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लेख
मैं लड़कियों से बात क्यों नहीं कर पाता? || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: मैंने आमतौर पर देखा है कि मैं लड़कियों से सामने से बात नहीं कर पाता हूँ। पर किसी और माध्यम से कर लेता हूँ, जैसे वाट्सैप मैसेज आदि के द्वारा।

आचार्य प्रशांत: अपने सामने जब तुम किसी अपने-जैसे को पाते हो, तो उसको देखना कुछ हद तक अपनेआप को देखने जैसा हो जाता है। दुनिया का अवलोकन करने के पीछे यही समझ है कि दुनिया को देखोगे, तो आईने की तरह अपनेआप को देख लोगे। देख किसको रहे हो?

श्रोतागण: दुनिया को।

आचार्य: दुनिया को। पर दुनिया को देखोगे यदि, तो अपनेआप को देख लोगे। दुनिया की आँखों में झाँकना काफी हद तक अपनी आँख में झाँकने जैसा होता है, और उसमें प्रकृति भी तुम्हारी सहायता करती है। तुम जिसको देख रहे हो, उसका हाव-भाव तुम्हारे जैसा होगा, उसकी आँखें तुम्हारे जैसी होंगी, उसके संस्कार भी तुम्हारे जैसे होंगे। अपने ही जैसे किसी को देखना, अपनी ओर वापस मुड़ जाने जैसा है।

अब तुम्हारे सामने कोई जीवित व्यक्ति बैठा हो, उसकी आँख-में-आँख डाल कर बात करना बड़े साहस की बात होती है। क्योंकि उसको देखने का मतलब होगा अपनी सच्चाई से रु-ब–रू होना। झूठ बोलना मुश्किल हो जाता है। ये ग़ौर किया है? आँख-में-आँख डाल कर झूठ बोलना मुश्किल हो जाता है। हाँ, कंप्यूटर स्क्रीन पर झूठ बोलना आसान होता है।

इसीलिए किसी लड़की को, या कोई भी और हो जिसे तुम धोखा देना चाहते हो, उसके सामने तुम ज़रा नर्वस हो जाओगे। तुम जिसको भी धोखा देने जा रहे होओगे, उसकी आँख-में-आँख डाल कर नहीं देख पाओगे। मैं दोहरा रहा हूँ- किसी को देखना ध्यान से, तुम्हें तुम्हारी ओर मोड़ता है, किसी को भी ध्यान से देखना। उसी अर्थ में समूचा जगत गुरु बन जाता है।

गुरु का भी काम यही है। क्या? तुम्हें, तुम्हारी ओर मोड़ देना कि चलो संसार को छोड़ो, अपनी ओर वापस जाओ। और संसार में भी वस्तुओं से हट कर जब तुम जीवित व्यक्तियों को देखते हो, तो उस देखने की गुणवत्ता दूसरी होती है। कभी ग़ौर किया है कि जानवर की भी आँख में देखो तो अचानक कुछ होता है? वो वही है। जानवर की आँख में देखना करीब-करीब अपनी आँख में देखने जैसा है, क्योंकि हम सब एक हैं। जगत आईना है।

तुम एक ख़ास उम्र में हो, उस उम्र में तुम्हें प्रेम का तो कुछ पता नहीं, पर वासनाएँ सिर चढ़ कर बोलती हैं। और तुम्हारे भीतर वो सत्य भी विराजमान है जो अच्छे से जानता है कि वासना प्रेम नहीं है। वासना प्रेम नहीं है। ठीक है? तुम्हारे संस्कारों ने उसको प्रेम का नाम दे दिया है, या जो भी कर दिया है, लेकिन बैठा है कोई तुम्हारे भीतर जो ये जानता है कि वासना प्रेम नहीं है। इस कारण कतराते हो जब वो सामने पड़ती है। प्रेम यदि होता तो कोई वजह नहीं थी घबराने की, कतराने की, शंकित हो जाने की।

ये तो तुम्हें अच्छे से पता है कि जिसे तुम प्रेम कह रहे हो, वो एक प्रकार का आक्रमण है। और जिस पर तुम आक्रमण करने जा रहे हो, उसके सामने थोड़ी शर्म आती है। तुम जिसे लूटने जा रहे हो, उसके सामने नज़रें झुक जाती हैं, क्योंकि तुम्हें पता है कि तुम अपराध करने जा रहे हो। तुमने नाम प्रेम का दिया है, पर इरादे बलात्कार के हैं। हज़ार में से नौ-सौ निन्यानवे ये जो प्रेमी घूमते रहते हैं, ये प्रेम की आड़ में मात्र बलात्कार की फ़िराक में रहते हैं। होता ही यही है प्रेम के नाम पर।

तो बुरा लगता है, क्योंकि सच्चाई जानते हो। तुम्हारे भीतर है कोई जो तुम्हें बता देता है कि ये ठीक नहीं है। क्षद्म-प्रेम बहुत सुलभ हो गया है जबसे प्रेम का सम्प्रेषण कंप्यूटर स्क्रीन करने लगी है, जब से प्रेमियों की ज़्यादा चर्चा फ़ोन पर होने लगी है। आमने-सामने बैठ कर उतनी मूर्खतापूर्ण बातें कर पाना संभव नहीं होता है जितनी फ़ोन पर हो जाती हैं।

तुम जिस वय में हो, तुम्हारे आसपास प्रेमीजन भी होंगे, उनकी बातें भी कान में पड़ ही जाती होंगी जब वो फ़ोन पर होते हैं। वो इतनी मूर्खता ऐसे आमने-सामने बैठ कर नहीं कर सकते जैसे अभी यहाँ पर बैठे हो मेरे सामने। सोचो, प्रेमी-प्रेमिका आमने-सामने बैठे हैं, और ध्यान में हैं, और वहाँ चॉकलेट की, बार्बी डॉल की, रंगों की, बहारों की, दुपट्टों की, और तितली के पंखों की बात चल रही है। कर नहीं पाओगे। उसके लिए तो नशे का, धोखे का, और दूरी का माहौल ज़रूरी है।

इससे एक बात और भी समझना, जब आमने-सामने बैठना इतनी कारगुज़ारी कर जाता है कि जहाँ तुम सत्य देखना नहीं चाहते वहाँ भी दिखा जाता है - यही हो रहा है न कि तुम सत्य नहीं जानना चाहते, पर आँख में जहाँ देखते हो उसकी, तो कुछ दिख जाता है, और तुम परेशान हो जाते हो, तुम्हें सिर इधर-उधर करना पड़ता है? - जब तुम्हारे न चाहते हुए भी ‘समीपता’ तुम्हें सत्य दिखा जाती है, तो फिर उन लोगों को क्या सन्देश दिया जाए जो सत्य के आकांक्षी ही हैं?

सवाल को समझो। मैं कह रहा हूँ जो सत्य के आकांक्षी नहीं हैं, जो धोखे में जीना चाहते हैं, उन्हें भी समीपता सत्य दिखा जाती है, तो जो सत्य का आकांक्षी ही हो, उसे क्या करना चाहिए?

श्रोतागण: समीप आ जाना चाहिए।

आचार्य: यही उपनिषद् शब्द का अर्थ है, यही उपवास का अर्थ है – ‘समीपता’। समीपता में जो ताक़त होती है वो शब्दों से आगे की होती है। तुम पूछो, “किसकी समीपता?” पहले तल पर तो वो शरीर से शरीर की ही समीपता है, कि बैठे हो आमने-सामने पालथी मार कर। क्योंकि पहले तल पर तुम हो ही शरीर, तो पहली समीपता भी शरीर की ही होगी। पहली समीपता यही होगी कि आकर के बैठ गए। और यहाँ मैं मुमुक्षुओं की बात कर रहा हूँ, उनकी बात कर रहा हूँ जो सत्य जानना चाहते हैं। वो इस धोखे में ना रहें कि वाट्सैप से काम चल जाएगा। वो इस धोखे में ना रहें कि दूर रहकर बात बन जाएगी। आ रही है बात समझ में?

पहले तल पर क्योंकि तुम शरीर हो, तो शारीरिक सान्निध्य ही चाहिए। अधिक-से-अधिक इतनी दूरी हो कि आँखों का सम्बन्ध ना टूटे, तभी तो तुमसे यहाँ कहता हूँ कि ऐसी जगह छुप कर ना बैठो जहाँ तुम मुझे दिखाई ही ना पड़ो। असली घटना उस देखने में, उस सुनने में घटती है। आ रही है बात समझ में?

हाँ, जब तुम उस तल से उठ कर दूसरे तल पर आते हो, तब इस भौतिक सान्निध्य की कीमत कम होने लगती है। तब फिर बहुत फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम रोज़ मिल रहे हो या नहीं मिल रहे हो। तब फिर बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम रोज़ चेहरा देख रहे हो या नहीं देख रहे हो। उसकी ज़रुरत शनै:-शनै: कम होने लगती है। और आख़िरी तल पर आ कर, जहाँ तुम आत्मा-रूपी हो जाते हो, वहाँ पर फ़िर फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम कहाँ पर अवस्थित हो। तुम दुनिया में कहीं भी हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, तुम गुरु के पास ही हो। तुम गुरु ही हो गए।

कहते हैं न कबीर-

“मेरा मन सुमिरै राम को, मेरा मन रामहि आहि।

अब मन राम हि हो रहा, सीस नवावौं काहि।।”

“अब राम को क्या भजने जाऊँ मैं? मैं नहीं भजता राम को।” अब कबीर राम भक्त नहीं हैं। कबीर कह रहें हैं, “अब मन राम हि हो रहा।” मन राम हो गया, क्या भजें, बेकार की बात।

तुम भी जिस दिन राम ही हो जाना, उस दिन तुम्हारे लिए आवश्यकता नहीं रहेगी कि आओ और ऐसे बैठो सभा में। तब बिलकुल कोई आवश्यकता नहीं रहेगी।

पर उससे पहले व्यर्थ ग़ुमान में मत पड़ जाना, उससे पहले ये कुतर्क मत धारण कर लेना कि , “देखिए हम भी तो राम रूप हैं, और ये जगत तो धोखा है। आकाश तो कुछ होता ही नहीं, आप ही ने बताया है, तो फिर हम उठ कर क्यों आएँ। जब आकाश कुछ नहीं है, तो यात्रा करने का क्या मतलब?" आदमी के कुतर्क की कोई सीमा नहीं है।

ऐसे लोगों से बचना जिन्हें आँख बचा कर बात करने की आदत हो। और बहुत हैं ऐसे। ऐसे क्षणों से भी बचना जिसमें सहज भाव से, निर्मल भाव से, सरल होकर, निर्दोष होकर किसी को देख ना पाओ। ऐसे क्षणों से भी बचना।

एक नज़र होती है जो समर्पण में झुकती है, प्यारी है वो नज़र। और एक नज़र होती है जो ग्लानि में और अपराध की तैयारी में झुकती है, उस नज़र से बचना।

कभी देखा है जानवरों को? कैसे देखते हैं? आमतौर पर वो तुम्हें देखेंगे ही नहीं, ध्यान ही नहीं देंगे। तुम्हारा उनके करीब जाना, उन्हें बहुत सुहाता नहीं है। पर अगर कभी जाओ किसी जानवर के करीब, तो देखो वो तुम्हें कैसे देखता है- कुछ भी नहीं, खाली, अबोध।

यह वो दृष्टि है जिसमें सत्य साफ़ दिखाई देता है, जब तथ्य ही सत्य बन जाता है। वैसे देखना सीखो, करीब-करीब पशुओं की तरह। और वैसी भी दृष्टि ना रखो जैसी किसी बलात्कारी की होती है, कि जैसे किसी के शरीर में सेंध लगा रहे हो, और कहने लगो कि, “सर, आपने ही तो कहा था कि ध्यान से देखा करो।” सहज, निर्मल दृष्टि रखो। ऐसी नहीं कि लगे कि घूर रहे हो। आ रही है बात समझ में?

वाट्सैप पर प्रेम नहीं चलता। वहाँ पर ब्रेन चलता है, प्रेम नहीं। वाट्सैप पर प्रेम हो सकता, तो तुम्हें यहाँ क्यों बुलाता।

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