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पता भी है कौन बचा रहा है तुम्हें? || गुरु नानक पर (2014)

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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पता भी है कौन बचा रहा है तुम्हें? || गुरु नानक पर (2014)

अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥

~ नितनेम (शबद हज़ारे)

आचार्य प्रशांत: “अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ”

दो बातें यहाँ पर साफ़-साफ़ समझो। ‘अंत’ से यहाँ पर आशय, समय में अंत नहीं है। हम ‘अंत’ का मतलब समझते हैं – समय में आगे का कोई बिंदु। अंत से अर्थ है – ऊँचाई। अंत से अर्थ है – आख़िरी। अंत से अर्थ है – बड़े-से-बड़ा।

“अंति छडाए सोइ,” में ‘अंति’ का मतलब है, आख़िरी। और आख़िरी समय में नहीं है। आख़िरी मतलब – ऊँचे-से-ऊँची मुक्ति। यहाँ पर अंत वैसे ही है, जैसे – वेदांत। ‘वेदांत’ का अर्थ यह नहीं होता कि वेद ख़त्म हो गए। ‘वेदांत’ का अर्थ होता है – वेदों का शिखर। तो वैसे ही, “अंति छडाए सोइ”, मतलब – ऊँची-से-ऊँची मुक्ति, ‘वो’ देगा। अब प्रश्न उठता है कि, “कौन देगा?” तो उससे पहले कहा जा रहा है, “अनदिनु साहिबु सेवीऐ”। “साहिबु सेवीऐ” से अर्थ है – संसार न सेवीऐ।

‘साहिब’ क्या है? मन जब तक है, तब तक तो वो किसी-न-किसी से तो जाकर चिपकेगा ही। तो संसार से ना चिपके, अतः ‘साहिब’ की ओर जाए। लेकिन आख़िरी कदम पर साहिब भी हट जाते हैं, बस शून्य बचता है। हाँ, शब्दों से तुम्हें खेलना हो, तो कह सकते हो कि, “साहिब ही शून्य है”। फिर ठीक है।

‘साहिब’ शून्य है, ठीक। वो वैसी ही बात है कि – पूर्ण शून्य है, ठीक।

“अनदिनु साहिबु सेवीऐ”, दिन और रात होश में रहो, ताकि संसार में ना फँस जाओ, ताकि संसार को गंभीरता से ना लेने लगो, ताकि दुःख-सुख दोनों कहीं तुम्हारे मन पर हावी ना हो जाएँ, ताकि पसंद और नापसंद तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण ना हो जाएँ।

“न पसंद की सेवा कर रहा हूँ, न नापसंद की सेवा कर रहा हूँ, साहिब की सेवा कर रहा हूँ”। अब ‘साहिब’ यहाँ कुछ नहीं है, बस मुक्ति का उपाय हैं ‘साहिब’। भूलना नहीं। क्या हैं? मुक्ति का – (ज़ोर देते हुए) उपाय। ताकि ना पसंद में फँसो, ना नापसंद में फँसो। ना दुःख में फँसो, ना सुख में फँसो।

और जब तुम ना दुःख में फँसे होते हो, ना सुख में फँसे होते हो, उस क्षण मन की जो अवस्था होती है, उसी को क्या कहते हैं? आनंद। अब आनंद की कोई विधायक परिभाषा नहीं हो सकती। कोई पूछे, “आनंद क्या है?” कुछ नहीं है आनंद। ‘आनंद’ की परिभाषा तो सिर्फ़ नकार के तौर पर ही दी जा सकती है।

‘आनंद’ क्या है? जब मन पर ना सुख हावी है, ना दुःख हावी है, तब मन का जो निर्बोझ होना है, जो ख़ालीपन है, उसे ‘आनंद’ कहते हैं। अब तुम कहो, “आनंद को पकड़ लिया मैंने”, तो किसको पकड़ लिया? जब तक पकड़ने के लिए ‘कुछ’ है, तब तक आनंद कहाँ है? सुख हो सकता है, दुःख भी हो सकता है, आनंद नहीं हो सकता।

तो “साहिबु सेवीऐ” का अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति मिल गया है, कोई कल्पना मिल गई है, कोई मंदिर मिल गया है, कोई विचार मिल गया है, और उसकी सेवा करे जा रहे हो, उसके प्रति समर्पित हुए जा रहे हो। ‘साहिब को समर्पण करने’ का अर्थ होता है – “संसार को समर्पित नहीं हूँ”।

“ये जो चारों तरफ़ मेरे आवाज़ें हैं, इनका ग़ुलाम नहीं हूँ”, बस यही अर्थ है। “खेल रहा हूँ यहाँ पर, खेलने आया हूँ, पाने या खोने नहीं आया हूँ”, जैसे दस बच्चे खेल रहे हों इकट्ठा होकर, और खेलकर के चल दें। किसी ने कुछ पाया नहीं, किसी ने कुछ खोया नहीं, हाँ साझी मौज थी।

तो जो संसार को गंभीरता से नहीं लेगा, जो संसार के भ्रम के पार देख पाएगा – अंति छडाए सोइ – उच्चतम शिखर वही पाएगा। बस यही बात कही जा रही है। ‘होने’ की मस्ती वही अनुभव कर पाएगा, वही है उच्चतम शिखर।

लेकिन देखो, समझ देखो संत की, कि उसको भी उन्होंने विधायक रूप में नहीं कहा, कि, “कुछ मिल जाएगा अंत में”। कि उच्चतम बिंदु ‘प्राप्ति’ का है, कि, “अंति पाए”। नहीं, कहा, “अंति छडाए”, क्योंकि उच्चतम बिंदु भी, छोड़ने का ही है।

तुम थोड़ा छोड़ते हो, फिर और छोड़ते हो, फिर और छोड़ते हो। पूर्ण छोड़ देने का नाम ही, ‘मोक्ष’ है। इसलिए बुद्ध का जो शब्द है, वो बड़ा सटीक है – ‘निर्वाण’। बुझ जाने का नाम है – ‘मोक्ष’। बुद्ध ने तो ‘मोक्ष’ को भी नकार के तौर पर ही अभिव्यक्त किया। ‘मोक्ष’ को भी नेति-नेति की भाषा में ही अभिव्यक्त किया। कहा, “निर-वाण”। निर्वापित ही हो जाना, गए। पूरा ही छोड़ देना। पा लेना नहीं, पा लेना नहीं। पूरा ही छोड़ देना।

तो, जिसने संसार को पूरा छोड़ दिया, वही उस उच्चतम शिखर को पा लेगा, बस इतनी-सी ही बात है। पहले कुछ वस्तु छोड़ते हो, जो तुम्हें आसान लगती है, फिर और वस्तुओं को छोड़ते हो, फिर व्यक्तियों तक आते हो, और अंत में तुम पाते हो कि इन सब को छोड़ते-छोड़ते तुम भी बहुत गल गए थे, आख़िर में एक छोटा-सा ‘छोड़ने वाला’ बचता है, तुम उसको भी छोड़ देते हो। वही अंत है।

छोड़ते जाते हो, छोड़ते जाते हो, और फिर जब छोड़ने वाले को भी छोड़ देते हो, तो समझो कि शिखर पर बैठे हुए हो। उसी ‘शून्यता’ को पा लिया है, उसी ‘ख़ालीपन’ को पा लिया है, जो तुम्हारा स्वभाव है। ‘शून्यता’ का अर्थ है – निर्दोष होना। कि, “धब्बा नहीं लगा है मुझमें। मैं धब्बों से शून्य हूँ”।

‘शून्यता’ का अर्थ है – बोझ से खाली होना। “सिर पर कुछ लाद कर नहीं चल रहा हूँ, पाँव नहीं काँप रहे हैं, उड़-सा रहा हूँ” – ये है शून्यता।

“अंति छडाए सोइ”

YouTube Link: https://youtu.be/ZwWOB0Y1qHs

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