुआ है? कहते तो हो तुम कि, "यह कभी अपना हौसला नहीं छोड़ता है, इसके इरादे कभी नहीं टूटते।" पर इरादे हैं क्या? बड़े कुत्सित इरादे हैं। ग़ौर से उन इरादों की तो जाँच-पड़ताल करो। पर माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि, "नहीं साहब! मूल मंत्र है — जो तुम चाहते हो उसको पाने के लिए जी जान से डूब जाओ और पाए बिना छोड़ मत देना।" क्या है?

उपनिषदों का बड़ा सुंदर मंत्र है। जिसको बाद में स्वामी विवेकानंद ने अपने शब्दों में भी कहा। है तो औपनिषेदिक लेकिन उसको ज़्यादा प्रसिद्धि विवेकानंद द्वारा उच्चारित होने के बाद मिली। मंत्र कहता है “उठो, जागो और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए रुको मत।”

इस बात को इस्तेमाल किया जाता है यह बताने के लिए कि तुम्हें अपने लक्ष्य की ओर लगे रहना चाहिए। ये झूठे लोग इस बात को पूरी तरह छिपा जाते हैं कि जब उपनिषद् यह श्लोक दे रहे हैं तो उनका तात्पर्य है — एक ही लक्ष्य होता है सत्य और आत्मा।

विवेकानंद भी जब कह रहे थे कि, "उठो जागो और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए रुको मत", तो किस लक्ष्य की बात कर रहे हैं? वो बहुत बड़े लक्ष्य की बात कर रहे हैं। वो तुम्हारे लक्ष्य की बात थोड़े ही कर रहे हैं कि, "पीछे के मोहल्ले की रिंकी छेड़नी है! उठो उठो अलार्म लगा कर पाँच बजे टहलने निकलती है। उठो जागो और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए रुको मत!"

और तुम्हारे लक्ष्य इससे कुछ बढ़कर होते हैं? तुम कहोगे, "नहीं हम तो नहीं छेड़ते।" अरे भाई इसी का कुछ ज़्यादा संस्कारित काम तुम कर रहे हो। और उससे अलग तो नहीं कर रहे हो न कुछ? काम तो भोग का ही है।

वह जो सोलह से अट्ठारह साल का लौंडा रिंकी छेड़ने जाता है उसके छियालीस साल के बापूजी हैं। वो कंपनी में जाकर किसी तरीके से अपनी तनख्वाह और मुनाफा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। काम तो दोनों हवस का ही कर रहे हैं न, बाप और पूत। पूत को हवस है रिंकी की और बाप को हवस है पैसे की। और दोनों ने ही पॉज़िटिविटी का मंत्र पकड़ रखा है।

वैसे ही नौकरी की तैयारी करने वाले सब परीक्षार्थी होते हैं। उनके छोटे से कमरे होंगे, कहीं रह रहे होंगे। उनके पास जाओ तो उनकी जो स्टडी टेबल होती है उसमें उन्होंने सामने इसी तरह से पॉज़िटिविटी के बहुत सारे पोस्टर, मंत्र, नुस्खे चिपका रखे होते हैं। विवेकानंद को भी चिपका रखा होता है। अरे क्या वो हासिल करना चाहते थे, क्या तुम हासिल करना चाहते हो? वो चाहते थे कि देश में परिवर्तन आए इसलिए उन्होंने घर छोड़ा, गृहस्थी त्यागी और अंततः मेहनत करते-करते जवानी में ही ज़िंदगी भी छोड़ दी।

ये उनके इरादे थे और तुम्हारा क्या इरादा है? तुम्हारा इरादा यह है कि, "जल्दी से किसी तरीके से सरकारी नौकरी मिल जाए, उसके बाद बढ़िया दहेज लेकर किसी बड़े आदमी की बिटिया से फेरे हो जाएँ। उसके बाद तोन्द फुला कर घर पर बैठेंगे। घूस खाएँगे, नाम चमकाएँगे।" इरादों का अंतर तो समझो न। उनकी कही बात तुम पर लागू कैसे होती है, जब तुम दोनों के इरादे ही इतने अलग-अलग हैं?

उन्होंने बात किस आयाम में, किस दृष्टि से की है, और तुम उनकी बात को किस आयाम, किस मक़सद के लिए इस्तेमाल कर रहे हो? अध्यात्म पॉज़िटिविटी नहीं सिखाता, रियलिटी (वास्तविकता) सिखाता है, अंतर समझो बातों का। सत्य पॉज़िटिव या नेगेटिव नहीं होता। सत्य तो सत्य होता है।

पॉज़िटिविटी की ज़्यादा ज़रूरत उन लोगों को पड़ती है जो काम ऐसे कर रहे होते हैं कि ज़िंदगी उनको बहुत नेगेटिव प्रतिक्रिया दे रही होती है, जब ज़िंदगी से मार पड़ रही होती है। क्योंकि आप जी ही ऐसे रहे हो। आप हो ही ऐसे, आपकी हरकतें ऐसी हैं। तो फ़िर आपको बार-बार अपने-आपको पॉज़िटिविटी या सकारात्मकता का नशा चखाना पड़ता है बार-बार।

सच्चे आदमी को पॉज़िटिविटी चाहिए ही नहीं। उसके लिए सच्चाई काफ़ी है। उसको पता है वह क्या कर रहा है। वह कह रहा है कि, "अब नतीजा अपने पक्ष में आए या विपक्ष में आए हमें तो करना ही है यह। हम इतना ज़्यादा मर ही नहीं रहे हैं सकारात्मक परिणाम के लिए कि बार-बार पॉज़िटिविटी का मंत्र जपें। हम क्यों बार-बार माँगें कि जीत मिले?"

भाई जीत नहीं भी मिली तो हमें करना तो वही है जो हम कर रहे हैं। सौ बार हार भी मिल गई तो हम पर फ़र्क क्या पड़ेगा। सौ बार हार मिली तो भी अगले दिन हम क्या करते नज़र आएँगे? वही जो आज कर रहे हैं। और सौ बार जीत भी मिल गई तो हम अगले दिन क्या करते नज़र आएँगे? वही जो आज कर रहे हैं। तो हमें नहीं चाहिए *पॉज़िटिविटी*। हाँ जीत मिल जाए तो अच्छा तो लगता ही है। हार कौन चाहता है!

हार मिल जाएगी तो अगले दिन करेंगे वही जो आज कर रहे हैं थोड़ा मुँह लटका के कर लेंगे। जीत मिल गई तो भी करेंगे वही जो आज कर रहे हैं। थोड़ा सा खींस निपोड़ के कर लेंगे। दाँत दिखा रहे होंगे‌। पर चाहे मुँह चहक रहा हो और चाहे मुँह लटका हुआ हो, काम तो वही करना है ना जो कर रहे हैं। तो इतनी बड़ी चीज़ हमारे लिए नहीं है परिणाम। कि हम परिणामों को लेकर के मंसूबे बाँधें रहे और आशा की डोर से लटके रहें। सारी पॉज़िटिविटी रिज़ल्ट सेंट्रिक (परिणाम केंद्रित) ही होती है न, इसलिए कह रहा हूँ। जिसको तुम सकारात्मकता कहते हो वह यही कहती है न कि, "बेटा लगे रहो एक-न-एक दिन परिणाम तुम्हारी इच्छा के मुताबिक आएगा।" यही कहती है न?

जो आदमी ज़िंदगी में सही जी रहा है वह परिणामों पर इतना आश्रित नहीं होता। हाँ, काम कर रहा है वह तो इसलिए कर रहा है कि अच्छे परिणाम निकलें, अपेक्षित परिणाम निकलें। अपेक्षाएँ वह भी रखता है। लेकिन अपेक्षाएँ टूट भी गई तो वह नहीं टूट जाता। वह कहेगा, "ठीक है उम्मीदें थी। काम करता है आदमी तो उम्मीदें रखता है। उम्मीदें टूटी हैं हम नहीं टूट गए।"

दूसरी बात काम हमने ऐसा करा ही नहीं है कि अंजाम सही ना आए तो काम टूट जाए। अंजाम कैसा आएगा यह तो बहुत हद तक संयोग की बात है। हमारा धर्म है सही काम चुनना, डूब कर करना। अंजाम तो बहुत सारे कारणों पर निर्भर करता है, जिस पर हमारा कोई बस नहीं‌। हमें क्या पता जो हुआ क्यों हुआ। अपनी ओर से हमने कोई कसर नहीं रखी। वह हमारी निजी ईमानदारी की बात है। हमने कोई खोट, बेईमानी नहीं रखी। इसके बाद भी अगर काम नहीं बना तो कोई बात नहीं। लड़ाई में हमारी ओर से कोई चूक नहीं थी। ना हमारे इरादों में कमी थी, ना शौर्य में। उसके बाद भी दुश्मन हावी पड़ गया तो संयोग की बात है। संसाधन बहुत थे भाई उसके पास। फ़ौज बड़ी रही होगी, कई कारण हो सकते हैं।

'भगवान पर भरोसा रखो।' भगवान पर क्या भरोसा रखो? भगवान कहीं बाहर थोड़े ही बैठे हुए हैं कि तुम उस पर भरोसा करोगे और वह कहेंगे कि, "ठीक-ठीक, अब मेरे ऊपर छोड़ दे मैं देख लूँगा।" अध्यात्म की, वेदांत की सीख ही यही है कि भगवान कहीं बाहर नहीं है। और भगवान ने तुम्हें देने के बाद कुछ बचा कर नहीं रखा है। भगवान ने अपने-आपको भी नहीं बचा कर रखा है। तुम्हें बनाने के बाद अपने पास क्या बचा कर रखेंगे जब उन्होंने स्वयं को भी नहीं बचा कर रखा। तो कहाँ गए भगवान तुम्हें बनाने के बाद? बहुत मोटे तौर पर बता रहा हूँ। अभी मैं उसी मान्यता के मुताबिक़ कह रहा हूँ जिसमें कहा गया है कि भगवान ने दुनिया रचाई वगैरह वगैरह। तो उसी मान्यता को आधार बनाकर समझा रहा हूँ।

तो भगवान ने तुम्हें बनाया। उसके बाद उन्होंने अपने-आपको भी नहीं बचाया‌। वो बचे ही नहीं तो तुम उन पर भरोसा कैसे रखोगे? कोई है ही नहीं जिस पर भरोसा अब तुम रख सको। भगवान कहाँ गए फिर तुमको बनाकर? वो तुम्ही में स्थापित हो गए हैं।

तुम्हारे भीतर दो हैं तुम हो और भगवान हैं। तो अब तुम भरोसा किस पर रख रहे हो? तुम्हें अगर भरोसा रखना भी है तो स्वयं पर ही रखना पड़ेगा। दिक्कत बस यह है कि स्वयं नाम के दो हैं तुम और भगवान। किस पर भरोसा रख रहे हो?

यह संपूर्ण अध्यात्म की सीख है, मूल सिद्धांत है। बाहर कोई है ही नहीं जिस पर तुम भरोसा रख सकते हो। सच भी तुम्हारे भीतर है और झूठ भी तुम्हारे ही भीतर है। हाँ तुम्हारा ज़्यादा भरोसा अक्सर झूठ पर ही रहता है। तुम झूठ के ही पुतले हो। सच तो भीतर एक बिंदु जितना है। और झूठ बाकी पूरे आकार और शरीर और विस्तार जितना है।

विकल्प हमेशा हमारे पास है कि हमें किस पर भरोसा करना है, किससे संचालित होना है। भीतर के भगवान से या अपने पूज्य शैतान से। जानते हो शैतान की निशानी क्या है? वो बाहर के किसी भगवान को पूजता है। वो यह मानेगा ही नहीं कि भगवान अंदर ही है, भीतर ही है, पड़ोस में ही है। वह कहेगा, "अंदर तो मैं ही मैं हूँ।" उसको यह बात कहने में विशेष सुख मिलता है। क्योंकि यह बात कहने में उसे सत्ता मिलती है। वह कहता है, "भीतर तो मैं ही मैं हूँ माने भीतर मेरा राज्य है, एक छत्र।"

भगवान कहाँ है? आसमान में है, मंदिर में है, कहीं बाहर है, तीर्थ स्थान पर है, हिमालय के ऊपर है। वहाँ कहीं भगवान होगा। भीतर थोड़े ही है भगवान। क्योंकि यह बात बहुत ज़िम्मेदारी की है और बहुत कष्ट की है अगर मान ली जाए कि भगवान भीतर ही है। अब तुम किसी और पर आश्रित नहीं हो सकते।

बोध की शक्ति तुम्हें उपलब्ध है न, वही भगवान है। विवेक की ताकत तुम्हें उपलब्ध है न, वही भगवान है। और भगवान अगर भीतर नहीं है तो कहीं नहीं है। जिसको भीतर नहीं भगवान समझ में आता है, वह इधर-उधर ढूँढता रहे उसे कुछ नहीं मिलेगा। यह काम शैतान का है भगवान को बाहर ढूँढना। 'भगवान पर भरोसा रखो।' काम तुमने सारे शैतान के किए और अब कह रहे हो भगवान पर भरोसा रखो।

भगवान पर भरोसा ऐसे नहीं रखा जाता कि ग़लत काम करके चाह रहे हो सही अंजाम आ जाए। जब सारे घटिया काम हम कर लेते हैं और उन घटिया कामों के घटिया अंजाम हमें धमकियाँ देने लगते हैं, उन घटिया अंजाम की डरावनी आहट सुनाई देने लगती है — "वो आ रहे हैं हमारी तरफ़ अंजाम गला पकड़ने के लिए।" तो फ़िर हम अपने-आपको सांत्वना देते हैं, कहते हैं भगवान पर भरोसा रखो। भगवान इसलिए नहीं है कि तुम्हारे घटिया कामों के भी वो तुम्हें सही अंजाम दे देंगे। कुछ माफ़ी वगैरह दे देंगे। तुम्हारे साथ किसी तरह की थोड़ी रियायत कर देंगे। भगवान इसलिए नहीं है।

भगवान पर भरोसा रखो का मतलब है — अपनी कमान भगवान के हाथों दो। ये नहीं कि कमान दे रखी है शैतान के हाथ और परिणाम माँग रहे हैं भगवान से। जो कि ज़्यादातर लोगों का करना है। मज़े लेने हैं जब तब मालिक कौन है? शैतान, शैतान माने अहम्। शैतान माने भीतर जो माया बैठी हुई है अहंकार, उसी को शैतान कहते हैं।

मज़े लेने के लिए राजा कौन है अपना, दोस्त कौन है अपना? शैतान। और मज़े लेने के जब दुष्परिणाम आने लगें तो क्या बोलो? "डरो नहीं इतना, घबराओ नहीं इतना, भगवान है न, भगवान रक्षा करेगा।" भगवान कहीं नहीं रक्षा-वक्षा करता। उन्होंने तो तुम्हारे हाथ में आज़ादी दे दी है, विकल्प दे दिया है कि, "भाई तुम्हें मैं पसंद हूँ तो मेरे पास आ जाओ और तुम्हें मैं नहीं पसंद हूँ तो शैतान को चुन लो।"

अट्ठारहवाँ अध्याय है गीता का, तिरसठवाँ श्लोक। पूरा गीता ज्ञान दे चुके अर्जुन को कृष्ण। उसके बाद जानते हो अंत में क्या बोलते हैं “यथा इच्छसि तथा कुरु।” "अब मुझे जो तुम्हें बताना था अर्जुन मैंने सब बता दिया। अब जैसी इच्छा हो बेटा वैसा करो।" यह है निशानी भगवान की। सब बताने के बाद कह देते हैं यथा इच्छसि तथा कुरु।

ज़बरदस्ती थोड़े ही करेंगे। तुम्हें चुनना है शैतान के पास जाना है या भगवान के पास जाना है। इतना बताए देते हैं कि भगवान बाहर नहीं है, यहाँ तक कि शैतान भी बाहर नहीं है। है दोनों भीतर ही। तुम्हें चुनना है कि तुम क्या बनकर जीना चाहते हो। तुम्हें चुनना है कि तुम्हारा हित किधर है। यथा इच्छसि तथा कुरु। तुम्हें कौन रोक सकता है? जो मन में आए करो। हाँ, जब भुगतना तब यह मत कहना कि यह तो भगवान की मर्ज़ी थी। भगवान की नहीं मर्ज़ी थी। यह तुम और तुम्हारे भीतरी शैतान की मर्ज़ी थी। भगवान पर आरोप मत दिया करो।

एक-से-एक घटिया काम करते हैं लोग और जब पिटते हैं तब मैंने किसी को कहते नहीं सुना आज तक — "हे शैतान यह तूने क्या किया?" कभी सुना है किसी को कहते? और मिल तुम्हें तुम्हारे कर्मों का ही फल रहा है। लेकिन कभी सुना है कि कोई चीख पड़ा हो — "हे शैतान! तूने ये क्या किया?" लोग क्या चिल्लाते हैं? "हे भगवान तूने ये क्या किया?" भगवान कह रहे हैं — "मैंने कब किया? करा तुमने और तुम्हारे उस शैतान ने। और जब हो गया तो बोल रहे हो 'हे भगवान तूने ये क्या किया?' मुझे तुम कुछ करने दे कहाँ रहे हो। क्योंकि मैं तो बेटा, तुम्हारी इजाज़त का भूखा हूँ।" भगवान भी तभी कुछ करेंगे जब तुम इजाज़त दोगे। नहीं तो वो भी कुछ नहीं करेंगे। वो भी तुम्हारी इच्छा की प्रतीक्षा करते रहेंगे। यथा इच्छसि तथा कुरु।

तो मुहावरा थोड़ा बदल लो। तुम्हारे साथ जो भी हुआ करे तुरंत चिल्लाया करो — हे शैतान तूने यह क्या किया? इसी तरीक़े से जितने भी उपद्रव देखो ज़िंदगी में तो यह ना कहा करो जल्दी से कि, "हे भगवान!" अपने-आपको संस्कारित करो बोलने के लिए — "हे शैतान!" तुम भगवान के साथ चल रहे होते तो तुम्हें वो झटके लगते ही क्यों जिन पर तुम्हें बोलना पड़ता है, "हे भगवान!" झटके लग रहे हैं इसका मतलब तुम भगवान पर चल ही नहीं रहे। चल ही शैतान पर रहे हो। तो जो तुम्हारा असली आका है उसी का नाम लिया करो, थोड़ी ईमानदारी की बात होगी।

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