आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
नववर्ष चुनौती (पूरी बात) || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
78 मिनट
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आचार्य प्रशांत: तो जो हमारा औपचारिक नववर्ष होता है उसकी शुरुआत मैं आपसे बात करके कर पाऊँ। बाक़ी बहुत मीठा बोलना मुझे आता नहीं है लेकिन बस इतना ही कह सकता हूँ कि अच्छा लग रहा है। धन्यवाद!

हाँ, क्या कह रहे थे उदित?

प्रश्नकर्ता: सर, आज के सत्र की शुरुआत मैं एक ऐसे सवाल से करना चाहूँगा जो कल से ही मेरे मन में दौड़ रहा है। मैं देख रहा हूँ कि नये को लेकर हमारे भीतर एक बहुत अलग सी आकांक्षा है। और उसके मुझे दो पक्ष दिखाई देते हैं।

एक पक्ष तो वो है जो इस नये साल को मनाना चाहता है, जो कल से ही अलग-अलग जगहों पर पार्टीज कर रहा है, घूम रहा है, हुड़दंग मचा रहा है, सब कुछ कर रहा है। कई जगहों पर पुलिस तक को बुलाना पड़ गया हुल्लड़ को कंट्रोल करने के लिए, नियंत्रित के लिए।

दूसरी ओर एक वो पक्ष भी है जो कहता है कि ये जो ग्रेगोरियन कैलेंडर (ग्रेगोरियन पंचांग) है जिसका नव वर्ष हम अभी मना रहे हैं, वो नहीं, हम जो भारतीय संस्कृति में शक संवत या विक्रम संवत होता है उसका नया साल हम मनाएँगे। पर मैं देख रहा हूँ साझी बात यह है कि दोनों ही नया साल मनाना चाहते हैं। तो नया क्या है?

आचार्य: बहुत बढ़िया मुद्दे से शुरुआत करी है कि एक तरफ़ लोग हैं—और अधिकांश लोग हम भारत की अगर बात करें—जो कि आज नया साल मना रहे हैं और बिलकुल ठीक कह रहे हो कल काफ़ी ज़बरदस्त नज़ारा था। पुलिस बहुत सतर्क होकर घूम रही थी। उत्सव तो पता नहीं, पर हुड़दंग पूरा था।

और अभी आज ही सुबह कुछ मित्र हैं जो यूएस और कनाडा में हैं तो उन्होंने वहाँ से तस्वीरें भेजीं कि किस तरीक़े से एक एमिशन सेंट्रिक (उत्सर्जन केंद्रित) न्यू ईयर वहाँ मनाया गया है।

और हम इतनी बातें कर रहे हैं कि क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) है और हम देख रहे हैं कि अभी अमेरिका में और कनाडा में किस तरह से तापमान शून्य से तीस डिग्री, कहीं-कहीं पर पैंतालीस डिग्री, पचास डिग्री नीचे चला गया। जो ठंडी हवा का आर्कटिक के ऊपर एक वोर्टेक्स (भंवर) है वो बढ़ता हुआ कैनाडा में प्रवेश कर चुका है। और उसकी वज़ह से ठंड बहुत बढ़ रही है।

ये सब देखते हुए भी लोगों ने कहा, 'नहीं, नया साल है और नये साल का तो मतलब ही है कि हमको धूम-धड़ाका करना है।' तो एक तरफ़ तो ये सब है और ये लोग कह रहे हैं नया साल है मुझे इसमें धूम मचानी है।

दूसरी तरफ़, भारत में अभी पिछले कुछ सालों से यह बात चलनी शुरू हो गई है कि साहब आप नया साल मनाइए लेकिन एक जनवरी को नहीं मनाइए। और हमारे अपने भी तो कैलेंडर्स (पंचांग) हैं न और हम शक संवत की बात करते हैं, विक्रमी संवत की बात करते हैं। और ये दोनों जो ग्रेगोरियन कैलेंडर है उससे बहुत अलग नहीं चलते हैं। एक ईशा के लगभग पचास-सौ साल बाद का है। और हमारा जो दूसरा है वो ईसा से पचास-सौ साल पहले का है, विक्रमी संवत। तो इन दोनों में आपस में तना-तनी है कि साहब एक जनवरी को नया साल मनाना है कि नहीं।

लेकिन मैं जहाँ से देख रहा हूँ दोनों में बहुत कुछ साझा है। दोनो ही नये के आकांक्षी हैं। बस किस तारीख़ को नया मनाना है इसमें भेद है। और नये के आकांक्षी वही नहीं हैं जो कह रहे हैं कि ग्रेगोरियन पर चलना है, जो कह रहे हैं कि शक संवत पर चलना है। नये के आकांक्षी वो भी हैं जो कोई-न-कोई दिन पकड़ लेते हैं कि ये दिन ख़ास है, उस दिन उत्सव मनाते हैं। जन्मदिन हो गया, विवाह की वर्षगांठ हो गयी, होली, दिवाली हो गयी; उस पर नये कपड़े पहनते हैं, रंग-रोगन करते हैं। तो ये नये को लेकर के हममें बहुत-बहुत आकर्षण है, सबमें। हमें जीवन में चाहिए कुछ जो नया हो बिलकुल।

और तुम्हें क्या लगता है, हमें अगर नया चाहिए ही है तो इससे क्या पता चलता है हमारे बारे में?

प्र: कहीं-न-कहीं जो हमारे पास पहले से है हम उससे शायद संतुष्ट नहीं हैं।

आचार्य: हाँ, उससे हम संतुष्ट नहीं हैं। है न? एक दफे मैंने पूछा था कि ऐसा क्या हो जाता है इक्कतीस दिसम्बर की रात को बारह बजे कि हम इतने उत्तेजित हो जाते हैं। जिसको देखो वही पहली जनवरी का सूरज का एक फोटो ले करके कभी कैलेंडर में लगाता है, कभी अपने सोशल मीडिया में लगता है। ऐसा क्या घटित होता है ठीक इक्कतीस जनवरी को बारह बजे? यही बात हम पूछ सकते हैं, ऐसा क्या होता है हमारे जन्मदिन की रात बारह बजे या कि हमारे त्योहारों की रात बारह बजे या कि ठीक भोर के समय ऐसा क्या होता है?

देखो, हम बहुत पुराने लोग हैं और हम एक चक्र में फँसे हुए हैं। हम छटपटा तो रहे हैं लेकिन यह नहीं जानते कि छटपटाहट दूर कैसे होगी। हमारी हालत ऐसी है जैसे कोई बेहोश व्यक्ति बेड़ियों में जकड़ा हुआ हो। मैंने दो बातें कहीं — 'बेहोशी' और 'बेड़ियाँ'। कोई बेहोश व्यक्ति बेड़ियों में जकड़ा खड़ा हुआ है। बेड़ियाँ हैं, इस बात से उसे तड़प होती है। अर्ध मूर्छित है लेकिन फिर भी इतनी चेतना है कि उसको पता चलता है कि दर्द हो रहा है।

आपके साथ कभी हुआ है कि आप एनेस्थाईस किये गए हों ऑपरेशन वग़ैरह में, हुआ है? या किसी को आपने देखा हो जिन्हें अस्पताल में बेहोश किया जाता है तात्कालिक तौर पर? उन्हें जब होश आने लगता है तो आपने देखा है उनका शरीर कैसे गति करता है? एक आवेग सा आता है, उन्हें नहीं समझ में आता क्या हो रहा है। उन्हें दिखाई देता है शरीर में सुइयाँ घुसी हुई हैं। लेकिन उनकी अवस्था क्या है ये उनको पता नहीं चलता है। वही हमारी हालत है, हम बंधन में भी हैं, बेड़ियों में। और हम बेहोश भी हैं।

जो लोग थोड़ा तात्विक दृष्टि रखते हैं, वो कहेंगे 'आचार्य जी, दोनों एक ही बातें हैं न।' हाँ, आगे जाकर के ये दोनों एक ही बातें हैं। बंधन और बेहोशी मूल रूप से एक ही बात है। पर अभी इस चर्चा के लिए मैं कह रहा हूँ ये दो बातें हैं। कि हमें 'बंधन' है और 'बेहोशी' है।

तो हम नहीं जानते हैं कि वो जो बंधन है पुराने का, उससे बाहर कैसे आयें? पर बाहर तो आना है क्योंकि छटपटाहट तो हो ही रही है। तो फिर हम कुछ भी करते हैं अनर्गल, अनाप-शनाप पुराने से नये में आने के लिए।

हमें नहीं पता होता कि हम जो कर रहे हैं वो क्या है और हमें नहीं पता होता कि उसको करके हमें कोई सफ़लता मिलेगी कि नहीं मिलेगी। लेकिन आप एक बेचैन आदमी को संयम का पाठ नहीं पढ़ा सकते हैं। वो कह रहा है मैं जिस हालत में हूँ, इस हालत में तो मैं तृप्त नहीं ही हूँ। तो कुछ भी करूँगा, ग़लत करूँगा लेकिन कुछ भी करूँगा। कुछ प्रयास तो हो, क्या पता प्रारब्ध से, संयोग से, तुक्के से, मुझे सफ़लता मिल जाए। कुछ तो कोशिश करूँगा न।

जैसे एक आदमी एक जलते हुए घर में फँस गया हो। अब आग लगी हुई है, धुआँ है इतना कि उसको दिख ही नहीं रहा है कि दरवाज़ा किधर है। तो भी क्या वो ये कहेगा कि मैं यहाँ बीच में बैठा हुआ हूँ, मुझे दरवाज़ा नहीं पता, जब दरवाज़ा पता चल जाएगा तब मैं सीधे बाहर निकल जाऊँगा? नहीं। वो हाथ-पाँव चलाएगा और बाहर आने की कोशिश करेगा। ज़हरीली गैस उसके भीतर जा चुकी है, दिमाग़ में ज़हर भर रहा है, वो अब बेहोश हो रहा है लेकिन फिर भी वो आख़िरी साँस तक हलचल करता रहेगा, हाथ-पाँव चलाता रहेगा। ऐसी हमारी हालत है।

हम फँसे हुए हैं। प्रकृति ही वो पुरानापन है, हम जिसकी अभी बात कर रहे हैं। हम सब प्रकृति में ही फँसे हुए हैं। और प्रकृति से बाहर निकलने का रास्ता हम अपनी बेहोशी में ढूँढते रहते हैं। यह पुरानापन हमें रास नहीं आता है। रास इसलिए नहीं आता क्योंकि हम ऐसे अतीत में भी रह चुके हैं और अतीत में ही तृप्ति नहीं मिली।

भाई, पुराना तब अच्छा लगेगा न जब पुराने में आपको कुछ मिल गया हो? हम जैसे हैं, हम बहुत पुराने हैं। हम पहले भी ऐसे ही थे। और पहले हम ऐसे थे, वैसे होकर के हमें कोई तृप्ति, कोई आनंद तो मिल नहीं गया; तो हम कुछ नया चाहते हैं। और हममें बड़ी आकांक्षा है, उत्कट इच्छा है कि कुछ नया हो जाए, कुछ नया हो जाए। और नया है कि होने को नहीं आता।

तो फिर हम नये को ज़बरदस्ती मनाते हैं। जैसे कुछ हो नहीं रहा हो तो कोई बात नहीं, कुछ नये होने का स्वांग ही कर लो। तो ये सब जो हम करते हैं ये तरीक़े-तरीक़े से उसके होने का अभिनय कर लेते हैं, जो है नहीं।

जो लोग बहुत समय से हमारे साथ जुड़े हुए हैं वो इन इशारों को समझ रहे होंगे जब मैं कहता हूँ उसके होने का हम प्रपंच सा कर लेते हैं। उसको पाने का अभिनय कर लेते हैं जो है नहीं। तो ये मैं दिश और दैट (यह और वह) की भाषा में बात कर रहा हूँ।

जो उपनिषद् समागम में हमारे साथ रहे हैं वो मेरी इस भाषा से परिचित हैं। जब हम कहते हैं 'तत्वमसि' तो ये किसकी बात हो रही है, कुछ इंगित हो रहा है या एकदम नहीं? या मैं साल की शुरुआत ही ऐसा कर रहा हूँ, हवा-हवाई? साथ चल रहे हैं, आवाज़ आ रही है बढ़िया पीछे तक?

कुछ है जो हमें चाहिए और उसको पाये बिना जिया जाता नहीं है। जैसे फिल्मी गाना है न "तेरे बिना जिया जाए ना" तो वो कुछ है। वहाँ भी वही बोल दिया है, "तेरे बिना", नाम नहीं लिया है। कोई ऐसी चीज़ है जिसका नाम नहीं हो सकता लेकिन वो हमें चाहिए ज़रूर है। और उसके बिना जिया जा नहीं रहा है।

तो हम क्या करते हैं? हम बीच-बीच में अपने आप को ऐसा समझा लेते हैं कि आज वो चीज़ हमको मिली। तो ये सब जो हमारे तीज-त्योहार और ये सब जो रहता है कि जन्मदिन आ गया, शादी की सालगिरह आ गयी, कुछ और हो गया फ़लानी चीज़ हो गयी, ये सब यही है कि आज कुछ नया मिल गया। या कोई नयी चीज़ ख़रीद कर ले आये घर में। नयी गाड़ी आ गयी है या नया घर ही आ गया है या कुछ और हो गया है। घर में किसी का जन्म हो गया है। तो हम कह देते हैं कुछ नया हुआ। कुछ नया हो रहा नहीं है, समस्या यह है।

लोग कह रहे हैं नया साल मनाना है, कुछ कह रहे हैं नया साल नहीं मनाना है। मैं पूछ रहा हूँ — अरे नया कुछ हुआ कहाँ है? मना लो अगर कुछ नया हुआ हो। न मनाने की, उत्सव न करने की बात भी प्रासंगिक तब होती है जब पहले कुछ नया हुआ तो हो। तुम मुझे दिखाओ कुछ नया हो कहाँ रहा है।

इक्कतीस से एक लग गयी; कुछ बदल गया क्या जीवन में? नहीं बदला न। तो जो हमारे भीतर धूम मची हुई है, जो हमारे भीतर उत्तेजना, आवेश पैदा हो जाता है कि कुछ तो कर डालें, कुछ तो कर डालें; मैं उसको दबाने के लिए नहीं कह रहा, मैं उसे समझने के लिए कह रहा हूँ। हम समझें न कि हमें सचमुच कुछ नया चाहिए।

पर हम क्या करते हैं अपनी बेहोशी में — पुराने रहते हुए नये का अपने ऊपर आवरण डाल लेते हैं। और आप अपने ऊपर कितने भी आवरण डालते रहो, कितने भी कपड़े बदलते रहो, भीतर जो है बदल थोड़ी जाता है!

ये उदित आज कोर्ट पैंट में आ गया, मैं भी आ गया हूँ, क्या बदल जाएगा? कुछ बदल जाना है इससे? कुछ नहीं। खेल की तरह ले लो तो अच्छा है, मनोरंजन है। पर गंभीरता से अगर यह उम्मीद बाँध कर बैठे हो कि इससे कुछ परिवर्तन आ जाएगा वास्तव में, तो छोड़िए न, निराशा मिलेगी बस, दिल टूटेगा। और दिल टूटता है। दिल टूटता है। जो चीज़ है ही नहीं, उससे उम्मीद बाँधोगे तो कुछ मिल कहाँ से जाएगा!

पुराने पर ही नया रंग-रोगन कर दोगे तो वस्तु थोड़े ही बदल जाएगी। गाड़ी का इंजन ख़राब है जाकर के उसकी पेंटिंग करा लाए। वो फिर रास्ते में धोखा देगी, कि नहीं देगी? कि गाड़ी इसलिए होती है कि उसकी फोटो लेकर डाल दी इंस्टाग्राम पर? हाँ, फोटो बदल जाएगी। लेकिन गाड़ी अगर इसलिए होती है कि मंज़िल तक पहुँचाए तो कुछ नहीं बदला। मंज़िल तक न वो पहले पहुँचा रही थी, मंज़िल तक न वो अब पहुँचा रही है। हाँ, इंस्टाग्राम पर आप एक लुभावनी फोटो डालकर के लोगों को धता-बता सकते हैं। कुछ लोग सोचने लग जाएँगे कि शायद गाड़ी नयी ले ली है, बधाइयाँ वग़ैरह भी दे देंगे। लेकिन कुछ बदलेगा नहीं। आप मंज़िल के निकट नहीं आ जाएँगे।

ये पुरानापन क्या है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ?

देखिए, प्रकृति माने क्या—अच्छा कितने लोग हैं जो पहले किसी वेदांत महोत्सव में, शिविर में आ चुके हैं? (बहुत लोग हाथ उठाते हैं) चलिए बहुत अच्छा! मतलब मेरी बात समझ रहे हैं। कितने लोग हैं जो गीता समागम में हमारे साथ हैं? (बहुत लोग हाथ उठाते हैं) ठीक है; तो आप समझ रहे हैं—प्रकृति माने फिर क्या होता है?

प्रकृति माने क्या? ये सब कुछ। जिस भी चीज़ की आप बात कर सकते हो, जो भी दिमाग़ में अनुभव हो सकता है, मन में कल्पना उठ सकती है उस समूची चीज़ को हम क्या बोलते हैं? प्रकृति।

स्थूल प्रकृति किसको बोलते हैं? ये (जो सूट पहने हैं) स्थूल प्रकृति है, ये बाहर का आवरण है। यह स्थूल प्रकृति है (अपने हाथ को छूकर कहते हैं), थोड़े भीतर का आवरण है, ये भी क्या है? ये भी स्थूल ही प्रकृति है।

और भीतर का आवरण होता है उसको फिर क्या बोलेंगे — 'विचार'। उसके भी भीतर एक और आवरण होता है उसको क्या बोलते हैं — वृत्ति। वो फिर सूक्ष्म प्रकृतियाँ कहलाती हैं। स्थूल वो है जो, स्थूल क्या है? जिसे आँखें देख सके और कान सुन सके।

है लेकिन सब कुछ प्रकृति ही। कोई ये न कह दे कि विचार प्रकृति नहीं होते या भावनाएँ प्राकृतिक नहीं होतीं। सब कुछ प्राकृतिक ही प्राकृतिक है।

चाहे ये कुर्सियाँ हैं चाहे उन कुर्सियों से स्पर्श में आते ये जो कपड़े हैं, चाहे उन कपड़ो के अंदर जो काया है, चाहे उस काया में जो उठ-गिर रहे विचार हैं, चाहे उन विचारों के नीचे जो भावनाओं का प्रवाह है और चाहे उन सब चीज़ों के बिलकुल नीचे जो 'मैं' वृत्ति है — ये सब क्या है? ये सब क्या है? प्रकृति।

या प्रकृति माने ये सब होता है कि जब हम कहते हैं प्रकृति का संरक्षण करना चाहिए माने पेड़-पौधे; इसको प्रकृति बोलते हैं?

उसको 'भी' प्रकृति बोलते हैं।

हम साथ चल रहे हैं? (श्रोताओं से पूछ रहे हैं)

उसको 'भी' प्रकृति बोलते हैं पर प्रकृति मात्र पेड़-पौधों, पक्षियों, पशुओं, पर्यावरण तक सीमित नहीं है; हम भी प्रकृति हैं। इतना ही नहीं, ये कालीन और ये ऑडिटोरियम और आप जिन भी वाहनों पर आये हैं और बड़ी-से-बड़ी फैक्ट्री और बड़े-से-बड़ा एअरपोर्ट , मनुष्य ने जो भी निर्माण करा है वो सब क्या है? प्रकृति है।

यह बात अच्छे से पकड़िएगा। मनुष्य का निर्माण भी प्रकृति ही है, वो कुछ अलग नहीं हो गया। भाई प्रकृति से जो उठे वो प्राकृतिक। हम कहाँ से आये? प्रकृति से। तो हमसे जो आया वो कहाँ से आ गया, वो भी प्राकृतिक ही है। ठीक है?

हम इसमें खोजते रहते हैं कि हमें कुछ नया मिल जाए; और चल सब पुराना ही पुराना रहा है। आप जैसे आज यहाँ बैठे हुए हैं पिछले साल यहाँ कोई और बैठा था, इसी दिन। मैं आपसे जैसे बात कर रहा हूँ, वैसे ही न जाने कितनों ने करी है कितने ही लोगों से; हर स्तर पर। साधारण वक्ताओं से लेकर के स्वयं श्रीकृष्ण तक।

श्री कृष्ण को भी यह कहना पड़ा कि "अर्जुन तुम्हें क्या लग रहा है ये बातचीत हमारे-तुम्हारे बीच पहली बार हो रही है क्या।" अर्जुन बोले "मुझे तो ऐसा कुछ याद नहीं आता कि हमने ये बातचीत पहले भी करी है, मैं तो अभी ही नहीं करना चाहता। और आप कह रहे हैं कि हम पहले भी कर चुके हैं ये सब।"

कृष्ण बोलते हैं "बेटा, मुझ में और तुम में अंतर बस इतना सा है कि तुम्हें कुछ भी पुराना याद नहीं है, मुझे सब याद है। न तुम्हें मनु याद है, न तुम्हें इक्ष्वाकु याद है, न सूर्य याद है, विवस्वान से लेकर इक्ष्वाकु तक, मैं ये बातें न जाने कितनी बार कितनों को बोल चुका हूँ। सदा बोलने वाला मैं ही रहा हूँ और सुनने वाले तुम ही रहे हो अर्जुन। बस हमारे नाम अलग-अलग रहे हैं।"

कुछ भी यहाँ नया हो नहीं रहा है। और यही हमारी तड़प का कारण है। और नया इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि हम पुराने में ही नये को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। पुराना क्या है? जो हम बने हुए हैं। पुराना माने यह नहीं कि मेरा घर पुराना है, मेरी गाड़ी पुरानी है, मेरे रिश्ते पुराने हैं, मेरी देह पुरानी है। जो हम बने हुए हैं वो बहुत पुराना है।

अहम् वृत्ति है जो सबसे पुरानी है। समय की शुरुआत पर बैठी हुई है वो। जहाँ से अहम् का उदय होता है, वहीं से समय का प्रारम्भ होता है। और वो बदल ही नहीं रहा है। वो एकदम नहीं बदल रहा है। और मनुष्य आज से नहीं प्रागैतिहासिक काल से कोशिश कर रहा है कुछ नया पाने की। हम जब पुराने-से-पुराने अवशेष देखते हैं और खुदाइयाँ होती हैं तो वहाँ पाया जाता है कि मनोरंजन की कोशिश वहाँ भी हो रही थी।

दो-तीन चीज़ें हैं जो सब खुदाइयों इत्यादि में साझी मिलती हैं। पहला, भोजन और भोजन के लिए लड़ाई वग़ैरह। दूसरा, मनोरंजन। और तीसरा, धर्म के प्रारंभिक स्वरूप। ये तीन बातें आप कितना भी पीछे चले जाते हैं, दस हज़ार साल पहले, पचास हज़ार साल पहले या फिर एक-डेढ़ लाख साल पहले तो हर जगह देखने को मिलती हैं। फ़र्क नहीं पड़ता की खुदाई सिंधु घाटी में हो रही है कि मिश्र में हो रही है कि यूरोप में हो रही है कि अफ्रीका में हो रही है कि चीन में हो रही है। यही जगहें हैं जहाँ पर ज़्यादा हमें प्रागैतिहासिक साक्ष्य, प्रमाण, आर्टिफेक्टस मिलते हैं। हर जगह ये चीज़ें मिलती हैं। और ये बताता है आपको कि पुराना क्या है।

क्या है पुराना? ये मन पुराना है। ये अहम् वृत्ति पुरानी है, वो कहती है मुझे खाना है, वो कहती है खाने के लिए मुझे लड़ना है। तो आपको तरह-तरह के औजार मिल जाएँगे। अलग-अलग देशों में, अलग-अलग कालों में अलग-अलग तरह के औजार मिल जाते हैं। कहीं पत्थर के मिलते हैं, कहीं धातु के मिलते हैं, कहीं जानवरों की हड्डियों के मिलते हैं। पर ऐसा हो नहीं सकता किसी तरह के अस्त्र मिले नहीं, मिलते हैं। और मनोरंजन मिलता है। मनोरंजन मिलता है इससे क्या साबित होता है?

वो बहुत पुराना आदमी था जो हमारी-आपकी तरह लगता भी नहीं था। जिसकी शक्ल भी हमसे अलग थी, चित्र में देखा है न, उसको भी मनोरंजन चाहिए था; इससे क्या पता चलता है? हमारी ऊब बहुत पुरानी है। हम स्वयं से ही ऊबे हुए हैं। आपको लगता होगा कि आपकी उम्र चालीस साल की है लेकिन आप पिछले दो लाख साल से ऊबे हुए हैं। मनोरंजन के सारे उपाय कर रहे हैं, मनोरंजन हो नहीं पा रहा। कल के हुड़दंग की बात कर रहे थे तुम, कुछ अब नाता बन रहा है? मनोरंजन हो नहीं पा रहा है।

और धर्म — धर्म का उद्देश्य ही है हमें प्रकृति से मुक्त कर देना। हम कोशिश पूरी करते जा रहे हैं, प्रकृति से मुक्त हो नहीं पा रहे।

क्यों नहीं मुक्त हो पा रहे है?

क्योंकि हम प्रकृति से मुक्त होने के रास्ते प्रकृति के ही भीतर ढूँढ रहे हैं प्रकृति से आसक्त रहते हुए। बाहर निकालने का रास्ता है तो प्रकृति के ही भीतर। पर जैसे हम ढूँढ रहे हैं, जिन आँखों से हम ढूँढ रहे हैं, जिस दृष्टि से हम ढूँढ रहे हैं, जिन जगहों पर हम ढूँढ रहे हैं वहाँ नहीं मिलेंगे।

नया कुछ हो सकता है निश्चित रूप से। पर नया माँगता है साहस और नया माँगता है त्याग और नया माँगता है प्रेम से भरा हुआ हृदय। अब प्रेम तो मीठी चीज़ है, दिक्क़त बस ये है कि वो लूट लेती है, बड़ी कीमत माँगती है। तो नया हमारे जीवन में आ सके, ना हम उतना साहस दिखाते हैं न उसका मूल्य चुकाते हैं। करते क्या जाते हैं हम? बस एक प्रकार का अभिनय। "दिल को बहलाने को, ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।"

"आज नया साल है," कहिए, "दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।" अजी हम आज भी मनाएँगे और मार्च में भी मना लेंगे, अप्रैल में भी मना लेंगे; ग्रेगोरियन और भारतीय क्या, हमें बताइए हम अफ्रीकन भी मना लेंगे। कुछ नया हो तो सही! तड़प रहे हैं तलाश में, नया कुछ होता ही नहीं।

वही हम, वही तुम, वही ज़िंदगी का आलम, कहाँ कोई बदलता है! और तुर्रा ये कि हम कई बार लोगों पर इल्ज़ाम लगाते हैं तुम बदल गए। उसके बस की नहीं है बदलना, काश कि वो बदल पाता। काश कि हम बदल पाते। न मैं बदल पा रहा, न आप बदल पा रहे। बदलाव आ कहाँ रहा है!

थोड़ा दम दिखाना होगा, थोड़ी जान लगानी होगी। मालूम है जब दिल में प्रेम होता है—अभी मैंने कहा था न प्रेम से भरा हुआ हृदय—जब दिल में प्रेम होता है तो एक बड़ी विचित्र सी और विरोधाभासी सी चीज़ होती है। एक तरफ़ तो कोमलता, संवेदनशीलता आ जाती है और दूसरी तरफ़ आप बहुत कठोर और निर्मम हो जाते हैं। और ये दोनों ही चीज़ें चाहिए ज़िंदगी में। छुई-मुई जैसी संवेदनशीलता। इतने संवेदनशील, इतने संवेदनशील कि इंतहा नहीं। और कठोरता भी चाहिए। कठोरता नहीं होगी तो प्रेम जो मूल्य माँगता है, जिस रास्ते पर भेजता है उस पर आप चल नहीं पाएँगे।

मैं किस प्रेम की बात कर रहा हूँ?

उसकी पुकार सुनने के लिए बहुत संवेदनशील कान चाहिए। मौन में फुसफुसाता है वो। बहुत आपको शोर पसंद आ गया, तो वो बुला रहा है उधर से लेकिन उसकी मुरली बहुत मंद होकर पहुँच रही है हम तक। बहुत संवेदनशील कान चाहिए, जिनके भीतर बहुत कोमल तंतु हों। और एक बार आपने सुन ली उसकी पुकार, उसके बाद उसकी ओर चलने के लिए बहुत साहस चाहिए, बहुत कठोरता चाहिए। पत्थर है सामने और पत्थरों को काटने और तोड़ने के लिए आपका अस्तित्व भी पत्थर समान ही कठोर होना चाहिए।

ये दोनों बातें एक साथ — बाहर पत्थर सी कठोरता; भीतर एकदम नाज़ुक, संवेदनशील, सूक्ष्म हृदय।

कठोर हुए बिना काम नहीं चलेगा। सिर्फ़ कठोर हो गये तो मर जाओगे। मुर्दा देखा है कैसे अकड़ जाता है और कुछ दिन उसको और छोड़ दो कि माँस गल वग़ैरह जाए तो जो बचता है वो बस कठोर हड्डियाँ होती हैं। ढाँचा भर बचा है कठोर ही कठोर।

सिर्फ़ कठोर हो गये तो जड़ हो गये, मुर्दा। कठोर नहीं हुए तो ऐसे हो जाओगे जैसे पेड़ से झड़ा कोई पीला पत्ता, एकदम ऐसा कि हाथ में लेकर के पीस दो। वो हवाओं की दया पर है। अब हवा उसको कहीं भी ले जा सकती है; उसमें कोई दम नहीं, कोई प्राण नहीं, कोई संकल्प नहीं। और वो किसी के भी पाँव के नीचे आ जाएगा और मसल दिया जाएगा।

ऐसा इंसान कुछ नया पाएगा और सिर्फ़ ऐसा ही इंसान कुछ नया पाएगा जिसके पास दृढ़ता और कोमलता दोनों हों। हमें दृढ़ लोग भी मिलते हैं वो कैसे होते हैं अभी-अभी हमने कहा, कैसे होते हैं? डेड, मृत। वो कठोर ही कठोर हैं फिर। और हमें कोमल लोग भी मिलते हैं; वो कैसे होते हैं? वो कैसे होते हैं? उनके लिए कोमलता माने भाव; कोमलता माने कमज़ोरी। ज़्यादातर लोगों की कोमलता उनके लिए कमज़ोरी ही तो बन जाती है न, हाँ या ना?

वो दोनों जब मिलेंगे तो कुछ नया फिर घटित होता है। यूँही बैठे-बिठाये नये का आगमन नहीं होगा जीवन में। सत्य ही लगातार नवीन है। उसके अलावा कुछ नया नहीं होता। घड़ी की टिक-टिक हमें नये में नहीं पहुँचा सकती।

अब सत्य बोल रहा हूँ तो कितने लोगों को समस्या हो रही है या सत्य से कुछ इशारा मिल रहा है?

हमें जो चाहिए उसको मुक्ति कहते हैं। आपने दो हज़ार उन्नीस का स्वागत करा था फिर बीस का करा था फिर इक्कीस का करा था फिर बाइस का, अब तेईस का कर रहे हो; आप जानते हो आप पलक-पावड़े किसकी आस में बिछाये बैठे हो? उसको मुक्ति कहते हैं।

और वो सुबह सूरज के उगने साथ नहीं आती। सुबह सूरज का उगना तो किसके क्षेत्र की घटना है? प्रकृति के क्षेत्र की घटना। प्रकृति में लाख परिवर्तन होते रहे, वहाँ कुछ नहीं बदलता। भ्रम में मत आ जाना।

मैदानों से उठ के पहाड़ो पर पहुँच गये, वहाँ हवा साफ़ है। विहंगम, नयनाभिराम सब दृश्य है वहाँ। कह रहे 'नया है, नया है।' अरे! कुछ नया नहीं है वहाँ। प्रकृति के क्षेत्र में नहीं कुछ नया होता। बाल काले थे, भूरे करा लिए; क्या बदलेगा? और बदलना ज़रूरी है, बदलने के लिए ही तो इंसान जी रहा है।

प्रकृति में पैदा हुए हैं हम, है न? किसलिए? किस लिए पैदा हुए हैं प्रकृति में? ताकि प्रकृति से? बोलिए! सबकी ज़िंदगी है न, सिर्फ़ मुझे ही नहीं जीना है। हम प्रकृति में पैदा तो हुए हैं पर किसलिए? ताकि प्रकृति से बाहर जा सकें। और प्रकृति से बाहर जाने का मतलब ये नहीं कि आप मर जाओगे या किसी और लोक में पहुँच जाओगे। प्रकृति से बाहर जाने का मतलब होता है प्रकृति के बंधनों और दुख और छटपटाहट से बाहर जाना। और बाहर जाने के बाद मृत्यु नहीं हो जाती। प्रकृति से मुक्ति को जीवनमुक्ति बोलते हैं। आप जीते हो फिर और खुल कर के जीते हो। बिना किसी बंधन के जीते हो।

ऐसा जीवन नहीं चाहिए क्या? या एक रात का उत्सव चाहिए बीच-बीच में? अभी एक जनवरी को मना लिया है फिर एक अप्रैल के आसपास मना लोगे। फिर उससे पहले भी बीच में मकर संक्रांति और बैसाखी और होली भी आ जाए शायद। और उसके बाद फिर आएँगे रक्षा बंधन। फिर तो उसके बाद नौदुर्गा, दशहरा, दिवाली। और फिर पाओगे फिर से आ गया अब ये नया साल। ये चलता रहेगा। इनमें कुछ नया होता है क्या?

और इसमें अभी मैंने जो व्यक्तिगत हमारे नये के आडम्बर होते हैं उनकी तो बात ही नहीं करी। तीन बच्चे हैं तो तीनों का जन्मदिन आएगा। बच्चों की अम्मा का और बापू का भी आएगा। और सब दूर के रिश्तेदार हैं उनके भी तो आते हैं और सास-ससुर हैं वो भी कभी पैदा ही हुए थे, उनका भी आएगा। जो मर गये हैं, उनके श्राद्ध के दिन आएँगे। और लगता है ये सब कुछ कि 'कुछ आया, कुछ आया।' अरे कुछ आया ही नहीं! काहें को उत्तेजित हुए जा रहे हो? कुछ हुआ ही नहीं। न प्रसन्न हो सकते हैं न उदास। कुछ हुआ तो हो!

जो हो सकता है उसको हम होने नहीं दे रहे। यहाँ (हृदय में) प्रेम नहीं है। अब अजीब एक हालत होती है, प्रेम ही हिम्मत देता है। प्रेम करिए तो हिम्मत उठती है। पर प्रेम करने के लिए भी हिम्मत चाहिए। तो फँस गये हैं। उपचार क्या है? उपचार है 'संकल्प'। उसी को मैं कहता हूँ हमारे पास जो एक बड़ी-से-बड़ी हमको ताक़त मिली है, वो है 'चुनाव' की। किसकी? चुनाव की। उसी चयन शक्ति को संकल्प शक्ति कहते हैं। आप चुन सकते हो।

और अब सुनिए बहुत ध्यान से — प्रेम अचानक, अनायास, संयोगवश नहीं होता; प्रेम एक चुनाव होता है।

वास्तविक प्रेम चुपचाप नहीं घट जाएगा। वो ऐसा नहीं होगा कि चल रहे थे फिसल गये, केले के छिलके पर पैर पड़ गया। वास्तविक प्रेम वैसा नहीं होता। जो चुपचाप हो जाए, बिना आपकी चेतना की सहमती के हो जाए वो प्रेम भी फिर बस क्या है? एक प्राकृतिक घटना। प्रकृति में सब कुछ ऐसे ही हो जाता है।

यहाँ पर कहीं घड़ी लगी हुई है, आपने पहन रखी होगी, उसमें चल रहा है न समय। काँटा घूम रहा है, अनुमति लेकर घूम रहा है? आपका दिल आपसे पूछ कर धड़क रहा है? कुछ खा-पीकर आये होंगे, वो पच रहा होगा भीतर; आपसे पूछ रहा है?

जैसे प्रकृति में सब कुछ अपनेआप चलता रहता है वैसे ही प्रकृति में प्रेम भी अपनेआप हो जाता है। उसको हम प्रेम नहीं मानते हैं। जिस प्रेम की हम आज बात कर रहे हैं, जिसका सम्बन्ध नये से है वो प्रेम चेतना का एक स्वतंत्र चुनाव होता है। आप सोचते हो, आप विचारते हो। और आप जितना सोचते जाते हो, जितना देखते जाते हो, जितना ध्यान देते जाते हो, उतना पाते हो कि अब आप विवश हो गये प्रेम करने के लिए।

अजीब बात बोली! अभी बोला 'स्वतंत्र चुनाव', अब बोला 'विवशता'! हमें वो स्वतंत्रता चाहिए जो हमें सत्य के आगे विवश कर दे। हमारी स्वतंत्रता वो है जो हमें सत्य का विरोध करना सिखा देती है। जो हमें सत्य का विरोध करने का अधिकार दे देती है।

समझ में आ रही है बात?

मैं अपनी पूरी संकल्प शक्ति से उसका चयन करता हूँ जिसको चुन लिया एक बार, तो उसको फिर अनचुना नहीं कर सकते। राह ऐसी मैं चुन रहा हूँ अपनी स्वेच्छा से जिस पर चल पड़े एक बार, तो पलटने का कोई विकल्प नहीं।

ये करेंगे तो नये तक पहुँचेंगे। अन्यथा तो बस समय का खेल है। ये बताइएगा आप में से कितने लोगों ने घड़ी को कहीं पहुँचते देखा है? घड़ियाँ तो सबके पास होंगी कि नहीं हैं, चलती ही होंगी। पहुँचती कहाँ है?

यह प्रकृति है।

इसीलिए इंसान को घड़ी बनाने में इतनी सुविधा होती है क्योंकि पता है कि उसे गोल-गोल घूमना है, कहीं भी पहुँचना नहीं है। तो उसको ऐसे गोल-गोल घुमा दिया और फिर यहाँ (कलाई) बाँध भी दिया। यही घूमना और यही बंधे रहना, ये प्रकृति की निशानी है; वर्तुल, क़ैद, वृत्त। घूमो, बंध जाओ। दस हज़ार साल तक भी घड़ी चलेगी, तो कहीं पहुँचेगी नहीं।

हमें भी जीने के लिए दस हज़ार साल दिये जाएँ और हम वैसे जिये जैसे जी रहे हैं और दस हज़ार नये साल आएँगे और हम कहीं पहुँचेंगे नहीं, कुछ नया कभी घटेगा नहीं। मरते रहेंगे जन्म, लेते रहेंगे। फिर मरेंगे फिर जन्म लेंगे; कहीं पहुँचेंगे नहीं।

जो वृत्ति आपके भीतर बैठी हुई है वो कोई नयी-नयी आपके रूप में पहली बार पैदा हुई है? आपका व्यक्तित्व नया है, आपका व्यक्तिगत अहंकार नया है। पर जो वृत्ति हममें से हर एक के भीतर बैठी हुई है वो न जाने कितनी बार जन्म ले चुकी है और आगे भी कितनी बार जन्म लेगी। मिला क्या? मिला क्या? कुछ मिल गया होता तो? कुछ मिल गया होता तो यहाँ थोड़ी बैठे होते। न आपको मिला है, न मुझे मिला है। कुछ मिल गया होता तो पैदा ही क्यों हुए होते?

समझ में आ रही है बात?

प्र: सर, लेकिन बीच में आपको रोकना चाहूँगा। आपने बीच में एक बात कही थी कि उसको चुनना पड़ता है और उसके बाद कुछ जीवन में वास्तविक नया घटता है। लेकिन हम जो भी कुछ एफर्टस् मारते हैं, जो भी चेस्टाएँ करते हैं वो सारी होती हैं इस प्राकृतिक तल पर ही। तो ये पूरा डायमेंशनल लीप ( आयातित छलांग) फिर होगा कैसे? उसको चुनें कैसे?

आचार्य: देखो, बहुत सरल है। एकदम आसान है, कोई राज़ नहीं है। पहले ही बहुत बार बता चुका हूँ। आज नया साल है तो एक नये तरीक़े से दोहरा देता हूँ। हममें से कोई भी पूरी तरह विवश नहीं होता। ठीक, हममें से जैसे कोई पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होता न, वैसे ही कोई पूरी तरह परतंत्र भी नहीं होता। न हम पूर्णतया स्ववश हैं न पूर्णतया परवश हैं। तो कुछ तो आपके जीवन में विकल्प होते हैं न कि क्या खाना है। आपको इसमें कोई सार्वभौम तल की आज़ादी नहीं है कि क्या खाना है। लेकिन विकल्प तो होते हैं कि नहीं होते हैं? होते हैं न?

आप किसी रेस्टोरेंट में जाते हो, वहाँ मेनू रख दिया जाता है सामने। आप अपने घर पर भी हो तो भी रसोई में कई तरह के विकल्प होते हैं। आप ये भी बना सकते हैं, वो भी बना सकते हैं। आप फ्रिज खोलते हैं, उसमें केला भी रखा होता है, अंगूर भी रखा है, जो खाना है खा सकते हैं आप। होते हैं न विकल्प। जीवन में ऐसे ही आप जो कुछ भी कर रहे हैं उसमें पचास विकल्प होते-ही-होते हैं; कुछ प्रत्यक्ष, कुछ ज़रा छिपे हुए।

तो उस सत्य की ओर बढ़ने का तरीक़ा यह होता है कि मान लो तुम्हारे पास दस विकल्प हैं। ठीक है? तो चेतना की आँख से ये देखना—विकल्प ऐसे-ऐसे (सीढ़ीनुमा एक के ऊपर एक) हैं। कोई भी विकल्प इतना बुरा नहीं है कि कह दो पाताल लोक वाला विकल्प है। क्योंकि इतने बुरे तो हम लोग ही नहीं है भाई। हम पूरी तरह बुरे भी कहाँ हो पाते हैं! हम पूरी तरह कुछ भी नहीं हैं। लेकिन कुछ विकल्प होते हैं ऐसे जो मन में घूम रहे होते हैं, पापी मन है, जो एकदम निचले तल के होते हैं। तो यहाँ से ( मान लो पैर और सर को दो लेवल की तरह बता रहे हैं और यहाँ कह रहे हैं कि हम निचले लेवल यानी पैर के लेवल से शुरूआत करते हैं) शुरुआत करते हैं। कुछ विकल्प होते हैं जो इतने ऊपर (सिर का लेवल) के होते हैं, हमसे ऊपर के होते हैं। हम जैसे हैं, हमसे बेहतर होता है जो हमारा विकल्प है।

तो ये दस विकल्प है, मान लीजिए आपके पास, ग्यारहवाँ नहीं है। अभी हम लायक़ नहीं है, इस क़ाबिल नहीं हैं, तो ग्यारहवाँ नहीं है। ग्यारहवाँ होता तो और ऊँचा होता मान लो छ़त के लेवल जितना ऊँचा होता। काश की ग्यारहवाँ होता, है नहीं। दसवाँ तो है।

दसवाँ कितना ऊँचा है? दसवाँ इतना ऊँचा है, मान लीजिए मेरे सिर से चार फीट और ऊँचा, मैं उस दसवें को क्यों नहीं चुन रहा! बस यही है मुक्ति का रास्ता। यही है प्रेम में पड़ना। जो चीज़ उपलब्ध ही नहीं है भाई उसकी तो बात करना ही बेईमानी है। क्या बात कर रहा हूँ ऐसे विकल्प की जो मुझे सूझ ही नहीं रहा। मिट्टी का पुतला हूँ, बहुत मुझे अक्ल नहीं, बहुत सोच नहीं सकता।

पर जितना सोच सकते हो उसमें जो उच्चतम है उससे तो वफा़ कर सकते हो न। तो उससे क्यों फिर बेवफ़ाई करते हो। यही प्रेम है।

जो एब्सोल्यूटली हाईएस्ट (वास्तव में उच्चतम) है—ये बहुत ध्यान से सुनिएगा सब लोग जरा भी अभी विचलन नहीं इस समय पर—जो ऐब्सोल्यूटली हाईएस्ट है वो आपको मिलेगा रिलेटिवली हाईएस्ट (तुलनात्मक रूप से उच्चतम) से।

चुप हो रहा हूँ ताकि ये बात थोड़ा भीतर घुसे। (आचार्य जी थोड़ी देर को चुप होते हैं)

मुक्ति का अर्थ है कि जो उच्चतम है, जो पूर्णतया अतीत है, उच्चता से भी अतीत है, आकाशों के भी पार है उसको पा लेना; है न? पर उसकी बात करते ही एक थकान सी छा जाती है, कहते हैं इतनी ऊँचाई कहाँ से मिलेगी और कैसे होगा, हम छोटे लोग हैं, हो नहीं पाएगा। तो निराश होने की ज़रूरत नहीं। खुशखबरी है।

खुशखबरी क्या है? अगर उस तक भी पहुँचना है जो दृष्टि से भी अतीत है तो बस उससे दिल लगा लो जो ऊँचे-से-ऊँचा दृष्टि में आता है। जो नज़रों के पार है उसको देख पाने की तो हमारी सामर्थ्य ही नहीं है; नहीं है ना?

हाँ, तो कम-से-कम नज़रों में जो ऊँचे-से-ऊँचा आता है, चुनाव करो, संकल्प करो कि इसके साथ रहना है, इससे नहीं हटना। समझ में आ रही है बात?

'श्रीकृष्ण' कहते हैं, "पर्वतों में हिमालय हूँ" आप समझिएगा अच्छे से, 'श्रीकृष्ण' कहते हैं "पर्वतों में हिमालय हूँ।" 'श्रीकृष्ण' अपनी तुलना किससे कर रहे हैं? किससे कर रहे हैं? हिमालय से। अब 'श्रीकृष्ण' की ऊँचाई क्या बस माउंट ऐवरेस्ट जितनी है, आठ हज़ार आठ सौ अड़तालीस मीटर, इतनी है? तो 'श्री कृष्ण' का कद इतना ही है? जब हम कहते हैं 'कृष्ण' तो कृष्ण माने 'आत्मा', कृष्ण माने 'ब्रह्म'। तो उनका कद कितना हुआ? कितना हुआ? आठ हज़ार आठ सौ पचास मीटर, थोड़ा सा माउंट एवरेस्ट से ऊपर, ऐसे बोले? बोलो कितना? अरे! खुल के बोलिए न!

श्रोतागण: अनंत।

आचार्य: अनंत। लेकिन अपनी तुलना वो फिर पर्वत राज हिमालय से क्यों कर रहे हैं? अभी थोड़ी देर पहले मैंने सूत्र क्या दिया था? एबसोलूटली हाईएस्ट विल बी औबटेंड थ्रू ?

श्रोतागण: रिलेटिवली हाईएस्ट।

श्रोतागण: "शस्त्रधारियों में मैं 'श्रीराम' हूँ, वृक्षों में कल्पवृक्ष हूँ, नदियों में गंगा हूँ, गायों में कामधेनु हूँ," ये आप देख रहे हैं क्या इशारा चल रहा है। समझिए, पकड़िए। पकड़िए।

जो कुछ भी प्रकृति के ही भीतर सर्वोच्च है तुम उसको पकड़ लो, बस। 'कृष्ण' तक पहुँच जाओगे। और फिर वहाँ है नयापन। प्रकृति को त्यागना नहीं है प्रकृति में तलाशना है, विवेक से तजवीजना है, छन्नी की तरह छानना है। यही प्रेम है।

'परा प्रेम' के लिए संतों ने, प्रेम मार्गियों ने शर्त बताई 'अपरा प्रेम'। सूफियों ने कह दिया इश्क-ए-हकीकी नहीं हो सकता? बोलो, बोलो, बोलो!

"इश्क-ए-हकीकी नहीं हो सकता, इश्क-ए-मजाजी के बिना।"

तुम कैसे उस परम सत्ता के प्रेम में पड़ जाओगे जब तक तुम्हें दुनिया में वो नहीं मिला जो तुम्हें उससे जोड़ दे? 'अपरा प्रेम' मतलब प्रकृति के भीतर का ही प्रेम और 'परा प्रेम' माने प्रकृति से परे का प्रेम।

आप जीवन के जिन भी क्षेत्रों में सक्रिय हैं वहाँ जो उच्चतम हो सकता है उसकी ओर हाथ बढ़ाइए ना। हाँ, उसकी ओर हाथ बढ़ाना आसान नहीं होता, क़ीमत लगती है; लगती है न?

'श्रीराम' के जो साथ जो हुए थे उनमें से न जाने कितने मारे गए; नहीं मारे गए? हमें ये तो याद है कि रावण का पूरा खानदान मिट गया और वानर सेना में जितनी मौतें हुईं उनको हम भूल क्यों जाते हैं?

राम का साथ आसान तो नहीं होता न। एक छोटी गिलहरी है उसको भी अपनी सामर्थ्य अनुसार लगकर मेहनत करनी पड़ती है। वो हम नहीं करना चाहते। तो फिर हम कहते हैं राम का साथ कौन करे, वहाँ बड़ी मेहनत है।

छोड़ दीजिए सारे भ्रम, हटाइए सारे बहाने। हम बहाना ये करते हैं कि कोई हमें उतना ऊँचा मिल नहीं रहा जो एब्सोल्यूट माने पूर्ण तक ले जा सके या कि पूर्ण नहीं मिल रहा। मैं आपको बार-बार बोलता हूँ पूर्ण नहीं मिलेगा। पूर्ण को ले जाने वाला रास्ता मिल जाए, बस इतने में अनुग्रहित रहना। और रास्ता-तो-रास्ता होता है, रास्ता मंज़िल तो नहीं होता। रास्ते में तो काँटे भी होंगे, दोष भी होंगे, रास्ता तो प्रकृति के भीतर का ही है। रास्ते में दिव्यता तो नहीं पाओगे जो मंज़िल में होती है।

हालाँकि इस पर भी प्रेमियों ने थोड़ी दूसरी बात बोल दी है। उन्होंने कहा "नहीं बाबा, मुझे मंज़िल से ज़्यादा रास्ता पसंद है। मंज़िल से ज़्यादा मैं रास्ते का ऋणी हूँ। मंज़िल ने तो भटकता छोड़ दिया था, सहारा तो रास्ते ने ही दिया।"

समझ में आ रही है बात?

यही करना है बस, अपने प्रत्येक निर्णय में पूछिए — क्या ये उच्चतम है? एक-एक शब्द जो निकले, एक-एक कर्म जो करें, पूछिए — क्या मैं इससे बेहतर हो सकता हूँ? आप थोड़ा-थोड़ा बेहतर होते जाइए। आपकी बेहतर होने की उत्कंठा को देखकर के मंज़िल आपको खींच लेगी, सहारा दे देगी।

"आचार्य जी, आप कर्ताभाव को नहीं बढ़ा रहे हैं कि आप थोड़ा बेहतर होते जाओ, होते जाओ एक दिन बिलकुल अंतरिक्ष पार कर जाओगे?" ना! मैं कह रहा हूँ, तुम अपना प्रेम दर्शाओ, प्रेम दर्शाना कर्ताभाव नहीं होता। तुम अपना प्रेम दर्शाओ।

जैसे कोई छोटा बच्चा हो, उसको कोई चीज़ चाहिए जो बहुत महँगी आती है और वह बहुत छोटा है। वो क्या करता है, अपनी गुल्लक में सिक्के जोड़ता है एक रूपये, दो रूपये, पाँच-दस रुपये वाले। और एक दिन आता है दुकानदार के पास, वो बड़ी दुकान वाला! बड़ा दुकानदार! इशारा समझिएगा, बड़ी दुकान, बड़ा दुकानदार, ऊँचा माल। वो उसके पास आता है, गुल्लक ही लेकर आता है और उसके सामने गुल्लक फोड़ देता है, कहता है ये जितना है ये सब ले लो मुझे वो दे दो।

अब वो जो लेकर के आया है कुल राशि वो बच्चा, वो कुल मिला करके दो-चार सौ रूपये से ज़्यादा नहीं है। बच्चा और कितना जोड़ेगा बेचारा! पर बच्चे को प्रेम लग गया है तो उसने इतना जोड़ लिया जितना जोड़ सकता था। उसने उतना कर लिया जो वो अधिकतम अपनी सामर्थ्य से कर सकता था। और दुकानदार कहता है मेरे लिए इतना काफ़ी है कि तूने अपना प्रेम दर्शा लिया।

वो जो चीज़ तू माँग रहा है वो करोड़ो की है, ले जा लेकिन। तूने करोड़ो चुकाये नहीं लेकिन फिर भी तू अधिकारी हो गया क्योंकि प्रेम है तुझमें।

बात समझ में आ रही है?

आप वो तो करिए जो आप कर सकते हैं अपने तल पर। उसके बाद अनुकंपा होती है, उसके बाद घटनाएँ अपनेआप घटती हैं। आप रिलेटिवली बेस्ट (तुलनात्मक रूप से सर्वोत्तम) करिए, एबसोलूटली बेस्ट (पूर्णतया सर्वोत्तम) अपनेआप हो जाता है। आप वो करिए जो आप अधिक-से-अधिक कर सकते हैं, उसके बाद वो करेगा जो उसको करना है।

हम वही नहीं कर रहे जो हम कर सकते हैं। हम छोटी चीजों में संतुष्ट हो जाते हैं। हम ज़्यादा बुद्धिमान, ज़्यादा तार्किक हो जाते हैं। हम कहते हैं वो माल करोड़ों का है और मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ, मैं पाँच सौ, हज़ार से ज़्यादा जुटा नहीं सकता; तो मुझे माल कैसे मिलेगा!

आप अगर पाँच सौ, हज़ार के ही क़ाबिल हो तो एक हज़ार एक जुटाकर देखो, बस। आप परम सत्ता को यह सन्देश भेजो कि एक हज़ार की मेरी औकात थी, तेरी ख़ातिर एक हज़ार एक करा है और जान लगा दिए एक हज़ार एक पहुँचने में, ख़ून बहा दिया है। फिर देखिए कि आपके एक हज़ार एक के बदले में करोड़ो बरसता है कि नहीं। रुपए-पैसे की बात नहीं कर रहा, इतना तो स्पष्ट है न? समझ में आ रही है बात?

इस बात से हममें ज़बरदस्त प्रेरणा का संचार हो जाना चाहिए। रिलेटिवली बेस्ट हो जाइए, एब्सोलूटली बेस्ट अपनेआप हो जाएँगे। रिलेटिवली बेस्ट होने का काम करना है आपको और एब्सोल्यूटली बेस्ट करने का काम करना है पता नहीं किसको, वो अपनेआप होता है। तो हमारी फिर समस्या ये है कि हमने वही नहीं करा है जो हम कर सकते हैं।

जो आप कर ही नहीं सकते वो करने की उम्मीद आपसे कोई नहीं करेगा। वो बात अतार्किक होगी। आप में से कई लोग माँ-बाप होंगे, आपके बच्चे होंगे। बच्चा है छोटा, आप ऐसे ही टहल रहे हैं, वहाँ पर छोटे-छोटे पेड़ हैं। मान लिजिए, आड़ू के पेड़ हैं या आम के पेड़ हैं। आप अपने बच्चे के साथ ऐसे ही किसी बाग में टहल रहे हैं। और आप पेड़ के नीचे खड़े हैं और आपका बच्चा उछल रहा है, उछल रहा है, वो आम पाना चाहता है या आड़ू पाना चाहता है या अंगूर की बेल है, अंगूर का गुच्छा है, वो अंगूर पाना चाहता है।

आप उसको देख रहे हैं वो उछल रहा है। आप क्या करते हैं? वो उछले ही जा रहा है, अपनी जान लगाकर उछल रहा है। फिर आप क्या करते हैं? आप क्या करते हैं? आप कहते हैं तू उतना उछला जितना तू उछल सकता था तुझे आगे उठाने का काम अब मेरा है।

आप भूल क्यों जाते हैं कि एक बाप भी है, वो उठाता है। लेकिन वो बच्चा ही अन्यमनस्क है उसको अंगूर चाहिए नहीं या आम चाहिए नहीं, वो ऐसे ही चल रहा है। तो बाप सहायता करेगा क्या?

आपने इतनी ज़ोर से कभी शोर मचाया है? आप मचाते ही नहीं उतना शोर। मैं भी ये जो बोले जा रहा हूँ पंद्रह साल से, मैं क्या कर रहा हूँ? शोर ही तो मचा रहा हूँ और क्या है! इन बातों में कोई दम है! ये कुछ नहीं है, शब्द-तो-शब्द होते हैं; बेकार, कचड़ा। पर शोर मचा रहा हूँ अपनी तरफ़ से पूरा कि कोई उठा ले। जिसके लिए शोर मचा रहा हूँ, वही नीचे को हाथ बढ़ाएगा, उठा लेगा। कहेगा जितना तू कर सकता था तूने किया, अब छोड़ ना।

यह मत कहिए कि बात बहुत दूर की है। अधिकतम करिए तो सही।

साथ चल रहे हैं? समझ रहे हैं बात को?

कोई बहुत बड़े काम नहीं करने हैं। जो करते हो उसमें ही पूछो — जो कर रहा हूँ इससे कोई बेहतर विकल्प नहीं है क्या मेरे पास? मुझे कौन सी मजबूरी है कि जो कर रहा हूँ वही करते रहना है? थोड़ा तो बेहतर हो जाऊँ। और थोड़े बेहतर होते रहो, होते रहो। यही ज़िंदगी है, मुक्ति की ओर अनवरत यात्रा और क्या! और क्या है!

प्र: सर, अभी जो पूरी बात हुई इसमें आपने यात्रा की बात करी। धीरे-धीरे उस ओर बढ़ने की बात करी। मुझे कहीं-न-कहीं दिख रहा था कि इस पूरी मेकेनिजम (प्रक्रिया) में समय एक रोल प्ले (किरदार) कर रहा है। पर मुझे अभी कुछ दिन शायद परसों का ही आपका संदेश था यदि इजाज़त हो तो क्या मैं वो पढ़ सकता हूँ?

आचार्य: जी।

प्र: काफ़ी लोग यहाँ पर शायद इस बात को पहली बार पढ़ेंगे। तो मैं थोड़ा इसका संदर्भ, इसका कांटेक्स्ट बताना चाहूँगा। जैसा हम सभी जानते हैं, आचार्य जी के पिताजी भी इस पूरे मिशन में, इस पूरी संस्था में बहुत एक्टिवली पार्टिसिपेट (सक्रिय भागीदारी) करते रहे हैं। पर तबियत ख़राब होने के चलते वो अभी हॉस्पिटल में एडमिट (भर्ती) हैं। और वेंटिलेटर पर हैं।

तो उन्हीं से जब मिलने आचार्य जी गये थे, शायद कल या परसों की बात है, तो उन्होंने एक बात हमें लिखकर भेजी थी हम सभी संस्था में काम करने वाले लोगों को। तो मैं उसको आप सभी के सामने पढ़ना चाहूँगा। और फिर एक सवाल पूछना चाहूँगा।

संदेश कुछ ऐसा था कि त्रिपाठी जी वेंटिलेटर पर हैं, गंभीर हैं। पुराने फोटोज देख रहा हूँ, ऐसा लग रहा है जैसे कल की ही बात हो। मैं नौ साल का उनके साथ खड़ा रहा, वो तीस वर्षीय बैडमिंटन रैकेट के साथ थे।

हालाँकि उम्र के साथ वह थोड़े धीमे होने लगे थे लेकिन उनका नियंत्रण और उनके ड्रॉप शॉट्स बेहतरीन थे। पढ़ाई में वो काफ़ी समय तक मेरे मैथ्स के, इंग्लिश के, हिंदी के टीचर रहे, संस्कृत और हिस्ट्री के भी।

लेकिन कुछ टिकता नहीं है। यह बहुत समय पहले की बात नहीं है। कल पर भरोसा मत करो। किसी भी दिन को व्यर्थ मत जाने दो; उसको पूर्णता दो। हम सब यहाँ मरने के लिए ही हैं। जीवन को तुम्हारी इच्छाओं की कोई परवाह नहीं। फ़र्क नहीं पड़ता कोई चीज़ तुम्हारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है, वो छिन जाएगी।

किसी भी चीज़ को व्यर्थ ही अपने पास मत छोड़ो। उसको उसकी संभावनाओं तक लेकर जाओ। यह बहुत अजीब था जब मुझे अपनी ही माँ को ये याद दिलाना पड़ा कि जब दो लोग साथ होते हैं तो दो में से एक पहले चला जाता है। साल कोई मायने नहीं रखते। सब कुछ जैसे कल ही हुआ था। लेकिन समय भ्रम है।

आपने इस संदेश को इस बात से ख़त्म किया था कि समय भ्रम है। पर यहाँ जो पूरी अभी चर्चा हुई, मैं देख रहा था कि यहाँ पर समय का एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार है। तो फिर यह बात क्या है?

आचार्य: समय उसी अर्थ में भ्रम है जिस अर्थ में हम आमतौर पर नया साल मनाते रहते हैं। तो सोचोगे कि समय के बीतने के साथ पुराना जो है वो बीत जाएगा और नया अपनेआप आ जाएगा।

समय बीतता है पुराना नहीं बीतता। समय बीतता है पुराना नहीं बीतता या ऐसे कह लो कि समय के साथ एक तरह की पुरानी चीज़ बीत जाती है और दूसरे तरह की पुरानी चीज़ आ जाती है। समय बीता तो एक तरह का पुरानापन बीत गया और दूसरे तरह का पुरानापन आ गया।

तो आप ये भी कह सकते हो कि एक पुराना साल बीता है और आज दूसरा पुराना साल शुरू हो गया। नया साल नहीं शुरू हुआ है। ऐसे भी कह सकते हो। पिताजी अभी भी वेंटिलेटर पर ही हैं, मैं घर पर ही था, बारह बजे से मिलने का समय था। उनका फेफड़ा, दिल, किडनी, लिवर सब एक साथ ही गड़बड़ कर रहा है काफ़ी।

तो बारह बजे उनसे मिलने का समय था, माँ को पता था यहाँ पर है कार्यक्रम दो बजे। तो वो मुझे अपने साथ ही नहीं ले गईं अस्पताल। उन्होंने कहा, "नहीं, जाओ कुछ होगा तो बता देंगे फ़ोन पर।" मुझे लगता है इसमें कुछ नयापन है, है न?

एक वृद्ध पुराना व्यक्ति जिसके साथ हमें डर लग रहा है कि वही पुरानी घटना न घट जाए कहीं जिसको हम मृत्यु बोलते हैं। एक महिला से उस व्यक्ति का सम्बन्ध है जिसे मैं अपनी माँ बोलता हूँ। और पति-पत्नी में मोह का ही रिश्ता होता है और बच्चों का बाप से भी वैसा ही रिश्ता होता है।

लेकिन वो महिला मुझसे बोल रही है, "नहीं, ज़रूरत नहीं है, जाओ कुछ होगा तो बता देंगे।"

तो विकल्प पर अमल करने की बात है। हो सकता है कह देतीं कि "नहीं, रुक जाओ, देख लो, कुछ पता नहीं, देख लो।" ये विकल्प भी उनके पास था और ये विकल्प भी उनके पास था कि कह दिया "जाओ।"

तो सबके पास होते हैं विकल्प। उनमें जो उच्चतम है उसको पकड़ना होता है। उसी की इतनी देर से हम बात करे जा रहे हैं। अब ये सब बातचीत समाप्त होगी तो सबसे पहले मैं फोन की ओर भागूँगा।

जो हमारे साथ हो रहा होता है, हमें लगता है नया है, है ना? समय भ्रम इसीलिए है क्योंकि आज जो हो रहा है वो दो हज़ार साल पहले भी हुआ था, बीस हज़ार साल पहले भी हुआ था, चालीस हज़ार साल पहले भी हुआ था। लेकिन समय हमें ऐसा दर्शाता है जैसे हमें पहली बार हो रहा हो।

आपको प्रेम हो जाता है, आपने देखा है, कैसी पुलक उठती है? जीवन में कुछ समय के लिए कैसी गर्मी, कैसी उत्तेजना आ जाती है! और तब ऐसा ही लगता है जैसे एकदम कुछ नया हो गया। जीवन में सब कुछ नया हो जाता है; चाँद, तारे, सूरज ये भी नये हो जाते हैं।

जो आपके साथ हो रहा है वही पाँच हज़ार साल पहले किसी के साथ हुआ था। पाँच हज़ार साल पहले से लेकर आज तक वो प्रतिदिन करोड़ों लोगों के साथ होता रहा है। लेकिन फिर भी हमारी बेहोशी ऐसी कि हमको लगता है हमारे साथ कुछ नया हो गया।

जन्म होता है किसी बच्चे का, वो बच्चा बहुत पुराना है। उसके भीतर लाखों करोड़ों साल के शारीरिक संस्कार बैठे हुए हैं। पर हम कहते हैं किसी नये बच्चे ने जन्म ले लिया है। मैं कहा करता था कि जब कोई अपनी उम्र बताए बच्चा तीन साल का है। मैं बोलूँ तीन साल का नहीं है तू, एक करोड़ तीन साल का है। पीछे वाले एक करोड़ तुझे याद नहीं हैं। है तो एक करोड़ तीन साल का। तीन साल तू अभी इस देह में है तो वो पता चलता है कि तू इतना है। है तो तू बहुत पुराना। हममें से भी जिसकी जो उम्र हो उसमें एक करोड़ साल जोड़ दीजिएगा, आप उतने साल के हैं। और उतने साल के आप बस सांकेतिक रूप से नहीं हैं। आप वास्तव में उतने साल के हैं।

ये शरीर कितना-कितना पुराना है, आप नहीं कल्पना कर सकते। हमारे डीएनए में जो सामग्री बैठी है वो क्या उस दिन पैदा हुई थी जिस दिन हमारा जन्म हुआ या जिस दिन गर्भाधान हुआ था? ना!

जानते हैं एक नयी बात क्या चल रही है? इस पूरे ब्रह्माण्ड का, ग़ौर से सुनिएगा, इस पूरे ब्रह्माण्ड का इतिहास तलाशा जा सकता है अगर पूरी तरह हम इंसान के डीएनए को डीकोड कर लें। हम इतने पुराने हैं। ब्रह्माण्ड में आज तक जितनी घटनाएँ हुई हैं उनके चिह्न, उनके प्रमाण कहीं-न-कहीं हमारे डीएनए में छुपे हुए हैं।

ठीक वैसे जैसे बहुत पुरानी बर्फ़ के नीचे पुराने अवशेष मिल जाते हैं कि नहीं? पुरातत्वशास्त्री यही तो करते रहते हैं। बहुत पुरानी बर्फ़ है, उसके नीचे उन्हें पता है कि जो चीज़ है वो सड़ी नहीं हुई होगी, ख़राब नहीं हुई होगी तो उसमें वो नीचे घुसते जाते हैं, घुसते जाते हैं। सैकड़ों मीटर बर्फ़ के नीचे जा करके उन्हें कुछ ऐसा मिल जाता है जो अभी थोड़ा ताजा रखा होता है। और उससे उनको इतिहास को जानने में मदद मिलती है।

उसी तरीक़े से मनुष्य की कोशिकाओं के भीतर भी बहुत, बहुत, बहुत पुरानी जानकारी रखी हुई है। हम इतने पुराने लोग हैं। इसलिए मैंने लिखा था कि टाइम इज एन इल्यूजन , समय भ्रम है।

जैसे कि घड़ी को भ्रम हो गया हो कि वो चार किलोमीटर चल आई है। फिजिक्स की भाषा में, साधारण भौतिकी में इसको कहेंगे डिस्प्लेसमेंट (दो बिंदुओं के बीच की दूरी) तो शून्य है। हाँ, तुम यही नापोगे कि टू पाई आर, टू पाई आर (वृत की परिधि) उसने कितना करा है, तो बहुत सारा करा है।

लेकिन उसका उसके केंद्र से कोई डिस्प्लेसमेंट नहीं हुआ है। तो मनुष्य को आप घड़ी का काँटा समझ लीजिए। मनुष्य चलता ही रहता है, चलता ही रहता है, चलता ही रहता है लेकिन केंद्र से बंध कर चलता है।

घड़ी इतना चलती है लेकिन फँसी रहती है न अपने केंद्र में। उसी केंद्र का क्या नाम है — 'अहम् वृत्ति'। उसको केंद्र में रखकर घड़ी चल रही है इस घड़ी का नाम 'समय' है, 'जीवन' है।

कुछ नया नहीं होता इसमें। हमने ही कहीं पर उसमें लगा दिया है कि बारह बजा, एक बजा, दो बजा, तीन बजा। आप यह भी उसमें लगा सकते हो, मान लीजिए आप इतना कर दें घड़ी में, जहाँ बारह लिखा है वहाँ छः लिख दें और जहाँ छः लिखा है वहाँ बारह लिख दें, कोई फ़र्क पड़ेगा? काँटों को उसी अनुसार सेट कर दीजिए। कुछ फ़र्क पड़ेगा क्या?

तो वैसे ही आप एक जनवरी को मनाओ कि एक मार्च को मनाओ कि एक अप्रैल को मनाओ क्या फ़र्क पड़ना है?

ये तो ऐसा सा है जैसे कि आप कोर्डिनेट ज्योमेट्री (निर्देशांक ज्यामिति) में आप ओरिजन डिफाइन (मूल बिंदु को परिभाषित) कर रहे हों। आपकी मर्ज़ी है कहीं भी डिफाइन कर दीजिए। समझ में आ रही है बात?

ये नया कैसे मिलता है, हमने क्या बोला? पल-पल जो चुनाव करने हैं उनमें चेतना के पक्ष में उच्चतम चुनाव करो। और हम सब जानते हैं कि उच्चतम क्या है। हमारे पास जो चुनाव है न उन्हीं को जाँचना सीखो, उन्हीं को पूछो — और बेहतर कुछ कर सकता हूँ? और बेहतर कुछ सोच सकता हूँ? और बात बन जाएगी। इतनी छोटी सी बात है। और कुछ नहीं करना है। अपनी ही ज़िंदगी को देखना है, अपने ही विकल्पों को तलाशना है। और बात बन जाएगी। और नया कुछ भी नहीं करना होता।

मैं कुछ कह पाया हूँ? अब आप लोगों को देख रहा हूँ। आप लोगों से मैंने पूछा कितने लोग पहले शिवरों में आ चुके हैं। अधिकांश लोगों ने हाथ उठाये। गीता में भी मेरे साथ आप में से बहुत लोग हैं। उपनिषदों में भी साथ रहे हैं। तो ये देखकर के अभी एक ताज़ा-ताज़ा ख़्याल आया है वो कहे देता हूँ।

देखिए, मैं कोई बड़ी ऊँची, कोई बड़ी नयी बात बोल नहीं रहा हूँ। बात उसको सुनने की नहीं है कि सुनते ही जा रहे हैं, सुनते ही जा रहे हैं। बात उसको जीने की होती है। आपके सन्देश आते हैं उनमें कई बार आप बड़ी कृतज्ञता बताते हैं, आपका स्नेह होता है, आपका धन्यवाद होता है आपके सन्देशों में। जो एक चीज़ है जो आप कर सकते हैं और आपको करनी चाहिए वो ये है कि जो बात आपको समझ में आने लगी है उसको जियें, सिर्फ़ उसी से सिद्ध होगा धन्यवाद। कृतज्ञता यदि है तो जीवन में दिखाई दे। सामने आ करके दहाड़ना पड़ेगा, खुल करके जीना पड़ेगा, उसके अलावा नहीं कोई विकल्प होता है।

कह रहा था न कि प्रेम हिम्मत माँगता है। ये चोरी-छुपे वाली चीज़ के पक्ष में आपके भीतर जो भी तर्क हों उन तर्कों को ख़ारिज़ करें कृपया। चोरी-छुपे वाला प्रेम होता है न कि हम छुप-छुप कर करते हैं, ये नहीं चलेगा।

मैं आपके और अपने रिश्ते की बात कर रहा हूँ यहाँ पर। अगर हमारे बीच वास्तव में कोई रिश्ता है तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा कि आप वैसे ही ज़िंदगी जी रहे हो जैसे कोई आम आदमी जीता है। मुझे अपने होने पर और अपनी बात पर घृणा आएगी। आप अगर कहते हो कि आप दो साल से मेरे साथ हो, कितनी बार मिल भी चुके हो। और कई लोग तो पाँच-पाँच, छः-छः साल, दस वर्ष वाले भी हैं जो कहते हैं कि दस साल से हम आपको सुन रहे हैं।

देखिए, लोगों ने मुझे नहीं सुना हो तो मुझे एक उम्मीद रहती है। मुझे लगता है कि ये मुझे सुनेंगे तो ज़िंदगी बदलेगी, दुनिया बदलेगी, कुछ नया होगा। मुझे उम्मीद बनी रहती है। वो उम्मीद मेरी उर्जा रहती है।

पर जहाँ मुझे यह दिख जाता है न कि कोई मेरे साथ भी रहा है पाँच साल, सात साल से और फिर भी नहीं बदला तो फिर मेरी भी हिम्मत टूटने लगती है। जैसे रीढ़ पर किसी ने मार दिया हो। फिर मुझे लगता है कि कुछ भी करने से फ़ायदा क्या है अगर जिनके लिए किया जा रहा है उनको लाभ ही नहीं हो रहा है तो।

मैंने एक आम ज़िंदगी नहीं जी है। कोई चाह नहीं था कि मुझे बिलकुल कुछ अलग, उत्कृष्ट, निराला, एक्स्ट्रा ऑर्डनरी (सामान्य से अलग) करना है। लेकिन कुछ अलग होता गया, होता गया, हो गया। तो ये कैसे संभव है कि आप मेरे साथ हैं और आपकी ज़िंदगी वही पुरानी आम ज़िंदगी ही है। कि आप कहीं बस में जा रहे हैं और बस के आम यात्रियों जैसे ही दिख रहे हैं, आप सब्ज़ी मंडी में खड़े हुए हैं और आप भी चार रुपये के लिए बहस करते हैं किसी आम खरीददार जैसे ही हैं।

इतनी चीज़ मैं आपसे माँग रहा हूँ, अगर हमें वैसे ही चलना है जैसे हम हैं तो हम यहाँ एक-दूसरे के आमने-सामने कर क्या रहे हैं, स्वांग?

आप कहते हो, "नहीं, हमने समझ लिया है, हमारे भीतर-भीतर परिवर्तन आ गया है। लेकिन बाहर-बाहर तो देखिए दुनिया के साथ ही चलना पड़ता है।" फिर आप दुनिया के साथ ही चल लीजिए, मुझे छोड़ दीजिए। मुझे माफ़ करिए बिलकुल।

डर मुझमें भी रहा है, संदेह मुझमें भी रहे हैं लेकिन फिर भी लगभग शत प्रतिशत ईमानदारी से कह सकता हूँ कि जितना मैं दहाड़ सकता था, ललकार सकता था, मैंने किया है। बाक़ी इंसान हूँ, त्रुटियाँ होंगी, दोष होंगे, कहीं पर मैं भी शायद डर के पीछे हटा होऊँगा। उसकी बात नहीं कर रहा। लेकिन लगभग जितनी दूर तक जा सकता हूँ और जितनी जोर से पुकार सकता हूँ मैं कर रहा हूँ।

मैं ये कैसे देख लूँ की मेरे साथ के लोग दब्बू हैं। मैं आप से नहीं कह रहा हूँ आप आकर के संस्था के लिए कुछ करें, मैं नहीं कह रहा हूँ आप मेरे पक्ष में दहाड़े। आप जहाँ हैं वहीं पर आपकी ज़िंदगी में एक रौनक, एक तेज़, एक नूर दिखना चाहिए। न कि मोहल्ले के दस लोग खड़े हुए हैं उसमें एक आप भी खड़े हुए हैं और कोई अंतर ही नहीं दिख रहा। न हस्ती में, न बातों में, न निर्णयों में न कर्मों में कोई अंतर ही नहीं दिख रहा। आपको नया होना चाहिए, वही नया साल होगा।

ऐसे थोड़े ही है कि घर में पाँच लोग हैं या आठ लोग हैं और उनमें से एक है जो इस वक्ता को, प्रशांत को, सुनता भी है, पढ़ता भी है लेकिन उस एक में और बाक़ी जो छः-सात हैं उनमें कहीं कोई अंतर ही नहीं, कोई भेद ही नहीं। तो हटाइए।

वही फ़िल्में जो बाक़ी छः देख रहे हैं आप भी देख रहे हैं। वही बातें, वही गौसिप (गपशप) जो बाक़ी छः कर रहे हैं, आप भी कर रहे हैं। बाक़ी छः बैठ कर के रात में दूध-मलाई उड़ा रहे हैं, आप भी उड़ा रहे हो। क्योंकि आप उनके साथ के हैं न। तो आप उन्हीं के साथ के हो जाइए; मेरे साथ मत रहिए फिर। मुझे अकेले चलने का बड़ा अनुभव है। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि इतने लोग हो भी जाएँगे। मैं अकेला ही भला।

जैसे अभी कह रहे थे न कि पर्वतों में हिमालय, वैसे ही सच का बंदा जंगल में शेर होता है। आपकी दहाड़ कहाँ है? 'चूं-चूं चिं-चिं, मिमियाना, म्याऊ।' थोड़ा कटु अभी इसलिए होना पड़ रहा है क्योंकि मुझे लगता है। मुझे लगता है इसलिए क्योंकि मैंने इंसान से उम्मीद नहीं खोयी है। और जो लोग मेरे साथ आ जाते हैं उनसे तो, दोष है मेरा, लेकिन उनसे मुझे बहुत उम्मीदें हो जाती हैं। मैं उन्हें बहुत-बहुत ऊँचा देखना चाहता हूँ।

आपको इतिहास पुरुष होना है। आप साधारण बंदा रहने के लिए और एक औसत जीवन जीने के लिए नहीं पैदा हुए हैं। इतिहास पुरुष जानते हो किसको बोलते हैं? जो समय की धारा को मोड़ दे, उसको बोलते हैं। उसी में नवीनता है।

अभी थोड़ी देर बाद हम विदा हो जाएँगे, आप घर जाएँगे; आप क्या करेंगे? आज एक तारीख़ है, आज जश्न होगा। आप वैसे ही हो जाएँगे? यहाँ इतने जवान लोग भी बैठे हुए हैं। तुम्हारी भुजाओं में कुछ बल नहीं है क्या, तुम्हारे गले में आवाज़ नहीं है?

और जो थोड़ा प्रौढ़ लोग बैठे हुए हैं वो आमतौर पर अपने-अपने घरों के मुखिया होंगे। अपने घर के मुखिया हो फिर भी ग़ुलाम हो, क्या मजबूरी है? हाथ में अभी आपके टीवी का रिमोट आ जाएगा, आपके पास विकल्प नहीं है क्या? बोलो न! रिमोट का तो मतलब ही होता है विकल्प। उसका नाम ही है रिमोट कंट्रोल या उसका नाम है रिमोट कंट्रोलर ? यू आर सपोज़ टू यूज इट टू कंट्रोल प्रकृति (तुम्हें इसका उपयोग करना है कि तुम अपनी प्रकृति को वश में कर सको)। उल्टा होता है न, वो पर्दा (टीवी स्क्रीन) आपको कंट्रोल करता है इसके माध्यम से, रिमोट के माध्यम से।

वो विकल्प कहाँ है, वो चेतना कहाँ है जो पूछे कि क्या जो मैं कर रहा हूँ वो अनिवार्य है, ज़रूरी है? मजबूरी, मजबूरी, मजबूरी, मजबूरी, मजबूरी करते-करते राख हो जाना एक दिन। और फिर कहना अब मजबूरियाँ मिट गईं, अब कोई मजबूरी नहीं है।

प्र: सर, मैं आपको एक बार रोकना चाहूँगा, इसमें मैंने देखा कई बार लोगों के पास यह तर्क होता है कि देखिए ये सब कुछ करना तो आचार्य जी के लिए आसान था वो आचार्य जी हैं। पर हम कहाँ कर सकते हैं? तो ये जो आप मजबूरी की बात कर रहे हैं, ये जो कुतर्क है इससे कैसे?

आचार्य: कुछ भी आसान नहीं था, एकदम आसान नहीं था। एकदम भी आसान नहीं था। पता नहीं क्यों आपको तो अपने लिए बहाना बनाना है कि मैंने या किसी और ने कुछ कर लिया तो वो उसके लिए आसान था और आपके लिए मुश्किल है। क्योंकि आपकी मजबूरियाँ हैं और बंधन हैं और परिस्थितियाँ हैं।

ये क्या बेकार का बहाना है, कुछ भी नहीं है। अभी जिन पिताजी की बात कर रहे हैं वो एकदम ग्रामीण परिवेश से आते हैं, उनकी पुरानी कविताएँ हैं, कुछ कविताओं में लिखा हुआ है कि दो दिन से खाना नहीं खाया है। वो ऐसी पृष्ठभूमि से आते हैं। अपने तमाम उन्होंने बंधनों के बीच ही सारी पढ़ाई पूरी करी, फिर अधिकारी भी बने। कोई पुश्तैनी ज़मीन जायदाद नहीं, कुछ नहीं ऐसा।

और जब आप एक ऐसे घर से आते हो तो जैसे आप बोला करते हो न अरे माँ-बाप की उम्मीदें हैं बहुत, वैसे ही वो उम्मीदें तो मुझसे भी रखते होंगे न कि नहीं रखते होंगे? तो मेरे लिए आसान कहाँ से हो गया भाई? उनको भी लगता होगा कि जिस तरह की संपन्नता कभी नहीं देखी गयी वैसी संपन्नता ये लड़का लेकर आएगा। यूएस में किसी इन्वेस्टमेंट बैंक में चला जाएगा और साल के कई लाख डॉलर घर भेजा करेगा। तो आसान कहाँ से हो गया फिर?

कोई चीज़ न मिली हो ज़िंदगी में तो वहाँ फिर भी आसान होता है। मिली ही नहीं, उसका न मिलना ही फ़ैसला हो गया। फ़ैसला हो गया न। पर जो चीज़ मिल गई है, उसका न मिलना फिर चुनाव होता है। ठीक? कोई चीज़ आपको मिली ही नहीं तो फ़ैसला हो गया। पर मिली हुई चीज़ को छोड़ना एक चुनाव होता है और उस चुनाव में दर्द होता है।

मेरे भी दोस्त-यार हैं, परिवार है। और मैं भी कोई आसमान से नहीं उतरा हूँ। साधारण मिट्टी का पुतला हूँ। मेरे भीतर भी कई तरह के संशय उठते थे। कुछ स्पष्टता नहीं थी, क्या होगा क्या नहीं होगा। चलते रहे, चलते रहे।

देखिए, मुझको लेकर के बहाना मत बनाइए कि इस आदमी के लिए आसान था इसलिए अलग चल लिया; हमारे लिए आसान नहीं, नहीं चलेंगे। मुझे बहाना मत बनाइए बल्कि अगर आपको मेरा इस्तेमाल ही करना है तो मेरी कहानी को सहारा बना लीजिए। मेरी कहानी हर उस आदमी के लिए सहारा बन सकती है जो अलग चलना चाहता है, पर संशय से घिरा हुआ है। और मैं हर तरीक़े से अलग चला हूँ और उन्हीं परिस्थितियों में होते हुए अलग चला हूँ जिन परिस्थितियों में आप सब हैं। तो कोई बहानेबाजी इसमें नहीं चल सकती।

न ख़ानदानी रईस हूँ, न कोई और व्यवस्था है, न मैं किसी परंपरा की पीठ पर बैठा हुआ हूँ, न अपने ऊपर मैंने कोई गौडफादर कभी स्वीकार करा, न किसी राजनेता से या राजनीतिक विचारधारा से सम्बद्ध हूँ। कोई नहीं है मेरा, एकदम कोई नहीं। न धर्म के क्षेत्र में कोई मेरा है, न समाज में है, न राजनीति में है। न मेरे पीछे कोई फंडिंग लगी हुई है, कुछ नहीं। अकेला खड़ा हूँ जैसे अभी आपके सामने, बिलकुल ऐसे ही खड़ा हूँ। और कृपा करके कोई कल्पना, कोई कहानी मत बना लीजिएगा की किसी-न-किसी का तो इनको समर्थन मिला होगा। एकदम किसी का नहीं।

और मैं गर्व अनुभव करता हूँ ये कहने में कि मैंने सहारा दिया है। जब कुछ नहीं था मेरे पास तब भी सहारा दे रहा था। आप भी दे सकते हैं।

बहुत साल पहले इसको अंग्रेजी में मैंने ऐसे बोला था " गिव, गिव एंड गिव फ्रॉम एमटी पॉकेट (दीजिए, दीजिए और खाली जेब से दीजिए)।" जब जेब खाली हो न तब देने में और मज़ा आता है। और मज़ेदार बात यह कि तब देते जाओ तो पता चलता है अरे जेब में अभी और है। अपने ही छुपे हुए कोष फिर खुल जाते हैं।

अपनेआप को निर्बल या निर्धन मत मानिए आपके पास बहुत कुछ है। देना शुरू करिए न। चलना शुरू करिए, आपकी ताक़त अपनेआप खुलेगी। वक़्त की बात है, अभी कह रहा था कोई नहीं है साथ में; अगर कोई साथ में है तो आप लोग हो। और आप लोग भी बस साथ बने रहें और एक झुंड बन जाए, एक समुदाय बन जाए ऐसी मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है। बल्कि मैं चाहता हूँ कि हमारे सम्बन्ध पर एक कड़ी शर्त रहे।

और शर्त यह है कि जब तक आप प्रयासरत हैं कि आप उठते रहें, जीवन में बेहतर होते रहें और जब तक मैं उस प्रयास में सहयोगी हो पा रहा हूँ तब तक हमारा-आपका रिश्ता रहे।

जिस दिन आप ऐसे हो जाएँ कि कहें कि हमें तो बस सुनना है, करना कुछ नहीं। हमें तो बस किताब पढ़नी है, विडियो देखना है। जीना कुछ नहीं। उस दिन मैं आपको अपनेआप से दूर कर दूँ और जिस दिन मैं ऐसा हो जाऊँ कि मेरे माध्यम से आपकी चेतना को, आपकी मुक्ति को कोई लाभ होना बंद हो जाए उस दिन आप मुझे दूर कर दीजिएगा। ये हमारा रिश्ता होना चाहिए और इस रिश्ते में कड़ी शर्त होनी चाहिए। ठीक है न!

ये भी नहीं है कि चलो कोई बात नहीं अकेले चले थे पर अब तो बहुत लोग साथ हैं। ना! साथ वग़ैरह क्या होता है? इंसान साथ के लिए थोड़ी ही पैदा होता है। बात आ रही है समझ में?

रखनी है ये शर्त? मैं अपना चेहरा आपको तभी दिखाऊँ जब मुझे पता हो कि आपके सामने खड़ा होना मैंने अर्जित करा है, जब मुझे पता हो कि परिस्थितियों का सामना करके आपके सामने आया हूँ। कि बीते हुए दिन में पूरी मेहनत करी है मैंने और काम के साथ इंसाफ़ किया है और इस बूते पर आपके सामने खड़ा हूँ। मुझे पता हो तो ही मैं आपके सामने खड़ा होऊँ। और आप भी मेरे सामने तभी आयें जब आप कह पायें कि जिसके साथ हैं कम-से-कम थोड़े-बहुत उसके जैसे हो रहे हैं। ये शर्त ठीक है कि नहीं है?

या आप मेरे लिए गौरव का साधन हैं और मैं आपके लिए मनोरंजन का? बढ़िया वीडियो बन रहे हैं, ये फोटो खींच रहे, अभी क्लिक करा इन्होंने, अच्छी फोटो आएगी कि इतने लोग सुनने आये आचार्य जी को नये साल पर। मेरे लिए बढ़िया है आप आये हैं यहाँ पर। और बड़ी हम भीड़ इकठ्ठा कर सकते हैं चाहें तो। फिर ऐसे छाती चौड़ी गौरव से कि इतने बड़े हो गए भाई।

और बड़े हो जाते हैं तो कई तरह के लाभ मिलने लग जाते हैं – आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक। लाभ लेना शुरू कर दूँ, ये करूँ मैं? कैसा लगेगा आपको अगर मैं आपको अपने लिए बस गौरव का साधन बना लूँ तो? बोलिए, बोलिए कैसा लगेगा?

और मुझे कैसा लगेगा अगर मैं आपके लिए बस मनोरंजन का साधन बन जाऊँ तो? बोलिए। न आपको मेरे लिए साधन बनना है न मुझे आपके लिए।

प्रेम में एक-दूसरे के लिए मनोरंजन का या गौरव का या इच्छा पूर्ति का साधन नहीं बनते,‌ नहीं बनते न? प्रेम का क्या अर्थ होता है? प्रेम माने क्या होता है? एक-दूसरे का हाथ इसलिए पकड़ा है क्योंकि हाथ अगर थामे रहेंगे तो ज़्यादा दूर तक चल पाएँगे और ज़्यादा ऊँचे उठ पाएँगे। शर्त है। उस शर्त के बिना कुछ नहीं।

बात आ रही है समझ में?

मेरे लिए आसान नहीं था। आपकी ही तरह बिलकुल इंसान हूँ, एकदम आपकी तरह। और आपको भरोसा दिला रहा हूँ जितने भी दिन जिऊँगा, मैं कभी नहीं बोलने जा रहा कि मुझमें कोई दिव्यता है, अनूठापन है, निराला हूँ, अलग हूँ, अद्भुत हूँ, इनलाइटेंड हूँ, अवतार हूँ। ये मैं कहिए तो लिखकर के दे दूँ। जैसे आज बोल रहा हूँ, मिट्टी का पुतला हूँ ठीक आपकी तरह। वैसे ही—जो सच्ची बात है वो बदल कैसे जाएगी यार! आगे दूसरी बात कैसे बोल सकता हूँ!

तो ये समझ लीजिए कि पहले भी आसान नहीं था। एक तरह की चुनौतियाँ थीं, आज भी आसान नहीं है। आज चुनौती यह है कि मैं अपनेआप को उन्हीं के जैसा घोषित कर दूँ जो समाज में और धर्म में नेता बन कर घूम रहे हैं। और प्रयास करने लगूँ कि मैं भी उन्हीं की बिरादरी में जाकर बैठ जाऊँ। और वो प्रलोभन तो लगातार मौजूद ही है न कि नहीं मौजूद है? आते हैं इधर-उधर से न्योते, आमंत्रण "आप हमारे साथ बैठना शुरू कर दीजिए, आप क्यों नहीं हमारे दल में शामिल हो जाते।" और मैं अगर वैसा करने लग जाऊँ तो आपके किसी काम का नहीं बचूँगा। जब मैं किसी दल में शामिल होने से इनकार कर रहा हूँ तो आपकी दलगत निष्ठा क्यों है? बताइए। आप कैसे राजनैतिक हस्तियों के दीवाने हुए बैठे हैं? आप तो दूर से उनके दीवाने हैं; मुझे तो बहुत पास से बुला रहे हैं। बोलो! और आपको फिर राजनेताओं का और अभिनेताओं का और बड़े उद्योगपतियों का, सेठों का और यही सब जो प्रभावशाली लोग हैं आपको उनका ही मुरीद होना है तो आप उन्हीं के साथ रहिए। क्योंकि आप एक ऐसे आदमी के सामने खड़े हैं जो समाज में उतरा है उन प्रभावशाली लोगों के लिए नहीं, आपके लिए।

और ये तो देखिए बेवफ़ाई होती है जो प्यार में बिलकुल बर्दाश्त करी जाती नहीं। कि साहब हम तो आपको समर्पित हैं और आपने दिल कहीं और लगा रखा है। चलता नहीं न। और आपने जहाँ दिल लगा रखा है, वो हमारे पीछे हैं। और हम उनको घास नहीं डालते। और वहाँ जाकर के 'जी, जी, जी, जी' कर रहे हैं। यह नहीं चलेगा।

ये बात भी मैं गौरव बताने के लिए नहीं कर रहा हूँ। इसमें कोई गौरव की बात नहीं है। समाज तो जहाँ भीड़ देखता है उसी को श्रेष्ठ मान लेता है यह तो ज़ाहिर सी बात है, होगा ही। मेरे साथ भी होगा और भी कहीं भीड़ होगी वहाँ भी होगा। तो इसमें कोई गौरव की बात नहीं है। इसमें सावधानी की बात है।

एक निष्ठा होनी चाहिए क्योंकि एक सत्य है, और वही एक सत्य है जो जीवन में नवीनता लाएगा। एक ज़िंदगी, एक दिल, एक सत्य, एक प्रेम; दूजा कोई नहीं। ठीक! हमने हर चीज़ को मल्टीपल बना रखा है। जहाँ देखो वहाँ तीसरा, पाँचवाँ, अठारहवाँ पैदा कर रखा है। ज़िंदगियाँ हमें लगता है बहुत सारी हैं, हमारा ही तो दूसरा जन्म हो जाएगा। सौ बार समझाया है, आप जो है, आपका नहीं होगा। जिसका पुनर्जन्म होता है वो वस्तु दूसरी है। आप जो व्यक्तित्व हैं, इसका कोई पुनर्जन्म नहीं होता। लेकिन ये बात भी हम नहीं आसानी से समझते। बार-बार बोलता हूँ आपको कि आपकी तो एक ही ज़िंदगी है।

एक सत्य है; हम वो बात भी नहीं मानते। हम द्वैत में विश्वास रखते हैं। हम कहते हैं मैं भी सत्य हूँ संसार भी सत्य, तो दो सत्य तो कम-से-कम हैं ही। और एक तीसरा भी है भगवान भी है। वो भी सत्य। तो दो का तीन भी बना देते हैं। चार, पाँच भी बना सकते हो, मर्ज़ी है। असंख्य सत्य बना लो।

अब मैं कह रहा हूँ एक ज़िंदगी, एक सत्य, एक निष्ठा। हिम्मत है? एक ज़िंदगी का मतलब होता है एक पल भी बर्बाद नहीं करना, दूसरी नहीं मिलेगी। एक ज़िंदगी का मतलब समझते है? सब तरह के विचलन और विक्षेप बाहर। समय ही नहीं है। एक ज़िंदगी है। बीता पल लौटता नहीं और आगे के पल का पता नहीं कितने हैं।

समय क्या है? क्या बोला था? भ्रम है भैया! नहीं पता। एक ज़िंदगी, एक सत्य, एक निष्ठा। अगर सत्य एक है तो पाँच से मेरी निष्ठा कैसे हो सकती है? पाँच जगह दिल कैसे लगा सकता हूँ जब सच्चाई एक है तो? बोलो! कि लगाना है? ऐसे को पसंद करोगे जो सत्तर जगह आशिक़ी करते फिरते हैं। आपको मुझ पर फ़क्र रहे, मुझे आप पर फ़क्र रहे; अच्छी चलेगी न जोड़ी। आप निराश हो रहे हों, मुझे देखें, चित प्रसन्न हो जाए; है न।

आप कई बार लिख कर भेजते हैं कि मन बहुत खिन्न था फिर तभी वीडियो का नोटिफिकेशन आ गया, अब बढ़िया है। कई लोग ऐसे भी कहते हैं कि आत्महत्या ही करने जा रहा था आपने बचा लिया। अब मैं आपको बताना चाहता हूँ ये सारे विचार मुझे भी आते हैं, मैं किसकी ओर देखूँ?

तो हमारा रिश्ता ऐसा रहे कि मैं आपको देखूँ और मेरा चित्त भी हर्षित हो जाए। तो ठीक रहेगा न। नहीं तो एकतरफा हो जाती है बातचीत। आप तो मुझे देखते हैं तो आपको प्रेरणा भी मिल जाती है, ऊर्जा भी मिल जाती है, उत्साह भी मिल जाता है। होता है ऐसा?

तो मेरे लिए भी तो आप होने चाहिए न। या मैं आपको देखूँ और आप बिलकुल वही ज़माने की लाइन (पंक्ति) में लगे हुए हैं; तो मुझे अच्छा लगेगा या और लगेगा कि छोड़ो यार ऐसे क्या करना है जीकर!

सच अनंत होता है, असीम होता है, अजेय होता है लेकिन प्रकृति में वो सदा अल्पमत में होता है। तो आप अगर एक ऊँची, प्रेम भरी, सही ज़िंदगी जिएँगे तो आप हमेशा अल्पमत में ही होंगे। अल्पमत में रहने की तैयारी कर लीजिए और अल्पमत में रहने को ही सामान्य मान लीजिए।

दस के बीच में आप अकेले रहेंगे, इस बात को आप अपना दुर्भाग्य भी मान सकते हैं। बोलो क्या मानना है? ये पक्का है कि दस क्या, सौ में आप अकेले रहोगे। इसको आप अपना अकेलापन भी मान सकते हैं और अपना अनूठापन भी; बोलो क्या मानना है?

इतनी मुझे उम्मीद नहीं है कि दुनिया ऐसी हो जाएगी कि एक दिन आठ सौ करोड़ में से सात सौ करोड़ सच्चाई के आशिक़ होंगे। नहीं होने वाला। हम जहाँ तक अपना जीवन काल देख सकते हैं आप तो अल्पमत में ही होंगे। कभी दस में एक कभी हज़ार में एक। उसको अपना अनूठापन मानिएगा, वो अनूठापन है आपका।

ठीक वैसे जैसे शिखर पर चढ़ा होता है कोई तो अनूठा होता है न और अकेला होता है। वो अकेलापन अनूठापन है। आपके बच्चे होते हैं, आप चाहते हैं कि वो कोई प्रवेश परीक्षा पास कर लें। और जो वहाँ पर सलेक्शन रेशियो (चयन का अनुपात) होता है वो ऐसे ही तो होता है, हज़ार में एक का चयन हुआ; ऐसे ही होता है न। तो हज़ार में एक निकला आपका बेटा या आपकी बेटी; ये बात सौभाग्य की होती है या दुर्भाग्य की?

तो आपके बच्चे जब हज़ारों से अलग काम करें तो अनिवार्य रूप से यह मत मान लीजिएगा कि उन्होंने कुछ ग़लत ही करा है। और आप भी जब पायें कि सच का रास्ता आपको हज़ारों से अलग ले जा रहा है तो कुछ अनिष्ट नहीं घट रहा, कुछ बहुत अच्छा, बहुत ऊँचा हो रहा है आपके साथ। समझ में आ रही है बात?

दो नावों पर एक साथ पाँव रखकर नहीं चल पाएँगे। और छूटेगी कौनसी नाव, ये पहले से पता है। जो बड़ी वाली नाव है आप उसी में सवार हो जाएँगे। एक तरफ़ है उनका इतना बड़ा टाइटेनिक और दूसरी तरफ़ हमारी छोटी सी लाइफ बोट। टाइटेनिक और लाइफ बोट के आकार में क्या अनुपात होता है? दस हज़ार और एक या एक लाख और एक; ऐसा ही कुछ। बस इतनी सी बात है कि एक डूबता है, एक बचता है।

अपने अकेलेपन से प्रेम करना सीखिए, नहीं तो बार-बार यहाँ नहीं आ पाएँगे। बहुत अनुभव से बोल रहा हूँ। दूसरे आपको खींच ले जाएँगे। अपने पाठकों, अपने श्रोताओं के साथ क्या मैंने तो अपने व्यक्तिगत जीवन में भी इस अनुभव का दर्द सहा है। जिन पर समाज की बहुत पकड़ होती है, वह बहुत दूर तक मेरे साथ नहीं चल पाते।

प्र: सर, आज जैसे हम नये साल के लिए यहाँ पहुँचे थे, तो बहुत कुछ है जो आप से सुनते हैं। बहुत कुछ है जो आप से सीखते हैं। पर कोई एक बात है जो आप चाहेंगे कि यहाँ मौजूद हर व्यक्ति उसे अपने साथ लेकर जाए और उसे साल के अंत तक याद रखे।

आचार्य: छोटा मत अनुभव करना कभी। और ये चाहेंगे सब कि छोटा अनुभव करो। ये शब्द है न मुझे बहुत प्यारा है 'ठसक'। ऐसे तन कर खड़े रहना है। ये (सिर का पिछला हिस्सा) थोड़ा सा पीछे को फेंका रहे।

जो चीज़ अवश्यंभावी है, उसकी तैयारी पहले से। जहाँ हर चीज़ में मिलावट है, जहाँ धर्म, संस्कृति इनके नाम पर सिर्फ़ विक्षेप परोसा जा रहा है वहाँ अगर आप एक सही साफ़-सुथरी ज़िंदगी जिओगे तो अल्पसंख्यक ही रहोगे।

अपनेआप को विश्व की सबसे छोटी माइनोरिटी मानने की तैयारी कर लो। और उसको मालूम है क्या बोलते हैं? उसको बोलते हैं सचेत व्यक्ति। वो एक की माइनौरिटी होता है। ऐसा भी नहीं कि दस-बारह लोग का एक झुंड है, एक दल है। एकदम अकेले। अल्पसंख्यक है और इतने अकेले है। और जो इतना अकेला होता है उसको सब चले आते हैं दबाने के लिए।

जो इतना अकेला होता है न सब चाहते हैं उसपर चढ़ बैठें। किसी को हक़ नहीं देना है कि चढ़ बैठें। समाज के प्रति एक स्वस्थ अनादर का भाव रखो — हेल्दी कंटेम्ट (स्वस्थ अनादर)। हेल्दी बोला है, ये नहीं कि जो मिला उसी को झाड़ दिया। वो रखना ज़रूरी है, क्योंकि अपनेआप को वरना बचा नहीं पाओगे। हर बच्चा एक संभावना लिए पैदा होता है। दुनिया उस संभावना को खा जाती है, दुनिया आपको भी खा जाएगी।

दुनिया है ही इसीलिए कि इंसान को खा जाए। भर्तृहरि कह गये थे न "तुम नहीं खाते, दुनिया तुमको खाती है।" तुम सोच रहे हो कि तुम भोग को भोग रहे हो, भोग तुम्हें भोग रहा है। तुम नहीं खा रहे यहाँ पर, तुम पैदा हुए हो खाए जाने के लिए। ये दुनिया सबको खा जाती है। तैयार रहो। नहीं खाये जाना है।

गरिमा, डिग्निटी। क्या? डिग्निटी। ऐसी गरिमा जो दहाड़ती है, बदतमीज गरिमा। मैं जिस बदतमीजी की बात कर रहा हूँ वो अच्छी ही नहीं है, वो आवश्यक है। साधारण बदतमीजी की बात नहीं कर रहा।

ये सिर है, ये सिर्फ़ सत्य के सामने झुकता है। और अगर पचास जगह झुकता है उसके बाद सत्य के सामने झुकता है तो भला है कि सत्य के सामने भी न झुके। बिका हुआ सिर।

सत्य के सामने सिर झुकाने का महत्व सिर्फ़ तभी है जब वो सिर कहीं और न झुका हो। कहीं झुकना नहीं चाहिए। वो गरिमा, वो ठसक बनी रहे। सिर झुके नहीं और हाथ फैले नहीं। याचक नहीं बनना है, भिखारी नहीं हैं हम। सहारा दे देंगे, माँगेंगे नहीं। और खूब सहारा देंगे किसी को सहारा देने में अपना नुक़सान होता हो तो और देंगे सहारा; तभी तो मज़ा है न। देखें तो कितनी चोट झेल सकते हैं। जिसको सहारा दे रहे हों वही पलट कर के मारे हमें तो भी उसको देंगे सहारा; देखें तो दिल कितना बड़ा है। आ रही बात समझ में?

सच्चाई का सिपाही संसार के दर पर भिखारी थोड़े ही बनेगा, या बनेगा? 'हटो, हटो तुम!' ये भाव रहता है फिर। प्रेम में तो सब कुछ अर्पित कर देंगे। पर जहाँ डर है, जहाँ लालच है, जहाँ धमकी है, जहाँ दबाव है, वहाँ हमसे बस उपेक्षा और अनादर पाओगे। ठीक है न ये?

और कभी भी ये भाव उठेगा अगर कि ये तो हारी हुई चीज़ है, सामने वाला पक्ष बहुत बलवान है। हम छोटे हैं, कमज़ोर हैं। ऐसी भावना आये तो क्या करना है? 'दूर, दूर हटो, छु!'

सबसे बड़ा दोष है कमज़ोरी। अहम् वृति को ऐसे भी परिभाषित कर सकते हो। अपने भीतर का वो भाव जो कहता है कि हम संकुचित हैं, सीमित हैं, क्षुद हैं, संकीर्ण हैं उसे अहम् वृत्ति कहते हैं। अपने ही भीतर की संकीर्णता को अहम् वृत्ति कहते हैं।

जब भी ऐसा भाव आये, "हमसे क्या हो पाएगा? पर हम क्या कर सकते हैं?" एकदम उसको पत्थर मार कर भगा दो। पढ़ेंगे तो ऊँचे-से-ऊँचा पढ़ेंगे; देखेंगे तो ऊँचे-से-ऊँचा देखेंगे। घटिया साहित्य नहीं पढ़ेंगे, घटिया संगति नहीं करेंगे, घटिया जीवन नहीं जिएँगे, घटिया नौकरी नहीं करेंगे, घटिया पेशा भी नहीं अपनाएँगे। और हम सब जानते हैं कि घटिया किसको कहते हैं। कम-से-कम मेरे साथ रहे हैं आप तो आप भलीभाँति जानते हैं घटिया किसको कहते हैं।

जानते हुए भी अगर घटिया काम करा, तो अपनेआप को माफ़ नहीं करेंगे। ठीक है न? और फिर तन कर जिएँगे क्योंकि पता है क़ीमत चुकाई है, खोखला घमण्ड नहीं कर रहे। ठोस गरिमा है। गरिमा और घमंड में अंतर होता है न। हाँ, बाहर वाले लोगों को लग सकता है कि घमंडी हो गये हो। वो यही कहेंगे कि ये तो अपने में चलते हैं। बहुत घमण्डी हो गये हैं। अपनेआप को तो तुर्रम खाँ समझते हैं। कहने दो। तुममें इतनी समझ ही होती कि घमंड अलग चीज़ है और गरिमा दूसरी तो तुम कुछ और होते। हम पर आक्षेप नहीं कर रहे होते, हमारे साथ होते।

एक-एक चीज़ में चुनाव करेंगे न। क्या कपड़ा पहन रहे हैं, क्या खाना खा रहे हैं, कहाँ रह रहे हैं, कौनसी किताबें पढ़ रहे हैं, कौनसा चैनल देख रहे हैं, किन लोगों का समर्थन कर रहे हैं, किनका विरोध कर रहे हैं; कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं?

और जब करेंगे तो हैं ताक़तें जो विरोध करेंगी; उनको झेलेंगे न। और जब झेलेंगे तो पता चलेगा अरे उसे तो झेल सकते थे, इतना भी मुश्किल नहीं था। चोट लगी लेकिन बर्दाश्त कर सकते थे। पहले भी बर्दाश्त कर सकते थे आज तक क्यों नहीं बर्दाश्त किया? चोट लगी, दर्द हुआ और जब लगती है चोट तो तिलमिलाता है आदमी। तिलमिलाएँगे आप एक बार को, कदम लड़खड़ाएँगे। लेकिन लड़खड़ा रहे हों कदम, आप संभाल लीजिएगा, संभाल सकते हैं। है हममें इतना दम, सब में होता है।

हमारे पुर्खे, हमारे पूज्य, हमारे प्रेमी हमें बता गये हैं न कि अमृत की औलाद हो तुम, तुम इतनी आसानी से कैसे लड़खड़ा सकते हो। ऋषियों ने वो बात सिर्फ़ अपने लिए नहीं बोली थी हम सबके लिए बोली थी न, "अमृतस्य पुत्र:"। करेंगे प्रयोग हर बार, जब भी लगेगा कोई मजबूरी आ रही है, कहेंगे, 'कोशिश करके तो देखते हैं।' अंज़ाम क्या निकलेगा, हमें पता नहीं। प्रयास करने में भी कोई बंधन है? परिणाम पर हमारा बस नहीं; क्या प्रयास भी हमारे हाथ में नहीं? बोलिए! प्रयास करेंगे पूरी ईमानदारी से; करेंगे न? श्रीकृष्ण ने एक बार भी अर्जुन को नहीं कहा कि तुम जीतोगे लेकिन बार-बार कहा "कर्म पर अधिकार है, कर्म से कैसे पीछे हट रहे हो?"

कौनसा कर्म?

निष्काम कर्म।

जो कहाँ से आता है?

अपने भीतर के अंधेरे को जानने से, लड़ने से आता है। जानेंगे कि हमारे ही भीतर हमारा दुश्मन है। उससे लड़ लिए तो बाहर के दुश्मन; क्या दम है इनमें!

गीता उतरेगी एक-एक पल में? पक्का नहीं पर प्रयास तो करेंगे। करेंगे न? करेंगे।

"न दैन्यम, न पलायनम" न हम छोटे हैं, न हम मैदान छोड़कर भागते हैं। चोट लगती है, चोट सहते हैं। मौत आती है, मौत सहते हैं। मौत भी कोई हमें पहली बार आ रही है क्या? मौत भी बहुत पुरानी है। नया तो वो जीवन है जिसके लिए प्रयास कर रहे हैं। हज़ार बार पहले मरे, एक बार और मर लेंगे। पर नये जीवन के लिए प्रयास तो करेंगे न।

ये बात बिलकुल अधूरी छोड़कर जा रहा हूँ क्योंकि बात कभी पूरी नहीं होती। पूरा तो ज़िंदगी को ही होना होता है। ज़िंदगी को आपको पूरा करना है। कभी बिलकुल आस टूटने लगे, भरोसा मिटने लगे, लगे कि घुटने टेक ही दें और बाक़ी सब उपाय काम न आ रहे हों तो एक उपाय यह और कर लीजिएगा। याद कर लीजिएगा कि एक व्यक्ति है जो कम-से-कम अभी घुटने नहीं टेक रहा है।

आप अगर अकेले भी हैं तो एक और व्यक्ति भी है जो अकेला है। दो अगर अकेले हो तो अकेले तो नहीं कहलाते। जो संघर्ष आपका है वही मेरा भी है। न आपको सिर झुकाना है न मुझे। न आपको घुटने टेकने हैं न मुझे। और चलेंगे तो साथ, बढ़ेंगे तो साथ।

समझ में आ रही है बात?

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