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लेख
मंदिर या स्कूल? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
9 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मंदिर या स्कूल?

आचार्य प्रशांत: तनिष्क तुमने तो पहले ही बहुत कुछ तय कर लिया। तुम पूछ नहीं रहे हो, तुम मुझे चुनाव करने के लिए विवश कर रहे हो। तुम कह रहे हो, या तो मंदिर मिलेगा या स्कूल मिलेगा। ज़बरदस्ती करोगे क्या भाई?

हम तो उपनिषदों की सुनते हैं, किसी और की ज़बरदस्ती तो सुनेंगे नहीं। और उपनिषद् हमें बताते हैं कि जीने के लिए इंसान को, अपनी पूरी प्रगति के लिए इंसान को, विद्या और अविद्या दोनों चाहिए।

विद्या माने क्या? वो जहाँ पर तुम्हें तुम्हारे मन का और जीवन का यथार्थ पता चलता है। जहाँ तुम जान पाते हो कि तुम्हारी अंदरूनी सच्चाई क्या है। और तुम्हारे मन की जो उदासी है और तड़प है और चंचलता है, वो क्यों है और किसकी ख़ातिर है। उसको विद्या कहते हैं। और अविद्या क्या है? बाहरी दुनिया का, भौतिक सांसारिक विषयों का ज्ञान लेने को, अविद्या कहते हैं। उपनिषद् कहते हैं दोनों चाहिए। कहते हैं, देखो! जो जगह ऐसी होगी, या जो व्यक्ति ऐसा होगा जो सिर्फ़ अविद्या के फेर में पड़ा रहेगा, वो बड़े गहरे अँधेरे में जाकर गिरेगा। अविद्या समझ रहे हो क्या है? दुनियाभर की चीज़ों का ज्ञान — गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, भौतिकी, भूगोल, भाषाएँ, अर्थशास्त्र; ये सब अविद्या में आते हैं।

तो हमारे जो स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटीज़ हैं, इनमें जितने विषय पढ़ाये जाते हैं, वो अविद्या के अंतर्गत आते हैं। और उपनिषद् कहते हैं कि, 'जो सिर्फ़ अविद्या की पूजा करेगा, जो सिर्फ़ अविद्या पाएगा, वो बड़े अँधेरे में जाकर के गिरेगा।' बात पूरी नहीं हुई, आगे वो कहते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ जो सिर्फ़ मात्र विद्या की आराधना करेगा, वो और ज़्यादा गहरे अँधेरे में जाकर गिरेगा।

विद्या माने मंदिर का क्षेत्र, मंदिर जोकि पार जाने का तुम्हारे लिए द्वार होता है। मंदिर, जहाँ पर अध्यात्म—जिसका बाहरी रूप धर्म है—पल्लवित पुष्पित होता है। तो देखो क्या कह रहे हैं उपनिषद!

उपनिषद् कह रहे हैं, अगर सिर्फ़ अविद्या होगी, माने सिर्फ़ स्कूल-स्कूल होंगे तो जा करके गहरे अँधेरे में गिरोगे। और सिर्फ़ अगर मंदिर होगा और अध्यात्म की बातें होंगी, तो उससे भी ज़्यादा अँधेरे गहरे में जाकर के गिरोगे। और फिर आगे का श्लोक उपनिषद् का कहता है, 'लेकिन जो विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जान लेता है, वो अविद्या के द्वारा मृत्यु को पार कर जाता है और विद्या के द्वारा अमृत्व को प्राप्त कर लेता है।' माने दोनों चाहिए; ये दोनों चाहिए।

हमें मंदिर और स्कूल दोनों चाहिए। मंदिर से भौतिक ज्ञान नहीं मिल सकता और स्कूल से आध्यात्मिक ज्ञान नहीं मिल सकता। लेकिन हमें जो स्कूल से भौतिक ज्ञान मिलता है, सांसारिक, वो भी चाहिए और हमें मंदिर से जो आध्यात्मिक ज्ञान मिलता है, वो भी चाहिए। तो ये जो दो पक्ष हैं; जिनमें से एक सिर्फ़ मंदिर की वकालत करता है और दूसरा सिर्फ़ स्कूल की पैरोकारी करता है। ये दोनों ही भ्रमित हैं, दोनों ही बात को समझ नहीं रहे।

अगर सिर्फ़ स्कूल-स्कूल होंगे और मंदिर नहीं होगा, तो बड़ी विक्षिप्तता की स्थिति आ जाएगी। क्योंकि जो वहाँ से बच्चे और जवान नागरिक पैदा होंगे स्कूलों से, उन्हें बाहरी दुनिया का तो बहुत कुछ पता होगा, अपने भीतर का वो कुछ नहीं जानेंगे, अपने प्रति अनजान रहेंगे। अपने प्रति अनजान रहेंगे और उनके विचार कहाँ से आ रहे हैं, भावनाएँ कहाँ से उठ रही हैं, उनकी वृत्तियाँ उनसे क्या करा रही हैं, ये अहम् क्या चीज़ होती है; इसका उनको कुछ पता ही नहीं चलेगा। तो ज़िंदगी उनकी बड़ी लड़खड़ाती हुई, अँधे तरीके से तनाव में बीतेगी। ये उन समाजों की बात कर रहा हूँ मैं, जहाँ स्कूलों पर तो बहुत ज़ोर दिया जाएगा, मंदिरों पर नहीं।

और जो ऐसे समाज होंगे जहाँ मंदिरों पर तो पूरा ज़ोर दिया जाएगा लेकिन स्कूलों पर नहीं, वहाँ ये हालत होगी कि मंदिरों में भी जो बात बताई जा रही है, वो किसी के पल्ले नहीं पड़ेगी। क्योंकि आप अध्यात्म को भी पूर्णतया तभी समझ सकते हैं, आप अपने जीवन को, अपने मन को भी तभी समझ सकते हैं, जब आप मन के विषय को समझते हों। मन कभी अकेला तो रहता नहीं न, उसमें भीतर हमेशा विषय होता है; विषय क्या होता है? संसार। मन के विषय को जानें बिना समझे बिना, मन को समझ पाना बड़ा मुश्किल है, तो इसीलिए ये दोनों चाहिए होते हैं।

एक स्वस्थ समाज में मंदिर और स्कूल दोनों को समादर मिलेगा, दोनों की जगह होगी। लेकिन अभी खेद की बात ये है कि हमारे समाज में और हमारी विचारधाराओं में, हमारी राजनीति में, दो पक्ष बँट गए हैं — एक दाँया, एक बाँया। एक कहता है, मंदिर ही ज़्यादा महत्वपूर्ण है और दूसरा कहता है, नहीं, मंदिर बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं है, स्कूल बनाओ, कॉलेज बनाओ, अस्पताल बनाओ। ये दोनों ही पक्ष, अगर हम उपनिषदों की सुनें, तो अँधेरे में जाकर के गिरने वाले हैं। ये दोनों ही पक्ष दुर्घटना और दुख को न्योता दे रहे हैं। अगर तुम ऋषियों से जाकर के पूछोगे तो वो कहेंगे, दोनों की जगह है, अपनी-अपनी जगह पर हमको दोनों चाहिए।

मंदिर ऐसा हो जहाँ स्कूलों का जो भौतिक ज्ञान हो, उसका उपयोग करके अध्यात्म को आगे बढ़ाया जाए और स्कूल ऐसे हों जो मंदिरों द्वारा प्रदत्त मूल्यों पर आधारित हों। मंदिरों में स्कूलों से आयी हुई सूचना हो, ज्ञान हो, नॉलेज हो और स्कूलों में मंदिरों से आया हुआ प्रकाश हो। तब जाकर के व्यक्ति और समाज आगे बढ़ पाएँगे अन्यथा नहीं। तो ये जो हमने व्यर्थ की बहस खड़ी कर रखी है, जहाँ तुम मज़बूर कर रहे हो लोगों को कि या तो ये चुनो या तो वो चुनो, या तो दाँया चुनो या तो बाँया चुनो; ये बड़ी व्यर्थ की और बड़ी हानिकारक बहस है। हमें दोनों चाहिए।

प्र२: आचार्य जी, इसी विषय में एक प्रश्न ये था कि, तो क्या मंदिर अलग होगा और विद्यालय अलग होंगे? या आप कह रहे हैं कि ये दोनों एक साथ ही होंगे? और दूसरी बात, जो इस जगह पर अध्यापक होंगे क्या एक ही अध्यापक जो मान लीजिए विज्ञान पढ़ा रहा है या फिर भौतिकी पढ़ा रहा है, वो ही हमको मंदिर वाला ज्ञान मतलब आत्मज्ञान भी दे रहा है या फिर ये अलग-अलग दो विषय होंगे?

आचार्य: देखो, कोई भी अच्छा अध्यापक हो नहीं सकता जो आध्यात्मिक प्रशिक्षण न पाए हुए हो। अध्यापक क्या, तुम अच्छे इंसान नहीं हो सकते अगर तुम्हारा आध्यात्मिक प्रशिक्षण नहीं है। तुम एक अच्छे राजनेता नहीं हो सकते, तुम एक अच्छे विधायक नहीं हो सकते, तुम एक अच्छे न्यायाधीश नहीं हो सकते, जज। तुम अगर किसी भी ऐसे काम को कर रहे हो जिसमें तुम्हारा दूसरे इंसानों से वास्ता पड़ता है, जिसमें तुम्हें इंसानों के मुद्दों का सामना करना पड़ता है, तो आवश्यक है कि पहले तुम्हारा आध्यात्मिक प्रशिक्षण हुआ हो।

उदाहरण के लिए, न्यायालय में अगर कोई न्यायाधीश बैठा है जो आदमी के मन को ही नहीं समझता, जो जीवन के मूलभूत सिद्धांतों को नहीं समझता, जिसकी अध्यात्म में कुछ भी शिक्षा नहीं हुई है तो वो एक अच्छा जज नहीं हो पाएगा। इसी तरीके से तुम्हारे चाहे राजनेता हों, चाहे एक डॉक्टर ही क्यों न हो, इन सबको अपने-अपने क्षेत्रों में अच्छा होने के लिए आध्यात्मिक रूप से भी पारंगत होना पड़ेगा; नहीं तो नहीं हो पाएँगे।

और आज विश्व की विडंबना ही यही है कि ऊँचे-ऊँचे पदों पर ऐसे लोग जाकर बैठ गए हैं जिनका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। इसी तरीके से अध्यात्म के क्षेत्र की त्रासदी ये है कि उसमें ऐसे लोग आकर के बैठ गए हैं जिनका स्कूलों और यूनिवर्सिटीज से कोई लेना-देना नहीं। एकदम अशिक्षित लोग, वो आकर के अध्यात्म की ऊँची कुर्सीयों पर विराज गए हैं। तो वो कर क्या रहे हैं? वो अध्यात्म के नाम पर अंधविश्वास फैला रहे हैं, मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हैं। वो ऐसे-ऐसे भौतिक विषयों में घुस रहे हैं जिनकी उनको कोई जानकारी नहीं और वो ये भी नहीं जान पा रहे हैं कि भौतिक विषय आध्यात्मिक विषयों से अलग होते हैं।

क्योंकि ऐसी उनकी शिक्षा ही नहीं हुई है, उनको किसी ने बताया ही नहीं है। पदार्थ के मूलभूत सिद्धांत उनको पता नहीं। तो कभी वो पानी को लेकर कोई एक अंधविश्वास फैलाते हैं, तो कभी चाँद-तारों को लेकर कोई एक अंधविश्वास बताते हैं; कभी फल को लेकर के, कभी कोई सब्जी को लेकर के। उनका काम ही यही है कि ऐसी चीज़ो में अपनी नाक घुसेड़ते रहो जो अध्यात्म का विषय ही नहीं है, जो विषय विज्ञान का है। तो दोनों ही क्षेत्र मारे जा रहे हैं क्योंकि दोनों क्षेत्रों में बड़ा ज़बरदस्त भेद, दूरी, अंतर बना दिया गया है, एक वाटर टाइट सेपरेशन कर दिया गया है।

जो लोग सांसारिक काम कर रहे हैं, उनके पास आध्यात्मिक शिक्षा नहीं, तो वो जो सांसारिक काम कर रहे हैं, वो सब सांसारिक काम बेकार तरीके से कर रहे हैं। और जो लोग आध्यात्मिक काम कर रहे हैं, उनके पास सांसारिक, वैज्ञानिक शिक्षा नहीं, तो उन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र का भी बेड़ा ग़र्क कर रखा है। इसीलिए ज़रूरी है कि ये दोनों विषय एक दूसरे के निकट आएँ। इनमें एक कन्वर्जेन्स हो। अब एक ही आदमी क्या भौतिकी पढ़ा रहा होगा और उपनिषद् पढ़ा रहा होगा? अगर ऐसा हो जाए तो क्या कहने।

और वो जो ऐसा व्यक्ति होगा जो फिजिक्स और उपनिषद् एक साथ पढ़ा सकता हो, वो व्यक्ति भी फिर किसी ऋषि से कम नहीं होगा। अति पूज्यनीय होगा। पर वैसा अगर नहीं भी हो पाए कि एक ही व्यक्ति दोनों विषय एक साथ पढ़ा रहा है, तो भी कम-से-कम इतना तो होना ही चाहिए कि जो फिजिक्स का प्रोफेसर है, उसको स्परिचुअल ट्रेनिंग मिली हुई है, और जो आदमी कहता है कि मैं धर्मगुरु हूँ या आध्यात्मिक गुरु हूँ, वो भी साइंस को जानता है। नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है, जब ऐसे लोग धर्मगुरु बन जाते हैं जो साइंस से बिलकुल अशिक्षित हैं। वो बहुत अन्धविश्वास फैलाते हैं और देश का, समाज का बड़ा नुक़सान करते हैं।

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