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लेख
पूरी क़ायनात में सिर्फ़ आदमी ही बेघर है || आचार्य प्रशांत, यीशु मसीह पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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And Jesus said to him, “Foxes have holes, and birds of the air have nests, but the Son of Man has nowhere to lay his head.”

Luke (9:58)

यीशु ने उस से कहा, “लोमडिय़ों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं।”

ल्यूक (9.58)

आचार्य प्रशांत: जीसस ने आदमी की दुःखती रग पर हाथ रख दिया है, जीसस ने हमारी त्रासदी का खाका खींच दिया है। फ़ॉक्सेस हैव होल्स , लोमड़ियों के पास उनकी गुफाएँ हैं, उनके गड्ढे हैं, ऐंड द बर्ड्स हैव नेस्ट्स , पक्षियों के पास उनके घोसले हैं, नीड़ हैं, आदमी ही बेघर है। आदमी ही बेघर रह गया। सबको अस्तित्व ने दे दिया है जो उन्हें चाहिए, आदमी ही भटकता रह गया। बड़ी विडम्बना है आदमी की।

इसीलिए बार-बार कहता हूँ कि ये अहंकार कि आदमी अस्तित्व में सबसे ऊँचे पायदान पर बैठा हुआ है, इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण अहंकार हो नहीं सकता। जीसस बिलकुल उसी बात की पुष्टि कर रहे हैं। लोमड़ियाँ भी जानती हैं कि कैसे सुख-चैन से अपने घर में रह लेना है। और उनका घर उन्हें मिला ही हुआ है, खरीदने नहीं जाती, अस्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जो बेघर है।

छोटे से छोटे से लेकर, बड़े से बड़े तक, वो जहाँ है, वहीं उसका घर है, तुम उसे कहीं और पाओगे ही नहीं। तुम दिखा दो मुझे कि मछलियाँ आसमान में उड़ रही हैं, मछलियाँ सदैव अपने घर में हैं। तुम दिखा दो मुझे कि हाथी तलाश कर रहे हैं कि जंगल में प्लाॅट खरीदना है, वो सदैव अपने घर में हैं, जहांँ है, वहीँ उनका घर है। वो अपने घर को छोड़ के और कहीं जाते ही नहीं। आदमी अकेला है जो घर से निष्काषित है। आदमी अकेला है जो घर बनाता है। आप कहेंगे चिड़िया भी तो घर बनाती है। बहुत फर्क है।

चिड़िया और चिड़िया अलग अलग घर नहीं बनाते, एक प्रजाति की दो चिड़ियाँ हैं, वो एक सा घर बनाएँगी। कोई चिड़िया अपने घर के आकार और ऊँचाई और क्षेत्रफल को ले कर के गर्व का अनुभव नहीं करती है। चिड़ियों ने व्यवस्थाएँ नहीं बना ली हैं कि अमीर चिड़ियों के घर ऐसे होंगे, और गरीब चिड़ियों के घर ऐसे होंगे। कोई चिड़िया ये नहीं कहती, “मैं अभागी ही रह गयी क्योंकि घर ना बना पाई।” और चिड़िया घर सिर्फ इसीलिए बनाती है कि उसके शरीर की और उसके बच्चों की रक्षा हो सके। उसके अतिरिक्त और कोई मानसिक प्रयोजन नहीं है उसका, उसका घर हिंसा की तयारी नहीं है कि अपना घर दिखा कर के दूसरों से बेहतर सिद्ध करेंगे अपने आप को। ये सब हरकतें सिर्फ आदमी ही करता है। आदमी अकेला है जो घर बनाता है। आदमी की पीड़ा समझ रहे हो?

जीवन भर वो सिर्फ एक तलाश करता है, “घर पहुँच जाऊँ।” और घर कभी पहुँच नहीं पाता। एक घर से दूसरे घर, तीसरे घर, चौथे घर, पाँचवे घर, अंत में चिता। कब्र, यही घर मिलता है उसको। और ठीक-ठीक मुझे मालूम नहीं कि वहाँ भी वो चैन से रहता है के नहीं। तुम्हें कोई मिलता हो ऐसा तो बता देना, मुझे तो आज तक कोई नहीं मिला जिसे उसका घर मिल गया हो। जिसे घर मिल जाएगा, उसकी तलाश ख़त्म हो जाएगी, उसकी बेचैनी ख़त्म हो जाएगी । दोनों अर्थों में, तुम उससे कहोगे, “चलो एक बेहतर महल में तुम्हें ले चलते हैं,” नहीं जाएगा वो। और दूसरे अर्थ में ये कि उसका मन इधर-उधर महत्वाकांक्षा में, पाने की कोशिश में, हासिल कर लेने की हसरत में, हाथ-पाँव चलाना छोड़ देगा। अब ना उसको ईंट-पत्थर का घर चाहिए, ना मन को संतोष देने वाली उपाधियाँ, प्रतिष्ठा, पैसा वगैरह।

जिन्हें घर की तलाश हो, वो पक्षियों से, और पशुओं से सीखें, उनके पास जाएँ और विनम्रता से उनसे पूछें, तब उन्हें पता चलेगा कि जीने की कला क्या है? उनकी आँखों में आँखें डाल कर के देखें, ज़रा सा इस अहंकार को किनारे रख दें कि मैं बड़ा हूँ, मैं मनुष्य हूँ, वो समझ जाएँगे कि संतुष्टि क्या चीज़ है। वो समझ जाएँगे कि जीवन का आनंद क्या है?

बहुत-बहुत अजीब बात है, कि हमने हर उस बात को गौरवान्वित किया है जो हमारी बीमारी है। जिसको हम अपनी सभ्यता और संस्कृति कहते हैं वो उन्ही खम्बों पर खड़ी है जो खम्बे हमारी छाती पर गड़े हुए हैं। जो हमारे मन पर मनोबोझ हैं। आदमी के मन की मूल बीमारी है उसकी कुछ पा लेने की हसरत और आधुनिक युग ने उसे प्रगति का, तरक्की का नाम दिया है।

तरक्की से ज्यादा बड़ी बीमारी कोई दूसरी नहीं।

और जब आप तरक्की की तलाश में हैं तो कोई घर आपको सुहाएगा नहीं। आप जीवन भर बेघर ही रहोगे। घर का अर्थ है वो स्थान जहाँ चैन पा जाओ।

कल कबीर घर के बारे में कह रहे थे, “संतों, सो निज देश हमारा” वो ऐसा देश जहाँ कुछ आता जाता नहीं, जहाँ जो एक बार पहुँच गया, वो बस आसन जमा के बैठ जाता है। जहाँ ये बात ही एक बेहूदा मज़ाक लगती है कि कोई कमी है। कमी? कमी कैसे हो सकती है? तुम कमी में पैदा किये गये हो? कमी अगर होती तो तुम होते कैसे यहाँ पर? जिस अस्तित्व की तुम पैदाईश हो, उसने तुम्हें कमी में पैदा किया है?

पर नहीं, हमने सबसे बड़ा गौरव इसी बात में माना है कि सबसे पहले मन में ये बात बैठाई जाए कि कमी है, और फिर बिलकुल बेहुदे तरीकों से उस कमी को पूरा करने कि कोशिश की जाए। पहले तो चीखो, चिल्लाओ, शोर मचाओ, बच्चे को पूरी तरह संस्कारित कर दो कि कमी है, कमी है, कमी है, गड़बड़ है, और उसके बाद उसके सामने उसके तारणहार बनके खड़े हो जाओ, “हम गुरु हैं, हम अनुभवी हैं, हमने दुनिया देखी है, और हम तेरी मदद करना चाहते हैं, हम बताएँगे तुझे कि अपनी कमियों को तू कैसे दूर कर सकता है?”

पहले तो उसे बार-बार बोलो, “तेरा घर ठीक नहीं,” घर का मतलब समझ रहे हो? जहाँ तुम हो, तुम्हारी वर्तमान अवस्था, उसे घर कह रहा हूँ। पहले तो उसे बार-बार एहसास कराओ, “तुम्हारा घर ठीक नहीं, तुम्हारे होने में ही कुछ कमी है।” इसके अलावा यकीन मानो और कोई बीमारी नहीं है हमारे मन में। एकमात्र बीमारी हमारी यही है “मुझमें कोई कमी है।” और वो कमी कैसे भरेगी? दूसरों के द्वारा। और दूसरों से मुझे कुछ कैसे मिलेगा? श्रम के द्वारा। मुझमें है कमी, वो कमी संसार से पूरी होगी और संसार और मेरा रिश्ता विरोध का, और श्रम का, और झूझने का रिश्ता है, और व्यापार का रिश्ता है। बड़े औपचारिक शब्दों में कहें तो व्यापार का, और दो-टूक हो कर के कहें तो खून-खच्चर का।

व्यापार और क्या है? मुझे तुझसे अधिक से अधिक उगाहने है, तुझे मुझसे अधिक से अधिक उगाहना है, और देखते हैं किसका जोर ज्यादा चलता है? हिंसा, ये हिंसा हमें बता दिया गया है कि ये जगत का स्वभाव है। नहीं ये जगत का स्वभाव नहीं है, ये आदमी के संस्कार हैं। बड़ी गलती हो रही है, बहुत गहरी भूल है ये। जगत का स्वाभाव वो बिलकुल नहीं है जो हमें बता दिया गया है। जगत का स्वाभाव क्या होगा? मैं दोहरा रहा हूँ, आपको जानना है तो जाईये, और पशुओं से और पक्षियों से और खरगोशों से पूछिये, वो आपको बताएँगे कि जगत का स्वभाव क्या है। आप उनकी आँखों में देखिये आपको समझ में आएगा।

अस्तित्व का स्वभाव है सहज श्रद्धा। अस्तित्व का स्वभाव है सहज आत्मीयता। अस्तित्व का स्वभाव है, “जो चाहिए, मिलेगा।” और ये राज़ छोटे से छोटे से लेके बड़े से बड़े तक को पता है, आदमी को ही क्यों नहीं पता? बड़ी विचित्र बात है।

आज जब वो खरगोश थे हमारे साथ, दिव्या के पास थे, दिव्या ने खरगोश को गोद में लिया, वो सो गया। लिया नहीं और वो सो गया। और बीस अनजाने लोगों के बीच में वो ज़रा सा खरगोश। मैंने पूछा कोई आदमी किसी खरगोश की गोद में सो सकता है? अब कौन मजबूत है? आदमी या खरगोश? आदमी का दंभ यही है, “मैं इंसान हूँ, बुद्धि में, ताकत में, खरगोश क्या, हाथी से भी श्रेष्ठ हूँ।” पर मैं फिर पूछ रहा हूँ, “कोई आदमी किसी खरगोश की गोद में सो सकता है? और वो खरगोश सो गया। अब आप मुझे बताइये, ये उसकी बेवकूफी है या उसकी ताकत? उसका कुछ बिगड़ा नहीं सो कर के। कुछ भी नहीं बिगड़ा। वो तो मज़े में था, सो गया। जैसे उसे पता ही हो कि मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता।

आदमी ही है जिसे लगातार ये एहसास कराया गया है कि “करो कुछ, अरे बचाव करो अपना, दस दीवारें खड़ी करो, नहीं तो तुम्हारा बहुत कुछ बिगड़ जाएगा। आदमी के अलावा कोई नहीं, उन्हें अपनी सीमाएँ पता है आप पशुओं के पास जाईये, वो एक बार, दो बार आपको देखेंगे तो चौकेंगे, इधर उधर होंगे, फिर सहजता से आपके करीब आ जाएँगे। इस कारण आपने उनका शोषण भी खूब किया है। कितनी प्रजातियाँ विलुप्त ही इसीलिए हुई क्योंकि वो आसानी से आपके पास आ जाती थी, आपने मार डाला उनको।

एक चिड़िया थी, आदमी ने उसका नाम रख दिया ‘डोडो’, प्रगारंतर में डोडो शब्द ही मूर्खता का पर्याय बन गया। वो चिड़िया विलुप्त हो गयी आज से कई सौ साल पहले। कैसे विलुप्त हो गयी? इतनी सहज विश्वासी थी कोई बुलाता था, उसके पास चली जाती थी। लोगों ने उसका माँस खूब खाया। आदमी ने उसे ख़त्म कर दिया, जब डोडो ख़त्म हो गयी, तभी आदमी ने कहा, “अब से डोडो शब्द का अर्थ होगा, मूर्ख।”

मूर्ख कौन है? वो चिड़िया या हम? ठीक है, उसके साथ इतना ही हुआ कि वो मारी गई, लेकिन जब तक जिंदा रही, नरक में नहीं जी। हम लगातार संदेहपन की आग में जलते हैं, नरक में झुलसते हैं, मूर्ख कौन है? डोडो या हम?

आज डोडो नहीं है, अब लौट के कभी नहीं आएगी, लेकिन जब तक थी, मस्त थी। आपने बड़ी तरक्की की है, आपका चिकित्सा विज्ञान खूब बढ़ गया है, आप एक सौ बीस साल जियेंगे, और आप जितना जियेंगे, उतनी लम्बी आपकी सजा होगी। किसी शायर का है कि “फलक पे जितने सितारे हों वो भी शर्माएँ, देने वाले मुझे इतनी ज़िन्दगी दे दे, गम उठाने के लिए मैं तो जिये जाऊँगा”।

आप जिए जाते हैं गम उठाने के लिए। वो जब तक जी, मौज में जी, फिर नहीं है, क्या हो गया?

क्या छिन जाएगा तुम्हारा अगर सीधे, सरल, सहज हो जाओगे तो? हद से हद इतना ही होगा ना कि जैसे डोडो मारी गई, तुम भी मारे जाओगे? मर लेना, कुछ बिगड़ नहीं गया उस मौत में। ऐसी ज़िन्दगी जो नफरत में, और शक में, और बेचैनी में लगातार, झुलस ही रही हो, ऐसी ज़िन्दगी से तो बेहतर है कि श्रद्धा में जियो, और जब समय आए, घड़ी आ ही जाए, तो उठ जाओ।

आज तुम प्रकृति के मालिक से बने बैठे हो, जिस पेड़ को चाहते हो काट देते हो, जिस जंगल को चाहते हो साफ़ कर देते हो, जिस प्रजाति के पीछे पड़ जाते हो, विलुप्त हो जाती है। पर तुम्हें क्या लगता है, वो दुःखी हैं इतना सब होने के बाद भी? दुःखी तुम हो। उनके जाने के बाद भी दुःख झेलने के लिए बचा कौन रहेगा? कौन बचा रहेगा? तुम।

इसीलिए सौ बार कहता हूँ, जिनको मार रहे हो, उनको छोड़ो, वो गये, वो जब तक जिए मौज में जिए, अब गये। तुम अपनी फ़िक्र करो। तुम किसी हालत में पेड़ को दुःखी नहीं कर पाओगे। जब तक जियेगा, अपने स्वभाव में जियेगा, उसके बाद तुम काट डालो। लेकिन एक बार पेड़ चले गए, तो तुम्हारा क्या होगा? ये सोचो। और ये तो छोड़ ही दो कि एक बार वो चले गए, जिस क्षण तुम उसे काट रहे हो, उस वक़्त तुम्हारे मन की क्या दशा है कभी गौर करो।

नुक्सान होता है, सह लो, लेकिन सहजता में जियो, सीधे रहो। कोई बड़ी बात नहीं हो गई है थोड़ा बहुत पैसा छिन गया, रुपया छिन गया, कोई दोस्त धोखेबाज़ निकला, किसी ने विश्वास तोड़ दिया, कोई बड़ी बात नहीं हो गई, पर तुम्हारा मन गन्दा हो गया तो बहुत बड़ी बात हो गई। बहुत, बहुत बड़ी बात हो गई, सब छिन गया, तुम्हारा विश्वास हज़ार बार टूटे, कोई बड़ी घटना नहीं हो गई, लेकिन अगर तुम्हारे मन में संदेह के कीड़े आ गए तो तुमने बड़ा नुक्सान कर लिया अपना। कुछ हो जाए, संदेह न करना। सहजता में जियो। मैं बुद्धि का दमन करने को नहीं कह रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ कि जानो कि तुम्हारा स्वभाव संदेह नहीं श्रद्धा है। संदेह अपवाद, श्रद्धा स्वभाव।

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