आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मूर्ति व अन्य धार्मिक प्रतीकों का महत्व
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
28 मिनट
275 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आखिरी सवाल है। वह यीशु मसीह के शूली चढ़ने को लेकर, उस विषय पर है। सवाल बिलकुल वह नहीं है पर वो जिस परिवेश में है, उस परिवेश के बारे में मैं आपसे जानना चाहूँगा। ईसाईयों में, या जो लोग यीशु मसीह को या ईसाई धर्म को भी मानते हैं, उनमें प्रतीकात्मक तौर पर जो सबसे उपयुक्त चिन्ह है जो अभी ज़िंदा है वो है — क्रॉस * । और उसका क्या * सिम्बॉलिज़म (प्रतीक) है उसपर चर्चा करना उतना अहम नहीं है पर मैं आपसे सुनना चाहूँगा कि सिम्बॉलिज़म का क्या महत्त्व है?

क्या ऐसा है कि उस क्रॉस के माध्यम से ही, उस क्रॉस पर ही टिक कर यशु मसीह हमारे साथ अभी तक ज़िंदा हैं? और क्या ऐसा है कि जो शिव जी की जो मूर्ति यहाँ पर रखी हुई है, हिन्दू आस्था के अनुसार ये सिर्फ मूर्ति नहीं है, ये शिव जी हैं। आपने भी किसी जगह कहा है कि — "मूर्ति तुम्हें दिख रही है, मुझे तो साक्षात शिव दिख रहे हैं।"

जैसा समाज बन रहा है, इन मूर्तियों को सीधे तरीके से किंडर गार्टन नॉनसेंस (बच्चों की बातें) लेकर इन्हें रिजेक्ट (अस्वीकार) कर दिया जा रहा है। सिम्बॉलिज़म की क्या अहमियत है, न सिर्फ धर्म में बल्कि राजनीती में? क्योंकि अभी एक बहुत ही हीटेड पोलिटिकल (गर्म राजनैतिक) मुद्दा है कि सरदार बल्लभ भाई पटेल की जो स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाई जा रही है, उसको एक नज़रिए से देखें तो एक बहुत ही हीटेड पोलिटिकल डिबेट है कि "क्या है, पैसा कहाँ से आ रहा है, कहाँ जा रहा है।"

पर अगर हम उसको, आज की जो पूरी चर्चा है उसके परिवेश में देखें, तो धर्म के लिए और समाज के लिए भी प्रतीकों का होना क्यों ज़रूरी है? क्या प्रतीकों के खत्म होने से, जो बात प्रतीकों के पीछे छुपी हुई है, उनके खत्म होने का भी खतरा है?

आचार्य प्रशांत: ये जितने लोग हैं जो बताते हैं कि "मूर्ति या प्रतीक बिलकुल बेकार की बातें हैं।" — तुमने कहा — " किंडर-गार्टन-नॉनसेंस ", अगर ये किंडर-गार्टन नॉनसेंस है तो उसी किंडर-गार्टन में तुम्हारा जो बच्चा पढ़ता है, उसकी तस्वीर तुम अपने जेब में लिए क्यों घूमते हो?

मूर्ति और तमाम तरह के प्रतीक अगर बचकानी बातें हैं, बाल बुद्धि हैं, तो तुम अपने बच्चे की तस्वीर सीने से लगाए क्यों घूमते हो? तस्वीर ही तो है, बच्चा थोड़े ही है। पर जड़ बुद्धि को साक्षात बात भी समझ में नहीं आती। अपने बच्चे से प्रेम है तो दस जगह उसकी फोटो चिपका देते हो। फोटो ही तो चिपकाई है, बच्चा थोड़े ही चिपका दिया। बच्चा पैदा हुआ था तो दस जगह उसकी तस्वीर ही भेजी थी न, या बच्चा भेज दिया था हर जगह?

आज बच्चा पैदा हुआ है कल उसकी फेसबुक प्रोफाइल बना दी, जानते हो न, ये होता है खूब। अब प्रोफइल की हर पोस्ट में क्या बच्चा बैठा है? तस्वीर ही तो लगाते हो? क्यों लगा रहे हो भाई? — क्योंकि बच्चे से प्रेम है।

जब प्रेम होता है न, तो तस्वीर बड़ी कीमती चीज़ हो जाती है। तुम्हें चूँकि सत्य से प्रेम नहीं, इसीलिए सत्य की मूर्ति से भी तुम्हें प्रेम नहीं। और ये मत कह देना कि सत्य की तो कोई प्रतिमा हो नहीं सकती, कोई मूर्ति हो नहीं सकती। साहब, जब प्यार होता है न, तो आदमी सब कुछ कर डालता है। मैं वाक्या सुनाए देता हूँ — मुश्किल से चालीस-पचास साल पहले की बात है — मेरी पहचान का एक गाँव है। तो वहाँ एक आयोजित विवाह हो रहा था (अर्रेंज मेर्रिज) और पुराने ढर्रे का गाँव। तो वहाँ पर ये कायदा नहीं था कि शादी से पहले दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे की शकल देखें, बिलकुल नहीं। तो घर वालों से विवाह तय कर दिया और ब्याह हो गया। न दूल्हे ने दुल्हन को देखा न दुल्हन ने दूल्हे को। ब्याह में भी नहीं देखा। अब गौना हुआ कई महीनों के बाद, जाने कई सालों के बाद। गौना जानते हो न — विदाई।

जब दुल्हन घर में आई, उसने पाया — पति चित्रकार था। और उसने एक के बाद एक किताबें भर रखी थीं — पत्नी के चित्रों से। ऐसी पत्नी के चित्रों से जो उसने कभी देखी ही नहीं थी। पत्नी से भी प्यार हो जाए तो उसकी शक्ल देखे बिना भी तुम उसके चित्र बना डालते हो। जिसे परमात्मा से प्यार हो जाएगा, वो परमात्मा की शक्ल देखे बिना भी क्या उसकी मूर्ति नहीं बना देगा? बोलो? पर, मूल मुद्दा है प्यार का। प्यार ही ना हो तो तुम्हें कौन समझाए कि शिव का भक्त शिव की मूर्ति में क्या देखता है। तुम्हें कौन समझाए?

हर वास्तविक भक्त को ये बात पता है कि ब्रह्म की कोई प्रतिमा नहीं होती। आत्मा अरूप होती है। सबको पता है ये बात। तो कोई आकर के बहुत ज्ञान न बघारे, कोई बहुत उपदेश न झाड़े कि "अरे! मूर्ति बना दी, बड़ा पाप कर दिया। जो अरूप है, जो निर्विशेष है, जो निराकार है तुमने उसको नाम दे दिया? प्रतिमा दे दी? मूर्ति दे दी? अमूर्त को मूर्त बनाया" — हटाओ ये ज्ञान। ये ज्ञान सबको पता है, सब जानते हैं, हमें भी ये पता है।

बात प्यार की है।

प्यार जब होगा तो तुम भी गीत लिखोगे और तुम भी तस्वीरें बनाओगे। तब तुम्हें समझ में आएगा कि मूर्ति बनाने वाले, मूर्तियाँ क्यों बनाते हैं। जिन्हें प्यार नहीं, जो बंजर हैं और सूखे हैं वो तो हँसेंगे ही मूर्तियों पर। और बिलकुल बात ठीक है। जितने आक्षेप वो लगाते हैं, वो सारे आक्षेप ठीक हैं। वो कहते हैं — "साहब, मूर्ति तो आदमी के मन की कल्पना है।" — बिलकुल है। पर प्यार भी तो इस मन को ही है न? आत्मा को तो प्यार होता नहीं? आत्मा किससे प्यार करेगी, आत्मा तो अद्वैत है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं। प्रेम होता ही किसको है, जब भी हुआ है?

प्रश्नकर्ता: मन को।

आचार्य: मन को ही हुआ है न? तो मन ही तो कल्पना करेगा न प्रीतम की? अब मन को प्यार हो गया, मन ने प्रीतम की कल्पना कर डाली, गुनाह कर दिया क्या? कैसे रोकेगा वो अपने आप को?— "दिल है कि मानता नहीं।" — मज़ाक की बात नहीं है।

प्र: तो क्या आप इस ओर इशारा कर रहे हैं कि जिन धर्मों में मूर्तिपूजा प्रचलित नहीं है, या जिन्होंने ईश्वर की या मसीहा की कल्पना करने से एक साधक को रोका है...

आचर्य: उन्होंने क्यों रोका है, मैं उसपर आता हूँ।

प्र: प्रेम पक्ष उनमें क्या कम है?

आचर्य: मैं आता हूँ उसपर।

तो अब एक ओर तो ये बात है कि अगर प्यार हो गया है तो तुम मन को रोक नहीं पाओगे कल्पना करने से। दूसरी ओर इस बात को भी समझना कि मैंने देखा है एक ऐसा वाक्या कि मियाँ-बीवी का हो गया था तलाक और बीवी साहिबा बच्ची को लेकर के अलग रहने लगीं। एक ही उनकी लड़की थी। बच्ची को लेकर के बीवी रहने लगी अलग। झगड़ा तगड़ा हुआ था। मियाँ साहब बीवी की शकल नहीं देखना चाहते थे। झगड़ा तगड़ा था। बच्ची से उनको प्यार बहुत था। बहुत प्यार था, लेकिन बच्ची रह रही है माँ के साथ। और माँ के प्रति कसम खाई है कि शकल नहीं देखेंगे। तो बच्ची की तस्वीर यहाँ सीने में लगाए घूम रहे हैं।

यही बात मैंने थोड़ी देर पहले भी कही थी, प्यार होगा तो तस्वीर तो लगा ही लोगे। पर यहाँ देखो, बात अलग हो गई न? बच्ची उसी शहर में रह रही है जिसमें ये रह रहे हैं। पर अकड़ पूरी है कि मिलने नहीं जाऊँगा। अकड़ पूरी है, मिलने नहीं जाऊँगा, "बच्ची से साक्षात नहीं मिल सकता, तो साक्षात मिलन का विकल्प किसको बना लिया? तस्वीर को।"

जब दिल में बहुत दर्द उठे, बड़ी पीड़ा उठे तो तस्वीर लेकर देखने लगें और रोए और कहे कि "इसको देखता हूँ तो लगता है कि बिटिया मिल गई।" किसी ने पूछा, "बिटिया से इतना प्यार है तो जाकर मिल क्यों नहीं आते?" बोले, "वो नहीं मिलेंगे। वो बात खुद्दारी की है। वो बात ज़मीर की है। मिट जाएँगे, झुक जाएँगे।" — "चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे, फिर भी लेकिन मैं नाम को तेरे, आवाज अब न दूँगा।"

"चाहूँगा तो तुझे साँझ-सवेरे" — लेकिन — "आवाज नहीं दूँगा", क्योंकि बात खुद्दारी की है।

"साहब हम भी कुछ हैं। हम भी कुछ हैं! चाहते तो तुम्हें बहुत हैं पर मिलने नहीं आएँगे।" अब क्या हुआ, अब वो तस्वीर क्या बन गई? विकल्प बन गई न? और इस बात का बड़ा अंदेशा रहता है कि तस्वीर असली चीज़ का विकल्प ही बन जाए। तो इस्लाम ने अगर मूर्तिपूजा का निषेध किया, तो इस कारण से किया। क्योंकि जिस माहौल में इस्लाम उतरा था, उस माहौल में लोगों की मूर्तियों से बड़ी आसक्ति थी। और वो मूर्तियों से ही आसक्त होकर रह गए थे।

काबा में जानते हो न, कितने पत्थर पड़े हुए थे। मोहम्मद साहब ने जाकर उन सब को हटाया। क्योंकि लोग पत्थरों के ही दीवाने थे। इससे तुम्हें समझ में आएगा कि आध्यात्म में मूर्ति का वास्तविक स्थान क्या है।

मूर्ति द्वार है अमूर्त का। मूर्ति इसलिए है ताकि मूर्ती के माध्यम से तुम अमूर्त तक पहुँच सको। पर अगर कोई ऐसा है जो मूर्ति से ही आसक्त हो गया, उसके लिए मूर्ति बाधा है। उसके लिए आवश्यक है कि वो मूर्ति को बीच से हटाए।

रामकृष्ण के साथ ऐसा ही था। परमहँस के जीवन का वो उल्लेख तो सब ने सुना ही होगा न? तो गुरु थे, तोतापुरी। सारी विद्याओं में सारे ज्ञान में रामकृष्ण निष्णात। लेकिन फिर भी कुछ बचा रह जाता था। गुरु ने कहा, "यही बचा रह जा रहा है कि तुम्हारे मन में अभी भी माँ की छवि विराजती है।" छवि माने मूर्ति। "तुम्हारे मन में अभी भी माँ की छवि विराजती है।" रामकृष्ण बोले, "इसको तो नहीं छोड़ सकता।" बोले (गुरु तोतापुरी), "इसको नहीं छोड़ोगे तो तुम्हारी मुक्ति भी नहीं होगी।"

रामकृष्ण बोले, "बताइए कैसे?"

गुरु ने बड़ा ही मार्मिक उपाय बताया। बोले, "आँख बंद करो।"

"करा।"

"क्या आ गया ज़हन में?"

"माँ आ गईं और कौन आएगा। हमारे मन में तो माँ..."

बोले, "माँ आ गईं? माँ को हटा दो।" रामकृष्ण बोले, "नहीं हटतीं।" बोले, "माँ को मार दो, हत्या कर दो।"

रामकृष्ण बोले, "क्या बोल रहे हैं! माँ को..." गुरु बोले, "मुक्ति चाहिए कि नहीं?"

"हाँ"

"ठीक, तो करो।"

फिर कहानी कहती है कि रामकृष्ण ने कहा, "अच्छा कैसे हटाऊँ, कैसे मारूँ?" बोले, "तलवार से काट दो।" बोले, "तलवार कहाँ से आएगी?" बोलें, "जहाँ से माँ आती हैं।" जहाँ से माँ आती हैं वहीं से तलवार भी ले आओ, तुम्हारे ही मन से तो माँ उठती हैं वहीं से तलवार भी उठा लो।

बोले, "अच्छा, आ गई। अब हाथ में तलवार है। पर मारा नहीं जा रहा। माँ जैसे ही सामने आती हैं, मैं भावविभोर हो जाता हूँ। मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ। कैसे मारूँ?"

तो एक उन्होंने (गुरु तोतापुरी ने) जाने काँच का टुकड़ा उठाया, जाने छुरी उठाई, बोले, "अगली बार अब तुम जैसे ही जाओगे समाधी में और माँ नाचेंगी, वैसे ही मैं तुम्हारे माथे पर ज़रा निशान करूँगा। चिरूंगा काँच से। और जिस वक्त मैं तुम्हारे माथे पर निशान करूँ ठीक उसी समय तुम तलवार चला देना।" प्रयोग सफल रहा, रामकृष्ण मुक्त हुए। समझना बात को। तो दोनों दृष्टिकोण हैं, अधिकांश हिन्दू मूर्तिपूजा करते हैं, कोई वजह होगी। इस्लाम ने मूर्तिपूजा वर्जित की, कोई वजह होगी। बुद्ध कह गए, "मेरी मूर्तियाँ मत बनाना!" कोई वजह होगी। बुद्ध के जाने के बाद उनके अनुयायियों ने मूर्तियाँ बनाई और पूजी, कोई वजह होगी। दोनों वजहें समझनी होंगी।

प्यार है तो मूर्ति बनेगी। रोक नहीं सकते। और इसीलिए, जिन पंथों ने, सम्प्रदायों ने मूर्ति पूजा का निषेध किया वहाँ भी किसी-न-किसी तरीके से मूर्तिपूजा चल रही है। क्योंकि प्यार है तो मूर्ति तो बनेगी। तुम जाओ सूफियों के पास, उनके कलाम को सुनो, उसमें साफ दिखाई देगा कि उसमें मूर्ति है। वो मूर्ति पत्थर की नहीं होगी। वो मूर्ति काठ की नहीं होगी। वो मूर्ति काल्पनिक है। पर उसमें है ज़रूर। जब तुम कह रहे हो, "ओ पिया!" तो मूर्ति बन गई कि नहीं बन गई?

तुम जाओगे ख़ुसरो साहब के पास, तुम जाओगे फरीद के पास। तुम्हें क्या लग रहा है वहाँ मूर्ति नहीं है? वहाँ निश्चित रूप से मूर्ति है। जब तुम कह रहे हो, "तू साकी है मेरा" तो मूर्ति हो गई कि नहीं हो गई?

प्यार है तो मूर्ति आएगी। तुम नहीं रोक पाओगे। सूफियों के यहाँ मूर्तियाँ हैं। मैं दावा नहीं कर रहा कि पत्थर की मूर्तियाँ हैं। ज़हन में मूर्तियाँ हैं।

भक्त को मूर्ति बनानी पड़ेगी। उसकी विवशता है।

दूसरी बात — भक्त को मूर्ति पर रुकना नहीं है। इस्लाम का इसपर ज़ोर है। कि, "रुक मत जाना मूर्ति पर। आगे बढ़ना।" क्योंकि हमने थोड़ी देर पहले कहा था मूर्ति बहुत बड़ा खतरा भी होती है। कि तुम मूर्ति ही पूजते रह गए। कह गए थे न कबीर साहब, "पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।"

देखा होगा उन्होंने कुछ तभी ऐसा कहा। क्या देखा उन्होंने? कि लोग पत्थर ही पूज रहे हैं, पत्थर से आगे ही नहीं बढ़ पा रहे हैं। अब बिना प्यार के पत्थर पूजोगे, तो आगे थोड़े ही न बढ़ पाओगे।

"तासे ये चाकी भली, पीस खाय संसार।" उन्होंने कहा है, "ये तुम्हारी मूर्तियाँ हैं? इनसे भली तो चक्की है। कम-से-कम चक्की की कोई उपयोगिता है। तुम्हारी इन मूर्तियों की कोई उपयोगिता नहीं, ये सिर्फ तुम्हें भ्रम में रखे हैं। हटाओ इन मूर्तियों को!" समझ में आ रही है बात?

तो तुम्हें दोनों ओर से बात को समझना पड़ेगा। प्यार हो तो मूर्ति से प्यारी चीज़ कोई नहीं। पर प्यार, याद रखना, तुम्हें कभी भी पत्थर के लिए नहीं होता है। पत्थर भी जब प्यारा लगे तो याद रखना है कि पत्थर का उपयोग करके पहुँचना कहीं और है। पत्थर पर ही अटक गए तो तुम तो बड़े पदार्थवादी हो गए। फिर तो भक्त से बड़ा भौतिकवादी दूसरा कोई नहीं। उसको सबसे ज़्यादा किससे प्यार है? उसने किसको अपना परमात्मा बना लिया? पत्थर को। पत्थर माने पदार्थ। समझ में आ रही है बात?

अब यही बात वो जो तुमने सरदार पटेल की प्रतिमा का मुद्दा उठाया उसपर लागू कर लो। अगर वो प्रतिमा अपने से किसी बहुत ऊँचे सत्य की ओर इशारा कर रही है तो भली है। और अगर वो प्रतिमा आदमी के अहंकार का ही केंद्र बन जाए, सम्बल बन जाए, तो उससे बुरा कुछ नहीं है। तो ये तो अब बनाने वाले की मंशा पर है। और मूर्ति के इर्द-गिर्द के माहौल पर है कि तुम उस मूर्ति को क्यों बना रहे हो और आगे उसका क्या उपयोग करने वाले हो। समझ में आ रही है बात?

तुम ये भी कह सकते हो कि "इतनी ऊँची मूर्ति है। दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति है। हमसे बड़ा कोई है? मूर्ति बहुत ऊँची है, मूर्ति बनाई किसने है? हमने! तो मूर्ति से भी ऊँचे कौन हुए? हम हुए।"

तो बहुत संभावना है कि वो मूर्ति और कुछ न हो, तुम्हरे अपने अहंकार का ही प्रतिबिम्ब हो। फिर तो ये मूर्ति बड़ी घातक सिद्ध होगी।

दूसरी ओर ये भी हो सकता है कि तुम कहो, "ये ऊँचाई समर्पित है उसको जो ऊँचे-से-ऊँचा है। चूँकि वो बहुत ऊँचा है, तो ज़ाहिर सी बात है कि उसकी मूर्ति को भी ऊँचा होना पड़ेगा न? हमने इसलिए मूर्ति ऊँची बनाई। हमारा बस चलता तो ये मूर्ति गगनचुम्बी होती। हमारा बस चलता तो ये मूर्ति साँतवे आसमान तक जाती। क्योंकि जिसको ये मूर्ति हम अर्पित कर रहे हैं, उसकी ऊँचाई का क्या कहना!"

अगर ये मूर्ति आज़ादी को समर्पित है, मुक्ति को समर्पित है, तो मुक्ति से ऊँचा तो कुछ होता ही नहीं। धर्म का आखिरी लक्ष्य है मुक्ति। तो फिर बिलकुल ठीक बात है कि तुमने ऊँची मूर्ति बनाई। पर ये तुम्हें अपने आप से बहुत ईमानदारी से पूछना पड़ेगा कि वो मूर्ति वास्तव में समर्पित किसको है, अहंकार को या मुक्ति को?

मुक्ति को समर्पित है; बहुत अच्छी बात है। अहंकार को समर्पित है; बड़ा बुरा हुआ।

प्र: जो कुछ वर्गों से ये जो तर्क आ रहा है कि ये समाज विरोधी है और उसपर है, क्योंकि आप खुद ही राजनीती में सक्रीय रहते हैं, इस रूप में कि आप खुद पढ़ते रहते हैं, लिखते रहते हैं, तो इस विषय में आप कुछ टिप्पणी करना चाहेंगे?

आचार्य: समाज विरोधी है, ये किस तौर पर है?

प्र: इस तरीके से है कि जितना संसाधन उस एक मूर्ति को बनाने में लग रहा है उस संसाधन से, पूरा तथ्य है कि वो संसाधन देश को उस तरफ ले जा सकता था।

* आचार्य: बात बिलकुल ठीक है। ये बात बिलकुल ठीक है कि अगर तुमने वो मूर्ति बनाई ही सिर्फ अपने मन को संतुष्ट करने के लिए है, अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए है तो उससे तो कहीं अच्छा होता न कि तुम उससे बच्चों को खाना दे देते, शिक्षा दे देते, इत्यादि, इत्यादि, इत्यादि। वो बात बिलकुल ठीक है। मैं बिलकुल सहमत हूँ।

लेकिन अगर वो मूर्ति ये दम रखती हो कि उसके होने से न जाने कितने बेईमान लोग अपनी बेईमानी से मुक्त हो जाएँगे। भ्रष्ट आदमी अपने भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएगा। क्षुद्र आदमी अपनी क्षुद्रता से मुक्त हो जाएगा। ईर्ष्यालु अपनी ईर्ष्या से मुक्त हो जाएगा तो फिर ये बताओ कि उस मूर्ति का बहुत बड़ा आर्थिक योगदान भी होगा या नहीं होगा?

पुराने समय में भी संतो को महात्माओं को, ऋषियों को, आश्रमों को क्यों राजा प्रश्रय देते थे? बात सिर्फ भक्ति की नहीं थी कि राजा ऋषिजनों को इतना आदर देते थे। और इतना भक्ति-भाव था कि वो उन्हें कभी भेंट दें, कभी चढ़ावा दें, कभी सम्मान दें। नहीं बात उतनी सी ही नहीं थी।

प्र: उनकी मौजूदगी से ही बहुत लोगों को लाभ होगा।

आचर्य: बिलकुल! कारण आर्थिक और पार्थिव भी थे। जहाँ संत मौजूद होता था, वहाँ कानून व्यवस्था पर किया जाने वाला खर्चा कम हो जाता था। जहाँ संत है, वहाँ चोरी-चाकरी कम हो जाती थी। कचहरी-मुक्कदमें कम हो जाते थे। आर्थिक लाभ हुआ कि नहीं हुआ? बोलो? जहाँ संत होता था वहाँ लोग एकाग्र होकर के और सही काम कर पाते थे। आर्थिक लाभ हुआ कि नहीं हुआ? चूँकि आर्थिक लाभ होता था इसीलिए उस आर्थिक लाभ का एक अंश जाकर के दान कर दिया जाता था, महात्माओं के आश्रमों को भी कि, "तुम्हारा आश्रम है तो इस आश्रम के कारण आसपास का सौ वर्ग-मील का क्षेत्र खुशहाल है, शांत है।"

प्र: सात्विक, सद्गुणी।

आचार्य: सात्विक हो रहा है, सद्गुणी हो रहा है, विकास हो रहा है, विज्ञान हो रहा है। लोग लड़-भिड़ कम रहे हैं। ईर्ष्या कम है, द्वेष कम है। बोलो? तो ये बात समझनी पड़ेगी कि एक ओर तो ये बात बिलकुल ठीक है कि आप अगर फ़िजूल खर्ची कर रहे हो, सिर्फ अपनी अहंता की तृप्ति के लिए कुछ कर रहे हो तो उससे कहीं अच्छा है कि तुम शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं पर ध्यान दे लो।

दूसरी ओर, अगर तुम खर्च इसलिए कर रहे हो क्योंकि तुम वाकई हार्दिक रूप से परमात्मा को कुछ समर्पित करना चाहते हो तो वो जो तुमने खर्च करा है, उसका फल तुम्हें कई गुना मिलेगा। बात को समझना। कोई जुए पर और शराब पर उड़ा रहा हो तो उससे ये बिलकुल कहा जाएगा कि, "इससे अच्छा ये है कि तुम इसको अपने घर की रोटी-पानी में लगा दो।" पर अगर कोई वाकई त्याग की भावना से, समर्पण की भावना से, मुक्ति को और शक्ति को अपने कुछ संसाधन अर्पित कर रहा हो, तो आप उसपर ये इलज़ाम नहीं लगा सकते कि, "तुमने फिजूलखर्ची करी है!" और फिर अफ्रीका के किसी देश में ये तर्क ज़्यादा उपयुक्त होता कि "तुम क्यों फिजूलखर्ची कर रहे हो?" आज के भारत के पास क्या संसाधनों की कमी है?

भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे, जिन्होंने कहा था, "एक रुपया चलता है जब केंद्र सरकार से, विभिन्न राजकीय योजनाओं में, तो सत्रह पैसे पहुँचते हैं लाभार्थी तक।" तिरासी पैसे कौन खा गया? पैसे की कमी नहीं है। तिरासी पैसे कोई बीच वाला खा रहा है। वो बीच वाला इसलिए खा रहा है, क्योंकि वो अधार्मिक है। अब क्या आवश्यक है, सत्रह पैसे को अट्ठारह पैसे करना या तिरासी पैसे की बात करना? किसकी बात करूँ मैं?

अगर मैं दो पैसे खर्च करके ये कर पाऊँ कि इस तिरासी पैसे का दस प्रतिशत भी बचने लगेगा तो बोलो, मैंने आर्थिक दृष्टि से भी ठीक काम किया कि नहीं किया? भारत के पास, रूपए-पैसे संसाधनों की कमी नहीं है। भारत के पास कमी है एक सही मन की। मुझे नहीं मालूम कि उस मूर्ति की स्थापना से मन में निर्मलता और शुद्धता आएगी या नहीं आएगी। पर हमें वाकई इस वक्त ज़रूरत है ऐसे उपायों की जो मन को ठीक कर सकें।

संसाधनों की कमी नहीं है। भारत के पास इतना है कि दूसरे देशों को कर्ज दे सकता है। घुन लगा हुआ है भारतियों के मन में। वो मन ठीक करना है। वो मन अगर मूर्ति की स्थापना से ज़रा भी ठीक होता हो तो मैं मूर्ति का समर्थक हूँ। पर अगर उसी भ्रष्ट मन से ये मूर्ति निकली है, तो मैं मूर्ति का समर्थक नहीं हूँ। तो ये बात बहुत बचकानी है कि उस मूर्ति को न बनाया होता तो इतने स्कूल बन जाते। अरे! स्कूलों के लिए क्या धन की कमी है? स्कूल तो बन जाते हैं, शिक्षक जाते हैं पढ़ाने? तुम कह रहे हो, "नए स्कूल बन जाते!" मुझे बताओ, पुराने स्कूलों में शिक्षक पढ़ाने जाते हैं?

जाकर देखो किसी ग्रामीण स्कूल को। वहाँ सरकार ने इतने स्कूल खोल रखें हैं, पढ़ाने वाला नहीं जा रहा है; ये समस्या वास्तव में धार्मिक समस्या है। क्योंकि धार्मिक आदमी कभी बेईमानी कर ही नहीं सकता कि वो स्कूल का शिक्षक है और वो पढ़ाने न जाए। समस्या मन के रोगी होने की है। समस्या धार्मिकता के ह्रास की है। उस समस्या को ठीक करो। पैसे की कमी नहीं है, धर्म की कमी है। लाओ धर्म जैसे भी ला सकते हो।

बात समझ में आ रही है?

सत्रह पैसे की बात मत करो। तिरासी पैसे की बात करो, कौन खा रहा है? उस तिरासी पैसे को अधर्म खा रहा है, माया खा रही है। तो अगर कुछ पैसा खर्च करके माया से हम लड़ सकते हों, अधार्मिकता से लड़ सकते हों तो भला है कि वो पैसा खर्च किया जाए।

प्र: और भ्र्ष्टाचार मन की क्षुद्रता से ही उठता है।

आचार्य: बिलकुल। और कहाँ से उठेगा?

प्र: यह जो मूर्ति है, यह गुरुता की प्रतीक है।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल!

छोटे मन से छोटे काम होंगे। कोई बहुत टुच्चा आदमी ही तो रिश्वतखोरी करता है। रिश्वत लेते हुए बड़प्पन का एहसास तो होता नहीं है, कि होता है? लाज ही आती होगी, कम-से-कम शुरू-शुरू में। बाद में तुम अभ्यस्त हो जाते हो। पारङ्गत घूसीये हो जाते हो। जब पहली बार कोई जवान आदमी घूस लेता होगा तो उसके भी कान सुर्ख़ और चेहरा स्याह पड़ जाता होगा। लाज तो आती होगी न? फिर तुम छोटे हो जाते हो।

अगर उस मूर्ति की भव्यता और गुरुता और उसकी उँचाई तुम्हें ये सन्देश दे पाए कि तुम्हारा जीवन भी वैसा ही भव्य और ऊँचा हो सकता है और जिस व्यक्ति की वो प्रतिमा है, उसने जो जीवन बिताया, उसके जीवन से तुम मुक्ति के प्रति प्रेरणा ले पाओ, क्योंकि आज़ादी की लड़ाई किसी-न-किसी अर्थ में आदमी की मुक्ति के प्रति छटपटाहट का प्रतिबिम्ब है।

चूँकि तुम आध्यात्मिक तौर पर मुक्त होना चाहते हो इसीलिए राजनैतिक तौर पर भी तुमसे गुलामी बर्दाश्त नहीं होती; समझना। ये जो स्वतंत्रता संग्राम पूरा हुआ था, भारत की आज़ादी के लिए, ये वास्तव में एक आध्यात्मिक आंदोलन था। आदमी का स्वभाव नहीं है गुलाम रहना। इसीलिए राजनैतिक तौर पर भी अब उसे गुलाम बनाया जाता है तो वो विरोध करता है।

तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की जो वो प्रतिमा है, वो उसी विरोध का प्रतीक है। उसी मुक्ति के अभियान का प्रतीक है। और फिर वो जाने जाते हैं भारत को राजनैतिक तौर पर 'एक इकाई' बनाने के लिए। तमाम छोटे-छोटे जानते ही हो; ये सब रजवाड़े थे और अंग्रेज इनको छोड़ कर चले गए थे। फिर सरदार पटेल ने जा करके उनके सबके दस्तख़त लिए; येन केन प्रकारेण, कभी कैसे, कभी कैसे। कभी बल प्रयोग भी करना पड़ा। और ऐसे करके उन्होंने भारत को एक संयुक्त इकाई बनाया।

तो भारत के प्रति अगर तुम में प्रेम हो तो पटेल के प्रति भी तो प्रेम होगा ही होगा न? और भारत के प्रति प्रेम वास्तव में अध्यात्म के प्रति प्रेम है। क्योंकि ये देश और कुछ है नहीं। भारत की जान है अध्यात्म। कोई अगर भारत को सिर्फ एक आम राजनैतिक इकाई समझेगा तो उसे भारत का कुछ पता नहीं; भारत माने अध्यात्म। भारत माने सत्य के प्रति आग्रही, इच्छुक विचारणा। वो मन जो परम से नीचे मानता नहीं।

भारत की मिट्टी में भक्ति है। यहाँ तुम्हें बच्चे को अध्यात्म सिखाना नहीं पड़ेगा। यहाँ गाँव-गाँव में, पेड़-पेड़ पर भक्ति के ही फल हैं। जो बातें पाश्चात्य लोगों को बड़ी अजूबी लगती हैं। वो हमारे यहाँ के हलवाई, पनवाड़ी सब जानते हैं। भले गहराई से न समझते हों। पर कम-से-कम बहुत बातें हैं जो सिर्फ उनको परिवेश से मिल जाती हैं। हवा में हैं वो बाते। तो वो भारत की जान हैं, अध्यात्म भारत की जान है। तो अगर तुम भारत से प्रेम करते हो तो सरदार पटेल की प्रतिमा कहीं-न-कहीं अध्यात्म के प्रति तुम्हारे प्रेम को ही इंगित करती है। क्योंकि अध्यात्म से तुम्हारा प्रेम नहीं, परमात्मा से तुम्हारा प्रेम नहीं तो भारत से क्या प्रेम करोगे तुम? और अगर भारत से प्रेम करते हो तो फिर तुम्हें सरदार पटेल की ओर भी देखना ही पड़ेगा।

इन सारी बातों को ज़रा सदभावना के साथ सुनोगे तभी समझ में आएगा; नहीं तो नहीं। तर्क दे-दे करके मैं जितनी बातें बोल रहा हूँ तुम सारी बातों को काट सकते हो। पर फिर भी कह रहा हूँ, ये बात तर्क की है ही नहीं। ये बात कहीं और की है। तुम तर्क दे कर काट लो, कुछ हाँसिल नहीं करोगे। कोई वजह है न कि हर जाति ने, हर वर्ग ने, सब लोगों ने, सब सम्प्रदायों ने अपने बड़े-बड़े प्रतीक स्थापित किए। कोई तो वजह होगी न, सब तो मूर्ख नहीं रहे होंगे?

काशी की गंगा हो कि काबे का पत्थर हो, प्रतीक तो सब जगह हैं। क्यों हैं? कुछ तो होगा न? तो इतना भी हलके में नहीं ले लेना चाहिए कि "नहीं साहब प्रतीक तो सब व्यर्थ हैं। रियल (असली) चीज़ तो कुछ और है।" और ये आज-कल बड़ा प्रचलन है कि, "हटाइए धर्म इत्यादि को, आइए हम रियल मुद्दों की बात करें।" और रियल मुद्दा लोगों की नज़र में बस एक होता है, "बिजली, सड़क और पानी।"

अब रोटी भी कोई रियल मुद्दा रहा नहीं क्योंकि रोटी तकरीबन सभी तक पहुँच चुकी है — मैं भारत की बात कर रहा हूँ — और अगर अभी सब तक नहीं पहुँची तो अगले दस वर्षों के बाद तो कम-से-कम ये हालत नहीं रहेगी कि रोटी मुद्दा बने। रोटी सबके पास है।

पर बुद्धिमानों के वक्तव्य आते हैं कि "इधर-उधर के धार्मिक मुद्दों की बात मत करिए। असली मुद्दों की बात करिए — 'रियल इश्यूज़'।" और उनसे पूछिए, "क्या हैं ये 'रियल इश्यूज़'?" "रोज़गार के और अवसर होने चाहिए, नए बाँध बनने चाहिए, एयरपोर्ट (हवाई अड्डा) चाहिए!" मैं नहीं इंकार कर रहा हूँ। मैं अभी कहता हूँ कि ये जो मूल ढाँचा है, ये बिलकुल हो, बिजली हो, सड़क हो, पानी हो, बंदरगाह हों, हवाई अड्डे हों, बच्चों के लिए बेहतर स्कूल हो, ये सब हों। पर ये भूल मत जाया करो कि कुछ है जो इन सब से बहुत ऊँचा है। और कुछ है जिसके बिना फिर किसी हवाई अड्डे का, किसी स्कूल का, किसी रोज़गार का कोई अर्थ बचता नहीं है। उसको आत्मा कहते हैं। उसको भूल मत जाया करो।

प्र: सही मायने में निर्माताओं की मंशा क्या है, वो समय रहते ही पता चलेगी।

आचार्य: वो तो समय रहते ही पता चलेगी। दूसरी बात, अब जब कि वो मूर्ति आ ही गई है, तो वो किस चीज़ का संकेत बन रही है, इसके बारे में बड़ी सावधानी रखी जानी चाहिए। मूर्ति तो आ गई, अब वो संकेत किस चीज़ का है? तुम उसके आस-पास कहानी क्या बना रहे हो? नरेटिव क्या है?

प्र: क्योंकि अर्थ तो आरोपित करे जा सकते हैं।

आचार्य: अर्थ तो आरोपित किए जाएँगे। तो अब क्या अर्थ दिया जा रहा है इसको, इस बात से बड़ा फ़र्क पड़ेगा। उदाहरण के लिए — तुम एक धार्मिक स्थल गिरा करके उसके ऊपर एक दूसरा धर्म स्थान बनाते हो, अपने सम्प्रदाय का। ये जो तुमने नया धर्मस्थल बनाया, ये तुम्हारी भक्ति का प्रतीक नहीं है। ये तुम्हारे विजेता-भाव का प्रतीक है — बात समझना। इसी तरीके से ये जो मूर्ति खड़ी हुई है, अब ध्यान ये दिया जाना चाहिए कि ये किसका प्रतीक बन रही है। कहीं ये तुम्हारी अकड़ का प्रतीक तो नहीं बन रही है? कहीं ये तुम्हारे द्वेष का प्रतीक तो नहीं बन रही है? इसके साथ अब तुम कथा क्या जोड़ रहे हो? पुराण क्या बनेगा, बताओ? तुम अपने बच्चों को जब ले जाओगे वो मूर्ति दिखाने तो तुम क्या बताने वाले हो? इस पर अब ध्यान दिया जाना चाहिए।

प्र: तो ये कहना हो गया कि उस मूर्ति के साथ अब एक डिस्कोर्स (उपदेश) भी बनना चाहिए।

आचार्य: बिलकुल।

प्र: एजुकेशन (शिक्षा) भी होनी चाहिए।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल।

अब जैसे तुमने लगन से उस मूर्ति का निर्माण किया, उससे दूनी लगन से अब तुम्हें उस डिस्कोर्स का निर्माण करना पड़ेगा, जो उस मूर्ति से सम्बंधित है। जिसके केंद्र में वो मूर्ति है। और बहुत सच्चा होना चाहिए वो *डिस्कोर्स*। वो जो कहानी है, वो बिलकुल सत्य को समर्पित होनी चाहिए अहम् को नहीं।

तुम ले जा रहे हो अपने बच्चे को मूर्ति दिखाने, तो तुम ये न बताओ कि, "ये मूर्ति उसकी है जिसने हमारे सब दुश्मनों को डरा दिया, परास्त कर दिया।" तुम ये न बताओ कि, "देखो बेटा...

प्र: फलाने नेता ने बनाया।

आचार्य: हाँ। तुम जो बात बताओ वो बात विशुद्ध धार्मिक होनी चाहिए। वो बात बिलकुल सच्ची होनी चाहिए।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें