आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मन के मते न चालिए || आचार्य प्रशांत, गुरु कबीर पर (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
5 मिनट
185 बार पढ़ा गया

आचार्य प्रशांत: दो तरीके की गुलामी होती है:

एक तरीके की गुलामी होती है: ‘बड़ी सीधी’। वो ये होती है कि कोई तुमसे कहे कि, “चलो ऐसा करो”, ये गुलामी साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती है कि मुझे कहा गया तो मैंने करा। पर ये गुलामी बहुत दिन तक चलेगी नहीं, क्यों? क्योंकि दिख रहा है साफ़-साफ़ कि कोई मुझपर हावी हो रहा है। तो तुम्हें बुरा लगेगा। तुम बचकर निकल जाओगे।

एक दूसरे तरीके की गुलामी होती है: ऐसे समझ लो कि एक गुलामी ये है कि मैं शीतल पेय बनाता हूँ। मैं एक शीतल पेय का उत्पादक हूँ। मुझे अपना शीतल पेय का उपभोग कराना हैं, तो मैं एक तरीका यह इस्तेमाल कर सकता हूँ कि मैं तुम्हें आदेश दूँ कि, “चलो पियो!”। पर यह तरीका बहुत मेरे लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होगा। क्यों? क्योंकि कोई भी चाहता नहीं है गुलाम होना। और ख़बर फ़ैलेगी, लोग बचने लगेंगे, भागेंगे, मेरे सामने नहीं आएँगे, या कह लेंगे कि हम पी लेंगे, पर पीयेंगे नहीं। यही सब होगा। अगर मैं ज़रा-सा चालाक हूँ, तो मैं एक दूसरी विधि अपनाऊंगा। मैं ये बोलूँगा ही नहीं तुमसे कि चलो शीतल पेय पियो, मैं तुम्हारे मन में एक चिप लगा दूंगा, और उसमें लिखा होगा: “शीतल पेय पियो”। और फ़िर तुम ख़ुद बोलोगे: “मेरा मन है शीतल पेय पीने का। मैं पी रहा हूँ।”, और अब अगर कोई तुमसे आकर कहेगा भी कि ये गुलामी है, तो तुम कहोगे कि: “ये गुलामी नहीं है, ‘मेरा’ मन कर रहा है। और तुम मेरे दुश्मन हो, अगर मुझे रोक रहे हो मेरे मन की बात करने से।” बात समझ रहे हो?

ये जो पूरा तर्क होता है न कि मुझे अपनी मर्ज़ी पर चलना है, अपने मन पर चलना है, उनसे पूछो कि तुम्हारा मन ‘तुम्हारा’ है क्या? तुम्हारा मन तो पूरे तरीके से दूसरों द्वारा शासित है।

पहली गुलामी से बचना आसान है, दूसरी गुलामी बहुत गहरी होती है। दूसरों की गुलामी से बच लोगे, अपने मन की गुलामी से बचना बहुत मुश्किल है। और दुनिया इसी झांसें में फंसी हुई है। जिसको देखो यही तो कह रहा है।

“भई देखो, मेरा मन है कि मैं ये खाऊँ।” — तुम्हारा मन है, वाकई?

“मेरा मन है कि मैं ये खरीदूं।” — वाकई तुम्हारा मन है? या तुम्हें फसाया गया है?

“मेरा मन है कि मैं पढूँ; मेरा मन है कि ना पढूँ।” — वाकई तुम्हारा मन है?

तुम्हें दिखाई भी नहीं पड़ रहा कि तुम्हारे मन पर किसी और का कब्ज़ा है। कभी भी इस तर्क को महत्व मत देना कि देखिए भई, ‘अपनी-अपनी’ मर्ज़ी होती है। क्योंकि ‘अपनी’ मर्ज़ी अपनी होती ही नहीं है। लाखों में कोई एक होता है जिसकी अपनी मर्ज़ी होती है। बाकियों की मर्ज़ी क्या होती है?

श्रोतागण: दूसरों की।

वक्ता: और मूर्खता ये है कि हमें पता भी नहीं होता कि जिसको मैं ‘अपनी’ मर्ज़ी कह रहा हूँ, वो मेरी मर्ज़ी है ही नहीं। लेकिन हमें बड़ा गर्व अनुभव होता है ये कहने में कि मैं तो अपनी मर्ज़ी पर चलता हूँ। और अगर कोई रोके उस मर्ज़ी को, तो हम कहेंगे: “नहीं, नहीं, तुम गलत कर रहे हो मेरे साथ। तुम मेरी निजता में बाधा डाल रहे हो। तुम मेरी आज़ादी में बाधा डाल रहे हो। मुझे हक है अपने अनुसार काम करने का। भई, जनतंत्र है, अपना-अपना वोट सब अपनी मर्ज़ी से डालेंगे। और आपको समझ में भी नहीं आता कि लोगों के वोट उनकी समझ से नहीं, उनके ऊपर जो प्रभाव हैं, उससे पड़ते हैं। किसी ने बड़ी ख़ूबसूरती से कहा था, “पीपल डोंट कास्ट दीयर वोट्स; दे वोट दीयर कास्ट”। अब ये तुम्हारी मर्ज़ी है। तुमने ये जो वोट डाला, ईमानदारी से बताओ।

तुम गाँव वगरह में चले जाओ, वहाँ पर संयुक्त परिवार होगा, उसमें मान लो ६ औरतें हैं, वो ६ की ६ औरतें ठीक वहीँ वोट डालेंगी जहाँ सुबह-सुबह उनको पति-देव ने बता दिया होगा, या पिताजी ने बता दिया होगा, कि जाकर भैंस पर मोहर लगा दियो। अब वो अगर बोलें कि, “मेरी मर्ज़ी थी भैंस पर मोहर लगाने की, तो मुझे क्यों रोक रहे हो?” तुम्हारी मर्ज़ी थी कहाँ? तुम्हारी ज़िन्दगी में कुछ भी ऐसा है कहाँ जो वाकई ‘तुम्हारी’ मर्ज़ी से निकला हो। कुछ भी है क्या? हाँ, क्योंकि आत्म-अवलोकन अनुपस्थित है, आत्म-ज्ञान ज़रा भी नहीं है, तो अपनी ज़िन्दगी को कभी ध्यान से देखा नहीं। तुम्हें ये पता भी नहीं है कि ‘मेरी मर्ज़ी’ जैसा कुछ है ही नहीं। कुछ भी नहीं है तुम्हारी मर्ज़ी का। ये तो वैसा ही है कि किसी सीडी पर कुछ गाने लिख दिए गए हों, और वो बोले कि ये तो मैं गा रही हूँ! कभी उदासी से भरा गीत आ रहा है, कभी ख़ुशी का गीत आ रहा है; कभी रोमांटिक गीत आ रहा है; कभी देशभक्ति का गीत आ रहा है। और देशभक्ति का गीत बज रहा है और वो कह रही है कि मेरी मर्ज़ी है, मेरा देश है। अरे, तुम्हारे ऊपर ये प्रोग्रामिंग कर दी गयी है देशभक्ति के गीतों की। और रोमांटिक गीत बज रहा है और वो कह रही है कि देखो ये मेरा प्रेम है।

अभी मिटा देते हैं, लो!

(श्रोतागण हँसते हैं)

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें