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मेरा असली स्वभाव क्या है? || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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कुत्रापि खेद: कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते। मन: कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थित: सुखम्।। ~ अष्टावक्र गीता(१३.२)

अनुवाद: शारीरिक दुःख भी कहाँ है, वाणी के दुःख भी कहाँ हैं, वहाँ मन भी कहाँ है। सारे कष्टों को त्याग कर पुरुषार्थ में सुखपूर्वक स्थित हूँ॥

प्रश्न: इस श्लोक में ‘पुरुषार्थ’ से क्या अर्थ है?

वक्ता: पुरुष के लिए ‘अर्थ’ अभी बाकी है। ‘अर्थ’ का अर्थ है कुछ वांछित, कुछ पाना, कुछ ऐसा जो अभी कम हो और पाने योग्य हो; ‘अर्थ’ से ये अभिप्राय होता है।

पुरुष और प्रकृति द्वैत के दो किनारे हैं। पुरुष साक्षी है प्रकृति का, लेकिन प्रकृति पर निर्भर भी है। पुरुष के बिना प्रकृति नहीं, प्रकृति के बिना पुरुष नहीं। जो समझ रहा है वो पुरुष है, जिसको समझा जा रहा है वो प्रकृति है, दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं, आश्रित हैं। आश्रित होना आपका स्वभाव नहीं है, आपका स्वभाव परम निराश्रिता है। इसी कारण ‘साक्षी’ आखिरी नहीं होता, पुरुष आखिरी नहीं होता, उसके लिए अभी एक कदम शेष होता है। उसको पुरुषातीत हो जाना होता है, उसको प्रकृति से आगे निकल जाना होता है।

प्रकृति के साथ उसका पहला बंधन ये था कि वो प्रकृति से संयुक्त हो गया था। यह आम मन की अवस्था होती है, वहाँ अभी साक्षी उदय ही नहीं हुआ है। वहाँ तो पुरुष और प्रकृति जुड़ गए हैं एक दूसरे से, कुछ पता ही नहीं चल रहा कि पुरुष कहाँ है और प्रकृति कहाँ है, कुछ पता ही नहीं चल रहा कि कर्ता कौन है और भोगता कौन है। दूर हट कर इस नाच को देखने वाला ही कोई नहीं है।

वहाँ तो क्रोध है और क्रोधित है, और जो क्रोधित है वो मात्र क्रोध है। ऐसा कोई नहीं है जो क्रोध और क्रोधित को देख रहा हो, ऐसा कोई नहीं है। पुरुष और प्रकृति आपस में गुथे हुए हैं, उनके बीच कोई दूरी नहीं बनी है, उनका अभी कोई विशुद्ध अस्तित्व नहीं है, दोनों घुले-मिले हुए हैं एक दूसरे में। तो ये पहली अवस्था होती है पुरुष की, कि अभी वो संसर्ग में है।

दूसरी अवस्था होती है पुरुष की, कि अब वो संसर्ग में नहीं है, अब वो प्रकृति का साक्षी हो गया है। प्रकृति नाच रही है और नाचती प्रकृति के केंद्र में पुरुष बैठा हुआ है, अनछूआ । पर प्रकृति अभी नाच रही ही है, और प्रकृति के नाचने पर ही पुरुष का होना भी निर्भर है, अभी आश्रिता बची हुई है। अभी भी एक आखिरी पहचान तो बाकी है, “मैं कौन?” मैं साक्षी, मैं देखने वाला। बाकी सारी पहचानें मिट गयी हैं, बाकी सारी पहचानों का वो साक्षी हो गया है, पर साक्षी होने के दौरान एक छोटी-सी पहचान बच गयी है कि मैं तो साक्षी हूँ। “मैं किसका साक्षी हूँ? मैं अपनी बाकी साड़ी पहचानों का साक्षी हूँ, पर साक्षी तो मैं हूँ”।

तो बहुत सूक्ष्म रूप से अभी आखिरी गाँठ बाकी है, वो अभी खुली नहीं है। आखिरी कदम लेना अभी बाकी है। इसी आखिरी कदम को पुरुषार्थ कहते हैं, अष्टावक्र की भाषा में। वही वो ‘अर्थ’ है जो पुरुष को चाहिए, वही उसकी कामना है, वही प्राप्य है उसके लिए। पर वो होते ही पुरुष फिर पुरुष भी नहीं रहेगा, न पुरुष बचेगा न प्रकृति बचेगी, मात्र मौन बचेगा; ख़ाली आकाश। न कोई नाच रहा है और न कोई उस नाच को देखने वाला है, गहरी असीम शांति है, हर तरीके की गति से परे, देखने और दिखाने के द्वैत से परे। ‘साक्षित्व’ बड़ी बात है, पर आखिरी बात नहीं है।

अभी तो फिर भी बस इतना कहा जा रहा है, “सारे कष्टों को त्याग कर पुरुषार्थ में सुखपूर्वक स्थित हूँ”। बिलकुल ठीक विवरण दिया जा रहा है अपनी स्थिति का। प्रकृति के भीतर तो हज़ार तरह के कष्ट ही हैं, मन आंदोलित रहता है, शरीर का कष्ट है, ज़बान का कष्ट है, मन का कष्ट है, सारे कष्ट मन के ही कष्ट हैं। तो एक स्थिति आती है जब आप उन सारे कष्टों के साक्षी हो जाते हो, देखने लग जाते हो।

थोड़ी देर पहले हमने बात की थी करुणा की, ‘साक्षित्व’ और ‘करुणा’ में बड़ा गहरा रिश्ता है। आप देख तो रहे हो कि आँसूं बह रहे हैं, पर आप समझ भी रहे हो कि इन आँसुओं का सच क्या है, इसलिए आप प्रभावित नहीं हो रहे- इसी को साक्षित्व कहते हैं। देख तो रहे हैं लेकिन प्रभावित नहीं हो रहे। ‘करुणा’ भी ठीक यही करती है- देखती तो है कि उसके चारों तरफ भावावेग है, पर उस भाव की नदी से उसमें खुद उद्वेग नहीं आ जाता।

सुखपूर्वक स्थित हैं, कष्ट हमें नहीं छू जा रहा, हम तो वही कर रहे हैं जो पुरुष को करना चाहिए, समझ रहे हैं, जान रहे हैं। ‘साक्षित्व’ का मतलब ये नहीं होता है कि हमने पल्ला झाड़ लिया है, ‘साक्षित्व’ का मतलब होता है कि मैं जान रहा हूँ, समझ रहा हूँ। ‘जानना’ और ‘समझना’ ही तो घटना से मुक्ति है।

जो घटना घट रही है उसको वास्तव में आपने समझ लिया तो आप उस घटना से मुक्त हो जाते हैं; यही ‘साक्षित्व’ है। इसके अलावा कुछ नहीं है ‘साक्षित्व’, यही ‘संवेदना’ है, यही ‘करुणा’ है।

श्रोता २: सर, क्या ‘जानने’ से मुक्ति ‘जानने वाले’ से मुक्ति है?

वक्ता: क्या वह अलग-अलग हैं?

जैसे-जैसे आपकी समझ बढ़ती जाती है वैसे-वैसे आपका अनछुआपन बढ़ता जाता है, जैसे-जैसे आप जानते हो कि क्या चल रहा है, वैसे-वैसे आप और अप्रभावित होते जाते हो। जब तक आप समझोगे नहीं कि क्या चल रहा है, आप लिप्त होते जाओगे।जैसे-जैसे आप समझोगे कि क्या हो रहा है वास्तव में, आपकी लिप्तता कम होती जाएगी, आपका प्रभावित होना कम होता जाएगा, आपका ‘साक्षित्व’ गहराता जाएगा।

यही गहरा होना ही ‘पुरुषार्थ’ है। साक्षी को यही चाहिए कि वो और शुद्ध साक्षी बने। यही पुरुष की इच्छा है, कि वो और साफ़ पुरुष बने, और साफ़, और साफ़ होते-होते वो मिट ही जाता है, जैसे खाली आकाश।

श्रोता ३: क्या यही नेति-नेति है?

वक्ता: ‘साक्षित्व’ का अर्थ ही यही है कि इसको जो जान रहा था वह नहीं है, तो पहले मैंने जो अर्थ दिया था मैं उस से दूर खड़ा हूँ। याद रखियेगा कि जब हमने कहा था कि साक्षी घटना से दूर खड़ा है, तो घटता तो कुछ है ही नहीं, सिर्फ़ अर्थ है जो मन प्रक्षेपित करता रहता है। उन्हीं अर्थों की नेति-नेति है साक्षी होना। “ये वो है नहीं जो मुझे लगता था, ये वो है नहीं जो लग रहा है, या जो सामान्यतया लगता है, ये वो घटना है ही नहीं; यही ‘साक्षित्व’ है।

साक्षित्व उदासीनता नहीं है, साक्षित्व बोध है। हम अक्सर साक्षित्व को समझते हैं कि जो हो रहा है मुझे उस से कोई मतलब नहीं है। (दोहराते हुए) साक्षित्व उदासीनता नहीं है, साक्षित्व बोध है।

‘उदासीनता’ का अर्थ हुआ कि मुझे फ़र्क नहीं पड़ रहा कि क्या चल रहा है, ‘बोध’ का अर्थ है कि मैं ठीक-ठीक जानता हूँ कि क्या चल रहा है, और क्योंकि मैं ठीक-ठीक जानता हूँ कि क्या चल रहा है, इसी कारण मैं उस से अप्रभावित हूँ, वो मुझे छू नहीं सकता।

‘साक्षित्व’ की तहें होती हैं, सतह होती हैं। तुम कितना जुड़े हुए हो, इस बात में परतें होतीं हैं। कितना गहरा तुम्हारा मोह है, तुम्हारी वासनाओं में कितनी परतें हैं, तुम्हारी आसक्तियाँ कहाँ तक जाती हैं, इस सबकी परतें हैं। वो जितना कम होती जाती हैं, ‘साक्षित्व’ उतना गहराता जाता है।

‘उदासीनता’ ये हुई कि मैं पहले ही जानता हूँ कि जो हो रहा है वो काम का नहीं है, इसलिए मुझे इससे कोई प्रयोजन ही नहीं है। ‘साक्षित्व’ यह नहीं कहता कि मैं पहले से ही जानता हूँ कि क्या हो रहा है। वो कहता है कि मैं जान रहा हूँ कि क्या हो रहा है, अच्छे से जान रहा हूँ, और इसी कारण अस्पर्शित हूँ।

‘उदासीनता’ कहती है, “मैं जो हूँ, उसे इस घटना से क्या सरोकार?” उदासीनता कहती है, “मैं ‘इस’ घर का मालिक हूँ। आग कहाँ लगी है? ‘उस’ घर में लगी है, तो मैं उदासीन हो सकता हूँ। मुझे इस घटना से क्या सरोकार?” जब मैं कह रहा हूँ कि मुझे इस घटना से कोई सरोकार नहीं, तो मैं कौन हूँ? ‘इस’ घर का मालिक। मैंने अपनी पहचान पकड़ ली है। ‘साक्षित्व’ का अर्थ होता है कि मैं साफ़-साफ देख पा रहा हूँ कि एक घर जल रहा है, और एक मन कह रहा है कि उस घर से मुझे प्रयोजन क्या।

कोई होना चाहिए उदासीन होने के लिए। पहचान उदासीन होती है, साक्षी की कोई पहचान नहीं होती उदासीन होने के लिए।कनाडा और रूस के बीच अगर आइस-हॉकी का मैच हो रहा है, तो भारतीय उदासीन होंगे। समझ आई बात? तुम्हें कुछ होना पड़ेगा उदासीन होने के लिए, कोई पहचान लेनी होगी उदासीन होने के लिए।

श्रोता ४: दूर से क्या दोनों एक-से प्रतीत नहीं होते?

वक्ता: किसको? (व्यंग्य करते हुए) कहते हैं, “दूर से देखा तो गंजे उछल रहे थे, पास जाकर देखा तो अंडे उबल रहे थे”। जिसे दिखाई नहीं देता, उसे कुछ भी एक-सा प्रतीत हो सकता है।

उदासीन होने में तो तुम कुछ हो, (कुछ श्रोताओं का नाम लेते हुए) मान लो तुम ‘शुभांकर’ हो। राहुल जी ने प्रवीण का सिर फोड़ दिया, तो शुभांकर उदासीन रह सकता है, क्योंकि उसका या उसके घर का कुछ नहीं जा रहा। ‘साक्षित्व’ का अर्थ हुआ कि मैं देख पा रहा हूँ कि एक ‘शुभांकर’ नाम का जीव है, जो एक ‘राहुल’ नाम के जीव और एक ‘प्रवीण’ नाम के जीव की लड़ाई के प्रति उदासीन है।

श्रोता ५: क्या ऐसा होता है कि मन का एक भाग मन के दूसरे भाग को देख रहा होता है?

वक्ता: ये आप हमेशा कर रहे होते हो। मन का एक हिस्सा दूसरों को देख रहा होता है और दूसरे हिस्से इस हिस्से को देख रहे होते हैं; ये तो आप हमेशा ही कर ही रहे होते हो। आप जैसे पूरी दुनिया के बारे में विचार रखते हो, वैसे अपने बारे में भी रखते ही हो ना; यही है खंडित होना। मैं अपने ही मन के हिस्सों को देखकर उनके बारे में धारणा बना रहा हूँ, ये साक्षित्व नहीं है, वो तो हमारी आत्म-अवधारणा, सेल्फ-कांसेप्ट का खेल है।

श्रोता ६: कई बार ऐसा होता है कि कोई भी विचार मन में आता है, तो साथ ही एक और विचार भी आ जाता है कि क्या यह मेरा असली स्वभाव है। ऐसा क्यों होता है, कृपया बताएँ।

वक्ता: तुम्हारी दो अवस्थाएँ हो सकती हैं, प्रकृतिस्थ या समाधिस्थ। स्वभाव का मतलब तो दोनों ही हो सकता है। ‘मेरे स्वभाव’ से क्या अर्थ है? तुम स्त्री हो, प्रकृतिस्थ होना भी स्वभाव है तुम्हारा, और समाधिस्थ होना भी स्वभाव है तुम्हारा। अब तो यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम किस रूप में अपने को देखना चाहती हो, अपनी प्रकृति को देखना चाहती हो या अपनी समाधि को, अपनी प्रकृति से ज़्यादा प्रयोजन है या स्वभाव से। और तुम दोनों ही हो सकती हो, प्रकृतिस्थ भी और समाधिस्थ भी।

बुद्ध समाधिस्थ हैं, दुःख से मुक्त हैं। पशु-पक्षी प्रकृतिस्थ हैं, और दुःख से मुक्त हैं। समाधिस्थ होकर भी दुःख से मुक्ति है, प्रकृतिस्थ होकर भी दुःख से मुक्ति है। तो तुम देखो कि तुम्हें किधर जाना है। तो स्वभाव से आशय क्या है तुम्हारा? लेकिन एक बात साफ़ समझ लेना, तुम पशु-पक्षी नहीं हो, बहुत दूर आ चुकी हो, अब तो प्रकृतिस्थ होने के लिए भी तुम्हें पहले समाधिस्थ होना पड़ेगा।

जो अपने घर से कभी चला ही न हो, जो घर में ही स्थित हो, जो प्रकृतिस्थ हो, उसे चलने की कोई ज़रुरत नहीं, वो पहले ही बैठा है, उसकी पशु-पक्षी-पौधों वाली हालत है। पर जो दूर आ चुका हो, उसे वापस लौटना पड़ेगा, समाधि की ओर आना पड़ेगा, नहीं तो वो प्रकृतिस्थ भी नहीं हो पाएगा।

शून्य, से प्रकृति और पुरुष, दोनों जन्मते हैं। प्रकृति का ही हिस्सा है अहंता, अहम् भाव। विशुद्ध प्रकृति में यह अहम् भाव भी विशुद्ध ही होता है, ये शून्य से सटा हुआ रहता है, केंद्र से सटा हुआ रहता है। लेकिन वही प्रकृति जब पुरुष के संसर्ग में आ जाती है, तो ये ‘अहम् भाव’ तमाम चीज़ों के साथ अपने आप को जोड़ लेता है। अब प्रकृति साफ़ नहीं रह गई, अब उसमें बहुत कुछ कृत्रिम जुड़ गया है।

आपको अगर साफ़ प्रकृति देखनी है, बिल्कुल साफ़ प्रकृति, तो आपको उनको देखना पड़ेगा जिनको आप ‘निर्जीव’ कहते हो। जैसे नदी और पर्वत, वो विशुद्ध प्रकृति है। उनसे थोड़ा-सा हट कर जानवर और पेड़-पौधे हैं, और जो प्रकृति से बिल्कुल हट गया है, वो इंसान है। इंसान प्रकृति से हट ही इसलिए गया है क्योंकि वो अपने केंद्र से हटा हुआ है। प्रकृतिस्थ होना बड़ी प्यारी बात है, पर प्रकृतिस्थ होना अब आपके लिए तभी संभव होगा जब आप पहले समाधिस्थ होंगे।

एक महावीर को पशुओं सी दशा में आना पड़ता है समाधि में। आप महावीर को देखें और जंगल के किसी जानवर को देखें, कोई अन्तर नहीं है, वही निर्दोषता, वही सरलता और वही अकृत्रिमता, दोनों ने ही कपड़े त्याग दिए हैं, दोनों ही अब पूरी तरह प्रकृति हो गए हैं। लेकिन पशु को वो प्रकृतिगत अवस्था प्राप्त है और महावीर को प्राप्त करनी पड़ी समाधि के माध्यम से, महावीर को समाधि से गुज़रना पड़ा अब पशु बनने के लिए।

बस यही कह रहा हूँ कि आप को तो अब प्रकृतिस्थ होने के लिए भी पहले समाधिस्थ होना पड़ेगा।

तो इसलिए जब स्वभाव की बात करती हो, तो बहतर यही होगा कि अपना स्वभाव अपनी प्रकृति न मानो, अपना स्वभाव उस आंतरिक शून्य को मानो, आत्मा को मानो, समाधि को मानो। ये सवाल अर्थहीन है, “क्या यह मैं हूँ?” कुछ भी तुम नहीं हो। तुम कुछ भी तुम नहीं हो। ये ऐसी ही बात है कि तुम्हारे सामने हज़ार चीज़ें आती जाएँ, एक के बाद एक, और तुम उनसे पूछो, “क्या है?” कुछ नहीं है।

तुम्हारा स्वभाव है शून्यता, और तुम कुछ चीज़ों को देखती हो और पूछती हो, “क्या यह मैं हूँ?” वो शून्य है क्या? जब वो शून्य हो नहीं सकता, तो वो तुम कैसे हो सकती हो? जो कुछ भी मन की दुनिया में है उसके साथ तुम अनुपात, लम्बाई, चौड़ाई, मात्रा, संख्या, सब जोड़ सकते हो। ‘साक्षित्व’ मन का ‘आखिरी से एक पहले वाला’ पायदान है।

मन का आखिरी छोर है आत्मा, और उस से एक पहले जो है, उसका नाम है ‘साक्षी’। वो साक्षी अभी मन की दुनिया में है, जो मन की दुनिया में है उसे नापा-तौला जा सकता है, उसकी लम्बाई-चौड़ाई होती है, उसी तरह साक्षी की अवस्थाएँ होती हैं। मन की दुनिया का ही तो है, नाप लो, तोल लो, तुम एक स्तर भी बना सकते हो। ‘साक्षी’ मन का वो आखिरी कोना है जो बाकी कोनों को देख रहा है, आखिरी है, पर है अभी मन में ही। इसलिए ‘साक्षी’ से आगे जाना होता है, इसलिए तो ‘साक्षी’ होना मात्र एक विधि होता है। ‘साक्षित्व’ आखिरी बात नहीं है, वो विधि है बस, कुछ और हो जाने की विधि है।

श्रोता ६: सर, साक्षी को अगर एक स्तर में बाँट दें, तो क्या ये साक्षी को देखना हो गया?

वक्ता: हाँ, न देख पाते तो ‘साक्षी’ शब्द कहाँ से आता। यदि साक्षी ऐसा होता जिसे देखा नहीं जा सकता है, तो कौन कहता कि ‘साक्षी’ जैसा कुछ होता है? जो तुमने देखा नहीं उसके लिए कोई शब्द हो सकता है क्या? तो ‘साक्षी’ को कौन देख कर ये नाम दे रहा है? यानि की कोई है उसके पीछे, इसलिए वो आखिरी नहीं है। मन में जो कुछ है, वो नापा-तोला जा सकता है, उसे बढ़ाया-घटाया भी जा सकता है, उस से आगे भी जाया जा सकता है। तो साक्षी के आगे कुछ है अभी, पर ‘आत्मातीत’ जैसा कुछ नहीं होता।

श्रोता ६: मुझे कभी कुछ दिखता है कभी नहीं दिखता है।

वक्ता: तुम जो कह रही हो वो बहुत प्रारंभिक बात है अभी। उसे तो अभी ‘साक्षित्व’ भी नहीं कहा जा सकता, उसको तो बस ‘अवलोकन’ कहा जा सकता है। ‘साक्षित्व’ जितना असली होगा, उतना सूक्ष्म होगा। ये विचार ही नहीं उठेगा, “मैं साक्षी हूँ”। जब अवलोकन करते हो तो खूब विचार उठता है- मैं अवलोकन कर रहा हूँ।

‘साक्षित्व’ जितना गहराता जाएगा उतना तुम्हें पता लगना बंद हो जाएगा कि- मैं साक्षी हूँ। जब ‘मैं हूँ’ का भाव शिथिल होता जाएगा, तो’ मैं साक्षी हूँ’ का भाव कैसे बचा रह जाएगा? जो परम साक्षी होता है, उसे ऐसा कोई भाव ही नहीं होता कि- मैं साक्षी हूँ।

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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