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लेख
माता-पिता से वास्तव में प्रेम है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
15 मिनट
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प्रश्न: सर, माता-पिता का प्रेम निःस्वार्थ होता है पर उनकी बात हर बार ठीक नहीं लगती। क्या करें?

वक्ता: सवाल इस बात का बिल्कुल भी नहीं है कि हम सहमत होना चाहते हैं या नहीं। है ना? बात करीब-करीब वैज्ञानिक है। जैसे विज्ञान होती है कि उसमें तुम्हारा मत या मेरा मत नहीं चलता, उसमें हम तथ्योँ को देखते हैं कि वास्तव में हो क्या हो रहा है, वास्तव में कितना समय ले रहा है, पेंडुलम, वास्तव में इस रिएक्शन में कितनी ऊर्जा जा रही है, तथ्य क्या हैं, हम तथ्यों को देखना चाहते हैं। है ना?

तो इसी प्रकार जीवन को भी समझना है, रिश्तों को भी समझना है तो तथ्यों को देखना पड़ेगा कि तथ्य क्या इशारा करते हैं। एक बात समझना साफ़-साफ़, हम जो भी करेँगे, उसमें उतनी ही गुणवत्ता होगी जितनी हमारे मन में है। सड़क पर चलते आम आदमी को देखो, अगर तुम पाओ कि वो डरा हुआ है, आशंकित है, दुविधा में है, संशय में है, भविष्य को लेकर चिन्ता में है, आसानी से क्रोधित हो जाता है, तो क्या यही उसके रिश्तों की गुणवत्ता नहीं होगी? एक हिंसक व्यक्ति के रिश्ते क्या प्रेमपूर्ण हो सकते हैं? क्या एक हिंसक मन से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध निकल सकते हैं? समझना इस बात को, तथ्यों को देखना चाहते हैं हम।

एक आदमी है जो जीवन में जो भी कुछ करता है, मुनाफ़े के लिये करता है। जो भी कुछ करता है, मुनाफ़े के लिये करता है। उसने विवाह भी किया तो ऐसे किया, ‘सबसे स्वीकार्य लड़की कौन सी मिल रही है। जो मुझे भी ठीक लगे, औरों को भी ठीक लगे। औरों की भी मान्यता मिल जाए, दहेज भी मिल जाए’। मुनाफ़ा देखकर। उसने बच्चे भी कुछ इसी तरीके से पैदा किए। पूरी योजना बनाकर, प्लानिंग के साथ। वो दुकान पर बैठता है, दफ्तर जाता है, वो लगातार मुनाफ़े क़ी कोशिश में है। क्या उसके संबंधों में मुनाफ़ाखोरी नहीं होगी? और तुम देखो चारों तरफ़ अपने समाज़ को। क्या वास्तव में जो कुछ भी हम अपने संबंधों में पाते हैं, चाहे वो माँ-बाप से हो या दोस्त-यार से, क्या वो बेशर्त होता है? क्या उसके पीछे उम्मीद नहीं छुपी होती? और जब वो उम्मीद जब टूटती है तो क्या वो रिश्ता हीं नहीं टूट जाता? ‘तूने अपनी मर्ज़ी से शादी कैसे कर ली? तू आज से मेर बेटा ना रहा। हमने तुझे पाला-पोसा, बड़ा किया ,पैसे खर्च किए’। ध्यान से देखो, ये जो इतनी ऑनर किलिंग्स हो रहीं हैं, वो किस शर्त पर होती हैं? उनके पीछे तर्क बस एक होता है, ‘हमने तुझे पैदा किया, तू हमारी जायदाद है, तू स्वतंत्र निर्णय कैसे ले सकती है, शादी का?’ और तुम कह रहे हो कि हमें जो मिलता है बेशर्त होता है? काश कि ये बेशर्त होता। काश कि ये बेशर्त होता! हज़ार में से एक फूल ऐसा खिलता है जो बेशर्त खुशबू देता है सबको अपनी। काश कि ऐसे फूल और खिलें! हम चाहते हैं कि ऐसा हो, पर दुर्भाग्य ये है कि ऐसा होता दिखता नहीं। बस अपेक्षाएँ दिखती हैं। ‘बेटा हमें तुमसे बड़ी उम्मीदें हैं’ और उम्मीदों के तले बेटे का जीवन बड़ा दबा-दबा सा है, मरा-मरा सा है।

फिर कुछ मूलभूत बातों पर ध्यान दो। तुम एक ख़ास उम्र पर पहुँच चुके हो। और अपने जीवन को तुम देखोगे तो पाओगे कि कुछ विशेष नहीं है, साधारण, रूख़ा-सूखा। अकसर संशय रहते हैं, दुविधाएँ रहती हैं। कल को तुम पिता बन जाते हो और तुम अपने बेटे को पढ़ा देते हो कि पिता देवता होता है, माँ देवी होती है। तुम वही हो जो आज हो। क्योंकि तुम्हारी पिता बनने की उम्र तो हो चुकी है। चाहो तो आज बन सकते हो। पर मन तो वही है तुम्हारा, जो अभी है; बँटा हुआ, अस्पष्ट। और बेटा तुम्हारी पूजा कर रहा है। तुम्हारा बेटा हो गया और वो तुम्हारी पूजा कर रहा है। तुम्हें ही कैसा लगेगा? तुम कहोगे, ‘मुझमें है क्या पूजा करने लायक?’ पर नहीं, हम ईमानदारी से अपने बच्चों को ये नहीं बताते, ‘मुझमें कुछ नहीं है ऐसा जो मैं तुझे दे सकूँ’। हम इसके विपरीत उनको ये पाठ पढ़ा देते हैं कि माता-पिता तो देवी- देवता होते हैं। बच्चा बेचारा निर्भर है, वो और करेगा क्या? उसे ये बातें माननी पड़ती हैं। तुम मुझे बताओ ना, मैं पूछ रहा हूँ। आज तुम्हीं पिता बन जाते हो तो क्या वास्तव में हो देवता अपने बच्चे के लिये? तुम माँ बन जाती हो, तुम किस हक़ से कहोगी अपनी बेटी को कि मुझे देवी मानो? पर हमें यही बताया गया है।

साधारण इंसान हैं हम। और अगर तुम्हें वास्तव में प्रेम होगा तो तुम तथ्य को तथ्य कि तरह देखोगे। जिसे उजाला करना होता है ना, पहले वो अँधेरे को स्वीकार करता है। वो कहता है कि अँधेरा है, अब मैं दीप जलाऊँगा। जो ये कह दे कि अँधेरा है ही नहीं, वो उजाला करेगा क्यों? तुम्हें अगर वास्तव में प्रेम होगा तो तुम इस बात को मानोगे कि रिश्ते-नाते उम्मीदों पर कायम हैं, व्यापार की तरह हैं। और फिर कहोगे, ‘व्यापार होना तो नहीं चाहिये। और मुझे प्रेम है, और मैं इसे बदल दूँगा। मैं झूठ नहीं बोलूँगा अपने आप से कि व्यापार चल तो रहा है पर अपने आप को बोलूँ कि नहीं चल रहा है। निश्चित रूप से व्यापार चल रहा है। पर बहुत चल चुका व्यापार, अब बदल दूँगा’। ये प्रेम की भाषा होती है। क्योंकि प्रेम पीछे नहीं हटता सच से। प्रेम कभी भी सच से आँखें नहीं चुराता। और धोखे की भाषा ये होती है कि हम मानेंगे ही नहीं कि रिश्तों में अँधेरा है। हम बिल्कुल नहीं मानेंगे।

तुम कैसी बातें कर रहे हो? क्या तुम जानते हो कि तुम जिस जमीन पर अभी बैठे हुए हो, यहाँ पर सौ पैदा होने वाली लड़कियों में से पन्द्रह से ज्यादा की हत्या कर दी जाती है। माँ-बाप ही हैं जो हत्या कर रहे हैं और तुम कह रहे हो कि उनका प्यार बेशर्त होता है? तुम तथ्यों को भी नहीं देखना चाहते? तुम आँकड़ों को नहीं देखना चाहते? तुम संख्याओं को नहीं देखना चाहते? सौ में से पन्द्रह की हत्या कर दी जाती है और कम से कम दस, बीस, पचास ऐसी होती हैं जिनको लड़की होने के कारण कम खाना दिया जाता है। उनका पूर्ण शारीरिक विकास भी नहीं हो पाता। और ये तथ्य हैं, किसी का मत नहीं है। और तुम कह रहे हो कि माँ-बाप का प्यार बेशर्त होता है? एक बहुत दुःखद आंकड़ा तुम्हें बताता हूँ। दिल रो उठेगा तुम्हारा। उत्तर भारत में जिन परिवारों में आखिरी बच्चा लडक़ा है, ऐसे परिवारों की संख्या दो-तिहाई से अधिक है। तीन-चौथाई तक है कि घर का जो सबसे छोटा है, वो लड़का है। इसका आशय समझ रहे हो? थोड़ा सा बुद्धि का प्रयोग करो। इसका मतलब समझ रहे हो? इसका क्या मतलब है?

(सभी चुप हैं)

लड़कियाँ तब तक मारी गयीं हैं जब तक गर्भ में लड़का नहीं आया। क्योंकि लड़का दहेज़ लायेगा, क्योंकि लड़का बुढ़ापे का सहारा बनेगा। और तुम कह रहे हो कि प्यार बेशर्त है। मैं तथ्यों की बात कर रहा हूँ। इसी ज़मीन के तथ्यों की बात कर रहा हूँ। घर का सबसे छोटा बच्चा आमतौर पर लड़का होगा। और तुम कह रहे हो बेशर्त प्यार? यहाँ तो पूरा व्यापार है। पूरा-पूरा व्यापार चल रहा है।

(गहरी चुप्पी)

नहीं, मत करो कल्पनाएँ। कल्पनाएँ मत करो। पर अपने समाज की ओर, अपनी दुनिया की ओर ज़रा आँखें उठा कर ध्यान से देखो। हमें कोई बड़ा मज़ा नहीं मिलता है ये सब बातें तुम्हारे सामने रखने में। बड़ा आनंद का क्षण होगा जब ये सब बातें रहें ही ना। पर जब हैं तो छुपाएँ कैसे? जब बीमारी है तब उस पर पर्दा कैसे डालें? और जब तक बीमारी पर पर्दा डाले रहोगे तो क्या इलाज़ शुरु हो सकता है? इलाज़ कि दिशा में क्या पहला कदम ये नहीं है कि बीमारी को बीमारी की तरह स्वीकार किया जाये? उत्तर दो बेटा।

कई श्रोता (एक साथ): जी सर।

वक्ता: मैं समझ रहा हूँ, तुम्हें दुःख हुआ। पर अगर प्रेम के कारण दुःख हुआ है तो अब ये तुम्हारा धर्म है कि स्थिति को बदल डालो। व्यक्तियों को बदलने की बात नहीं कर रहे हम, रिश्तों को बदलने की बात कर रहे हैं। अंतर समझना। माँ-बाप को कौन बदल सकता है? क्या दूसरे माँ-बाप ले कर आओगे? व्यक्ति नहीं बदले जा सकते, पर सम्बन्ध की गुणवत्ता बदली जा सकती है। या नहीं?

कई श्रोता (एक साथ) : जी सर।

वक्ता: रिश्तों का आधार बदला जा सकता है या नहीं? वही रिश्ता जो पहले डर पर और लालच पर आधारित हो, क्या वही रिश्ता प्रेम पर आधारित नहीं हो सकता, उसी व्यक्ति के साथ? उत्तर दो, जल्दी से।

सभी श्रोता (एक साथ): जी सर, जरूर हो सकता है।

वक्ता: और हम यही चाह रहे हैं कि रिश्तों की गुणवत्ता बदले। घरों का माहौल बदले। ये जो प्यार के नाम पर व्यापार है, वो बंद हो ताकि वास्तव में प्यार आ सके। समझ रहे हो?इसमें तुम्हें दुःख हुआ है और हो सकता है कि ये बात जब तुम सामने रखो तो तुमसे जुड़े हुए लोगों को भी दुःख हो। पर वो दुःख समझ लेना, सर्जरी की तरह ही है। बीमारी होती है तो ऑपरेशन करना पड़ता है। उसमें कष्ट थोड़ा हो सकता है पर उससे जान बच जाती है। जान बच जाएगी। स्वास्थ्य मिल जायेगा। अन्यथा बीमारी को पाले रह जाओगे।

श्रोता १: मुझे अभी नहीं पता कि मुझे अभी कैसा लग रहा है, अपने माँ-बाप के प्रति?

वक्ता: अब एक भूल मत करना। इस बात को लेकर के माता-पिता के प्रति ज़रा भी गाँठ नहीं बाँध लेना अपने मन में। ज़रा भी नहीं। कोई बात नहीं। देखो, हम सब साधारण लोग ही हैं ना? हम सब को विरासत से पता नहीं क्या-क्या मिला हुआ है। कितना कचरा है जो हमें दे दिया गया है। हमें भी, बड़ों को भी, माँ-बाप को भी, सबको। सबके पाँव फिसलते हैं। ध्यान रहे कि मन का एक छोर, दूसरे पर आने को बड़ा आतुर रहता है। एक छोर तो ये होता है कि माँ-बाप देवी-देवता हैं और जैसे ही ये सिद्ध हो जाये कि ऐसा नहीं है तो दूसरे छोर पर कूद जाएगा कि ये तो भ्रष्ट हैं। नहीं, दूसरे छोर पर नहीं कूद जाना। वो प्रेम के अधिकारी हैं। वो जैसे भी हैं, शरीर तुम्हें उन्होंने ही दिया है। ठीक है, वो तुम्हें बोध नहीं दे सकते पर वो तो कोई माँ-बाप नहीं दे सकता। पर शरीर तो उन्हीं से पाया है और शरीर का महत्व है। और बहुत समय तक उनके साथ रहे हो। मानवता का तकाज़ा है कि जब जिसके साथ इतना चले हो, जो तुम्हारा इतने सालों का हमसफ़र है; और पाओ कि वो अँधेरे में घिरा हुआ है तो उसकी मदद करो। उससे पीछा छुड़ा कर नहीं भागते कि मैंने तो तुम्हें देवता समझा था और तुम भ्रष्ट निकले, तो अब मैं तुमसे पीछा छुड़ा लूँगा। नहीं। बिल्कुल नहीं। अगर हिम्मत होगी, अगर प्रेम होगा, अगर काबिलियत होगी तो तुम कहोगे, ‘तुम्हें भी दूँगा। भले उसमें मुझे कष्ट हो, भले उसमें कितनी भी मेहनत लगे। पर अगर मैंने कुछ पाया है तो वो बाँटूँगा। माँ मुझे मिला है, तू भी ले। माँ, एक नयी चीज़ है जो देख पा रहा हूँ, तू भी देख’। अगर प्यार होगा तो ये करोगे। पीछे नहीं हट जाओगे कि माँ मुझे तो मिल गया, तू अँधेरे में रह। और हम अकसर यही करते हैं। हमें कुछ दिख भी जाता है तो हम कह देते हैं कि इनको क्या बतायेंगे ये तो बुजुर्ग लोग हैं।

श्रोता २: सर माता-पिता भी तो अपनी सुरक्षा के लिये ही ऐसा करती हैं ना?

वक्ता: हाँ। साधारण सी बात है ना। इसमें इतना कुछ बुरा नहीं मानना है। पर स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे ही चारों ओर ये हो रहा है। और ये मानना पड़ेगा कि आदमी का मन ऐसा ही है। आदमी का मन ऐसा ही है। और जब तुम ये साधारण सी बात मान लोगे तो रिश्ते में एक नयी चमक आती है क्योंकि अब वो रिश्ता ईमानदार हो जाता है। अब वो बेईमानी का रिश्ता नहीं है।

देखो, एक जवान आदमी निकलता है, पढ़ाई करके। तुम भी निकलोगे। तुम में से बहुत लोग आज दिल में आग लिये हुए हो। तुम कहते हो एक कि साफ़ जीवन चाहिए, भ्रष्टाचार से मुक्त। कहते हो ना? तुम में से कितने लोग चाहते हो कि तुम बिल्कुल ही गिरे हुए, सड़े हुए इन्सान बनो? नहीं चाहते ना? और कोई नहीं चाहता था। आज से पच्चीस-तीस साल पहले तुम्हारे माँ-बाप भी पढ़ लिख कर निकले थे। उन्होंने भी यही सोचा था कि एक साफ़ जीवन जीयेंगे। पर हम अच्छे से जानते हैं कि हिन्दुस्तान में निन्यानवें प्रतिशत लोग हर तरफ से भ्रष्ट हो जाते हैं। और उस भ्रष्ट होने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण ये रहता है कि बच्चे को पढ़ाना है, लिखाना है, बेटी का दहेज़ इकट्ठा करना है। तो घूस भी लो और दुनिया भर के अनैतिक काम भी करो। ऐसा होता है कि नहीं होता है?

कई श्रोता (एक साथ): जी सर।

वक्ता: अब तुम्हारी यह उम्र आ गयी है कि तुम खुल कर कुछ बातों पर सवाल करो। अगर वास्तव में तुम्हें प्रेम होगा तो तुम पूछोगे, ‘पिताजी आपने ये सब मेरे लिये किया? अपनी ओर से तो आपने मेरा भला ही करना चाहा था पर ऐसा हुआ नहीं’। तुम डर नहीं जाओगे कि उनसे कैसे पूछूँ कि पिताजी आप घूस लेते हो क्या? और ऐसा नहीं है कि तुम्हें पता नहीं है, पता सब है। जब हर घर में यही हो रहा है तो तुम्हें भी पता है। आप धंधे में बेईमानी करते हो ना? ये तुम्हें भी पता है परन्तु अगर तुम्हें प्रेम होगा तो कुछ छुपाओगे नहीं। तुम उनको उद्घाटित करोगे। तुम बात करना चाहोगे। तुम कहोगे, ‘आप जो भी कुछ क़ह रहें हैँ, मैं जानता हूँ कि यह करने में आपको भी बुरा लग रहा होगा क्योंकि एक दिन आप भी जवान थे और आपने भी साफ़ जीवन जीना चाहा होगा। एक दिन आप भी पच्चीस साल के थे और आपने चाहा होगा कि रोशनी में जियूँ, कोई काला धन्धा ना करुँ। पर आप पर दवाब पड़े, सामाजिक दवाब पड़े, रीतियों के दवाब पड़े। मेरे आने से आप पर बड़ा दवाब पड़ा होगा’। अगर तुम सही में प्यार करते हो तो कहोगे, ‘आप फ़िर वैसे हो जाईये जैसा आप होना चाहते थे ! और जिसको आप जानते थे कि जीवन ऐसे ही बिताना चाहिये, वैसे बिताईये। अगर आप ये सब मेरे लिए कर रहे हैं तो कृपा करके ना करिये क्योंकि मैं जानता हूँ कि आपके अपने तो कुछ खास खर्चे हैं नहीं। और ध्यान देना, आम तौर पर पुरुष कितना भी भ्रष्ट हो, उसके अपने खर्चे कुछ खास नहीं होंगे। वो इकट्ठा करता है परिवार के लिये। उसकी चाहत यही है कि परिवार जनों के काम आये। अब घरवालों का क्या फ़र्ज़ है? उससे क्या बोलें? कि अगर ये सब मेरे लिये कर रहे हो तो…

सभी श्रोता (एक साथ): ना करो।

वक्ता: अगर तुम्हें वास्तव में प्रेम होगा तो तुम ये कहोगे, ‘अगर ये सब मेरे लिए करते हो तो ना करो। क्यों अपना ही मन गंदा कर रहे हो? और मैं तुमसे प्यार करता हूँ और इसलिये तुमसे कह रहा हूँ कि अपना मन गंदा मत करो। तुम्हारा ये घूस से इकट्ठा किया हुआ पैसा मेरे क़िसी काम नहीं आयेगा। मैं गर्व के साथ कहना चाहता हूँ कि मेरा पिता एक अच्छा पिता है। एक साफ़ आदमी है। मत दो मुझे इतना पैसा। हम थोड़ा जी लेंगे गरीबी में। फ़ाका-मस्ती कर लेंगे।

अब हिम्मत चाहिए ये कहने के लिये और हिम्मत सिर्फ प्यार से आ सकती है। मैं चुनौती दे रहा हूँ तुम सबको। क्या है इतना प्यार? अगर इतना प्यार होगा तो समस्याओं से, गंदगी से आँखें मत चुराना। उनका सामना करना और साफ़ करना क्योंकि प्यार यही करता है। प्यार में धोखा नहीं होता। समझ रहे हो?

सभी श्रोता (एक साथ): जी सर।

वक्ता: और बड़े सुन्दर क्षण होंगे वो। आँसुओं से सारा मैल धुल जाएगा। निश्चित रूप से आँसू बहेंगे। तुम बैठोगे, माँ बैठेगी और खूब आँसू बहेंगे। बरसों का जो दर्द जमा है, वो सब बह जाएगा उन आँसुओं के साथ। पर डरना नहीं। आँसुओं का अर्थ ये नहीं होता कि पीड़ा हो रही है। आँसु सिर्फ पीड़ा से नहीं निकलते। डरना मत कि ‘ये बात मैं कह कैसे दूँ? इस बात को सामने कैसे रखूँ?’समझ रहे हो?

सभी श्रोता (एक साथ): जी सर।

वक्ता: ठीक है।

‘संवाद’ पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

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