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लेख
मन के गुलाम क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
18 मिनट
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तो तुम ये कहना चाह रहे हो कि तुम मन से अलग कुछ हो। यही मान कर चल रहे हो ना?

श्रोता : हाँ।

वक्ता : एक नौकर है, मैं उसे नौकर तभी तो कह सकता हूँ ना जब वह मुझसे अलग कुछ हो। उसका मुझसे कुछ अलग अस्तित्व होना चाहिए। तो तुम जब ये सवाल पूछ रहे हो तो यह जानकर पूछ रहे हो कि तुम अपने आप को मन से अलग कुछ जानते हो। चाहे वह नौकर है, मालिक है वह बाद की बात है। पर पहले ही तुमने मान रखा है कि मन मुझसे अलग कुछ है। ठीक?

श्रोता : जी।

वक्ता : तो अब तुम्हे यह कैसे पता कि मनतुमसे अलग कुछ है? यह बात तुमने पढ़ी है, सुनी है या इसका तुम्हे कुछ अनुभव है?

देखो, बहुत साधारण सी बात है। मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मैं इस कैमरे से अलग कुछ हूँ? तुम यहाँ हो, तुम्हारा हाथ तुमसे दूर है। तुम इससे अलग कुछ हो? जो भी चीज़ तुमसे जुड़ी हुई नहीं है तुम उसको क्या बोलोगे कि मैं यह नहीं हूँ? और तुमसे जुड़ी हुई हो तो तुम बोलोगे कि मैं यह हूँ? तो तुम्हारे भीतर कितने ही बेक्टीरिया हैं वह सब तुम हो? सिर्फ इसलिए कि कोई चीज़ तुम्हारे पास है, निकट है, इस वजह से तुम यह नहीं कह सकते कि यह मैं हूँ। और दूरहै तो यह भी नहीं कह सकते कि मैं यह नहीं हूँ। अलग होने का मापदंड कुछ और ही होना चाहिए।

मैं कब कह सकता हूँ कि मैं किसी चीज़ से अलग हूँ। यह ख्याल तो आता होगा ना कि ‘मन कभी-कभी कण्ट्रोल नहीं होता।‘ कई बार कण्ट्रोल नहीं होता तो सोचते हैं कि सो ही जाएं। किसी चीज़ को कण्ट्रोल तो तुम तब करो ना जब वह तुमसे अलग है। और अलग होने के क्या अर्थ हैं वही मैं आपसे पूछ रहा हूँ। कुछ भी मुझसे अलग है यह मैं कब कह सकता हूँ?

श्रोता : सर, जब उसकी ज़रुरत नहीं है।

वक्ता : तुम्हे पता है तुम्हारे पेट में एक चीज़ होती है अपेंडिक्स जिसकी तुम्हे ज़रुरत नहीं होती? तो क्या तुम कहोगे कि वह मुझसे अलग है? ज़रुरत तो कितनी चीज़ों की नहीं है, पर वह तुमसे अलग थोड़े ही हो गए हैं। तुम्हारे बालों की ज़रुरत नहीं है, तुम खुद ही उन्हें कटवाने जाते हो। तुम जानते हो तुम्हे उसकी ज़रुरत नहीं है। पर जब तक वह तुम्हारे सर पर हैं तुम बोल देते हो कि वह तुमसे अलग हैं? तो ज़रुरत भी मापदंड नहीं हो सकता।

श्रोता : सर, हमारा उस से संयोजन होना।

वक्ता : चलो बात कुछ आगे बढ़ी। संयोजन है, यह कैसे पता चलता है? तुम साइंस के छात्र हो, उसी तरीके से बताओ। दो वेरिएबल्स इंडिपेंडेंट कब होते हैं?

श्रोता : जब किसी एक को बदलो और दूसरा ना बदले।

वक्ता : तो जब किसी एक को बदलने पर, दूसरा ना बदले तो वह एक दूसरे से अलग कहे जाते हैं। इसी को ओर्थोगोनल होना भी कहते हैं। तुम ‘Y’ एक्सिस पर कितना भी मूव करते रहो, तुम्हारा ‘X’ एक्सिस पर कोई मूवमेंट नहीं हो सकता। इसलिए ‘X’ और ‘Y’ एक दूसरे से मुक्त हैं। इसको हम कह सकते हैं अलग होना। कि एक में कुछ भी होता रहे, दूसरे में कुछ भी न हो। एक में कुछ भी होता रहे और उससे दूसरे पर ज़रा भी फर्क न पड़े, मैं तब कह सकता हूँ कि मैं मुक्त हैं। क्या तुमने अपने आपको कुछ भी ऐसा जाना है कि मन में कुछ भी चलता रहे पर मुझमे कोई अंतर नहीं पड़ता। अपने उस ‘मैं‘ को जाना है तुमने?’ कि मन Y एक्सिस है और मैं X एक्सिस पर बैठा हूँ। मन पर कुछ भी होता रहे पर हम पर फर्क नहीं पड़ता। हम बादशाह हैं। अगर तुमने यह नहीं जाना तो यह पूछने से कोई फायेदा नहीं है कि मन मालिक है या नौकर है।

यह बात बिल्कुल स्पष्ट है?

सभी श्रोतागण : बिल्कुल ।

वक्ता : एक में कुछ भी होता रहे और दूसरे पर फर्क न पड़े, तभी एक दूसरे से मुक्त कहा जा सकता है। क्या हम ज़रा भी अपने आप को ऐसा जानते हैं कि जो मन को दूर खड़ा होकर देखता रहे कि मन में कुछ भी चल रहा है, चलता रहे। हम उस से मुक्त हैं। हम ऐसे नहीं हैं ना? हम ऐसे हैं जो मन से एक हो जाते हैं। मन हिलता है तो हमें लगता है कि हम ही हिल गए। शरीर हिलता है तो हम यह नहीं कहते कि पेट को भूख लगी है, हम कहते हैं कि हमें भूख लगी है। पैर पर चोट लगती है तो हम यह नहीं कहते कि पैर को चोट लगी है, हम कहते हैं कि हमें चोट लगी है। अब क्या मेरा पैर और मैं एक दुसरे से स्वतन्त्र हुए?

सभी श्रोतागण : नहीं।

वक्ता : वो तो जुड़े हुए हैं ना। वहां तो एक समीकरण बनगया है कि जो मेरे पैर को हुआ है वह मेरी स्थिति को बताएगा। और हम सिर्फ इस पैर से प्रभावित नहीं होते। और हजारों चीज़ीं हैं जिनसे प्रभावित होते हैं। अभी आप यहाँ बैठे हो, आपके पड़ोसी को क्या हो रहा है उस से आपकी स्थिति निर्धारित हो जाती है।हम तो हज़ार चीज़ों पर निर्भर हैं। हम यह सवाल ही कैसे पूछें किमन मेरा मालिक या नौकर। तुम ‘X’ और ‘Y’ में कितना भी चल लो, ‘Z’ में कभी चढ़ जाओगे?

सभी श्रोतागण : नहीं।

वक्ता : इसे कहते हैं मुक्त होना। पर हम मुक्त कहाँ हैं? हमारा ‘I-अहम् ‘ दुनिया की एक-एकवस्तु का फंक्शन है।

माता-पिता,समाज, समय का फंक्शन।

तुम क्या हो वह इस बात पर निर्भर करता है कि आज का दिन क्या है। अगर आज दिवाली है, तो आज ख़ुशी मनानी है। कैलेंडर तय करेगा कि तुम्हे ख़ुशी मनानी है। कैलेंडर तय कर रहा है कि मैं कैसा हूँ।

परीक्षा का परिणाम निर्धारित कर रहा है कि मैं कैसा हूँ।

हम ऐसे हैं या नहीं हैं?

सभी श्रोतागण : ऐसे ही हैं।

वक्ता : दूसरों की राय निर्धारित करेगी कि मैं कैसा हूँ।

एक फोटो डाली फेसबुक पर और किसी ने लिखदिया ‘हेंडसम‘, और आप बहुत खुश होगए।

धर्म निर्धारित करेगा कि आप कैसे हैं।

तो मैं बात ही कैसे कर रहा हूँ कि मन मेरा मालिक या मैं मन का मालिक। यह सवाल तो वह उठाए न जो इस के पार निकल गया हो, जिसने इसे तोड़ दिया हो।

हम तो लगातार अपने मन से संयुक्त ही रहते हैं। जो मन की स्थिति वह हमारी स्थिति। हम क्या मन से थोड़ा दूर खड़े होकर देख पाते हैं कि इसमें कुछ भी होता रहे मुझमे कुछ नहीं होगा।

मन बेचैन है ठीक, मन को बेचैन रहने दो। खाने की खुशबू आई, मन आकर्षित हुआ, मन को आकर्षित होने दो। हम आकर्षित नहीं होंगे। हम ऐसा अपने आप को ज़रा भी जानते हैं? जड़ हो गयी हैं जैसे आँखें। होता है न कि किसीअंग को बहुत दिनों तक इस्तेमाल न करो तो पैरालिसिस हो जाता है उसमें। तीन साल तक पांव मत हिलाओ, तीन साल बाद पैरालिसिस हो जाएगा उसमें। इसी तरीके से तुम्हारे पास एक ताकत है जो बचपन से इस्तेमाल नहीं की। दोष तुम्हारा नहीं है। परवरिश तुम्हारी ऐसी हुई है, शिक्षा ऐसी हुई है और क्योंकि उसका इस्तेमाल किया नहीं तो वह करीब-करीब ख़त्म हो गयी है। और वह शक्ति होती है खुद को देखने की। किसी और को नहीं, खुद को देखने की। किसी और को देखने का मतलब ही यही है कि मैं फिर संयुक्त हो गया। मैं खुद को देख सकूँ, किसी ऑब्जेक्ट के तौर पर नहीं, जैसा हूँ मैं वैसा। उस शक्ति का ही करीब-करीब पैरालिसिस हो गया है।

मन तो अपना काम करता रहेगा। मन पूरी तरीके से एक मशीन है जो अपना काम करती रहती है। तुम्हारा उस पर कोई विशेष ज़ोर चलेगा नहीं। तुम्हारा ज़ोर सिर्फ इतना ही है कि तुम यह जान जाओ कि वह एक मशीन है और इस जानने में तुम मशीन नहीं रह पाते। तुम जान जाते हो कि मैं मशीन से अलग भी कुछ हूँ। मन तो मशीन है। दिक्कत यह है कि हमने कभी उसे मशीन की तरह देखा नहीं। हम उसे मशीन नहीं, ‘मैं‘ समझते हैं। अब उसे मशीन बोलना और उसे ‘मैं‘ बोलना, बहुत अलग-अलग बातें हो गयी।

मन पूरी तरीके से एक प्री-प्रोग्राम्डमशीन है। जो प्रिडिक्टेबल है पूरी तरीके से।यह एक मशीन है और यह मशीन अपने प्रोग्राम के आगे नहीं जा सकती। तुम्हारा मन भी वही करता है और ठीक उतना ही करता है जितनी उसकी प्रोग्रामिंग होती है।ठीक वही और ठीक उतना ही।

तुम अभी जो भी कर रहे हो, तुम में उसकी प्रोग्रामिंग है। तुम में से उन लोगों को छोड़ कर जो मन में नहीं हैं, ध्यान में हैं। ऐसे यहाँ पर मुश्किल से एक, दो या पांच लोग होंगे जो अभी मन में नहीं हैं। बाकी सब जो तुम कर रहे हो वह एक मशीन का काम है, उसमें तुम्हारा कुछ नहीं है। जैसे यह कैमरा है।

तुम मुझे देख रहे हो, यह कैमरा भी देख रहा है।तुम सुन रहे हो, यह कैमरा भी सुन रहा है।

तुमसे ज्यादा बहतर तरीके से देख भी रहा है और सुन भी रहा है। तुम भूल भी जाओ पर यह एक-एक क्षण याद रखेगा। बात समझ में आ रही है? हम सब इस कैमरे की तरह ही हैं जो देख भी रहा है, सुन भी रहा है लेकिन समझ नहीं रहा है। रट यह सब लेगा, तुमसे बहतर रट लेगा। पर समझने की सामर्थ इसमें नहीं। हाँ, इसकी प्रोग्रामिंग है, तुम्हारी भी प्रोग्रामिंग है। तुम में और इसमें इतनी समानता है कि इसका कोई अंत नहीं। यह भी मुझे एक थ्री-डायमेंशनल फिगर में देख रहा है और तुम भी मुझे थ्री-डायमेंशनल फिगर कीतरह देख रहे हो। देख रहे हो या नहीं? और तुम्हे लगता है कि यह तो बड़ी स्वाभाविक सी बात है।स्वाभाविक सी बात नहीं है।

किसी चीज़ को थ्री -डायमेंशनल में देखना बड़ी ज़बरदस्त प्रोग्रामिंग है मस्तिष्क की। तुम भी वही फ्रीक्वेंसी रिकॉर्ड करोगे जो यह करेगा। अंतर कहाँ है? इसकी प्रोग्रामिंग है अच्छे से कि यह कुछ देर बाद डिस्चार्ज हो जाएगा। थोड़ी देर में तुम भी डिस्चार्ज हो जाओगे। एक-दो घंटे बाद तुम भी चिल्लाओगे खाना-खाना और उसकी भी बैटरी जाएगी। न वह कुछ करेगा और नातुम। उसकी भी मेमोरी में स्पेस है, उसके आगे वह नहीं रिकॉर्ड करेगा।

इस पूरी प्रक्रिया को जब मैं प्रक्रियासे हटकर देख लेता हूँ तब मुझे यह कहने का हक होता है कि, ‘मेरा माइंड‘। ‘मेरा माइंड‘ का मतलब जैसे मैंकहूँ कि यह मेरा पेन है। मैं पेन से अलग हूँ। हमें तो ‘माय माइंड‘ कहने का भी हक नहीं है। हमे तो कहना चाहिए ‘मी माइंड‘, क्योंकि हमने अपनेआप को मन से अलग कुछ जाना ही नहीं है। उसको साक्षित्व कहते हैं। वह कभी करा नहीं। तो इसलिए ‘मेरा माइंड‘ कहने का भी हक नहीं है।

नौकर है के मालिक, यह बात तो बहुत आगे की है। पहले यह तो जानो कि ‘मेरा‘ माइंड है, मैं माइंड नहीं हूँ। मन से अलग हटकर कभी मन को देखना जाना है? ऐसा नहीं है के जाना नहीं है। पर महत्व नहीं दिया है उस बात को। संस्कार ऐसे हैं नहीं। जल्दी-जल्दी से, चीज़ों से, मन से सम्बन्ध बनाओ। नहीं! ‘होने‘ का अर्थ होता है मुक्त होना, जुड़ा हुआ ना होना। तब तो तुम कहो कि “मैं हूँ” ।

जब थोडा सा भी अलग हटोगे मन से, जिसे अटेंशन और ध्यान कहते हैं, तब तुम कह सकते हो मन ‘मालिक या नौकर‘। लेकिन सही बात यह है कि तब मालिक ही रहोगे। और वह माल्कियत ऐसी नहीं होगी कि तुम मन को कोई आदेश दे रहे हो। फिर माल्कियत इस अर्थ में होगी कि मन वह करेगा जो उसे सहज रूप से करना चाहिए, बिना तुम्हारे निर्देशों के करेगा, वह तब भी अपने हिसाब से।

श्रोता : सर, ऐसा भी तो हो सकता है कि हम जानते हैं कि जो कर रहे हैं वहएक धारणा है पर फिर भी उस से बाहर ना आ सकें।

वक्ता : ऐसा कैसे हो सकता है कि पता है धारणा है पर फिर भी उसके साथ रहे। इसका मतलब तो यह है कि जाना नहीं है कि धारणा है। अगर थोड़ा भी सत्य हुआ तो गड़बड़ हो जाएगी।

इसका तरीका यह नहीं है कि ऐसा कर लो या वैसा। उसका तरीका यह है कि पूरी तरह से जान लो। तुम पानी पीने जा रहे हो और पानी को देख कर बोल रहे हो कि “लगता तो है कि मक्खी है” और मैं कहूँ कि मक्खी कहीं दिख तो नहीं रही। साफ़ है। स्पष्ट है कि मक्खी नहीं है। कब तक दुविधा में रहोगे? जानना ज़रूरी है।

श्रोता : अगर कण्ट्रोल करा जाए?

वक्ता : कण्ट्रोल करने की ज़रुरत नहीं है। कण्ट्रोल करने का जो विचार है वह भी मन का है। मन बड़ी मजेदार और शरारती चीज़ है। वह यह रूप लेकर भीसामने आ जाएगा कि अभी हम माइंड कण्ट्रोल कर रहे हैं। और तुम इस भ्रम में होगे कि माइंड कण्ट्रोल हो रहा है और वह बैठकर हंस रहा होगा। जैसे चोर ही चौकीदार का रूप लेकर आ जाए। कि हम कण्ट्रोल करने आये हैं। तो उसे कण्ट्रोल करने की कोशिश कभी मत करना। यह सब बेकार की बातें हैं कि संयम रखो और यह करो और वह करो। दुनिया भर की बातें; व्रत रखो, आदि।

कण्ट्रोल करने की आवश्यकता नहीं है ।कण्ट्रोल करने की चाह भी मन से निकलती है। इस चाह को निकलते देखना, यह ध्यान है। कभी वह क्या चाह लेता है, ‘कि अभी मुझे कण्ट्रोल मत करना मुझे आज़ादी चाहिए‘ और कभी क्या चाह लेता है, ‘कि कण्ट्रोल करो! कण्ट्रोल करो!‘ यह सारी बातें, यह सारी इच्छाएं सब मन के अन्दर की हैं। और तुम कभी भी जो कुछ भी सोचोगे, ऊँचे से ऊँचा और गिरे से गिरा, वह सब मन के भीतर ही होगा। तुम्हारा नेक से नेक ख्याल, वह भी कोई परमात्मा से नहीं आ जाता। वह भी मन से होता है और कंडीशनिंग से ही निकल रहा है।

यह बात तो जानते ही हो कि जो भी मन से निकल रहा है वह कंडीशनिंग से निकल रहा है। तो ऊँचे से ऊँचा ख्याल और बहके से बहका ख्याल कंडीशनिंग से ही आते हैं। तुम किसी भी ऐसी चीज़ के बारे में नहीं सोच सकते, तुम्हारे मन में ऐसा कोई विचार आही नहीं सकता जो तुम्हारे अतीत से सम्बन्धित ना हो। बिलकुल नहीं आ सकता। जिस भी चीज़ का तुम्हे कोई अनुभव नहीं है वैसा कोई विचार भी तुम्हारे मन में नहीं आएगा। तो विचार के रूप में जो भी बातें आयें, यह कि ये जो बातें हैं बिलकुल बेकार हैं या यह कि ये बातें बहुत बढ़िया हैं, यह दोनों विचार मन के भीतर की ही प्रक्रियाएं हैं। और मन सेमुक्त होने का मतलब यह नहीं होता कि एक विचार को दुसरे विचार से बहतर मान लिया जाए क्योंकि यह अब तीसरा विचार हो गया

मन ने एक विचार दिया, मान लो A और तुम अपनी कंडीशनिंग के आधार पर कह सकते हो कि यह घटिया विचार है। नक़ल, चोरी, हत्या, बलात्कार, आदि। तुम इसेबोलोगे कि मन कितना गन्दा है। और फिर तुम्हारे मन में दूसरा विचार आता है, B जिसको तुम कहोगेकि यह तो बहुत उत्तम कोटि का विचार है। वह क्याहोगा? आज जाकर समर्पण कर दूंगा पूरा, सत्य बोल दूंगा, साफ़ हो जाऊंगा। और फिर एक तीसरा विचार है जो कह रहा है कि B बहतर है A से। यह C है, इसको भूल मत जाना। तो कबीर बेकार ही नहीं कह गए कि,

मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोए ….

मन में तो पूरी वही दुनिया घूमती रहती है।

श्रोता : सर, अगर हम अलग सोच रहे हैं तब भी मन ही तो सोच रहा है।

वक्ता : हाँ, तुम जो सोचोगे वह मन ही होगा।

श्रोता : तो मन तो कभी दूर हो ही नहीं पायेगा।

वक्ता : *मन किस से दूर होगा* ? अपने आप से? तुम्हारी हर सोच मन की ही प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है।स्वतंत्रता समझने में है, सोचने में नही। और समझना, सोचना नहीं है।

अच्छा जो लोग ध्यान से सुन रहे हैं, क्या वह सोच भी रहे हैं?

श्रोता : नहीं, सोच नहीं रहे थे। पर बरकरार नहीं हो पा रहा है।

वक्ता : सही, वह लगातार नहीं है। समझना और सोचना, दो बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। तुम वही सोचोगे जो मन की प्रक्रिया है। और समझना बिलकुल अलग चीज़ है। और जिन लोगों ने बात को समझा है वह जान रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ। क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने सोच-सोच कर नहीं समझा है। और जो सोच में होंगे वह समझ नहीं पा रहे होंगे। क्योंकि सोच उन्हें कहीं और ले जा रही होगी। तुलना में पड़े होंगे। सोच उन्हें भविष्य में ले जा रही होगी। सोच उनको यहाँ से दूर ले जा रही होगी। क्योंकि अभी जो हो रहा है उसमें सोचने का कारण कोई हो नहीं सकता। जो चीज़ स्पष्ट है उसके बारे में सोचके क्या करना है? वह है ही। सोचा उसके बारे में जाता है जो नहीं है। और सोचना इसलिए हमेशा अवास्तविक होता है क्योंकि वह तुमको वहां ले जाता है जो है ही नहीं। समझ में बिलकुल अलग बात है। मन को बड़ी तकलीफ होती है यह सब सुन कर । क्योंकि जो हम बातें कह रहे हैं उनका अर्थ यह है कि मन को उसकी जगह दिखा दी जाए।

तू सोच सकता है और तेरा सारा सोचना बस *अतीत के पीछे चक्कर मारने बराबर है। और जो समझना है वह तेरे बस की बात नहीं* *,* तू शांत रह।

और जब समझा जाता है, तब यह विचार भी नहीं रहता कि मन को चुप करना है। तब बस समझा जाता है। जैसा कि अभी कुछ लोगों के साथ हो रहा होगा, बस कुछ लोगों के साथ। और बस इस पल के लिए उनको एक हक मिल गया है कि “मैं मन का मालिक हूँ”। और मज़े की बात यह है कि उनको यह सुध भी नही कि वह मन के मालिक हैं। वह मस्त हो चुके हैं। यह दावा करने की ज़रुरत क्या है कि हम मालिक हैं मन के। जो वास्तव में मालिक है वह दावा नहीं करता।

श्रोता : सर, जो मन का मालिक होगा वह भी तो मन ही होगा।

वक्ता : अगर सोच रहे हो कि मन के मालिक हो तो हो ही नहीं।

श्रोता : क्या ना सोचने भर से मैं मालिक हो गया?

वक्ता : नहीं। समझना सोचने से ऊपर आता है और सोच से नीचे की भी एक स्थिति होती है जो जानवरों और पत्थरों की होती है। जिनके पास सोचने तक की काबिलियत नहीं। तो इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि आप सोच से ऊपर हो। ना सोचने का एक अर्थ यह भी हो सकता हैकि तुम ध्यान में हो और ना सोचने का अर्थ यह भी हो सकता है कि तुम बेहोश हो। बेहोश भी नहीं सोचता।

अब ये तुम जानो कि जब तुम नहीं सोच रहेतो तुम कहाँ हो? ध्यान में या बेहोशी में।

-‘संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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