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लेख
मेरा ऑफ़िस और चाँद
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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मेरे ऑफ़िस में रोशनी खूब है

सफ़ेद,

जैसे चाँद की होती है ।

कई चाँद निकले रहते हैं दिन में भी,

हमारी आज्ञा पर।

आँखें जलती हैं।

और मज़े की बात तो यह है कि

दरवाज़ों और खिडकियों के काले शीशों से बाहर देखो

तो लगता है कि

चाँद निकला हुआ है बाहर ही ।

मेरा ऑफिस मुझे चाँद बन ठगता है ।

यहाँ ठंडी हवा है,

ठंडी रोशनी

और चूंकि ये सिर्फ एक कविता है,

इसलिए कहता हूँ,

ठंडा

आदमी।

हम बच्चे हैं,

खिलौनों से खेलते हैं

और ज़्यादा नहीं

पर थोड़ी-थोड़ी

अकल लगाते हैं ।

सच है, इन चाँदों के लिए तो

बच्चे कुछ भी कर जायेंगे ।

उफ़,

सफ़ेद दीवारें,

कितनी सफ़ेद !

सफ़ेद रोशनी,

सफ़ेद फर्श !

सब कुछ कितना साफ़

साफ़ और प्रकट !

जो कुछ भी कृत्रिम नहीं है

उसे और अपरिचित बनाती ये सफ़ेदी !

मेरा चाँद जब धब्बे लेकर चलता है

तो तुमको इतना सफ़ेद होने का हक किसने दिया।

~ प्रशान्त (२७.०३.००, ऑफ़िस में)

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