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लेख
मोक्ष प्राप्ति नहीं, प्राप्ति से मुक्ति
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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विहाय वैरिणं कामम-र्थं चानर्थसंकुलं।

धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रा ना दरं कुरु॥१०- १॥

अनुवाद: जब तक जीवन स्वार्थों के पीछे भाग रहा है, तब तक जीवन में आनंद का होना ना मुमकिन है।

~ अष्टावक्र गीता ( अध्याय - १0, श्लोक – १)

आचार्य प्रशांत: अधर्म को छोड़कर, जो इन दोनों का कारण हैं, सबके प्रति अनादर से भर जाओ। आमतौर पर हमने इनको जीवन का लक्ष्य माना हैं। पुरुषार्थी के लिए प्राप्य माना है - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। माना यह गया है कि अर्थ रहेगा, काम रहेगा और धर्म रहेगा तो अंततः मोक्ष उतरेगा। एक यात्रा बना दिया गया है जीवन को, जिसमे कामनाओं की पूर्ति होनी चाहिए, जिसमे अर्थ का संचय होना चाहिए और जिसमें धर्म के नाम पर ऐसा एक मार्ग होना चाहिए, जिसमें अर्थ और काम के लिए स्थान हो। यह भ्रम हैं और यह आदमी के मन की चाल हैं।

अष्टावक्र सीधे-सीधे इसी झूठ का पर्दाफाश कर रहे हैं। वह कह रहे कि पहली बात तो यह है कि काम की प्राप्ति का मोक्ष से कोई लेना-देना हो नहीं सकता। काम किसी भी तरह से पुरुषार्थों में शामिल किया नहीं जा सकता। साफ साफ कह रहे हैं कि काम बैरी है तुम्हारा। समस्त कामना - मानसिक, दैहिक, सब।

काम में और अर्थ में कोई विशेष अंतर है नहीं क्योंकि मन के लिए अर्थ वहीं है जिसकी पहले उसकी कामना उठी हो। एक ही है दोनो - काम और अर्थ। एक थोड़ा स्थूल और एक थोड़ा सूक्ष्म लग सकता है पर मूलतः दोनो एक ही है - काम और अर्थ।

हमने बड़ी से बड़ी ग़लती यह की है कि हमने धर्म को काम और अर्थ को प्राप्त करने का साधन बना लिया।

मन, समाज तो यह चाहता ही था; पुरोहितों ने तो इसमें सहायता की ही, कुछ शास्त्र भी ऐसे उभर कर आगए जिन्होंने यह मिथ्या प्रचार बनाए रखा कि धर्म वह, जिससे अर्थ और काम कि सिद्धी होती हो। अष्टावक्र वहीं कह रहे है कि यदि धर्म वह हैं जो अर्थ की और काम की सेवा में लगा हुआ हैं, तो अर्थ को और काम को ही नहीं, धर्म को भी त्याग दो। अर्थ को और काम को ही नहीं, धर्म को भी त्याग दो, क्योंकि जिस धर्म को हम जानते हैं, वह और कुछ नहीं है, वह कामना पूर्ति का हेतु भर हैं।

हम मंदिरो में जाते हैं, अपनी इच्छाएं तृप्त करने। हमारी प्रार्थनाओं में हमारी वासनाएं बैठी होती हैं। अपनी इच्छा अनुरूप ही, हम अमूर्त की मूर्तियां भी गढ़ लेते हैं। आज यदि यह स्पष्ट कर दिया जाएं कि हमारी इच्छाएं तो सिर्फ हमारे पूरे संस्कारो से, कंडीशनिंग से निकलती हैं, वही हमारा बोझ हैं, वही हमारी बीमारी हैं और धर्म के जगत में हमारी इच्छाओं के लिए कोई स्थान नहीं हैं - यह बात साफ साफ स्पष्ट कर दी जाएं - धर्मगुरुओं के यहां जितनी भीड़ लगती हैं, वह पूरी कि पूरी छंट जाएगी। हमारे मंदिर खाली हो जाएंगे। हमारे त्योहारों को कोई नहीं पूछेगा। आप ध्यान दीजिए, हर त्योहारों के साथ इच्छापूर्ति जुड़ी हुई हैं। आप ध्यान दीजिए कि हर प्रार्थना में कामना बैठी हुई हैं। आप ध्यान दीजिए, हर जप, हर तप, साधना के हर अंग के पीछे बैठा तो अहंकार ही है, जो किसी तरह अपने आपको तृप्त करना चाहता हैं।

यह झूठा धर्म। हैं। अष्टावक्र कह रहे हैं, तुरंत त्यागो इसको। जो धर्म, अर्थ की और काम की चाकरी बजाता हो, उसको तुरंत त्याग दो। और यह अच्छा संदेश हैं हम सबके लिए क्योंकि इससे पता चलता है कि आज ही नहीं, सदा से आदमी के मन ने धर्म के साथ खिलवाड़ ही किया है। कोई यह ना सोचें कि आज का समय कोई विशेषतया भ्रष्ट समय हैं। बात समय की है ही नहीं। बात आदमी के मन की संरचना की हैं। मन हमेशा से ऐसा ही रहा हैं।

आप उसे कुछ भी देंगे, आप उसे धर्म देंगे, आप उसे शास्त्र देंगे, आप उसे ऊंचे से ऊंचे सूत्र देंगे, वह उन सबका उपयोग करेगा एक ही दिशा में। जो मुझे वांछित हैं, वह मुझे चाहिए। यही एक मात्र दिशा हैं जिसमें मन अपने समस्त संसाधनों का उपयोग करेगा। आप उसे जो कुछ भी देंगे, भले ही आप वो उसे उसकी सफाई के लिए दे रहे हों, पर वह उसको अपना एक संसाधन, अपना एक हेतु ही बना लेगा। इंसान ने हमेशा यहीं किया हैं। धर्मग्रंथों का दुरुपयोग करके जितनी लड़ाइयां लड़ी गई हैं, और जितने नारकिय काम किए गए हैं, उनके अन्यथा नहीं किए जा सकते थे। एक बार आप यह कहने लग जाए कि आपका कर्म, शास्त्र सम्मत हैं, उसके बाद आपके मन के विस्तार की कोई सीमा नहीं रहती। उसके बाद आपके कर्म पर कोई पाबंदी नहीं रहती; शास्त्र सम्मत हो गया है न। और इंसान ने यही किया हैं।

हिटलर के एक अधिकारी को भगवद गीता बहुत पसंद थी। वह कहता था कि: Gita is a fantastic document in cold-blooded killing. उसको मारने है, लाखो यहूदी मारने हैं। निशंसता से हत्या करनी हैं। उसे गीता बहुत भाती थी - A fantastic document in cold-blooded killing. अष्टावक्र कह रहे हैं, त्याग दो; यदि धर्म का यह अर्थ हैं तो धर्म के इस रूप को तुरंत त्यागो। यह मोक्ष तक नहीं ले जा पाएगा।

धर लीजिए, जो कुछ त्याज्य हैं, उसकी उन्होंने बात करी; काम, अर्थ, और वह धर्म जो इन दोनों की सेवा में लगा हुआ हैं। मोक्ष की बात ही नहीं करी अष्टावक्र ने। इनको त्यागना ही मोक्ष हैं। इसके अलावा वह और कुछ नहीं है। इनको त्याग दिया तो उसके बाद अब किसी और मोक्ष की साधना की जरूरत नहीं हैं। हाँ कुछ और पाने नहीं निकलना पड़ेगा। इसके बाद जो उपलब्धि हैं, वह स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। जीवन उसी में बीतेगा। उसी का नाम मोक्ष हैं।

मोक्ष प्राप्ति नहीं हैं, मुक्ति हैं। उससे जिसका आपने संचय कर रखा हैं। प्राप्त तो बहुत कुछ हम करे बैठे हैं। मोक्ष प्राप्ति नहीं हैं, प्राप्ति से मुक्ति हैं। और यहीं कह रहे हैं अष्टावक्र; मुक्त हो जाओ उससे जो प्राप्त करे बैठे हो - काम, अर्थ और उनका साधन-रूपी धर्म।

क्या है वास्तविकता और? इतना तो साफ हैं कि हमारी इच्छाओं की पूर्ती का नाम धर्म नहीं हो सकता। मुझे और रुपया चाहिए, और पैसा चाहिए, मुझे बच्चा चाहिए, मुझे बड़प्पन चाहिए, मुझे पद-प्रतिष्ठा चाहिए; जो कुछ यह दिलाने का वादा करें, वह तो धर्म नहीं हो सकता। वह तो कोई दुकान होगी। हां! यह सब दिलाने का जो धर्म वादा करे, उस धर्म की दुकान पर भीड़ खूब लगेगी। तो अगर आपको अपने अनुयायियों की, मतावलंबियों की संख्या बढ़ानी हो तो फिर आपको यह दावा करना ही पड़ेगा - हमारे यहां आइए, आप मालामाल हो जाएंगे; हमारे यहां आइए, आपका वैभव खूब बढ़ेगा, इज्ज़त बढ़ेगी; हमारे यहां आइए, हमारे पास इच्छापूर्ति मंत्र हैं। यह सब दुकानदारी में बातें बहुत सहायक होंगी। पर यह धर्म की भाषा नहीं हैं। धर्म फिर हैं क्या? धर्म का पर्याय हैं औचित्य। क्या धर्म हैं? यह प्रश्न बिल्कुल यही हैं कि क्या उचित हैं, क्या उचित हैं।

क्या उचित हैं? कभी भी, किसी भी स्थिति में, मन के लिए वही उचित हैं जो उसे उसके केंद्र की ओर ले जाता हो। मन यदि केंद्र पर अवस्थित ही हो, तो यह सवाल ही अर्थहीन हो जाएगा कि क्या उचित और क्या अनुचित हैं। यह सवाल उठेगा ही नहीं। आत्मा के रस में डूबे हुए मन में इस प्रश्न के लिए कोई जगह नहीं होती; क्या उचित है, क्या अनुचित हैं। जिस मन में यह अभी प्रश्न उठ रहा हैं, निश्चित रूप से वह थोड़ा बिखरा हुआ हैं, थोड़ा भटका हुआ हैं; केंद्र से, अपने घर से ज़रा दूर हैं। उसी के लिए यह प्रश्न मायने रखता हैं - क्या उचित हैं, क्या अनुचित हैं; क्या धर्म, क्या अधर्म।

एक ही धर्म हैं - वह जो वापस आपको आपके घर तक ले जाए; जो मन को आत्मा तक ले जाए; जो अहंकार को परमात्मा तक ले जाए। वही धर्म हैं, उसके अलावा धर्म नहीं हैं। इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति तो उठती हैं अपूर्णता के भाव से। आप कब कहते हो कि मुझे अपनी कामनाएं पूरी करनी है; मुझे अर्थ चाहिए, यह आप कब कहते हो। यह आप तब कहते हो सर्वप्रथम आपमें यह भाव उठता हैं कि कोई कमी रह गई।

अनंत पूर्णता हैं परमात्मा और अनंत पूर्णता का भाव ही हैं परमात्मा में स्थित होना। क्या हैं केंद्र से भटकना? किसको हम कहते हैं कि मन अभी घर में नहीं अपने। ज्योंही कोई अपूर्णता का भाव उठता हैं त्योंही आप अपना केंद्र छोड़कर संसार में स्थित हो जाते हैं।

काम और अर्थ, जब उठे ही अपूर्णता के एक भ्रामक एहसास से हैं, तो उनके पीछे कैसे जाया जा सकता हैं? भ्रम का पीछा करने से भ्रम नहीं मिटता। भ्रम मिटता हैं भ्रम को भ्रम जानने से।

रेगिस्तान में होते हैं आप और मृगमरिचिका के भ्रम में फंसे हुए हैं। जहां पानी नहीं हैं, उस दिशा में भागने से न तो पानी मिलेगा न प्यास बुझेगी। जो हैं ही नहीं, उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने से फ़ायदा क्या? बल्कि यत्न कर करके ही आप यह और सिद्ध किए जाते हो कि वह हैं। झूठी बीमारी का इलाज़ कर करके आप उसे सच्चा बनाए जाते हो। जो कमी हैं नहीं जीवन में, उस कमी की पूर्ति की कोशिश कर करके आप उस कमी को मान्यता दिए जाते हो। समझो बात को! जो कमी हैं नहीं, आप निरंतर लगे हुए हो, यही जीवन का उद्देश्य बना हुआ हैं - कुछ पा लूं, कुछ पा लूं। पाने के पीछे भाव हैं कि कुछ कमी हैं। अब कमी नहीं है लेकिन आपका पूरा श्रम उस कमी को मान्यता दे-देकर उसको स्थापित किए हुए हैं। आप कमी को पूरा करने की कोशिश छोड़ो, कमी ही खत्म हो जाएगी। यह वह कमी नहीं हैं जो मिटती हैं कुछ पा करके। यह वह कमी है जो मिटती हैं कमी के भाव को ही मिटा करके।

तो धर्म कभी वह हो नहीं सकता जो आपके अंदर के अपूर्णता के भाव को प्रोत्साहन दें, मान्यता दे। जो धर्म आपसे कहता हो कि बच्चा जो तुझे चाहिए, वह मिलेगा, उस धर्म से बचें। धर्म वह हैं जो मन को उस दिशा ले चलें जहां मन को सहज ही दिखने लगे कि क्या पाना हैं। मन गहरे में कृतज्ञता के भाव से भर जाएं, मन देखे कि अनुग्रह की ही वर्षा हैं और कहे जो कुछ मिलने लायक था, सब तो मिला हुआ हैं; अब और क्या पाना हैं, कहां कोई कमी हैं! मन से धन्यवाद उठे, मांग नहीं।

धर्म वह नहीं हो अपूर्णताओं को पूर्ण करता हों, धर्म वह हैं जो अपूर्णताओं को विसर्जित कर देता हों। धर्म वह हैं जो आपसे कहे कि हंसो, अपने ही मन पर हंसो कि मुझे जो चाहिए नहीं, वही मैं मांग रहा था। हंसो अपने ऊपर कि अमूल्य राशी तुम्हारे पास थी लेकिन तुम दो रूपए, चार रुपए के लिए भटक रहें थे; धर्म वह हैं।

ऐसा धर्म, साधनों के उपयोग पर निर्भर नहीं रहता। अष्टावक्र उनमें से नहीं हैं जो आपको तरीके बताएंगे, जो साधन बताएंगे। अष्टावक्र आपसे सीधे कहेंगे आँखें खोलो और देख लो। क्योंकि साधनों के उपयोग में भी एक भ्रम को मान्यता दी जा रही हैं। वह भ्रम यह है कि देखना बड़ा मुश्किल हैं। भ्रम यह हैं कि हम इतनी दूर आ गए हैं कि समय लगेगा। साधन का अर्थ हैं समय। साधन का अर्थ है अभी कोशिश करो, कल मिलेगा - यह भी भ्रम हैं। इतनी दूर आप कभी नहीं आ गए होते कि बहुत समय लगेगा। जो मन छिटका हैं, संकल्प भर कर ले वह, तो बोध अभी हैं। क्योंकि आप कहीं पर भी हैं, ध्यान की शक्ति कभी आपसे कभी नहीं छिनी। कैसी भी आपने अपनी अवस्था मान रखी हो, बना रखी हो, लेकिन प्रत्येक अवस्था में ध्यान की ताकत तो आपको उपलब्ध है ही। जीवन को आपको ध्यान से और ईमानदारी से देखना ही हैं। और देख कर जो दिखे, उसको अस्वीकार नहीं कर देना है फिर; यही मोक्ष हैं।

सच्चाई की ताक़त से, सच्चाई को देखो और फिर सच्चाई की ताक़त से सच्चाई में जियो; यही मोक्ष हैं।

उसी की ताक़त है जो आपको सामर्थ्य देगी कि आप उसको देख सकें। अपनी सामर्थ्य से आप उसे नहीं देखते। तो फिर साधन कैसा चाहिए? उसको देखना हैं, उसी की ताक़त से देखना हैं, तो इसमें आपके हेतु की जरूरत कहां पड़ गई? क्या सत्य ने शर्त रखी हैं कि मुझ तक आने के लिए, तुम्हें इन इन बाधाओं को पार करना पड़ेगा? नहीं! अगर यह शर्त हैं भी तो सत्य ने तो नहीं रखी हैं। यह शर्त तो आपके अपने मन से उद्भूत हैं। यह शर्त ही भ्रामक हैं। सत्य ने तो अपने दरवाज़े कभी नहीं बंद किए। आपने बड़ी कल्पनाएं कर रखी हैं कि रास्ता टेढ़ा हैं, लंबा हैं, दुविधाएं हैं, अभी ज़िम्मेदारियां हैं, अभी समय नहीं आया हैं; यह सब आपने कल्पनाएं रची हैं ना? आपने रची हैं ना? आपने जैसे रची, वैसे ही उन्हें छोड़ भी दीजिए। तक्षण छोड़ा जा सकता हैं, मोक्ष सहज हैं, अति-उपलब्ध हैं। मोक्ष की कल्पना जटिल हैं। आप कल्पना जब करेंगे तो फसेंगे। और मन, सब कुछ कल्पना में बांध लेना चाहता हैं। मोक्ष की भी वह कल्पना ही करता हैं। ऐसा होगा, वैसा होगा, यह हो जाएगा, वह हो जाएगा। और निश्चित सी बात है, सत्य, मुक्ति, मोक्ष नहीं आपकी कल्पना में समाएंगे। वह इतने सहज, इतने सरल कि आपके मन की जटिलता में उनके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। वह समाएंगे ही नहीं। इसलिए नहीं समाएंगे कि वहां कोई बुद्धि है जो आपकी समझ में नहीं आएगी। वह इसलिए नहीं समाएंगे कि वहां इतनी सरलता हैं कि आपकी जटिलता के पकड़ में नहीं आएगी। वह बात इतनी सीधी और इतनी साफ हैं कि हम उसे देख कर भी अनदेखा कर जाएंगे।

हमें तो गुत्थियों की तलाश हैं, जटिलता की तलाश हैं, कठिनाई की तलाश हैं, साधना की तलाश हैं। जो उपलब्ध ही हैं, जो स्पष्ट ही हैं, जो समीप से समीप्तर हैं, वह हमें कब दिखा हैं?

काम को समझे, अर्थ को समझे और जो धर्म इन दोनों की पूर्ती का साधन मात्र हो, ऐसे धर्म को त्याग दें। यहीं संदेश हैं।

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