आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मेरे देश की युवा ताकत बेहोश और मदहोश - किसने किया ये? || आचार्य प्रशांत, राष्ट्रीय युवा दिवस (2024)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, अभी बारह जनवरी को युवा दिवस है और स्वामी विवेकानन्द जी ने युवा जागरण के लिए बहुत कुछ किया है। और आपकी संस्था भी युवा जागरण के लिए बहुत प्रयास कर रही है।

मैं नॉर्थ ईस्ट त्रिपुरा से बिलॉन्ग (सम्बन्धित) करती हूँ, अभी कुछ सालों से देश के बाहर हूँ। पिछले साल मैं गयी थी वहाँ पर तो मैंने देखा कि वहाँ का हाल अभी ऐसा है कि बुक स्टोर्स (क़िताबों की दुकान) में हम जाते हैं तो वहाँ पर दूसरी क़िताबें तो छोड़ दीजिए, टेक्स्ट बुक्स (पाठ्य पुस्तक) भी नहीं मिलती हैं।

एक बुक ख़रीदते हैं तीन-चार बच्चे, लेकिन बच्चों का स्क्रीन टाइम बहुत ज़्यादा हो गया है और वो लोग मोस्टली (अधिकांशतः) इंस्टाग्राम, फेसबुक‌ इत्यादि पर ज़्यादा एक्टिव (सक्रिय) रहते हैं, वो बुक्स ज़्यादा नहीं पढ़ते।

तो जो स्टोर (दुकान) वाले थे वो मुझसे बोल रहे थे कि आप दूसरे बुक्स यहाँ पर मत ढूँढो, क्योंकि हमारा बिजनेस (व्यवसाय) अभी बहुत ही घाटे में जा रहा है। एक लाइब्रेरी थी हमारे स्टेट में, वो लाइब्रेरी भी अब बन्द होने की कतार में है।

और मैंने देखा है कि बहुत सारे बच्चे ड्रग एडिक्ट (नशे के आदी) हो रहे हैं हमारे स्टेट में और ये सोलह-सत्रह साल के बच्चे हैं जो ड्रग्स के एडिक्शन में जा रहे हैं।

मैं हॉस्पिटल गयी थी वहाँ पर, तो मैंने देखा कि वहाँ पर नॉर्मल पेशेंट्स (सामान्य मरीज़ों) से ज़्यादा ड्रग एडिक्टेड पेशेंट्स हैं।

तो ऐसा क्यों हो रहा है? क्या उन्हें जो मानसिक समस्याऍं हो रही हैं वो बुक्स से दूर जाने की वजह से हो रही हैं या क्या हो रहा है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, मतलब जब बुक एक होती है तो — मैं मान रहा हूँ कि आप किसी अच्छे, ऊँचे लेखक के बुक की बात कर रही हैं — तो यहाँ जो तुलना है वो बुक , माने क़िताब और सोशल मीडिया के बीच नहीं है।

सवाल ये नहीं है कि बुक वर्सेस इंस्टाग्राम , ऐसे नहीं देखिए इसको, इसको ये देखना है कि बुक माने एक ऊँचा आदमी, ऊँचा लेखक। हम उम्मीद कर रहे हैं कि हम अच्छी क़िताबों की बात कर रहे हैं।

तो बुक का अर्थ होता है एक ऊँचा इंसान। एक ऊँचा इंसान जो अपने शब्दों के माध्यम से, क़िताब के माध्यम से आप तक पहुँच रहा होता है जब आप उसकी बुक , उसकी पुस्तक पढ़ती हैं तो।

ठीक है?

तो बुक माने क्या हुआ? एक ऊँचा आदमी। अगर आप एक क़िताब पढ़ रहे हो तो आप किसी ऊँचे व्यक्ति की संगति में हो। और इंस्टाग्राम वगैरह का क्या मतलब हुआ? कोई छिछोरा इन्फ्लुएंसर , मोय- मोय! ठीक? तो माने एक बहुत ही उथला आदमी बिलकुल।

तो अब जो ये पूरी चर्चा है इसको बुक वर्सेस इंस्टाग्राम से हटाकर के ले आइए, ‘ऊँचे व्यक्ति की संगति बनाम छिछोरे की संगति।’ बुक माने ऊँचे व्यक्ति की संगति और इंस्टाग्राम माने छिछोरे की संगति।

तो अब जब छिछोरे की संगति करोगे तो फिर जो कुछ भी होना है (होगा।) पागलपन भी छाएगा, ड्रग्स हैं, वो भी होगा, समाज में अपराध भी बढ़ेंगे और जुबिनाइल डेलींक्वेन्सी (किशोर अपराध) भी बढ़ेगी और जितने तरीक़े की चीज़ें होती हैं।

और यही जो युवा हैं या किशोर हैं, ये जो आगे बढ़ेंगे तो आप पाओगे इनके व्यक्तित्व में कोई गहराई नहीं, ये जीवन के उल्टे-पुल्टे निर्णय ले रहे हैं।

क्योंकि आप जिनकी संगति करते हो न — आपने त्रिपुरा की बात करी न — आप जिनकी संगति करते हो आप बिलकुल उन्हीं के जैसे हो जाते हो। ये हमारे लिए एक सौभाग्य की भी बात है और बड़ा ये दुर्भाग्य भी है हमारा। ख़ास तौर पर जब आप छोटे होते हो, तो मन में सामग्री बहुत मौजूद नहीं होती है पर सामग्री पाने की इच्छा, चाहत, वृत्ति एकदम मौजूद होती है, वो बचपन से ही होती है।

मैं कई बार कहता हूँ कि कभी छोटे बच्चों को देखिएगा वो जब कार की पिछली सीट पर होते हैं तो क्या कर रहे होते हैं, कोई आपको छोटा बच्चा नहीं मिलेगा कि वो कार की पिछली सीट पर बैठा है या अगली पर भी है और वो शान्त बैठा है चुपचाप। हमेशा उसका मुँह आप खिड़की से ही चिपका पाओगे।

और अगर आप उसके पीछे चल रहे हो, उनकी गाड़ी के पीछे और सामने वाली गाड़ी में कोई छोटा बच्चा है, तो ज़्यादा सम्भावना यही है कि उसने पीछे के शीशे से अपना मुँह चिपका रखा होगा, आपको देख रहा होगा।

उसको जानना है क्योंकि उसके पास वृत्ति है जानने की, पर उसके पास ज्ञान नहीं है, सामग्री नहीं है जो उसको जाननी है, तो वो लगातार जानने को आतुर रहता है। मैं कहता हूँ, ‘वो स्पॉन्ज की तरह होता है, वो सोखता है।’

अब उसको जिस चीज़ में डाल दोगे वो वही सोख लेगा। जैसे स्पॉन्ज का काम है न, उसको जिसमें डालो वो वही सोख लेगा, उसको आप मिट्टी में डालो तो वो मिट्टी सोख लेगा, उसको आप फलों के रस में डाल दो वो फलों का रस सोख लेगा, तो वो कीचड़ भी सोख सकता है, वो फलों का रस भी सोख सकता है, पानी में डाल दो, पानी भी सोख लेगा।

तो एक किशोर का, टीन एजर का या जवान आदमी का जो मन है वो ऐसा होता है कि वो कुछ भी सोख सकता है। तो संगति बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ बन जाती है कि वो किस चीज़ को सोख रहा है। जिसकी संगति में होगा वो उसको ही सोख लेगा, वो मिट्टी का तेल भी सोख सकता है, वो ज़हर भी सोख सकता है।

और संगति मिल गयी — अब अगर बुक की बात हो रही है तो बुक हम कह रहे है माने ऊँचे आदमी की संगति और इंस्टाग्राम का मतलब है छिछोरे की संगति — तो वो छिछोरे के साथ रहेगा तो छिछोरापन ही तो सोखेगा!

समस्या सोशल मीडिया में नहीं है। ऐसा नहीं है कि स्क्रीन में, मोबाइल की स्क्रीन में कोई बड़ा पाप आ गया है और एक क़िताब के पन्नों में बड़ा पुण्य आ गया है; नहीं, ये बात नहीं है। बात ये है कि उन पन्नों पर ज़्यादातर आपको ऊँचे लोग मिलते हैं क्योंकि अच्छे लेखकों की ही अभी भी क़िताबें होती हैं, हालाँकि आजकल छिछोरे भी क़िताबें छापने लगे हैं।

आप इंस्टाग्राम पर फेमस (प्रसिद्ध) हो जाओ, उसके बाद आप क़िताब छाप सकते हो, वो भी क़िताब बेस्टसेलर हो जाती है, कुछ भी आप छाप दो, हिट, बिट, टिट , कुछ भी। लेकिन फिर भी निन्यानवे प्रतिशत क़िताब अभी भी आप पाओगे कि अच्छे लेखकों की ही होती हैं।

तो क़िताब को हम श्रेष्ठ इसलिए कह रहे हैं क्योंकि क़िताब के माध्यम से आप एक बड़े, ऊँचे, अच्छे आदमी तक पहुँचते हो। उस अच्छे आदमी तक अगर आप स्क्रीन से पहुँच सकते होते तो हम कहते, ‘स्क्रीन भी अच्छी है।’

और एक प्रतिशत मामलों में ऐसा होता है कि क़िताब किसी छिछोरे की है और स्क्रीन पर भी कोई ऊँचा आदमी मौजूद है, एक प्रतिशत सम्भावना दोनों रहती है। लेकिन निन्यानवे प्रतिशत आप यही पाओगे कि क़िताबें माने लेखक अच्छा है, बुद्धिमान है और उसने अपने जीवन की सारी समझ, सारी गम्भीरता, सारा प्रेम एक क़िताब में निचोड़कर आपको दे दिया है।

और निन्यानवे प्रतिशत आप ये पाओगे कि सोशल मीडिया पर जो मौजूद है वो एकदम घना छिछोरा है और उसने अपनी पूरी ज़िन्दगी का कीचड़ अपने वीडियो में या रील में डालकर आपको दे दिया है। एक प्रतिशत सोशल मीडिया पर भी कोई मिल सकता है साफ़-सुथरा और एक प्रतिशत आपको क़िताब में भी छिछोरा मिल सकता है, उस एक प्रतिशत की हम बात नहीं कर रहे।

संगति बहुत-बहुत ज़रूरी चीज़ है। अब ये सस्ता डेटा और क़िताब बिक नहीं रही तो क़िताब महँगी हो रही है, तो एक तो ऐसे ही पढ़ने का मन नहीं करता है। याद रखिएगा, पढ़ना सिर्फ़ मनुष्य को आता है, देख और सुन जानवर भी सकते हैं। पढ़ सिर्फ़ इंसान सकता है, देख और सुन जानवर भी लेते हैं।

आप किताब रख दोगे भैंस के आगे, तो उसे कुछ नहीं समझ में आएगा। पर भैंस को आप मोय-मोय दिखाकर नचा सकते हो। मतलब आप नाचोगे तो भैंस भी पूँछ तो नचा ही देगी अपनी। इतना वो भी समझ जाएगी क्योंकि देख वो भी सकती है, सुन वो भी सकती है, पर पढ़ नहीं सकती।

तो ऐसा इंसान जो सिर्फ़ देखता हो, सुनता हो पर पढ़ता न हो वो भैंस ही है, जानवर है वो। देख रहा है, सुन रहा है, क्या कर रहा है, अब ये वीडियो देखता है, ऑडियो सुनता है, पढ़ता नहीं है।

मनुष्य की विशेषता यही है न कि वो पढ़ सकता है। जो पढ़े न उसको हम क्या मानेंगे कि इंसान है, उसको हम यही तो बोलते हैं, ‘अनपढ़, जाहिल, गँवार, यही सब तो।‘ अब अगर कोई कहने को तो साक्षर हो पर फिर भी पढ़ता न हो, तो वो साक्षर हो गया, शिक्षित तो नहीं है।

साक्षर है, माने पढ़ना आता है। पढ़ना आता है पर पढ़ता नहीं है, तो ये आदमी अनपढ़ से किस तरह से भिन्न है? ये भी वही है, पागल, अनपढ़। वही हम हुए जा रहे हैं, हम जानवर हुए जा रहे हैं।

जो क़िताबें नहीं पढ़ रहा है और सोशल मीडिया में घुसा हुआ है, वो भैंस बराबर। देख रहा है, सुन रहा है और वो भी ऐसे लोगों को देख-सुन रहा है जो किसी क़ीमत के नहीं हैं। आपके ये जो इन्फ़्लुएंसर्स हैं, ये आज से अगर बीस-तीस साल पहले हुए होते तो — ये मैं बार-बार बोला करता हूँ — ये वो लोग हैं जो दुनिया में बेरोज़गार घूम रहे होते, जो किसी लायक नहीं थे और ये गली-मोहल्लों के जो आवारा और बिलकुल निकम्मे लड़के होते हैं वो आज के टॉप इन्फ़्लुएंसर बने बैठे हैं।

ये जो आज के इन्फ़्लुएंसर्स हैं, इनको अभी बस कुछ साल पहले आप अपने घरों में न घुसने देते कि इनकी संगति में मेरा बच्चा ख़राब हो जाएगा। वो आज नायक बन गये हैं, हीरो बन गये हैं, ऊँचे पायदान पर बैठे हुए हैं। क्योंकि डेटा सस्ता है और इंसान को जानवर बनाना हमेशा ज़्यादा आसान होता है, तो उन्होंने बहुत आसानी से, बहुत बड़ी आबादी को जानवर बना दिया है।

जानवर बनने का मतलब होता है नीचे गिर जाना। किसी इंसान को जानवर बनाना बहुत मुश्किल काम नहीं है, नीचे गिराने की बात है। नीचे आदमी गिर जाता है, गुरूत्वाकर्षण, ग्रैविटी की बात है भाई, नीचे गिरना आसान है। ऊँचा उठाना मुश्किल होता है — एक छोटा बच्चा है उसको आप वीडियो दिखाएँगे, वो देख ले आसानी से, उसको आप किताब की ओर ले जाएँगे उसमें श्रम लगता है, पर उसी श्रम से वो छोटा बच्चा इंसान बनता है।

अब जब नीचे गिरने के इतने रास्ते खुल गये हैं, फिसलन भरी इतनी आकर्षक ढलाने उपलब्ध हो गयी हैं तो ऊँचा कौन उठना चाहेगा? हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा! अपना क्या करना है, दो-चार-पाँच-दस-पचास रुपये का डेटा लगा, अपना वो रात में बैठकर के दो घंटा, पाँच घंटा देख रहा है और सब ख़ुश हैं।

परिवार वाले भी एक तरह से ख़ुश हैं, कह रहे हैं, ‘चलो, मोबाइल में मुँह दे रखा है, कम-से-कम कहीं उपद्रव नहीं कर रहा है।’ सरकार भी बहुत ख़ुश है क्योंकि अगर ये मोबाइल में और इन्फ़्लुएंसर्स के चरणों में नहीं बैठे होते तो ये सरकार से माँग कर रहे होते कि हमें शिक्षा दो, हमें रोज़गार दो!

भारत का सबसे बड़ा रोज़गार तो यही है, रील्स देखना, शॉर्ट्स देखना। हमारे बेचारे जितने बेरोज़गार हैं और दिन भर क्या करते हैं या तो शॉर्ट्स बनाते हैं या वो शॉर्ट्स देखते हैं। हमारे बड़े-बड़े नेतागण हैं, वो हमारे युवाओं को प्रेरित कर रहे हैं कि बेटा जाओ, तुम भी शॉर्ट्स बनाओ, इसी से आमदनी हो जाएगी!

और वो अपने-अपने मोबाइल लेकर, कैमरा लेकर घूम रहे हैं। कोई कुएँ पर चढ़कर शॉर्ट्स बना रहा है, कोई सड़क के बीच में नाच रहा है, कोई लड़की है वो मेट्रो में नाच रही है और अपना बना रही है। इन सबको हमारे जो घर-परिवार और राजनीति के बड़े-बड़े सम्माननीय लोग हैं, वो कह रहे हैं कि यही करो, इसी में तो आगे डिजिटल इकॉनोमी है।

तो ये सब कुछ नहीं है, ये उनको भ्रमित रखने का तरीक़ा है क्योंकि अगर युवा जग गया तो कहेगा, ‘बताओ, मेरी ये इतनी दुर्दशा किसने करी?’ वो क्रान्ति कर देगा, वो विद्रोह करेगा, वो सड़क पर आ जाएगा, वो रोज़गार माँगेगा, वो एक जीवन स्तर माँगेगा। तो अच्छा है कि उसको डेटा की अफ़ीम चटाये रहो।

अगर उसने क़िताब पढ़ ली तो भी वो विद्रोह करेगा, क्योंकि क़िताबें अक्सर विद्रोही ही लिखते हैं। और ज्ञान तो आग की तरह होता है, विद्रोह की आग — जो समझने लग गया वो विद्रोही हो जाता है — कोई विद्रोह न करे, कोई अपने अधिकारों के लिए आवाज़ न उठाये, माँग न उठाये, इसके लिए बहुत आवश्यक है कि उसको नासमझी का नशा चढ़ा रहे।

तो भारत में एक प्रकार की साज़िश चल रही है, एक सम्मिलित साज़िश है जिसमें सब एक साथ हैं। क्योंकि इतना बड़ा देश, दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी, अब डेढ़-सौ-करोड़ होने वाली है, इतने सारे युवा — एक तो सबसे ज़्यादा आबादी और वो भी दुनिया के सबसे युवा देशों में हम हैं — तो इस सबसे बड़ी आबादी में भी सबसे ज़्यादा युवा!

‘इनका क्या करें?’

तो हमने तय करा है कि इनको डेटा का नशा दो, ये दिन भर बैठकर डेटा देखें। मोबाइल में इनको कैमरा दो और ऐप दो ताकि ये डेटा देखा करें दिन-रात। कुछ करे नहीं, डेटा देखें।

बढ़िया-से-बढ़िया पहले दो-सौ-चालीस फिर तीन-सौ-साठ फिर सात-सौ-बीस, फिर कितना? चौदह सौ? एक-हज़ार-अस्सी, फिर फोर के फिर एट के , अब बत्तीस के आएगा! करोगे क्या बत्तीस के में? बत्तीस के में भी अगर कीचड़ देखोगे तो वो और साफ़-साफ़ कीचड़ ही तो दिखेगा या बत्तीस के में देखने से कीचड़ कमल हो जाएगा?

क्या हो जाएगा?

मुँह ऐसा बिलकुल हो गया है, मरा हुआ, चुसा हुआ, गिरा हुआ, उसको बत्तीस के में फ़ोटो लोगे, तो बहुत सुन्दर मुँह आ जाएगा क्या? पर यही है। हम किस ज़िन्दगी में जी रहे हैं, उसको भुलाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि हमारी ज़िन्दगी की हालत बहुत ख़राब है, उसको भुलाने के लिए हमें क्या नशा है? डेटा! डेटा है नशा, आज का डेटा नशा है, नशा। नशा डेटा है, डेटा।

आप ड्रग्स की बात कर रहे हो, ड्रग्स जैसे बाद में आती है — आप उस ड्रग्स की बात कर रहे हो जो मुँह से ली जाती है, इंजेक्शन से ली जाती है — आज की सबसे बड़ी ड्रग वो है जो आँख और कान से ली जाती है, डेटा इज़ द ड्रग (डेटा ही ड्रग है)।

इसी डेटा ने क़िताबों की दुकानें खाली कर दीं, इसने लाइब्रेरीज़ बन्द करवा दीं। आपको मालूम है युवाओं के आइक्यू का स्तर लगातार गिरता जा रहा है? जाइए पढ़िएगा, कोई बहुत कठिन चीज़ नहीं होती है आइक्यू नापना। वो तो सैम्पलिंग कर ली जाती है, आइक्यू नाप लिया जाता है उसमें से पता चल जाता है।

फ़्लीन इफ़ेक्ट (बुद्धिमत्ता परीक्षण) और रिवर्स फ़्लीन इफ़ेक्ट पढ़िएगा। टेलीविजन से शुरुआत हुई थी और इंटरनेट के आने के बाद वो प्रक्रिया और बढ़ गयी है। हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से और ज़्यादा बेवकूफ़ निकल रही है, डम्ब (भोंदू) निकल रही है।

पहले हम इसी बात को बहुत बड़ा उपद्रव समझते थे, कहते थे, ‘ इडियट बॉक्स के सामने बच्चा बैठा रहता है।’ इडियट बॉक्स किसको बोलते थे? टीवी को। वो टीवी तो अब ऐसा लगता है जैसे कि वरदान था बस, आज जो ज़हर सामने आया है उसके सामने टीवी तो कुछ भी नहीं है, चूरण जैसा है, खट्टा चूरण।

असली ज़हर तो अब सामने आया है, डेटा मोबाइल की स्क्रीन। हम डम्ब होते जा रहे हैं, हम बिलकुल बेवकूफ़ होते जा रहे हैं। हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से, मैं कह रहा हूँ, एक पायदान और ज़्यादा ऊपर है बेवकूफ़ी में। और ये आँकड़ा है, न्यूमेरिकल फ़िगर है, ये मेरी कल्पना नहीं है।

मैं क़िताबों की दुकान पर जाता हूँ एक लेखक होने के नाते मेरा दिल टूट जाता है। वहाँ फिलॉसॉफी सेक्शन ही हट गया है। हमारे लिए एक बड़ी समस्या है कि हमारी क़िताबें अगर रखी जाएँ तो किस सेक्शन में रखी जाएँ। फिलॉसॉफी सेक्शन नहीं है; वहाँ कलिनरी सेक्शन (पाककला अनुभाग) आ गया है।

इनफ़्लुएंसर्स में वही थोड़े ही हैं जो आपको नाचना और मोय-मोय करा रहे हैं, अभी तो इन्फ़्लुएंसर में वो भी उतने ही हैं, ‘ऐसा खाना बनाओ, ये खाओ!' ये भी तो नशा ही है। ‘अब ये बनाओ, अब ये बनाओ’ और इतना बड़ा हो गया है कलिनरी और रेसिपी सेक्शन बुक स्टोर्स में। हर आदमी को, फूड पॉर्न बोलते हैं उसको, हर आदमी को चाहिए।

फ़िक्शन, फ़िक्शन।

एक और चीज़ हुई है आप इसमें जाकर देखिएगा, क़िताबों में फ़ॉन्ट साइज़ (वर्ण आकार) बहुत बड़ा हो गया है, लाइन स्पेसिंग बढ़ गयी है, मतलब समझ रहे हैं? बड़े फ़ॉन्ट में किनको क़िताबें दी जाती हैं? बच्चों को, छोटे बच्चे।

आज का जो आम पाठक है उसका बौद्धिक स्तर धीरे-धीरे और छोटे बच्चे जैसा होता जा रहा है उसको बड़े-बड़े फ़ॉन्ट की क़िताब चाहिए और उसको बड़ी लाइन स्पेसिंग चाहिए जैसे बच्चों को दी जाती हैं, उसको पढ़ने में नहीं आती।

आँख नहीं कमज़ोर है, जब युवा पाठक है तो आँख तो नहीं कमज़ोर होगी, पर वो बच्चे जैसा होता जा रहा है, उसको कोई गहरी बात बोल दो तो उसके पल्ले नहीं पड़ती।

आपको अगर उसको कुछ लिखकर के देना है तो लिखिए और फिर उसके पीछे उसकी समरी लिखकर दीजिए; बोलिए, ये तो हमारा एक अध्याय था और उसके बाद लिखिए सार-संक्षेप, समरी।

अब बताइए, ये कौनसा ज़माना आ गया है जहाँ क़िताब में, क़िताब के अन्दर एक और क़िताब लगानी पड़ती है क़िताब को समझाने के लिए? कि क़िताब के साथ क़िताब की कुंजी भी देनी पड़ती है कि इस क़िताब को ऐसे समझो। क्योंकि नहीं समझ में आता, पल्ले ही नहीं पड़ता, कोई भी गम्भीर बात या गहरी बात या सटल , सूक्ष्म बात इस पीढ़ी को समझ में ही आनी बन्द हो गयी है।

इनकी संवेदना के कोमल तन्तु, जो सॉफ़्ट टिशूज़ होते हैं इन्टरनल (आन्तरिक) सेंसिटिव (संवेदनशील), हमने उनको नष्ट कर दिया इनको ड्रग्स दे-देकर, डेटा की ड्रग। अब जो चीज़ जितनी भोथरी है, ग्रॉस है, ये उतनी इनको ज़्यादा प्रिय लगती है। इसका अब नतीजा क्या निकलेगा आप ख़ुद ही सोच सकते हैं।

क़िताबों की दुकानों में वो मर्चेंडाइज़ बेचने लग गये हैं। आप क़िताब की दुकान में जाइए तो वहाँ पर वो बैग्स बेच रहे हैं और क्रॉकरी बेच रहे हैं, क्रॉकरी माने मग्स। और मग्स पर कुछ लिखकर बेच रहे हैं, ये सब चल रहा है।

आप कोशिश करिए, आप जाइए किसी बुक शॉप में और आप कहिए कि मेरे को ‘काफ़का’ बताओ। तो वो कहेंगे, ‘कैफ़े उधर है।’ आप बोलिए, ‘मुझे ‘काफ़का’ चाहिए, मेरे को बताओ, ‘मेटामॉरफ़ोसेस’ पढ़ना है आज।’ ‘उधर है, कैफ़ उधर है।’ बुक शॉप कैफ़े बनते जा रहे हैं।

बोले, ‘आओ, यहाँ पर बैठकर के चाय पियो, कॉफ़ी पियो और साथ में कॉमिक्स पढ़ो।’ क्लासिक्स के कॉमिक्स बनते जा रहे हैं, आपने देखा है ये? पहले छोटे बच्चों के लिए क्लासिक्स के एब्रिज्ड वर्ज़न्स बनते थे, अब क्लासिक्स के भी कॉमिक्स बनते हैं। कॉमिक्स ट्रिप्स जिनमें वो विज़ुअल रिप्रेज़ेंटेशन होता है कि ये ऐसा है, ये ऐसा है, ये ऐसा है।

और वो बच्चों के लिए नहीं बन रहे हैं वो बड़ों के लिए बन रहे हैं, क्योंकि क्लासिक्स पढ़ पाने की किसी की अब जैसे क़ाबिलियत ही नहीं रही। आप प्रयोग कर लीजिएगा, आप चले जाइएगा और आप कहिएगा, ‘सार्त्र दिखा दो मुझे।’ आप कहिएगा, ‘बीइंग एंड नथिंगनेस पढ़नी है।’ आप टॉलस्टॉय बोल दीजिएगा, आपको कुछ मिल जाए तो बात करिए।

और मैंने इन सबको बुक स्टोर्स में देखा है, अभी आठ-दस साल पहले तक देखा है, अब मुश्किल हो गया है। आप कृष्णमूर्ति तो कृष्णमूर्ति, आपको ओशो मिलने मुश्किल हो जाएँगे।

पहले अध्यात्म में इतना तो होता था कि ओशो की कुछ किताबें तो होती ही थीं, अब वो भी नहीं होतीं। कृष्णमूर्ति तो पहले भी मुश्किल से मिलते थे और अब एकदम ही नहीं है। आप रमण महर्षि पूछकर देखिएगा, आप कहिएगा, ‘ आइ एम दैट दिखाना, निसर्गदत्त महाराज।‘ मुश्किल है।

प्र: हाँ, मैं वही बुक्स ख़रीदने गयी थी, तब मुझे सारे बुक्स नहीं मिले वहाँ।

आचार्य: अमेज़न पर ले लीजिए इससे पहले कि आउट ऑफ़ प्रिंट चली जाएँ हमेशा के लिए। ये अब सिर्फ़ ऐसा नहीं होगा कि आउट ऑफ़ स्टॉक हैं, ये आउट ऑफ़ प्रिंट जाएँगी और हमेशा के लिए जाएँगी।

तो या तो इनकी ईबुक कहीं से मिलती हों तो लेकर सेव कर लीजिए या ख़ुद प्रिन्ट निकालकर अपनी व्यक्तिगत कॉपी बना लीजिए, नहीं तो अब वो समय आने वाला है कि ये सब (नहीं मिलेंगी।) ये तो यूनिवर्सिटीज़ के सिलेबस से भी निकाली जा रही हैं बाहर, ये बोलकर कि बच्चों के लिए बहुत हैवी (भारी) हो जाती हैं।

बारहवीं के बच्चों को साहित्य के नाम पर आठवीं के बच्चों के स्तर का साहित्य पढ़ाया जा रहा है, ये बोलकर कि बहुत हैवी हो जाता है। जो ऐसे ऑथर्स (लेखक) थे कि आम तौर पर मिल ही जाया करते थे क्योंकि वो एक तरह से पॉप कल्चर में भी कुछ अपनी पहुँच रखते थे।

उदाहरण के लिए ऑरवेल। आप जाएँ, आपको एयरपोर्ट पर ‘ऑरवेल’ मिल जाएँ ज़रूरी नहीं है। एयरपोर्ट की बुक शॉप पर ‘ऑरवेल’ ज़रूरी नहीं है मिल जाएँ। वहाँ कौन मिलेंगे? आजकल के ये बोला तो इन्फ्लूएंसर ही ऑथर बना जा रहा है। और वो एक-से-एक कुछ अपना निकाल रहे हैं, कुछ भी निकाल रहे हैं वो चल रहा है। कॉमिक्स चल रही हैं उनकी, मज़ाक चल रहा है।

देखिए, जिस समाज के जैसे आदर्श होते हैं उसे वैसा ही हो जाना है, ठीक है न? तो आदर्शों का चयन बहुत सोच-समझकर किया जाना चाहिए। हमारे समाज के आदर्श बहुत गिर चुके हैं। बहुत गिरे क़िस्म के लोग हमारे आदर्श बन गये हैं — स्क्रीन में भी और स्क्रीन के बाहर भी। तो भविष्य बड़ा गड्ड-मड्ड है।

आप गीता समागम में हैं तो वहाँ पर पिछले सत्रों में जाइएगा, श्रीकृष्ण अर्जुन से बोलते हैं, ‘बेटा, अगर तुम ही गड़बड़ करोगे तो जन साधारण क्या करेगा? क्योंकि नेतृत्व के लोग जो करते हैं, पीछे वाले सब उन्हीं का अनुगमन करने लगते हैं, पीछे-पीछे चलने लगते हैं।’

तो हमने आदर्श ही इतने गड़बड़ लोगों को बना लिया है कि उनके पीछे-पीछे आम जनता का पतन तो होना ही है। बहुत सारे तो हमारे वो आदर्श हैं जिनको जेल में होना चाहिए, बहुतों को पागलख़ाने में होना चाहिए, वो हमारे आदर्श बने बैठे हैं अभी।

प्र: इस पर ही मैं एक उदाहरण देना चाहती हूँ, मेरे ही घर में दो छोटे-छोटे बच्चे हैं रिश्तेदारों के, तो जब मैं वहाँ गयी तो वो लोग हनी सिंह को जानते हैं भगत सिंह को नहीं जानते।

आचार्य: कबीर सिंह की बात हो रही है, बिलकुल। हनी सिंह का पता है भगत सिंह का नहीं पता है, कबीर सिंह का पता है, अभी वो एनिमल सिंह भी तो एक आया है, उसका भी पता होगा। तो ये सब हैं, अब इसका क्या होना है आप ख़ुद ही सोच लीजिए न।

जो जवान आदमी भगत सिंह से परिचित न हो, उसकी दो कौड़ी की जवानी, वो कैसे जिएगा? एक भारतीय युवा है जो भगतसिंह का नाम नहीं जानता, ये जिएगा कैसे? और ज़्यादातर मिलेंगे जो नाम ही भर जानते हैं, जिन्हें नाम पता भी है और नाम से आगे कुछ नहीं जानते।

उनसे आगे और दो-चार बातें पूछो उन्हें कुछ नहीं पता होगा। और अभी मैं यहाँ पर सुखदेव और बिस्मिल और राजगुरु, यहाँ तो मैं अभी इन लोगों की बात ही नहीं कर रहा हूँ।

मैं पूछूँ कि ज़रा दो-चार वृतान्त बताना चन्द्रशेखर आज़ाद के जीवन से — और ये हमारे सबसे प्रख्यात क्रान्तिकारी हैं, अभी इनकी बात हो रही है। वो जिनका नाम ज़रा कम है उनकी तो अभी हम बात भी नहीं कर रहे। अभी हम उनकी बात कर रहे हैं जो सबसे पहली कतार के अग्रणी नाम हैं। उनका भी नहीं पता होगा।

जिनके नाम पता हैं, आपको धक्का लग जाएगा, आप ख़ौफ़ में आ जाओगे कि कैसे-कैसे लोगों के नाम आज के जवान लोगों को पता हैं। और वो जो गिरावट है फिर, जो पतन है वो हमें हर दिशा में दिखाई दे रहा है — शिक्षा, सम्बन्ध, कला, साहित्य, राजनीति, धर्म। हर चीज़ में जो पतन है वो (हो रहा है।) ऊँचों की संगति नहीं करोगे तो हर चीज़ जाएगी न नर्क में, पतन में जा रही है हर चीज़।

एक वीडियो है दो-तीन साल पुराना है, उसको देखिएगा इसी से सम्बन्धित है, ‘कौन बर्बाद कर रहा मेरे देश की युवा ताक़त को!’ ये सोशल मीडिया वाले इन्फ़्लुएंसर्स , इनसे तो मेरा व्यक्तिगत दर्द जुड़ा हुआ है, क्योंकि लोगों तक पहुँचने का आज के युग में साधन ही बस अब यही बचा हुआ है, डिजिटल। क़िताबें तो सब बन्द करा दीं, यही डिजिटल साधन है और डिजिटल साधन पर ये छिछोरे छाये हुए हैं।

हम वेदान्त को लोगों तक ले जाना चाहते हैं, सच्चाई को ले जाना चाहते हैं, ऊँची बात को ले जाना चाहते हैं। कितनी मेहनत करनी पड़ती है, कितनी ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है और यहीं कोई छिछोरा आकर के कुछ अपना एक भद्दा सा वीडियो डाल देता है और मिलियन, पाँच मिलियन, पचास मिलियन वो अपना लेकर के आराम से बैठ जाता है। जितनी गन्दगी, जितना भद्दापन, उतनी लोकप्रियता।

और वो भद्दापन यही नहीं कि उसमें बस कुछ अंट-शंट नाच रहा है कि वो मोय-मोय और ये सब, वो कुछ भी हो सकता है। भद्दापन धर्म के नाम पर हो सकता है, भद्दापन राजनीति का हो सकता है, भद्दापन दृष्टिकोण का हो सकता है, भद्दापन ये भी हो सकता है कि आओ मैं तुम्हें पैसा बनाना सिखाऊँगा, आओ मेरे पास आओ मैं तुम्हे बताऊँगा शेयर मार्केट से या इस जगह से पैसा जल्दी से कैसे बनाना है। भद्दापन हर तरीक़े का होता है न?

भद्दापन ये भी हो सकता है, ‘आओ, मैं तुम्हें बताऊँगा कि नफ़रत कैसे करनी है पूरी दुनिया से या दूसरे धर्म के लोगों से कैसे नफ़रत करनी है’, भद्दापन वो भी हो सकता है। जिस भी तरह का भद्दापन हो, भद्दापन ये भी हो सकता है, ‘आओ, मैं बताऊँगा लड़कियाँ कैसे पटानी हैं और उसके मैं तुमको बिलकुल घटिया तरीक़े से समझाऊँगा।’

लेकिन जिस भी तरीक़े का भद्दापन होगा वो बिकेगा, क्योंकि डेटा इज़ द ड्रग , भद्दापन बिकेगा। और हम जो काम कर रहे हैं, बहुत तकलीफ़ आती है उसमें। पूरे दिन संघर्ष रहता है इसी बात का कि कैसे, किस विधि लोगों तक पहुँच पायें।

क़िताबों की आप पूछ रही हैं, क़िताबें हमारी लोग पढ़ पायें इसके लिए क़िताबें कर दी हैं कि लो बेटा सौ रुपये भी नहीं ख़र्च करने पड़ेंगे, तुम सौ का पत्ता दोगे तो एक रुपया वापस, निन्यानवे में क़िताब आपके घर में पहुँचा देंगे, तो भी किताबें आप पढ़ें इसके लिए बड़ी हमें मशक्क़त करनी पड़ती है।

हम एक तरह से लोगों को घूस दे रहे हैं, हम कह रहे हैं, ‘देखो, तुम पढ़ लो। एकदम सस्ती दे देंगे, बस तू पढ़ ले, तेरे हाथ जोड़ता हूँ तू पढ़ ले!’ वो तब भी पढ़ने को तैयार नहीं है वो कह रहा है, ‘ज़रा ये देखने दो, इन्फ़्लुएंसर।’ ई-बुक कभी इक्यावन की, कभी इक्कीस की, कभी ग्यारह की कर देते हैं।

आजकल कितने की हैं अधिकांश ई-बुक? ग्यारह रुपये, इक्कीस रुपये की ई-बुक्स कर रखी हैं कि लगभग मुफ़्त में दे रहे हैं पढ़ लो! वो तब भी नहीं। हम कह रहे हैं, ‘तुम्हें स्क्रीन पर ही देखना है तो स्क्रीन पर ई-बुक देख लो और लगभग मुफ़्त में दे रहे हैं पढ़ लो, ग्यारह रूपये की है।‘ वो तब भी नहीं देखेगा।

वो देखेगा कि वो फ़लाना है वो बाज़ार में नाच रहा है, मज़ा आ गया। अठारह मिलियन लाइक्स , क्योंकि वो बाज़ार में नाच रहा है। या कोई भद्दा भजन बना दिया जाएगा किसी फ़िल्मी पुराने गाने की तर्ज़ पर, तो उस पर आ जाएँगे करोड़ो लोग देखने के लिए।

अभी पूरे दिन, पुराना एक गाना है, ‘दिल के अरमाॅं आँसुओं में बह गये।’ उसकी धुन पर भजन बजता रहा और बजता ही रहा। और मुझे समझ में नहीं आया कि कैसे बज सकता है, यहीं नीचे। और ये भजन कहीं यूट्यूब वगैरह से ही उठाया गया होगा, उसको करोड़ों लोग पसन्द कर रहे होंगे।

तुम्हारे पास कुछ भी मौलिक नहीं है, अपना नहीं है क्या? अध्यात्म का तो अर्थ होता है, भजने का तो अर्थ होता है, ‘उसको पा लेना जो अनूठा है, न्यारा है, मौलिक है, ऑरिजिनल है, ऑथेन्टिक है।’ और तुम्हें गाने की धुन भी उठानी पड़ रही है किसी पुरानी फ़िल्म से, तो तुम्हारा कौनसा अध्यात्म है, कौनसा भजन है और इतने लोग झूम कैसे रहे इस भजन पर?

हर चीज़ नकली, हर चीज़ सतही, पता नहीं कौनसी दुनिया में हम प्रवेश कर रहे हैं; ब्रेव न्यू वर्ल्ड तो नहीं है ये ‘हक्सले’ का।

प्र: मैं बोल रही थी कि जैसे कि युवा दिवस आ रहा है, तो आप युवाओं के लिए और माता-पिताओं के लिए कोई सन्देश देना चाहें तो?

आचार्य: बहुत बड़ी ज़िन्दगी है मर नहीं पाओगे आसानी से, जियोगे। और तुम्हारी समस्या ये रहेगी कि बहुत बड़ी ज़िन्दगी है और जीनी है। कोई बूढ़ा हो गया हो, अस्सी साल का हो, उसको तो फिर भी राहत है कि एकाध साल में टपक जाना है।

तुमको तो बेटा जीना है, तुम अभी पन्द्रह के हो, बीस के हो, पच्चीस के हो, तीस के हो, तुम्हें अभी बहुत जीना है। कैसे जियोगे? ये जो तुमने अपनी हालत कर ली है अन्दरूनी, तुम जियोगे कैसे? तुम्हारी हालत देखकर मुझे ख़ौफ़ हो जाता है और तुम कितने नशे में हो कि तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा?

घर पर ऊँचाइयों को लाइए, हैव ए टेस्ट फॉर ग्रेटनेस (महानता का आनन्द लो), ये जो ग्रेट शब्द हैं ये हमारे व्याकरण से ही बाहर चला गया है, ग्रेटनेस , महानता। महानता आउट ऑफ़ फ़ैशन हो गयी है।

कभी देखा है ट्विटर पर ट्रेंडिंग करते हुए ग्रेटनेस को? नहीं करती न! और जहाँ ग्रेटनेस नहीं है वहाँ संकीर्णता है, लघुता है, क्षुद्रता है, पेटिनेस , बाउण्ड्रीज़ (सीमाएँ), कन्फ़ाइनमेंट्स। आपका दम घुट जाएगा, यू विल डाय ऑफ़ सफ़ोकेशन।

जैसे किसी छोटी चीज़ ने आपको पकड़ लिया हो (गले की तरफ़ संकेत करके), मर जाओगे! गो फ़ॉर ग्रेटनेस और उसका तरीक़ा यही है, अप्रोच द ग्रेट्स (महान लोगों से सम्पर्क करें)। बेग फ़ॉर दीयर कम्पनी (उनके साथ के लिए विनती करें) और वो बेग फ़ॉर दीयर कम्पनी माने ये नहीं कि जाकर के कहीं ईमेल भेज रहे हो, मैं क़िताबों की ही बात कर रहा हूँ। बस यही है।

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