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लेख
निर्गुण के गुण || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
19 मिनट
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जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस|

मुक्त जैसा ही हो रहे, सब कुछ तेरे पास||

~ कबीर

आचार्य प्रशांत: तो अनु पूँछा है कि ‘मुक्त जैसा ही’ माने क्या? ये बड़ी सुंदर विधि है, जो कबीर ने बताई है और इस विधि का बहुत सारी परम्पराओं में जमके उपयोग हुआ है, अच्छी विधि है। विधि ये है कि हम कहते तो हैं कि सत्य से संसार आया, विधि के मूल में क्या बात है, उसको समझा रहा हूँ, हम कहते तो हैं कि सत्य से संसार आया, पर जब हम कहते हैं सत्य से संसार आया तो उसमे ऐसे प्रतीत होता है, जैसे समय बीच में है, जैसे सत्य पहले था फिर उससे संसार उद्भूत हुआ।

ऐसा है नहीं,

सत्य संसार दोनों एक साथ हैं, दोनों एक साथ हैं।

तो जो पारमार्थिक है और जो भौतिक है, ये दोनों सदा एक साथ हैं, दोनों सदा एक साथ हैं । जो केंद्रीय है, और जो परिधि पर है, वो दोनों सदा एक साथ हैं, आत्मा और शरीर सदा एक साथ हैं, आत्मा और शरीर सदा एक साथ हैं। यदि

शरीर वैसा ही हो रहे, जैसा वो आत्मा के समक्ष समर्पित होने पर होता है, तो समझ लो वो वास्तव में समर्पित हो गया।

हम आम तौर पे जो प्रवाह बनाते हैं, वो सदा ये बनाते हैं कि कर्म आत्मा से शरीर की ओर बहता है, ठीक? हम कहते हैं कि कर्म प्रकट तो शरीर से होता है, पर उसका जन्म आत्मा में है, उसका मूल आत्मा में है, ठीक है न, हम ये ही कहते है न? हम कहते हैं कि मूल से ही सही कार्य उत्पन्न होता है और उसका बस प्रकटीकरण होता है, शरीर के माध्यम से।

हमने सदा ये कहा कि जो उचित कर्म है, जो सच्चा कर्म है वो उठता कहाँ से है? वो समझ से उठता है, वो बोध से उठता है, उठता बोध से है और प्रकट भौतिक रूप से होता है, हम ये ही कहते हैं। उससे थोड़ा हटके एक बात भी है, उसी की ओर कबीर हमारा ध्यान आकृष्ट करा रहे हैं। कबीर कह रहे हैं एक तो ये है कि जो सम्माननीय है तुम उसको जानो, तो तुम्हारा सर झुके और दूसरा ये है कि अगर तुम पाओ कि तुम्हारे भीतर एक विरोधी स्वर बैठा हुआ है, जो तुम्हे सर झुकाने से रोक रहा है, तो तुम जबरदस्ती अपने सर को झुका दो, वो विरोधी स्वर ठीक हो जायेगा। तो यात्रा मात्र केंद्र से परिधि की ओर ही नहीं होती है, परिधि पर तुम क्या कर रहे हो? इससे भीतर क्या चल रहा है? इस पर फर्क पड़ता है।

‘*मुक्त जैसा ही हो रहे*‘ अपने आचरण को बदलो मन बदल जायेगा कबीर ये कह रहे हैं, नहीं समझे? “*जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस, मुक्त जैसा ही हो रहे, सब कुछ तेरे पास*” एक मुक्त मन, एक स्वच्छ मन, एक निर्मल मन, जैसा आचरण करेगा। तुम अपने भीतर की निर्मलता को अवकाश दो, कि वो वैसा ही आचरण कर सके, तुम उसके साथ खड़े रहो। भई, आपके भीतर दोनों मौजूद हैं, कौन दोनों? आपकी मुक्ति भी आपके भीतर है और आपका बंधन भी आपके भीतर है, मुक्ति आपसे एक आचरण करवाना चाहती है और बंधन कुछ अलग ही, मानते हैं कि नहीं? कबीर कह रहे हैं कि तुम इसमें एक तटस्थ दर्शक की भूमिका न करो, तुम इसमें बीच के बन के न खड़े हो जाओ, कि तुम्हारे भीतर आत्मा में और अहंकार में ठनी हुई है और तुम मूक दर्शक हो, तटस्थ।

कबीर कह रहे हैं मुक्ति के साथ आ जाओ, अभी जो आचरण होगा, वो पूरा शुद्ध नहीं होगा, क्योंकि शुद्ध तो तब होता, जब निर्बीज हो गये होते, शुद्ध तो तब होता, जब, वो जो दूसरा पक्ष है, अहंकार वाला, वो पूरे तरीके से समाप्त हो गया होता, अभी तुम्हारे भीतर कोलाहल है, अभी तुम्हारे भीतर विरोध है, पर तुम उस विरोध की सुनो मत। तुम तो वैसा आचरण करो, जैसा मुक्त करता है, मुक्त मानें आत्मा, मुक्त मानें परम। तुम तो वो आचरण करो, जो आत्मा तुमसे करवाना चाहती है, तुम अपने विरोध की सुनो मत, तुम उसे प्रश्चय मत दो, तुम उसे ऊर्जा मत दो, वो बिना तुम्हारी ऊर्जा के आगे नहीं बढ़ेगा।

उदहारण देता हूँ, मुक्त के कुछ गुण क्या है? और समझियेगा इस बात को, मेरी बात को थोड़ी सहानुभूति के साथ सुनियेगा, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि जो मैं बोलने जा रहा हूँ, उसमे आप छेद बहुत आसानी से ढूँढ सकते हैं, तो जो कुछ मैं बोल रहा हूँ, वो मात्र उदाहरणार्थ है, उसको उससे आगे मत ले जाना। मुक्त के क्या गुण होते हैं? कबीर कह रहे मुक्त जैसा हो रहे, मैं समझना चाहता हूँ मुक्त जैसा हो रहने का अर्थ क्या है। मुक्त के क्या गुण होते हैं, २-४ गुण बताईयेगा, मुक्त निर्गुण होता है ठीक हम जानते हैं, इसीलिए कह रहा हूँ थोड़ा-सा शांत रहके सुनिये, पर फिर भी, उसको किस रूप में व्यक्त किया जाता है बताइये, कबीर कहते तो हैं निर्गुण के गुण गाऊँगा। जब कबीर गा सकते हैं निर्गुण के गुण, कुछ छड़ों के लिए आप भी बता दीजिये।

श्रोता१ : अतीत उस पर छाया नहीं होता।

आचार्य जी: ठीक है न? वो वर्तमान में होता है, तो आपके भीतर भी जब ये द्वंद उठे कि वर्तमान में रहें या अतीत या भविष्य की ओर भागें, तो आपको क्या करना है? किसका साथ देना है?

श्रोतागण : वर्तमान का।

आचार्य जी: वर्तमान का। निर्गुण का और क्या गुण होता है? निर्गुण की ओर इशारा करने के लिए, किन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, अरे! हम कम से कम ऐसे ४० शब्दों की बात कर चुके हैं, बताइये?

श्रोता२ : *आनंद*।

आचार्य जी: वो आनंद रूप है। तो आपके भीतर भी जब ये निर्णय करने की बात उठे कि आनंद चुनूँ या सुख-दुःख, कि आनंद या उत्तेजना ? तो आपको पता होना चाहिए कि आपको किस के साथ जाना है, किस के साथ जाना है?

श्रोतागण : *आनंद*।

आचार्य जी: आनंद के साथ क्यों जाना है? क्योंकि आनंद स्वभाव है, मुझे स्वभाव का साथ देना है। उस मुक्त के, परम के और गुण बताइये?

श्रोता३ : *लव, प्रेम*।

आचार्य जी: *प्रेम*। तो आपके भीतर जब प्रेम उठे, तो आपको उसका साथ देना है, आपको वर्जनाओं के साथ नहीं जाना है, विचारों के साथ नहीं जाना है और पक्का समझियेगा, प्रेम जब भी उठेगा, उसके विरोध में कोई न कोई विचार भी साथ में उठेगा। पिछली बार मैंने आपसे कहा था कि जब प्रेम उठता है, तो उसके साथ साहस भी उठता है, और आज मैं आपसे कह रहा हूँ कि जब प्रेम उठता है तो उसके साथ में भीरुता भी उठती है। प्रेम के साथ मात्र साहस ही नहीं उठता, उसके साथ बड़ा डर भी उठता है, और अक्सर हम डर को ही प्रोत्साहन दे देते हैं। उस मुक्त के लिए और कौन-से विशेषण है, जिनका उपयोग किया जाता है?

श्रोता४ : *निर्भय*।

आचार्य जी: निर्भय। तो डर लगे, तो डर का साथ नहीं देना है। हम्म? और?

श्रोता२ : आज़ादी ।

आचार्य जी: चिन्त्य। तो जब ये विकल्प उपलब्ध हो कि सोचें -विचारें या सहज कर्म में उतर जाएँ, तो क्या करना है? किसका साथ देना है?

श्रोतागण : सहज कर्म।

आचार्य जी: भूलना नहीं है कि जो मुक्त है वो अचिन्त्य है, वो और क्या है? उसके लिए और कौन-से शब्द हैं जो इस्तेमाल होते हैं?

श्रोता१ : मुक्त।

आचार्य जी: मुक्त हैं, वो तो हो ही गया। और? अरे इतने सारे तो हैं।

श्रोता१ : निर्विशेष

आचार्य जी: निर्विशेष है। तो जब भी आपके समक्ष ये विकल्प उपलब्ध हो कि खास बन जाऊँ, खास बन जाऊँ या साधारण रहूँ, तो आपको पता होना चाहिए कि आपको किसका साथ देना है। दोनों ही बाते उठ आपके भीतर से रही हैं, अपनी खाशियत दर्शाने की या निर्विशेष रहने की। तो आपको पता होना चाहिए कि आपको किसके जैसा होना हैं, कबीर ने क्या कहा? “*मुक्त जैसा ही हो रहे*“, जो कुछ उसका नाम लेने के लिए इस्तेमाल होता है उसको अपना नाम बना लो।

इस्लाम ये ही तो करता है, वो कहता है हर बच्चे के नाम के साथ उसका नाम जोड़ दो,

वो ये ही कर रहा है कबीर ये ही कह रहे हैं मुक्त जैसा ही हो रहे। और क्या नाम हैं उसके लिए, अनिकेत , वो अनिकेत है, वो घर में बन्ध के नहीं रहता, तो जब भी ये चुनने का मौका आये कि घर में बन्ध के रहना हैं या खुले आसमान में उड़ना हैं? तो आप जान लो कि जब वो परम अनिकेत है, तो मैं घर में बन्ध के कैसे रह सकता हूँ? और घर माने वर्जनाएं, घर माने दीवारें, वो और क्या हैं? वो अनादि है, अनादि माने, जिसका अतीत से कोई सम्बन्ध नहीं है, जो किसी की पैदाइश नहीं है, तो आप जान जाइये कि जब अतीत सताए तो आपको क्या करना हैं?

इसी तरह वो अनंत हैं, अनंत माने जो कभी खत्म नहीं होगा, तो जब भी कभी मौत का खौफ सताए आपको क्या याद रखना हैं? कि मुक्त कैसा हैं?

श्रोतागण : *अनंत*।

आचार्य जी: अनंत , और कबीर ने क्या कहा मुक्त जैसे ही हो रहो, मुक्त जैसे ही हो रहो।

श्रोता३ : मौन।

आचार्य जी: ठीक है न? जो उसके गुण हैं,

निर्गुण के जो गुण हैं, उनको जब सगुण धारण कर लेता है, तो वो गुणातीत हो जाता है।

तुम सगुण हो, तुम्हारे मूल में निर्गुण बैठा है, निर्गुण के गुण, संतों ने बताये ही इसलिए हैं, ताकि जो सगुण है, वो उनको धारण कर सके, अन्यथा बताने की कोई जरुरत नहीं थी वो मौन रह लेते न क्योंकि निर्गुण के गुण तो हो ही नहीं सकते, क्या निर्गुण के गुण हो सकते हैं? फिर कबीर क्यों गातें हैं “*निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊंगा*” वो इसलिए नहीं गाते क्योंकि उन्हें निर्गुण की तारीफ करनी हैं, वो इसीलिए गाते हैं ताकि निर्गुण के गुणों को तुम जो एक सगुण अभिव्यक्ति हो, तुम धारण कर सको, तो उन गुणों को धारण करो, हम्म? निश्चेष्ट है वो , निश्चेष्ट है, वो निश्चेष्ट है, वो निश्चेष्ट है वो अकर्ता है, हम्म? वहाँ कोई ‘चेष्टा’ नहीं है, वहाँ कोई ‘कर्तृत्व’ नहीं है, तो तुम्हारे सामने भी जब ये विकल्प आये कि चेष्टा करूँ, कर्ताभाव रखूँ, या न रखूँ, तो तुम समझ जाओ कि तुम्हे क्या करना है, तुम्हे सदा वो करना हैं, जो उसके गुण है, वैसे ही रहना है, हम्म?

श्रोता१ : आचार्य जी, एक प्रश्न था कि जितने भी अभी अपने नाम लिये हैं सारे, इसकी तो छवि भर हैं हमारे पास, तो फिर, तो हम कैसे जानें ?

आचार्य जी: देखो, परछाई होने के लिए भी सूरज का होना जरुरी है, हम्म? मन की तो इतनी भी हैसियत नहीं है कि वो खुद ही छवियाँ बना ले। मन अगर छवियाँ भी बनाता है, तो उसके पीछे सूरज कोई और है, तो जितना मन की हैसियत है, तुम तो उतना ही कर पाओगे न? उतना ही करो। मन छवियों में चलता है, तुम उन छवियों को ही सहारा बना लो, मन शब्दों में जीता है, तो इस वक़्त हम और क्या कर रहे है?

श्रोतागण : शब्दों का सहारा ले रहे हैं।

आचार्य जी: हम्म? अगर देखो तो शब्दों का ही तो आदान-प्रदान चल रहा है। हाँ, शब्दों के आदान-प्रदान में हमारे बिना पता चले कोई और घटना चुपके से घट जाती है, हम तो क्या कर रहे हैं? हम तो मुँह चला रहे हैं, हम क्या कर रहे हैं? हम तो बैठके मुँह चला रहे हैं, पर मुँह चलाते-चलाते अचानक कुछ और हो जाता है। वो तुम्हे पता भी नहीं चलता, उसका तो तुम्हे तभी पता चलता है, जब वो हो जाता है, तो तुम कहते हो कि ये क्या हो गया? तो ये सब मन के काम हैं, छवि बनाना, इसके अलावा क्या करेगा? शब्द सुनना, पढ़ना, तो ये ही करने दो इसको। तुम इसी को ध्यान से करो, यही करते-करते कुछ और हो जायेगा, हम्म?

कल हम सुन रहे थे, ओशो इक्कू पर बोल रहे थे, तो इक्कू की एक जरा-सी कविता, तो चीन में एक विद्वान को कहा गया कि बोलियेगा इस पर, जैसे विद्वानों की आदत, तो तत्क्षण खड़ा हो गया एक कि अभी बोलते हैं, तो उन्होंने कहा २८ दिन हैं, जाइये २८ दिन बाद बोलियेगा। तो उसने क्या? तो कहने वालों ने कहा कि हम मानतें हैं कि जब तक १२ बार नहीं पढ़ा , तब तक पढ़ा नहीं, और किसी भी चीज को एक चीज को १२ बार पढ़ना पड़ेगा, तो १२ बार पढ़ने के लिये १२ * १२ बार पढ़ना पड़ेगा १४४ बार। बात समझ रहे हो न? एक बार पढ़ने के लिये १२ बार पढ़ना है तो १२ बार पढ़ने के लिये? १४४ बार पढ़ना है तो एक बार पढ़ने के लिये कितनी बार पढ़ना हैं? १४४ बार।

कहा, इतनी बार पढ़ो, तुम्हे तो ये ही लगेगा कि तुम शब्द ही पढ़ रहे हो, और वही घिसे-पिटे पुराने शब्द, वई पुराना दोहा, और तुम्हे लगेगा कि तुम्हे इसका अर्थ पता भी है। अर्थ तो सीधा साधा है, लिखा हुआ है, पर उसको पढ़ते-पढ़ते-पढ़ते-पढ़ते अचानक तुम्हे कुछ ऐसा पता चल जायेगा, जो तुम्हे कभी पता ही नहीं था। मन क्या कर रहा था? बस शब्द पढ़ रहा था। पर पढ़ो और बार-बार पढ़ो, इसीलिए हमारे यहाँ पे ये बात रही है कि धर्म-ग्रंथों का पाठ किया जाता है।

लोग ४० साल तक वही १००-५० श्लोक गीता के पढ़े जा रहे हैं ,पढ़े जा रहें हैं, आप कहोगे कर क्यों रहे हैं? क्या अभी तक याद नहीं हुए? रट जाते हैं, उसके बाद भी पढ़े जा रहे हैं, उसकी वजह है,

पढ़ते तो शब्द हो, पर नि:शब्द में पहुँच जाते हो, वो दोहराना, वो बहुत जरुरी है, जप ये ही है, जप ये ही है।

तो कोई ये कहे कि उसे तुम कबीर का कोई दोहा दो, और उसे पड़े और कहे हाँ पढ़ लिया, तो समझना बड़ा मुर्ख है, बड़ा ही मुर्ख है। उसमें पैठने का, उसको पीने का बड़ा महत्व है। तुम जो, ब्लॉग पर पढ़ते हो, उस पे जो अपनी सीख लिखते हो, बहुत-बहुत महत्व है, इस बात का कि तुम उसे किस विस्तार में लिखते हो, तुम उसपे कितना पैठ रहे हो।

पर जो मूरख मन होगा, वो बात को ऐसे इतने में निपटाना चाहेगा, वो वैसा ही है कि हाँ, पढ़ लिया, हो गया, समझ में आ गया और इसमें था क्या हमने लिख दिया जो था, हमने ४ अक्षरों में लिख के खत्म कर दिया।

तुम जितना लिखोगे, तुम उसके साथ जितना रहोगे, तुम पाओगे कि तुम्हे उसके ऐसे-ऐसे अर्थ पता चल रहे हैं, बोध ऐसे उद्घाटित हो रहा है, जैसे पहले कभी पता ही नहीं था,

तुम कहोगे, अरे बात यहाँ तक जाती है, लम्बी प्रक्रिया है, उसके साथ रहना पड़ता है।

मेरी गाड़ी में कोई सी.डी. रखी होती है, मैं उसे बदलता ही नहीं, मैं उसे कम से कम महीने भर चलते रहने देता हूँ। चलने दो, क्योंकि १ बार में क्या सुना? और मुझे हैरत होती है, जो हमारे यहाँ ऐसे-ऐसे विद्वान, विदुषी लोग हैं, जो १ बार में पढ़ के समझ भी जाते हैं और उसको खत्म भी कर देते हैं। अब हैरत की बात नहीं कि ऐसे विदुषियों को, आध्यात्मिकता का फिर ‘अ’ भी नहीं पता। मुझे कोई गीत पसंद आता है, और ये मैं सोच के नहीं करता, बस ये अपने-आप हो जाता है, मुझे अगर कोई गीत पसंद आया, तो मैं उसको फिर चलने ही देता हूँ, १ बार, १० बार, २० बार, २ दिन, ४ दिन, एक ही है, उसको सुने जा रहे हैं, सुने जा रहे हैं, अब वो रट गया, तब भी सुने जा रहे हैं।

१०० बार नहीं सुना तो क्या सुना?

ये गणित नहीं है, कि २ और २, ४ होता है, तो चाहे १०० बार करो तो भी २ और २ ४ होगा। ये दूसरी दुनियाँ है, यहाँ पहली बार में क्या होता है? २ और २ ४, १०वीं बार तक आते-आते २ और २, ५ होने लग जाता है, ५०वीं बार तक आते-आते २ और २, १०० होने लग जाता है, और १००वीं बार तक आते-आते जादू हो जाता है, २ और २, शून्य हो जाता है (हँसते हुए), कुछ बचता ही नहीं। २ भी गया, २ भी गया और ये जोड़ने वाला भी गया, कुछ नहीं बचा। तो जो हिसाबी-किताबी मन है वो २ और २ ४ ही पायेगा, गरीब रह जायेगा बेचारा। और जिन्हे जादू देखना हो वो थोड़ा आगे बढ़ें, देखें कि २ और २, ५ कैसे होता है, और दिखाई देगा कि यार, ये क्या हो गया? ४ तक तो ठीक था, ये पाचवाँ कहाँ से टपका, कभी जान नहीं पाओगे कि कहाँ से टपका, लेकिन टपकेगा जरूर, जब टपका करे, तो एक सन्देश कर दिया करो मुझे, बस इतना लिखा करो “टपका” (सब हँसतें है), समझ जाऊंगा, “टपका”, हम्म? अचानक टपकता है वो (हँसते हैं)।

श्रोता१ : बार-बार करने का इतना महत्व है, तो फिर, दोहराव और अनुभवों को क्यों नकारते हैं?

आचार्य जी: क्योंकि वो मंत्र नहीं है। क्योंकि उनको इस दृष्टि से एक विधि की तरह, एक औजार की तरह नहीं बनाया गया है कि वो तुम्हारे मन को भेद जाएँ। यदि तुम इतने पैनेंपन के साथ दुनियाँ को भी देख सको, तो दुनियाँ को देखने मात्र से भी तुम वहीँ पहुँच जाओगे, जहाँ तुम मंत्रों के उच्चारण से पहुँचते हो, पर वो पैनापन हमें उपलब्ध आम तौर पे होता नहीं है। मंत्र में जो शब्द है, वो आम दुनियाँ में जो तुम जो रोजाना सुनते हो, वैसे शब्द नहीं होते, उनको एक विधि की तरह, एक औजार की तरह, खास तौर पे बनाया गया होता है, समझ रहे हो न? वो पूरा का पूरा समझ लो एक चलता-फिरता अस्पताल है, जिसको तुम, प्रवेश करो, जिससे तुम दवाई लो, तो तुम्हे कुछ मिलेगा, वो तुम्हे दुनियाँ से भी मिल सकता है, पर उसके लिए तुममें वो पैनापन होना चाहिये।

देखो, जैसे मंत्र शब्द हैं, श्लोक शब्द हैं, कबीर के वचन शब्द हैं । वैसे ही दुनियाँ में जो कुछ कहा जा रहा है, वो भी शब्द है, दोनों दुनियाँ का ही हिस्सा है, ठीक? ये वैसी सी ही बात है कि दुनियाँ में शराब खाने भी हैं और अस्पताल भी हैं। अस्पताल बार-बार जाओगे तो शराब?

श्रोतागण : छूटेगी।

आचार्य जी: छूटेगी, वहाँ पर दोहराव क्या कर रहा है तुम्हें? लाभ दे रहा है, अस्पताल को भी तुम दोहरा ही रहे हो। अस्पताल भी तुम बार-बार ही जा रहे हो, दोहरा ही तो रहे हो न? पर अस्पताल जाना जब दोहराओगे तो शराब?

श्रोतागण : छूटेगी।

आचार्य जी: छूटेगी। और शराबखाना जाना दोहराओगे तो शराब? और चढ़ेगी। इसलिये दोहराने को आम तौर पर गलत कहा गया है, क्योंकि दुनियाँ में ज्यादातर क्या है? शराब के अड्डे ही है।

कबीर एक है, पर कब्रिस्तान बहुत सारे हैं।

समझ रहे हो कुणाल? हम्म? लेकिन अगर, मैं फिर कह रहा हूँ, कोई इतना बोधयुक्त हो जाये, कि कबीर जैसा ही हो, तो फिर वो कहीं भी बैठा हो, फिर वो कहीं भी बैठा हो, वो जगा हुआ ही रहेगा।

श्रोता२ : आचार्य जी, जैसे अपने अभी बात करी कि जो गुण हैं, अगर आपने उनका भी का पालन करना शुरू कर दिया है और फिर उनको अपनाना शुरू कर दिया है उपनगर पर, वैसे ही जैसे अपने अभी बात कही थी समर्पण की, बस समर्पण, तो अगर मुझसे अगर पूँछा जाये कि समर्पण पे कोई गुण क्या है, वो प्रतिरोध नहीं करता कुछ,कोई प्रतिरोध नहीं है, आम तौर पे जो मैंने आपसे एक बार सवाल ये पूँछा था ये, कि प्रतिरोध निकलता है, तो प्रतिरोध एक बहुत ही तर्क के साथ आता है, प्रतिरोध इससे निकलता है जिससे ये जान पाऊँ कि ये जो चीज है वो उचित है या अनुचित है, वो जो, वो जो नहीं है कि समझके उचित काम करो कि ये जो काम आ भी रहा है या फिर ये सब कुछ जो आ रहा है, वो असल में सही है या नहीं, अगर मैं ये पैरामीटर, ये हटाके, जो आ रहा है वो लूँ, क्या वो सही रहेगा? क्योंकि ये समझ से तो निकल नहीं रहा हमें पता ही नहीं है कि समर्पण होता क्या है और इतना ही जानता हूँ, मैं जो अभी कांसेप्ट जानता हूँ, तो फिर क्या ये ऐसे लेना?

आचार्य जी: नहीं, अभी के लिए बोले देता हूँ कि सही रहेगा, पर तुम चैन से थोड़ी बैठोगे, मैं, ठीक है बोले देता हूँ, सही रहेगा, अगर यह मदद करता है। सही तो रहेगा अगर तुम चैन से बैठ सको।

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