आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
न किसी काम में दिल लगता, न कोई काम पूरा होता (युवा हूँ, क्या करूँ?) || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा रेगुलर वर्क (नियमित कार्य) ही नहीं ख़त्म हो पाता है। मैं अपना काम समय से पूरा नहीं कर पाती हूँ। आप कहते हैं कि गीता सत्र सुनो पर वो भी नहीं सुन पाती हूँ, नियमित काम ही चलता रहता है। मैं न स्पोर्ट्स जा पाती हूँ न जिम, यहाँ तक कि शॉपिंग के लिए भी मेरे पास वक़्त नहीं होता है।

आचार्य प्रशांत: महाभारत को प्रमाण मानना कोई अनुचित नहीं होगा, क्योंकि गीता तो महाभारत का ही हिस्सा है। अगर हम गीता की बात कर रहे हैं, तो थोड़ा महाभारत की भी करी जा सकती है। आप कल्पना कर सकते हो जब अर्जुन की बात करते हैं तो अर्जुन को बोलते हैं 'महाबाहो’। कृष्ण अर्जुन को सम्बोधित कैसे करते हैं?

श्रोता: महाबाहो।

आचार्य: महाबाहो माने क्या? अरे वाह! क्या बाइसेप्स (बाज़ुओं की माँसपेशियाँ) रहे होंगे, महाबाहो। यही अर्जुन क्या बने हुए थे अभी दो-ही-चार साल पहले?

श्रोता: बृहन्नला।

आचार्य: हाँ, बृहन्नला। ये क्या करते थे? नाचते थे। क्या बनकर? स्त्री बनकर, किन्नर बनकर। और आमतौर पर आप नर्तक के बाहों को कैसे सोचते होंगे — वो भी अगर स्त्री हो क्योंकि वो तो स्त्री रूप रखे थे — कैसी होंगी? ये महाबाहो एक नर्तक है और पुरुष नर्तक नहीं, स्त्री नर्तक है। ये होती है पूर्णता की अभिव्यक्ति कि जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है, वो वहाँ पर एक उत्कृष्ट नर्तक भी बना हुआ था और नाच भी रहा है, सिखा भी रहा है। और ये नहीं कि बस ऊपर-ऊपर स्वाँग कर दिया, ऐसा नाच सिखाना है कि कोई पकड़ भी न पाये। कोई नहीं पकड़ पाया था, अज्ञातवास था भाई! किसी को पता ही नहीं चला ये कौन है।

ये जो भीम हैं जो छाती फाड़कर खून पीने को तैयार हैं अभी, ये क्या बने हुए थे, पता है? रसोइये। और क्या मस्त तैयार करते थे, ‘बोलो, कौनसा सालन चाहिए?’ पूरे राजमहल को खिला रहे हैं। ये होती है आन्तरिक पूर्णता। अब भीम बोले कि अभी काम बहुत है गदा भॉंजनी है, कुक थोड़े ही हैं हम।

सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ज़रूर अपनी युद्धाभ्यास में इतनी गहराई से डूबते रहे होंगे कि अभ्यास अल्पकाल में ही पूरा भी हो जाता रहा होगा, नहीं तो नाचना कैसे सीखा होता? और सर्वश्रेष्ठ आप तभी हो सकते हो जब आपके अभ्यास में गहराई हो। अभ्यास में गहराई होगी तो फिर आपको चौबीस घंटे नहीं अभ्यास करना पड़ेगा। फिर जो भी आप कर रहे हो, वो एक समय में पूरा हो जाएगा न। अब काम पूरा हो गया, अब दूसरा काम देखते हैं। मेरे जीवन का वृक्ष हर दिशा में फूल देगा, क्योंकि जड़ें मज़बूत हैं। उन मज़बूत जड़ों को आत्मा बोलते हैं, जड़ें मज़बूत हैं मेरी ज़िन्दगी में। हर दिशा में फूल लगेंगे, पॉलीमैथ (बहुज्ञ व्यक्ति)।

तो अभी अन्तर देखो। जो आन्तरिक रिक्तता से काम करता है वो बाहर का कोई झूठा काम पकड़ता है, और उस झूठे काम को किसी तरह रो-धोकर भी पूरा नहीं कर पाता। ये आन्तरिक रिक्तता का प्रमाण है कि ये व्यक्ति एक आयामी जीवन जी रहा होगा और वो जो एक आयामी जीवन जी रहा होगा, उसमें भी इसने जो एक काम पकड़ा होगा वो कभी पूरा ही नहीं होता होगा। ये हमेशा ख़ुद भी परेशान रहता होगा और दूसरों से भी गाली खाता होगा कि तेरा काम क्यों नहीं पूरा होता कभी।

और जब आन्तरिक पूर्णता से — उसको आनन्द बोल लो, आत्मा बोल लो, ईमानदारी बोल लो, जैसे भी कहना है — जब वहाँ से काम निकलता है तो एक नहीं, दस काम पूरे हो जाते हैं और आप दस कामों में दक्ष होते हो। आप फिर एक ज़िन्दगी में कई ज़िन्दगियाँ जीते हो, बहुआयामी आपका व्यक्तित्व होता है।

एक आपका जीवन हो सकता है धनुर्धर का, एक आपका जीवन होगा गायक का, एक आपकी ज़िन्दगी प्रेमी की चल रही है, एक आपकी ज़िन्दगी कोई और चल रही है और इतनी सारी ज़िन्दगियाँ हैं और इनमें आपस में बहुत अच्छा समायोजन है, क्योंकि ये सब-के-सब फूल एक ही जड़ से आ रहे हैं। तो इन फूलों में आपस में कोई असंगति नहीं है, ये बेमेल नहीं हैं, आपस में नहीं लड़ रहे, एक ही वृक्ष पर अलग-अलग तरह के फूल खिल रहे हैं।

कोई मज़बूत आदमी देखा है कभी कि बहुत मज़बूत है, बहुत मज़बूत है, बस एक कन्धा मज़बूत है? और जिस तरफ़ का कन्धा मज़बूत है उधर ही तरफ़ का बाज़ू देखो तो बाज़ू ऐसा है कि जैसे लकवा मारे हो, ऐसा होता है कभी? जब मज़बूती आती है तो पूरे बदन में आती है न, कुछ थोड़ा-बहुत अपवाद हो सकता है। वरना जब मज़बूती आती है तो आप आमतौर पर यही पाओगे कि पूरे बदन में आती है। ऐसा तो नहीं होगा कि बाँह बहुत मज़बूत है और टाँग ऐसी है कि चला नहीं जाता। कहीं कोई होता होगा ऐसा अपवाद, वरना ऐसा नहीं मिलेगा। मज़बूत आदमी आपको पूरा ही मज़बूत मिलेगा। वो मज़बूती सिर्फ़ भीतरी जगह से आ सकती है और जब वो होती है, तो भीतर की दशा को आनन्द कहते हैं, फिर आनन्द है।

भीतर जब सबकुछ ठीक होता है तो बाहर बहुत-बहुत काम होता है, वास्तविक काम होता है, हर दिशा में काम होता है और बहुआयामी काम होता है। और भीतर जब खोट होती है और बेईमानी होती है, तो बाहर का काम सिर्फ़ भीतरी खोट को छुपाने के लिए होता है।

वो फिर भीतर की एक खुली अभिव्यक्ति नहीं होता, वो फिर भीतरी गड़बड़ को छुपाने के लिए होता है, भीतर की बात पर पर्दा डालने के लिए बाहर लगातार फिर काम चलता है।

तो एक काम है जो इसीलिए होता है कि भीतर जो है, उसको हम प्रदर्शित करना चाहते हैं। जड़ें पुष्पों के माध्यम से अपनी घोषणा करना चाहती हैं पूरे संसार को, क्योंकि जड़ तो कभी दिखाई दे नहीं सकती, आत्मा की तरह होती है तो वो अपनी उद्घोषणा करती है, ‘मैं हूँ’।

कैसे उद्घोषणा करती है?

‘इन खूबसूरत फूलों को देखो, मैं न होती तो इन पुष्पों में ये सौन्दर्य कहाँ से आता? इन पत्तियों में ये कोमलता कहाँ से आती?’ ये जड़ बोल रही है, ‘और अगर मैं न होती तो इस तने में ये मज़बूती कहाँ से आती? मैं ही बल का स्रोत हूँ, मैं ही सौन्दर्य का स्रोत हूँ और मैं ही सारी नवीनता, मौलिकता और कोमलता का स्रोत हूँ।’

ये जड़ें घोषित कर रही हैं। अब वो स्वयं बाहर नहीं आ सकतीं तो इन सब के माध्यम से, तने के माध्यम से, शाखा के माध्यम से, पत्ती के माध्यम से और पुष्प के माध्यम से वो अपनेआप को प्रदर्शित, व्यक्त कर रही हैं।

ये असली जीवन है। इसमें निरन्तर कर्म है कि नहीं? कोई एक क्षण होता है जब जड़ें काम करना छोड़ दें? निरन्तर कर्म है। पर वो कर्म इसीलिए नहीं है की जड़ें लज्जित होकर के अपना मुँह छुपाना चाहती हैं, वो कर्म इसीलिए है कि जड़ें अपनेआप को अभिव्यक्त कर रही हैं। पूरे गौरव के साथ जड़ें वृक्ष बनकर खड़ी हो रही हैं। देखो इतना भारी वृक्ष, वो क्या है? वो जड़ें हैं जो कह रही हैं, ‘ये देखो ये हैं हम, ये हम हैं।’ ये एक होता है तरीक़ा जीने का, यहाँ घोर कर्म है, निरन्तर कर्म है और वो कर्म आपके आनन्द की, आपकी सच्चाई की अभिव्यक्ति है।

और एक दूसरी ज़िन्दगी होती है आम आदमी की, और यहाँ पर जो वाजश्रवस हैं, नचिकेता के पिताजी, उनकी उस ज़िन्दगी में क्या होता है? उस ज़िन्दगी में होता है कि काम बाहर चलता है, वो काम अझेल होता है, वो काम जैसे खच्चर का बोझ हो ऐसा होता है। और वो काम कभी पूरा भी नहीं होता, वो काम हमेशा अधूरा रहता है, एक दिशा का होता है और उस काम से कुछ हासिल भी नहीं होता। वो काम सिर्फ़ किसलिए होता है? कि भीतर जो झूठ है उसको छुपाकर रखा।

हमने एक बहुत-बहुत ग़लत मूल्य पकड़ लिया है और वो ग़लत मूल्य ये है कि जिसको बहुत काम करता देखो, उसको इज़्ज़त दे दो। ये अच्छा मूल्य नहीं है। दफ़्तरों में उसको बहुत सम्मान मिल जाता है जिसको पाओ आप कि अरे, सब चले गये अभी भी ये केबिन में बत्ती कैसे जल रही है, और आप जाकर देखते हो तो वहाँ कोई एक बैठा हुआ है। ये मेहनतकश नहीं, ये चोर है। जब रात में कोई नहीं है, ये अकेला बैठा है तो इसको चोर काहे न मानें?

जो असली आदमी होगा उसका काम तो समय से पहले पूरा हो जाएगा, उसी ने असली काम कर भी रखा होगा। ये जिनका काम कभी नहीं पूरा होता, ये चोर हैं। ये काम से भी चोरी कर रहे हैं क्योंकि ये काम को जान-बूझकर कभी पूरा होने देंगे ही नहीं। और ये ख़ुद से भी चोरी कर रहे हैं, क्योंकि दिन भर काम में लगे रहने के कारण न इनका कोई आत्मज्ञान होगा, न कोई आत्मविकास होगा।

जब तुम दिन भर बैठकर के सिर्फ़ कुर्सी गरम कर रहे हो, तो तुम्हारा अपना अन्य दिशाओं में विकास कैसे होगा, बताओ तो। कर्म का मतलब क्या होता है? कि कर्म का मतलब होता है बस कुर्सी पर जो काम किया था वही कर्म होता है? आप सड़क पर दौड़ने निकल गये हो और चार किलोमीटर दौड़कर आ रहे हो ये कर्म कैसे नहीं है, बताना ज़रा। या कर्म सिर्फ़ तब है जब उसमें से पैसा मिले? कर्म सिर्फ़ तब है जब पैसा मिले?

इस शताब्दी, पिछली शताब्दी दोनों का जो सबसे अच्छा कलात्मक माध्यम रहा है वो है मूवीज़ (फ़िल्में), ठीक? उसमें बहुत कुछ आ जाता है, बहुआयामी होती हैं वो, और दुनिया में कुछ नहीं तो सब भाषाओं की मिला दो तो कम-से-कम दो-चार सौ मूवीज़ तो ऐसी होंगी जो हर शिक्षित आदमी को देखनी ही चाहिए। अगर आप वो नहीं देख रहे हो तो उससे आपमें कुछ कमी छूट जाएगी, अगर आप वो मूवी देख रहे हो तो वो कर्म नहीं है क्या? या कर्म सिर्फ़ तब है जब आप बैठकर कीबोर्ड पर काम कर रहे हो? कर्म सिर्फ़ तब है जब गिना जा रहा है कि ऑफ़िस में कितने घंटे लगाये? बोलो।

आप वो मूवीज़ क्यों नहीं देख रहे हो? क्योंकि आप चोर हो, ये आप ख़ुद के ख़िलाफ़ चोरी कर रहे हो। और याद रखो जब कोई काम चार घंटे का हो और चौदह घंटे में किया जाए, तो उससे वो काम और बेहतर नहीं हो जाता, बहुत ख़राब हो जाता है। ये बात ग़ौर से सुनेंगे तो ही समझ में आएगी। जो काम चार घंटे का होता है जब चौदह घंटे में किया जाता है, तो इससे ये नहीं होता कि वो और बेहतर हो गया, वो और ख़राब हो जाता है।

पूड़ी तली है कभी?

(श्रोतागण हँसते हुए)

समझ गये?

जो चीज़ एक मिनट में बाहर आ जानी चाहिए थी अगर वो पन्द्रह मिनट में बाहर आयी है, तो क्या होगा? जो कॉल एक मिनट की होनी चाहिए थी वो पन्द्रह मिनट गयी है तो क्या होगा? कह रहे हैं, ‘मेहनती बहुत हूँ मैं।’ जो एडिटिंग (सम्पादन) आधे घंटे में होनी चाहिए थी, पूरे दिन में पाँच मिनट की हुई है तो क्या होगा?

ये हमने बहुत ग़लत मूल्य बना रखा है कि जो आदमी ज़्यादा घंटे कुर्सी गरम करता है वो बेहतर आदमी है। इज़्ज़त उनको दो जो चार घंटे का अगर काम था तो पौने चार घंटे में कर दे और बोले, ‘सब निपट गया, बताइए।’ ये आदमी काम जानता है। इस आदमी के पास जीवन में एक सार्थक व्यस्तता है, सार्थक व्यस्तता। ये आदमी कह रहा है, ‘चार बजे के बाद मेरा अपनेआप से वादा है कि मैं रोज़ कम-से-कम पच्चीस पन्ने पढ़ता हूँ। मुझे मेरी किताब पूरी करनी है, मुझे खेलने जाना है, मुझे घूमने जाना है।’

हर तरफ़ फूल लगाने हैं न। कितना अजीब सा पौधा होगा, सोचो, एक इतना लम्बा पौधा है और उसमें एक तरफ़ एक डाल है, उस पर फूल ही फूल लगे हुए हैं और बाक़ी मामला झाड़। कैसा अजीब लगेगा!

‘क्या हुआ? क्या कर रहे?’

‘अभी पूड़ी तल रहे हैं।’

‘अरे! पूड़ी जल कोयला भई, कोयला जल भया राख। पूड़ी तलना बन्द कर, उठ यहाँ से भाग।’

(सभी हँसते हैं)

बाहर लगे हुए हैं, लगे हुए हैं, लगे हुए हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होना है, हमारी सब समस्याएँ मूलतः आन्तरिक होती हैं। जब तक आप आन्तरिक समस्या को अभिस्वीकृति नहीं देंगे, उसे एकनॉलेज नहीं करेंगे, तब तक बाहर आप कितना हाथ-पाँव चला लो, उससे बहुत फ़र्क पड़ेगा नहीं। और हम ढीठ इतने होते हैं कि भीतरी झूठ को बचाने के लिए कितना भी बाहरी श्रम कर सकते हैं। हम मेहनत करते-करते दम तोड़ सकते हैं।

इतना तो मेहनती होता है आदमी। वो मेहनत नहीं है, वो ढिठाई है, गधे जैसी ढिठाई। गधा बहुत ढीठ होता है। मैंने ट्रैफ़िक जाम लगा देखा है, सड़क के बीच में खड़ा हो गया था। हटने को तैयार नहीं है, और हिल भी नहीं रहा है, जैसे गधे की मूर्ति खड़ी कर दी हो सड़क के बीचों-बीच। हॉर्न मार लो, कुछ कर लो। अन्त में पिटा तो हटा। समझ में आ रही है बात?

ये जो आम आदमी को इतनी मेहनत करते देखते हो ज़िन्दगी भर, तुम्हें क्या लगता है सचमुच इस मेहनत की ज़रूरत है? ये कोई अर्जुन वाला श्रम है कि कुरुक्षेत्र में लड़ाई हो रही है, धर्मयुद्ध लड़ रहा है, इसीलिए पसीना बहा रहे हैं और खून बहा रहे हैं? नहीं, कुछ नहीं। जो आम आदमी मेहनत करता है, ये क्या है? ये बस ये है कि असली लड़ाई नहीं लड़ूँगा, नकली लड़ाई में बताओ कितनी मेहनत करनी है, सारी मेहनत कर लूँगा। वो सारी मेहनत एक तरह से अस्तित्व को घूस देने जैसा है।

‘देखो मेरी भीतरी चोरी का पर्दाफ़ाश मत करना, मैं रोज़ तुमको घूस दूँगा मेहनत कर-करके। बस जो भीतरी स्थिति है वो अनावृत नहीं होनी चाहिए।’ लगे हुए हैं बाहर मेहनत करने में, करने में, करने में। क्या बोल रहे हैं? कि कर्तव्य निभा रहे हैं, ज़िम्मेदारियाँ निभा रहे हैं। अब अन्दरूनी बात ये है कि तुम्हारे सब कर्तव्य फटे हुए हैं, पर तुम्हारा अहंकार आश्रित है उन कर्तव्यों पर। तुम अपनेआप को कर्तव्यनिष्ठ कहलाना चाहते हो।

अहंकार अपनेआप को कहना चाहता है, ‘मैं कर्तव्यनिष्ठ अहंकार हूँ।’ उसे जीने के लिए किसी-न-किसी से तो जुड़ना पड़ता है न, तो किससे जुड़ गया है भीतर? कर्तव्यों से जुड़ गया है, ‘मैं कर्तव्यशील हूँ।’

अब भीतर अगर अपनेआप को कर्तव्यनिष्ठ घोषित करोगे, तो बाहर तो फिर दिन भर अपने फ़ालतू के कर्तव्यों के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करोगे-ही-करोगे; और कर रहे हैं मेहनत, कर रहे हैं मेहनत। इन दिनों आप सड़क पर निकलकर दिखा दीजिए, ख़ासकर शाम को छः से दस बजे तक। यहाँ ये शहर तो फिर भी थोड़ा सा ठीक है, आप नोएडा की तरफ़ जाकर दिखा दीजिए, क्या मेहनत चल रही है! यहाँ से वहाँ पहुँचने में, चार किलोमीटर की दूरी तय करने में आपको एक घंटे से अगर कम लग जाए तो बात करिएगा।

‘हम मेहनतकश लोग हैं।’ नहीं, अच्छी बात है मेहनत करना, बहुत अच्छी बात है, पर किसके लिए कर रहे हो? ये सारी मेहनत कहीं अस्तित्व को घूस देने जैसी बात तो नहीं है? ‘देखो, मेरी चोरी किसी को मत बताना मैं ज़िन्दगी भर कमा-कमाकर तुम्हें खिलाऊँगा, बस किसी को बताना मत कि भीतर से फटा हुआ हूँ।’

बात समझ रहे हो?

सत्यनिष्ठा, ईमानदारी की बहुत कमी रहती है। उसके बिना हम ख़ुद को पूरा-पूरा झाँसा दिये जाते हैं। सबको ऐसे दिखाये जाते हैं जैसे हम किसी सार्थक काम में लगे हुए हैं। जबकि जो काम हम कर रहे हैं, वो वास्तव में भीतर की निरर्थकता की अभिव्यक्ति मात्र होता है। जितनी मेहनत हम अपने झूठों पर पर्दा डालने के लिए कर लेते हैं, उसकी आधी, तिहाई, चौथाई मेहनत भी अगर हम अपने झूठ को मिटाने के लिए कर लें, तो हमारा भी जीवन सार्थक हो जाएगा और दुनिया में जितनी बाहरी समस्याएँ हैं, वो भी हल हो जाएँगी। नुक़सान का सौदा है, जहाँ गन्दगी है उसको पड़े रहने देना और बस उस गन्दगी के प्रभावों की सफ़ाई करते रहना। नुक़सान का सौदा है, अस्तित्वगत तल पर भी और आर्थिक तल पर भी।

बात समझ रहे हो?

आपके मोहल्ले में एक कूड़े का ढेर हो, खाली प्लॉट पड़ा था, उस पर सब कूड़ा लाकर डालते हैं। कूड़ा ही है, कुछ नहीं बस कूड़ा, दो कौड़ी का कूड़ा। लेकिन उस कूड़े के कारण वहाँ पर तमाम तरह के मक्खी, मच्छर, कीड़े और बीमारियाँ और जीवाणु ये सब अपना पनपने लगे हैं, और मोहल्ला पड़ने लगा है एकदम बीमार। तो मोहल्ले वालों ने सभा की और खूब-खूब पैसे जोड़े, इकट्ठा करे और एक बड़ा भारी अस्पताल मोहल्ले में बनवाने में जुट गये। ये है आम ज़िन्दगी।

स्टेट ऑफ़ द आर्ट फैसिलिटीज़ (आधुनिकतम सुविधाएँ), विदेशी उसमें डॉक्टर होंगे। जो एकदम कटिंग-एज़ रिसर्च (अत्याधुनिक अनुसन्धान) से मोस्ट मॉडर्न मेडिसिन (सबसे आधुनिक चिकित्सा) होगी वो वहाँ लायी जाएगी। ये पूरी व्यवस्था रहेगी। एम्बुलेंस (रोगी वाहन) भी मर्सिडीज़ की होगी। मोहल्ले वाले बोल रहे हैं कि सब बेच देंगे, घर-द्वार बेच देंगे, मोहल्ला भी बेच देंगे, पर ये अस्पताल शानदार होना चाहिए। वो जो शव वाहन है, वो बीएमडब्ल्यू की है। पूरी मेहनत कर डाली, कई-कई करोड़ का अस्पताल खड़ा कर दिया, बस क्या नहीं किया?

श्रोता: कूड़ा साफ़ नहीं किया।

आचार्य: वो दो रुपये का कूड़ा था। लेकिन उस कूड़े के साथ कुछ जुड़ा होगा आन्तरिक झूठ, हो सकता है कोई धार्मिक मान्यता ही जुड़ी हो, कोई पुराना विश्वास जुड़ा हो, पुर्खों की भावनाएँ जुड़ी हों कि ये तो पुश्तैनी परम्परा रही है कि यहीं पर लाकर के अठारह पीढ़ियों से कूड़ा डाला जाता है तो इसको तो नहीं हटा सकते। वो कूड़ा हटाने में हज़ार, पाँच हज़ार लगता। कूड़ा हटाया जा सकता था, वहाँ एक बहुत सुन्दर बाग डाला जा सकता था।

हज़ार, पाँच हज़ार की जगह क्या किया है? अस्पताल खड़ा कर लिया है और उस अस्पताल को खड़ा करने से भी बीमारियाँ हट नहीं जाएँगी? अधिक-से-अधिक उपचार की व्यवस्था हो जाएगी। लेकिन उपचार कर भी लो तो बीमारी का कष्ट क्या पूरी तरह हट जाता है? और उपचार क्या कभी शत-प्रतिशत सफल होते हैं? तुम कितना भी उपचार कर लो, कुछ लोग तो मरेंगे ही। इससे कहीं बेहतर होता कि जो मूल कारण था, उसको हटा दिया गया होता।

मूल कारण नहीं हटाते, लेकिन अभी अस्पताल बनाया, इससे जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ जाएगा। ज़्यादातर हम जिसको आर्थिक तरक़्क़ी कहते हैं, वो ऐसी ही होती है। एक ऐसी चीज़ बनायी गयी है जिसकी वास्तव में कोई ज़रूरत नहीं थी, उससे भी जीडीपी बढ़ जाता है। आप बहुत-बहुत सारे हथियार बनाना शुरू कर दीजिए, हर शहर में हथियारों की फ़ैक्ट्री डाल दीजिए, जीडीपी बढ़ जाएगा। नशे की सामग्री आप खूब बनाने लगिए, बनाने ही नहीं लगिए, निर्यात करने लगिए नशे का, जीडीपी बढ़ जाएगा। कई देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्थाएँ चलती ही इसी पर हैं।

ओपियम इकोनॉमीज़ (अफ़ीम आधारित अर्थव्यवस्था) यही सब उगाते हैं, फिर उसकी प्रोसेसिंग (प्रसंस्करण) करते हैं और फिर उसको एक्सपोर्ट (निर्यात) करते हैं। और अर्थव्यवस्था उनकी फलती-फूलती है, कोई समस्या नहीं।

ये है आम ज़िन्दगी और आम तरक़्क़ी, जहाँ बाहरी सफलता पायी ही इसलिए जा रही है ताकि भीतरी विफलता किसी तरह छुपायी जा सके। और भीतरी विफलता की सफ़ाई कहीं ज़्यादा आसान काम था। वो जो कूड़े का ढेर है, उसको हटाना बहुत आसान काम था न, कि इतना बड़ा अस्पताल खड़ा करा वो ज़्यादा आसान काम है? क्या ज़्यादा आसान है?

श्रोतागण: कूड़े को हटाना।

आचार्य: पर नहीं हटाना है। वो भीतर है न कूड़ा, वो नहीं हटाना है। कूड़ा साबुत रहे और उस कूड़े के रहने के कारण बाहर खूब तरक़्क़ी करो। वो तरक़्क़ी मजबूरी है। जो पूरी फ़ार्मा इंडस्ट्री (दवाइयों का उद्योग) है, वो दुनिया की इकोनॉमी को बहुत बड़ा योगदान देती है। लोग बीमार न हों तो फ़ार्मा का क्या होगा? तो फिर दुनिया की अर्थव्यवस्था का भी क्या होगा? उसको तो झटका लग जाएगा। लोग अगर बीमार होना बन्द हो गये तो बड़ी समस्या हो जाएगी पूरी फ़ार्मा इकोनॉमी को, और लोग जितने ज़्यादा बीमार होंगे, उनको उतना ज़्यादा फ़ायदा होगा।

ये कोई बहुत गौरव की बात नहीं है कि आप बहुत मेहनती आदमी हो। मेहनत बाद में आती है, ईमानदारी पहले आती है। ईमानदारी आपको वो जगह बताएगी और वो दिशा बताएगी जिस जगह और जिस दिशा मेहनत करनी चाहिए। उसके बाद आप मेहनत कर रहे हो तब तो मेहनत में सार्थकता है, तब उस मेहनत का मूल्य है, तब उस मेहनत में गौरव है।

और सारी मेहनत अगर अपने भीतरी झूठ को बचाने के लिए की जा रही है, तो लानत है ऐसी मेहनत पर। और दुनिया के ज़्यादातर लोग बहुत-बहुत मेहनत कर रहे हैं। इतनी मेहनत तो करते हैं, मनुष्य अकेला प्राणी है जो गधे से ज़्यादा मेहनत करता है। बाप रे! कितनी मेहनत करते हैं!

बहुत सारे लोग अभी भी घर नहीं पहुँचे होंगे अपनी दुकानों से, अपने दफ़्तरों से। रात के ग्यारह से ऊपर हो रहा है, अभी भी घर नहीं पहुँचे होंगे। ये नहीं कि आवश्यक रूप से वो अपने भी ऑफ़िस में ही हैं, हो सकता है ऑफ़िस से आठ-नौ बजे निकल भी गये हों। जब क़िस्मत अच्छी होती है तो ऑफ़िस से आठ-नौ बजे निकलने को मिल जाता है। पर घर वो अभी भी नहीं पहुँचे होंगे, कितनी मेहनत! किसलिए इतनी मेहनत? तुझे क्या मिल रहा है उसमें? बस एक चीज़ मिल रही है, क्या? पर्दा भीतर फटा हुआ है और फटे का पर्दाफ़ाश नहीं होता। बस यही होता है।

जो लोग ये भी बोलते हैं कि हम आठ-आठ, दस-दस घंटे मेहनत करते हैं, आप वहाँ भी देखिएगा तो आप पाओगे कि अगर वो दस घंटे काम कर रहे हैं, और दस घंटे घुट-घुटकर काम कर रहे हैं, तो वो दस घंटे का नर्क उन्होंने अपने लिए ख़ुद तैयार करा है। वो जो दस घंटे का काम है वो वास्तव में है चार-ही-पाँच घंटे का, पर उसको दस घंटे खींचकर वो अपने काम को अपना नर्क बना लेते हैं। और क्यों उसको दस घंटे खींचते हैं? क्योंकि अगर चार-पाँच घंटे में काम निपटा लिया तो ज़िन्दगी इतना बड़ा एक यक्ष प्रश्न लेकर खड़ी हो जाएगी, क्या? कि वो जो शेष समय है उसमें करना क्या है?

और शेष समय में क्या करना है, इसका हमारे पास कोई जवाब होता नहीं तो हम ख़ुद को झूठ बोलते हैं कि हमारे पास करने के लिए बहुत सारा काम है। 'मेरे पास दिन में बारह घंटे का काम है।' बारह घंटे का काम है ही नहीं वो, सच पूछो तो वो चार घंटे का है, वो पाँच घंटे का है। तुम उसको जान-बूझकर खींचते हो अपने भीतरी झूठ को बचाने के लिए।

अगर समय पर काम पूरा हो गया तो ज़िन्दगी तुमसे पूछेगी, ‘अच्छा बताओ फिर जिम क्यों नहीं जाते?’ अभी तो तुम्हें एक बहाना मिला हुआ है, ‘जिम इसलिए नहीं जाता क्योंकि काम बहुत है।’ काम उतना है नहीं। जिस दिन काम समय पर निपट गया, उस दिन बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी आपको। ज़िन्दगी पूछेगी, ‘इतनी सारी किताबें बची हुई हैं पढ़ने को, पढ़ते क्यों नहीं अभी?’ क्या झूठ बोल देते हो तत्काल? ‘काम बहुत है।’

और काम अगर सही समय पर निपटा लिया तो फिर क्या जवाब दोगे अपनेआप को? ‘किताब क्यों नहीं पढ़ी? इतनी जगहें हैं जहाँ जाना चाहिए, समझना-सीखना चाहिए, वहाँ कभी गये क्यों नहीं? कुछ खेला क्यों नहीं? शरीर क्यों नहीं ठीक किया? बनाया क्यों नहीं सेहत को?’ क्या जवाब दोगे?

तो इससे अच्छा अपनेआप को झाँसा दो, 'काम इतना ज़्यादा है, बारह-बारह घंटे काम करना पड़ता है।' पर कहाँ, कैसे? तथ्य और आँकड़े तो कुछ और प्रमाणित कर देंगे। तो हमें उनको भी नहीं देखना है — 'मैं बोल रहा हूँ न काम बहुत है, तो है।'

और फिर इसीलिए ग़ैर-ज़रूरी काम चालू होते हैं। ब्रिटेन में सर्वे हुआ था हाल में, वहाँ पर लगभग चालीस प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो ख़ुद जानते हैं कि वो जो काम कर रहे हैं वो ग़ैर-ज़रूरी है, वो काम बन्द भी कर दिया जाए तो कोई बहुत फ़र्क पड़ना नहीं है। पर वो काम हो रहा है। जब औद्योगिक क्रान्ति हुई थी तो उससे ये माना गया था कि अब इंसान को काम करने की ज़रूरत बहुत कम हो जाएगी। जो आपका लेज़र टाइम (खाली समय) है, वो बहुत बढ़ जाएगा, क्योंकि काम कौन कर लेगा? मशीनें कर लेंगी। तो इंसान को अब आराम मिलेगा। उल्टा हुआ है।

फिर यही उम्मीद की गयी जो इन्फ़ॉर्मेशन एक्सप्लोज़न (सूचना विस्फोट) हुआ, उसके बाद कि इंटरनेट और इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (सूचना प्रौद्योगिकी) के बाद अब बहुत सारा जो काम है वो रिडनडेंट (अनावश्यक) हो जाएगा और आदमी को अब आराम मिलेगा। और अब उसके लगभग तीस वर्ष बाद वही उम्मीद की जा रही है आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस (कृत्रिम बुद्धिमता) से, कि बहुत सारा काम जो है वो हटेगा और आदमी आराम पाएगा।

ये हम जो उम्मीद कर रहे हैं, ये हर बार झूठी साबित होती है। जो हम उम्मीद कर रहे हैं, वो स्टीम इंजन (वाष्प यन्त्र) नहीं पूरा कर पाया, इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) नहीं पूरी कर पायी, इंटरनेट नहीं पूरा कर पाया, और अब एआई भी पूरी नहीं कर पाएगी, क्योंकि हम काम इसलिए करते ही नहीं है कि वो काम ज़रूरी है।

अगर काम सचमुच ज़रूरी होता तब तो वो रोबोटिक्स के आने से हट जाता न। भई, काम था, उतना ही काम था, ज़रूरी काम था। ज़रूरी था इसीलिए किया करते थे। अब मेरी मदद के लिए आ गया एक इंटेलीजेंट रोबो (बुद्धिमान रोबो) और अब उसने मेरा काम ले लिया है, तो अब मुझे क्या मिल गया? (समय)

‘साहब, काम भी पूरा हो रहा है, जो प्रोडक्टिविटी (उत्पादकता) चाहिए थी मिल रही है, सब हो रहा है और मेरे को खाली समय भी मिल गया।' ठीक? कोई दिक्क़त नहीं। पर ऐसी नीयत ही कहाँ है? काम हम इसलिए कर ही नहीं रहे थे कि काम ज़रूरी था, काम हम इसलिए कर रहे थे क्योंकि बाहर का काम करके हमें भीतर से भागना था। बाहर बारह-बारह घंटे काम करना इसलिए ज़रूरी था ताकि भीतर की ओर देखने के लिए एक भी घंटा मिले ही नहीं।

तो रोबो आ जाए कि कोई आ जाए, साक्षात् परमपिता परमेश्वर उतर पड़ें, हम तब भी बारह-चौदह घंटे काम करने को मजबूर रहेंगे। नहीं किया काम तो मर जाएँगे, विक्षिप्त हो जाएँगे। अपना आर्तनाद सुनना पड़ेगा भीतरी, बर्दाश्त नहीं होगा। अभी तो अपनेआप को बहलाये-फुसलाये रहते हैं कि काम है, काम कर रहे हैं।

जिस आदमी को देखो कि वो अपना काम पूरा करना चाहता ही नहीं है, जान लो वो गहरे भीतरी झूठ में जी रहा है। आपको अगर भीतरी बहुत बेईमान आदमी की तलाश करनी हो तो उस आदमी को देखना है जो चार घंटे का काम चौदह घंटे में करता है। ये ऐसा प्रदर्शित करना चाहता है जैसे सारी समस्या बाहर है। ये दिखाना चाहता है कि भीतर तो सब ठीक-ठाक है। और अगर समय मिल गया तो भीतर देखने को मजबूर हो जाओगे। तो ये अपनेआप को समय देता ही नहीं है।

इसकी ज़िन्दगी की पहचान होगी कि ये अपने काम में हर समय घुसा रहता होगा, इसका काम कभी पूरा नहीं होता होगा। इसके काम की गुणवत्ता भी बहुत औसत सी रहती होगी और काम के अलावा इसकी ज़िन्दगी में कुछ होता नहीं होगा। सेहत, स्वास्थ्य, पढ़ाई-लिखाई, भ्रमण-रमण कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। जिसको आप कहो क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़ (जीवन की गुणवत्ता) वो इसकी ज़ीरो होगी बिलकुल। और इसका काम भी बाहर कभी पूरा होता नहीं होगा। और जब बाहर काम पूरा नहीं होता होगा, तो ये पूरा दोष किसको देता होगा? ‘ये बाहर की दुनिया इतनी ज़ालिम है, शोषण होता है, काम नहीं पूरा होता। क्या कहें कितना काम है! काम बहुत है।’

काम बहुत है या बेईमानी बहुत है? काम ज़्यादा है या काम पूरा न करने की ठान रखी है?

आप क्या सोचते हो, आदमी परेशान हो जाता है जब काम बहुत ज़्यादा होता है? नहीं, काम का ज़्यादा होना एक तल की परेशानी हो सकती है, पर बड़ी-से-बड़ी परेशानी, थर्रा देने वाली परेशानी होती है कि काम पूरा हो गया है, अब क्या करूँ। ‘अब क्या करूँ?’ जीवन की निरर्थकता सामने खड़ी हो जाती है। ‘क्या करूँ? किधर को देखूँ? कहाँ जाऊँ? निस्सार जीवन, खाली, सुना, बंजर, श्मशान! अब क्या करूँ?’

‘काम पूरा नहीं हुआ है अभी। कौन कह रहा है काम पूरा हो गया?’

रिसर्च (अनुसन्धान) बताती है, 'लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ का सिद्धान्त सुना होगा आपने, सुना है? कि जो आख़िरी पाँच प्रतिशत काम होता है, वो बहुत ज़्यादा समय लेता है। बोलते हैं, लास्ट माइल (अन्तिम मील) चलना हमेशा बहुत मुश्किल होता है। 'लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ टेलीकॉम (दूरसंचार) में भी चलती है, इलेक्ट्रिसिटी (विद्युत) में भी चलती है। मान लीजिए आपने पॉवर प्लांट में बिजली का उत्पादन भी कर दिया, मान लो वहाँ बदरपुर में पॉवर लगा है, वहाँ उत्पादन हो गया और वहाँ से आप खींच भी दोगे पूरा ट्रांसमिशन (संचरण), तो भी जो सबसे मुश्किल काम होता है, वो होता है कि बिलकुल खम्भे से उपभोक्ता के घर तक बिजली पहुँचाना।

मान लो प्लांट और जिसके घर आप गाँव में बिजली ले जाना चाहते हो, उनमें दो-सौ मील की दूरी है। एक-सौ-निन्यानवे मील तक बिजली ले जाना आसान है, वो जो लास्ट माइल है वो बहुत मुश्किल होता है। वो हो ही नहीं पाता कभी। एक-सौ-निन्यानवे मील तक बिजली हो सकता है ले आओ छः महीने के अन्दर-अन्दर, पर वो जो आख़िरी मील है उसमें अभी डेढ़ साल और लग जाएगा। यही काम, यही चीज़ आप दफ़्तरों में पाते हो कि जो आख़िरी पाँच प्रतिशत काम होता है, वो सबसे ज़्यादा समय लेता है। वो समय सबसे ज़्यादा लेता नहीं है, वहाँ पर आकर हम रुक जाते हैं।

मान लो आपको सौ इकाई, हंड्रेड यूनिट्स काम करना था, पिचानवे हो गया और पिचानवे तक तो आ गये एक गति के साथ और पिचानवे पर आते ही ब्रेक लगाना ज़रूरी हो जाएगा, क्यों? अरे ख़त्म हो जाएगा, भई! फिर क्या करूँगा! तो पिचानवे पर आकर रुक जाओ।

आप उससे आकर पूछोगे, ‘कितनी देर का काम बचा है?’ आप छः बजे जाकर पूछोगे, वो कहेगा, ‘काम तो सारा निपट गया पाँच मिनट का ही बचा है। आप साढ़े आठ बजे जाओगे, वो अभी भी बैठा होगा, आप कहोगे, ‘छः बजे तूने कहा था पाँच मिनट का बचा है तो अभी भी क्यों बैठा है?’ उसके पास कोई जवाब नहीं होगा। जवाब इसलिए नहीं है क्योंकि आत्मज्ञान नहीं है। बात ये नहीं है कि काम ज़्यादा था, बात ये है कि काम अगर निपट गया तो जियोगे कैसे।

काम अगर निपट गया तो ज़िन्दगी में कुछ सार्थक करना पड़ेगा और ज़िन्दगी में कुछ अगर सार्थक करना है तो अपनी आदत को और अहंकार को चुनौती देनी पड़ेगी, वो नहीं देनी। इससे कहीं अच्छा है कि बाहर के काम में मेहनत करते रहो, करते रहो, करते रहो। पाँच मिनट का काम है, लेकिन छः से साढ़े आठ बजा दिया, वहीं बैठे हुए हैं। इतनी घिसी कुर्सी कि कुर्सी में आग लग गयी। उठ जाओ, हो गया, क्या कर रहे हो!

बाहरी काम भीतरी खालीपन की भरपाई नहीं कर पाएगा, नहीं कर पाएगा। और जब आप भीतर से आनन्दित होते हो तो भीतर का आनन्द बाहर का काम बन जाता है। वो काम फिर बोझ की तरह नहीं होता। वो काम फिर कभी एकांगी या एक आयामी भी नहीं होता।

जड़ें स्वस्थ होती हैं तो कभी आपने वृक्ष को सिर्फ़ एक दिशा में बढ़ते हुए देखा है क्या? ऐसा कौनसा आपने पेड़ देखा है कि जिसकी जड़ें तो स्वस्थ हैं एकदम, पर वो पत्ती, डाली, फूल बस एक तरफ़ को देता है और बाक़ी तरफ़ वो बिलकुल एकदम मुरझाया, सूखा है। ऐसा होता है? जब जड़ें स्वस्थ होती हैं तो वृक्ष में कितनी दिशाओं में फूल लगते हैं? कितनी दिशाओं में?

श्रोता: चारों दिशाओं में।

आचार्य: इसी तरीक़े से जब भीतर पूर्णता होती है, आनन्द होता है, वो होता है जिसको हम थोड़ी देर पहले कह रहे थे ईमानदारी, तो जीवन के वृक्ष में हर तरफ़ आप पाते हो कि पुष्प हैं और पल्लव हैं। नयी-नयी चीज़ें हो रही हैं जैसे एक स्वस्थ पेड़ में नये-नये पल्लव और कोपल फूटते हैं। क्या मुलायम हरे-हरे, नये-नये और पुराने फूल टँगे रहते हैं उसमें, कितने तरीक़े की चीजें होती हैं! सर्वांगीण विकास होता है न उस वृक्ष का।

और सर्वांगीण का क्या मतलब होता है? कि काम तो चलेगा, क्योंकि भीतर अगर आनन्द है तो वो चौबीस घंटे आनन्द अपनेआप को सार्थक कर्म के रूप में अभिव्यक्त तो करेगा। भीतर की पूर्णता बाहर का कर्म न बने, ये तो सम्भव है नहीं बिलकुल। पर बाहर का वो कर्म भी तो बहुआयामी होगा न। बाहर का कर्म क्या ये होगा कि चौबीस घंटे फ़ाइल घिसते हो बस? ये कौनसा पेड़ होता है कि उसमें बस फ़ाइल की दिशा में फूल लगते हैं?

कोई वजह है न कि हम अपने सब अवतारों को बहु-कला प्रवीण दिखाते हैं। श्रीकृष्ण को हम पूर्णावतार बोल देते हैं, क्या बोलकर? कितनी कलाओं में थे? सारी (चौसठ-की-चौसठ) कलाएँ उनमें मौजूद थीं। या ये होता है कि भई, एक कला में वो अत्यधिक निष्णात थे? ऐसा होता है क्या? पूर्णावतार होने का मतलब होता है एक कला में वो पूरी तरह दक्ष थे, पूर्ण दक्षता एक कला में, क्या ये पूर्णावतार कहलाएँगे? बिलकुल नहीं। सब कलाएँ।

तो जो भीतर सच्चाई होती है, वो जीवन में बहुविध नृत्य सा बनकर अभिव्यक्त होती है। समझ रहे हो बात को? ये वो व्यक्ति होता है फिर जो गीता भी सुना सकता है और बाँसुरी भी बजा सकता है। जो चक्र भी चला सकता है और नृत्य भी कर सकता है। जो जब उपदेश भी देता है तो उपदेश ही गीत बन जाता है। वो सिर्फ़ बोलता नहीं है, वो गाता है। वो सिर्फ़ गाता नहीं है, वो बाँसुरी भी बजाता है। वो सिर्फ़ बाँसुरी नहीं बजाता है, वो फिर नाच भी जाता है। या वो ये बोलता है कि अभी काम बहुत है, बाक़ी चीज़ें नहीं हो सकतीं?

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