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मैं जानता हूँ'-सबसे अधार्मिक वचन || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Author Acharya Prashant

आचार्य प्रशांत

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मैं जानता हूँ'-सबसे अधार्मिक वचन || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

बहुता कहीऐ बहुता होइ। असंख कहहि सिरि भारु होइ॥

~गुरु नानक

आचार्य प्रशांत: जितना कहोगे उतना कम पड़ेगा। सत्य के विषय में कहने की तो इच्छा खूब होगी तुम्हारी पर जितना कहोगे उतना कम पड़ेगा। ये भी कहोगे कि वो अनंत है, असंख्य है, असंख्यातीत है, ये कहना भी कम पड़ेगा। मन तुम्हारा खूब करेगा कि किसी तरह कहें, कहें, कहें और कहने का अर्थ होता है उसे शब्दों में किसी तरह कैद कर ले। मन तुम्हारा खूब करेगा कि कहें, कहें, कहें, कहें पर जितना तुम मन की बात सुन करके ये कोशिश करते जाओगे कि शब्दों में लाते जाए उसको उतना ज़्यादा यही पाओगे कि मन का भार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है।

मन की इससे बड़ी कोई आकांक्षा नहीं, अहंकार इससे ज़्यादा कहीं तृप्त नहीं होता कि वो जो उससे अनंत गुना बड़ा है, वो उसके बारे में कहीं से जान ले और हो सके तो उसे अपने में समा ही ले। अहंकार तो है ही एक गहरी अपूर्णता का नाम। वो अपूर्णता ऐसी है, जो बिना मिटे पूर्ण हो जाना चाहती है। अपूर्णता कहती है, “मैं अपूर्ण बनी रहू पर अपूर्णता खत्म हो जाए।” अपूर्णता कहती है, “मैं तो बनी रहू पर अपूर्णता ख़त्म हो जाए।” और उसका तरीका उसने क्या निकाला है? उसका तरीका ये है कि पूर्ण को मेरे भीतर डाल दो तो मेरी अपूर्णता ख़त्म हो जाएगी। उससे मैं बची रहूँगी।

मैं कौन?

सभी श्रोता एक स्वर में: अपूर्णता।

आचार्य जी: तो मन का ये सबसे बड़ा दुस्साहस, दुष्प्रयत्न, और मन की सबसे बड़ी बेवकूफी भी यही रहती है, बहुता कहिये; कहो-कहो-कहो खूब कहो।

अजीब तरीकों से हम जीते है। जहाँ संश्य ही संश्य होने चाहिये वहाँ हमे संश्य उठता नहीं। और जहाँ कोई संश्य नहीं होना चाहिए, वहाँ हम हज़ार तरीके के संदेहों से भरे हुए है। आप बाज़ार में किन्हीं दो लोगो को बात करते हुए देखें, वो राजनीति पर, अर्थव्यवस्था पर, तमाम इधर-उधर के मुद्दों पर बात कर रहे होंगे। और उनके चेहरे पर एक गहरे विश्वास का भाव होगा। उनके चेहरे पर भाव ये होगा कि हम जानते है, हम जानते है। हमे कोई संश्य नहीं है।

बड़ा यकीन होगा उन्हें कि हाँ, हमे पता है कि जीवन ऐसा ही है, ऐसा ही है। हमे पता है। पत्नी, पति को उलाहना दे रही होगी, “ज़िन्दगी का अर्थ जानते हो ना। शादी का मतलब पता है ना। शादी इसीलिए की जाती है ना।? और उसके चेहरे पर बड़ा यकीन होगा। हाँ, वो जानती है, उसे पता है। आप अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों की बात कर रहे होंगे। और आपको पता होगा अच्छे से कि हाँ ये होने वाला है: फलाना देश, फलाने देश पर आक्रमण करने वाला है, तेल के भाव बढ़ने वाले है, कोई संश्य नहीं।

आप किसी को बता रहे होंगे कि उस जगह को छोड़ कर के अब फलानी जगह पर एक नया घर खरीद लो। और बड़ी ठसक के साथ, बड़े यकीन के साथ आप सलाह दे रहे होंगे, आप कभी देखिएगा, “नहीं साहब हमे पता है, हाँ और क्या, यहाँ तो जाना ही चाहिए।” आपको पता है। और मुझे इससे ज़्यादा हैरानी किसी चीज़ पर नहीं होती कि लोगो की आँखों में, वो यकीन का भाव आ कहाँ से जाता है? ये बड़े से बड़ा आश्चर्य है कि शक तुम्हे उठता ही नहीं, कि तुम क्या कर रहे हो? ज़रा शक नहीं उठता?

लोगो से बात करने जाता हूँ, वहाँ सवाल पूछे जाते है। मैं सवाल पूछने वाले की आँखों में देखता हूँ, “तुझे पक्का है, जो तू पूछ रहा है, ये पूछे जाने के काबिल है?” हाँ, उसको पक्का है, वो यही पूछना चाहता है। वो यही पूछना चाहता है। सवालो में दावे छुपे रहते है, तुझे यकीन है अपने दावे पर? हाँ उसे पूरा यकीन है। कि ऐसा ही तो है, ऐसा ही तो है। हमे कोई संदेह ही नहीं होता कि हम जो कुछ कर रहे है वो है क्या? ज़रा संदेह नहीं होता।

संदेह हमे रहता है, हमे सत्य पर संदेह रहता है। हमे परम सत्ता की उपस्थिति पर संदेह रहता है। वहाँ हमे रहता है। आपसे कहा जाए, “जीवन प्रेम है,” आपको बड़ा संदेह रहेगा, “नहीं-नहीं-नहीं गड़बड़ है बात। यहाँ कोई झूट है, यहाँ कोई चाल है। कोई फँसा रहा है हमको।” आपसे कहा जाए, “जीवन एक गाड़ी और खरीदने का नाम है,” आपको उसमे कोई संदेह नहीं होगा। आप कहेंगे, “बात ठीक है बिलकुल, बात ठीक है।”

दुनिया किन ढर्रो पर चल रही है आपको ज़रा संदेह नहीं उठता कि ये सब क्या है, क्यों हो रहा है? ज़रा भी शक पैदा ही नहीं होता। आप एक के बाद एक बंधन स्वीकार किए जाते हो, अपने हाथो बेड़ियाँ पहने जाते हो, आपको ज़रा भी कभी शक नहीं होता कि क्या ऐसा ही होना चाहिए? क्या वास्तव में ऐसा होना ज़रूरी है? आपको कभी शक नहीं होता कि क्या ये अस्तित्व है ही इसीलिए कि मैं दुःख भोगूँ? आपको कोई शक नहीं होता। इन बातो को तो आपने अकाट्य सत्य मान रखा है। जीवन लेन-देन है, जीवन दुःखों की श्रंखला है। दूसरे के लिए कुछ करोगे तभी तो वो खुश होगा – तमाम धारणाएँ, इनको आपने बिलकुल सत्य मान रक्खा है। कोई दिक्कत नहीं है।

तमाम आपके बंधन, तमाम आपकी बेड़ियाँ बिलकुल सत्य हैं, इनमे कोई शक नहीं है। हाँ कोई आपसे आके कह दे कि जीवन मुक्ति है, तो बड़ा संदेह हो जाता है, ये कैसी बात है, अजीब बात है। कही इधर-उधर जाने लग गए हो क्या? ये कैसी बाते कर रहे हो? उसने इतना ही कह दिया है, जीवन मुक्ति है। आपको शक हो जाएगा। कर क्या रहे हो? बहकी-बहकी बाते बंद करो। और ये रविवार सुबह नौ बजे वाला कार्यक्रम तो बिलकुल बंद करो। तुम्हारे दिमाग पर फितूर छाने लग गए है।

आप, लोगो की आँखों में देखिये, उससे ज़्यादा मज़ेदार बात नहीं हो सकती है। आप उनकी आँखों का यकीन देखिये, जब वो ये बात कर रहे होते है, “देखो जल्दी से ये मकान खरीद लो, प्रॉपर्टी के दाम बढ़ने वाले है।” उनकी आँखों का यकीन देखिये, उन्हें पता है। उन्हें पता है कि मकान खरीदना बहुत-बहुत ज़रूरी है, उसके बिना काम नहीं चलेगा। और वो बिलकुल दिल से सलाह दे रहे हैं आपको। और उनकी आँखों में फिर जो अविश्वास झलकेगा उसको भी देखिये, जब आप उन्हें बताएँगे कि कैसी बात, क्यों, क्यों ये सब बाते क्यों कर रहे हो? ज़रूरत क्या है?

मन ये जो लगातार यकीन में जीना चाहता है, मन ये जो लगातार धारणाएँ बनाता है, आपने कभी गौर किया कि क्यों बनाता है? वो इसीलिए बनाता है क्योंकि धारणाओ के माध्यम से वो सत्य को पकड़ लेना चाहता है, सत्य को कैद कर लेना चाहता है। सत्य उसकी मुट्ठी में समाता नहीं, तो कहता है, “चलो, धारणाएँ ही सही।” और इतनी उसमें विनम्रता होती नहीं कि वो कहे कि ये सत्य नहीं है, ये तो मात्र धारणाएँ हैं, तो सत्य के विकल्प के तौर पर, वो धारणाएँ पकड़ता है और उन्हीं धारणाओं को वो सत्य का नाम दे देता है। समझ रहे हैं?

ये तो ऐसा ही है जैसे आपको सेब न मिले तो आप अंगूर खाने लगे और अंगूरों को ही सेब का नाम दे दें। और, अंगूरों और सेब की तो फिर भी तुलना हो सकती है, ये दोनों एक ही तल पर हैं, आकार भर का अंतर है। सत्य की और धारणाओं की तो किसी भी तरह की कोई तुलना हो नहीं सकती। तो हम खूब धारणाएँ बनाते है, क्यों? क्योंकि एक सत्य को नहीं पाते है। बहुत धारणाएँ बनानी पड़ती है।

बहुता कहिये, बहुता होई।

कहे जाओ, कहे जाओ, खूब कहे जाओ कि हम जानते है, हम जानते है, खूब ज्ञान है, खूब ज्ञान है, खूब ज्ञान है। और सारे ज्ञान की ज़रूरत क्यों है क्योंकि मूल बात पता नहीं है। मूल बात बहुत दूर, बड़े अछूते हैं उससे, तो इसीलिए सौ दूसरी बातें पता हैं। और अकसर हज़ारों बातें उनको ही पता होंगी जिनको एक बात नहीं पता है।

असंख कहही, सिरी भरु होई।

जितनी धारणाएँ बनाते जाओगे, जितना तुम्हारे पास कहने को होता जाएगा, उतना तुम्हारा सर भारी होता जाएगा। उतना ज़्यादा तुम्हारा अहंकार बढ़ता जाएगा और साथ ही तुम्हारे माथे का दर्द, तुम्हारे जीवन के कष्ट बढ़ते जाएँगे।

दो विकल्प हैं, या तो और कहे जाओ, या तो और अपने आप को ज्ञानवान बनाए जाओ, या तो और ज़्यादा धारणाओं से युक्त होते जाओ, ये सोच के कि क्या पता बढ़ाते-बढ़ाते, बढ़ाते-बढ़ाते एक दिन पूर्ण तक ही पहुँच जाए। या चुप-चाप सर झुका दो और ये स्वीकार कर लो कि कितना ही बढाएँगे उस तक कभी नहीं पहोच पाएँगे। हम ज्ञान नहीं बढ़ा रहे, हम धारणाय नहीं बढ़ा रहे हम और ज़्यादा यकीन नहीं बढ़ा रहे, हम सिर्फ अपना कष्ट बढ़ा रहे है। चुप-चाप ये मान लो और, और ज़्यादा, और ज़्यादा, और ज़्यादा कहने की होड़ से बाहर हो कर के मौन हो जाओ।

दो विकल्प हैं। जितना कह रहे हो उतना पूरा नहीं पड़ रहा। जितना मान रहे हो, उसमे सत्य नहीं समा रहा। तो या तो तुम और मानना शुरू करो, और धारणाएँ पालो, कर सकते हो, ज़्यादातर लोग यही करते है। जितना कमाया उतना पूरा नहीं पढ़ रहा तो वो और कमाने की कोशिश करते है। इच्छाएँ पूरी नहीं पड़ रही है, इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश और बढ़ा देते है। या तो ये कर लो, मुक्त हो तुम उसके लिए। या ये कर लो कि साफ़-साफ़ जान जाओ कि अनंत के सामने तो तुम जो भी कुछ करो वो शून्य बराबर ही है, न बराबर ही है। कि जो समस्त वर्णन के अतीत है, उसका जितना वर्णन करोगे वो कहीं पहुँचेगा नहीं। तो वर्णन करना ही क्या है? मौन ही हो जाओ, चुप ही हो जाओ।

दो लोग हों और वो मकान-दुकान, देश-दुनिया की बात कर रहे हों, और उनमें से एक अचानक ठिठक के रुक जाए। और दूसरे वाले के चेहरे को गौर से देखने लगे, कहे, “ये हम क्या कर रहे है?” अगर आ जाए ये पल, तो ये बड़ी मूल क्रांति का पल होगा, “ये हम क्या कर रहे है, ये हम क्या कह रहे है? हमें कुछ पता भी है कि हम क्या कह रहे है? हमे कुछ पता है हम क्या कह रहे है?” और जिन लोगो को बड़े विश्वास के साथ दावे करने का शौक हो, जो विशेषज्ञ की तरह खूब बोलते हों, उनको तो खास तौर पर कभी ऐसे ठिठक के रुकना चाहिए ही, “ये में कह क्या रहा हूँ? ये मैं कर क्या रही हूँ? मुझे कुछ भी पता है क्या? मुझे कुछ भी पता है?”

एक तन्द्रा, बेहोशी जैसा होता है, जानकार होने का भाव तुम्हें लगे ही जाता है, लगे ही जाता है कि मुझे कुछ पता है, मुझे कुछ पता है। तुम्हें कुछ भी पता है, तुम कर क्या रहे हो? किसी रोज़ जब तुम सुबह उठ कर के, तेज़ी से कपड़े-लत्ते पहन के बिलकुल तैयार हो रहे हो, दफ्तर पहुँचना है इतने बजे, आज प्रेजेंटेशन दिखानी है बॉस को, ठिठक जाओ अचानक, “ये क्या कर रहा हूँ?” पर हमारे पास एक बड़ा ढीट सा यकीन होता है, “मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूँ।” आप इतना भी नहीं कहते कि मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्योंकि ये बात सवाल पूछने की है ही नहीं कि मैं क्या कर रहा हूँ, अरे मैं क्या कर रहा हूँ?

“मुझे पता है, वही कर रहा हूँ जो सब करते है। वही कर रहा हूँ जिसका नाम ज़िन्दगी है।” और कोई आपसे कहे, “यही है?” आप कहोगे, “बिलकुल यही है, बिलकुल यही है, बिलकुल यही है, मुझे पता है।” तुम्हें क्या पता है? तुम्हें क्या पता है? दावा किये जाते हो कि तुम्हें पता है। बस दावा। दावा खोखला है, गहराई में सिर्फ अज्ञान है, ये भी जानते हो और और उसका प्रमाण ये है कि बिलकुल घबरा जाते हो जब तुम्हारे यकीनों से हटकर के कोई बात की जाए।

बिलकुल बौखला जाते हो जब तुम्हारे सामने कोई ऐसा खड़ा हो जाए जो तुम्हारी धारणाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा दे। स्वीकार ये नहीं करोगे कि हम हिल गए, हम डर गए, कहोगे यही कि ये आदमी पागल है। पर, अंदर ही अंदर से काँप जाओगे। बिलकुल काँप जाओगे। क्योंकि तुम्हें पता है कि तुम्हारे सारे दावे झूटे है। तुम्हें सत्य का पता ही होता तो तुम शांत न हो गए होते? तुम्हें सत्य का पता ही होता तो तुम ऐसे बिलख रहे होते, ऐसे भटक रहे होते? तुम्हारी आँखों में इतनी प्यास होती? तुम बात-बात पर ऐसे झुंझलाते?

अपने जीवन के कष्टों को समझना चाहते हो तो अपनी धारणाओं पर ध्यान दो। जानना चाहते हो कि कितने अज्ञानी हो, तो अपने ज्ञान पर ध्यान दो। उन सब मान्यताओ पर ध्यान दो जिनको तुमने सत्य के विकल्प के तौर पर खड़ा किया है। जो भी कुछ कहते हो कि मुझे पता है, जिस भी बात का बार-बार खम ठोक-ठोक के दावा करते हो उसी पर ध्यान दो। अगर बार-बार कहते हो, “मुझे प्यार है, मुझे प्यार है, मुझे प्यार है।” ध्यान दो, है? है? वाकई है? क्या वाकई है?

जो भी कुछ कहते हो कि हाँ जानता हूँ, उसी पर ध्यान दो। जिस भी बारे में पक्के हो कि ऐसा तो है ही, और ऐसा तो होना चाहिए ही, उसी पर ध्यान दो। आवाक खड़े रह जाओगे कुछ कह नहीं पाओगे। क्षण भर को कम से कम मौन का अनुभव हो जाएगा। धारणाओं पर ध्यान देने भर से ही ये प्रसाद मिलेगा कि आवाक हो जाओगे। चालाकियाँ थोड़ी देर के लिए बंद हो जाएँगी। हतबुद्धि हो जाओगे। बुद्धि काम करना बंद कर देगी। अच्छा है तुम्हारे लिए कि ये चालाक बुद्धि क्षण भर के लिए ही सही, काम करना बंद कर दे। सुन्न खड़े रह जाओगे। जैसे किसी ने थप्पड़ मार दिया हो ज़ोर से और बिलकुल झन्ना गए हो। बुद्धि काम नहीं कर रही।

उस क्षण में मौन की एक झलक तो मिलेगी। उस क्षण में बच्चे की तरह हो जाओगे, जिसे कुछ नहीं पता। तुम्हें बड़ा कष्ट होगा। क्योंकि वो सारा ज्ञान ही तो तुम्हारे अहंकार का सहारा है ना। जब उसपे चोट पड़ती है तो बिलख जाते है।

अहंकार बहुत चिल्लाता है, “मुझे कुछ नहीं पता? अच्छा! मैं इतना अनाड़ी हूँ? अच्छा? पर वो तुम्हारा बिलख जाना तुम्हारे लिए बड़ी शुभ घटना होगी। उस क्षण में तुम बच्चे जैसी निर्दोषता को पाओगे, क्षण भर के लिए ही सही, जिसे कुछ नहीं पता होता। उसकी आँखे देखी है? दो बड़े ज्ञानियों को बात करते देखो, वो शेयर मार्किट के उतार-चढ़ाव के बारे में बात कर रहे है और एक बच्चे की आँखों को देखो, तब तुम्हें समझ में आएगा कि ज्ञान कितनी बड़ी बीमारी है।

“जानकार लोगो से बचना, जो लोग ठहर चुके हैं, कि हमे तो पता है, उनसे बचना। इसीलिए इतनी कीमत है हैरत ( वंडरमेंट ) की, निर्दोष कौतुहल की। क्योंकि उसमें ये अहंकार नहीं होता कि मैं तो जानता ही हूँ। जैसे, कोई बच्चा होता है, वो ज़रा सी कोई चीज़ देखेगा और उसकी आँखों का भाव देखा है, “ये है क्या?” बड़ों की आँखों में ये भाव आता ही नहीं, उन्हें पता है, आपको पता है। और वो जो आपको ‘पता है’ का भाव है उससे ज़्यादा अधार्मिक भाव कोई होता नहीं।”

अगर कोई एक वक्तव्य है, जो सारे पाप का कारण है, सारे दुःख का कारण है, तो यही है ‘मैं जानता हूँ’, ‘मैं जानता हूँ’। मैं जानता हूँ, का अर्थ समझते हो क्या है? मैं सत्य जानता हूँ। मैं जानता हूँ का अर्थ जानते हो क्या है? अहंकार सत्य जानता है। मैं जानता हूँ का अर्थ जानते हो क्या है? अहंकार इतना बड़ा है कि सत्य उसमे समा गया है।

क्या पता है तुमको, क्या? क्या पता है? दुनिया को जब भी देखो ऐसे देखो जैसे तुम नहीं जानते। क्योंकि तुम नहीं ही जानते, आँखों पर कभी भी इस बात का पर्दा न पड़ा रहे कि इसके बारे में तो पता है। देखे होंगे तुमने वही-वही, वही-वही दृश्य बीसों-चालीसों सालों से, पर तुम्हें फिर भी नहीं पता है। ऐसे देखो जैसे नया देख रहे हो, पहली बार देख रहे हो। ऐसे मत देखो कि जैसे कई बार देखा है तो जानता हूँ। ठीक है, आदत पड़ गई, आदत पड़ने से जान थोड़ी ही गए। आदत पड़ने से जान थोड़े ही गए।

सिर्फ इसीलिए कि बहुत-बहुत बार किसी घटना से गुज़रे हो, तो अभ्यस्त हो सकते हो, अभ्यस्त हो सकते हो, बोध तो नहीं आ गया ना। होगी तुम्हारी उम्र अब ६० साल की, ८० साल की, तुम्हें जीवन का अभ्यास हो गया है, तुमनें बहुत सारी पुनरावृत्तियाँ देख ली हैं। तुम जीवन को जान नहीं गए हो। तुम कुछ नहीं जानते। तुमसे ज़्यादा तो शायद एक तीन साल का बच्चा जानता है, उसकी चेतना थोड़ी साफ़ है। छोटी से छोटी चीज़ को ऐसे न देखो, जैसे पता है। कोई वक्तव्य तुमने सुन लिया होगा पांच सौ बार, उसको ऐसे न सुनो जैसे कि समझ गए हो। क्योंकि तुम नहीं समझे हो, नहीं समझे हो।

कृष्णमूर्ति पूछते हैं कि कभी पेड़ देखा है? अगर ज़रा सा ध्यान दो उनपर तो ये प्रश्न तुमको बुनियाद से हिला देगा। क्योंकि वो तुमसे कह रहे है कि तुमने कभी कुछ नहीं देखा है। तुमसे पूछ रहे है, “कभी एक पेड़ देखा है?” वो तुमसे कह रहे है कि जब तूने कभी पेड़ ही नहीं देखा, तो तुझे क्या हक़ है ये दावा करने का कि तूने, माँ-बाप, या बीवी, या बच्चा, या दुनिया, या समाज, या जीवन, कुछ भी देखा है? तूने कुछ नहीं देखा और तेरा दावा ये है कि तूने सत्य देखा है। वो कह रहे है “छोड़ो तुम कि तुमने परमात्मा देखा है, छोड़ो तुम कि तुमने मुक्ति देखी है, कि आनंद देखा है।” वो तुमसे पूछ रहे है, “तुमने पेड़ देखा है? पेड़ दिखता नहीं परमात्मा दिखेगा तुझे?” पेड़ दिखा नहीं, परमात्मा दिखेगा?

तुमने कुछ भी देखा है? तुमने कुछ भी जाना है? अजीब कल्पनाएँ, जैसे पागलखाना हो। जो है ही नहीं उसकी चर्चा की जा रही है। जो है वो किसी को दिखाई नहीं दे रहा। चल रही है चर्चाएँ, “त्योहार आ रहा है, तुम कितने दिन की छुट्टी ले रहे हो?” “इतने दिन की।” “तुम क्या खरीदने जा रहे हो?” “ये सब खरीदने जा रहा हूँ।” तुम्हें कुछ पता है तुम क्या बातें कर रहे हो? तुम्हें कुछ भी पता है? “और भाई तेरी शादी कब हो रही है?” “तब हो रही है। तेरी?” “मेरी तो हो गई।” “हाँ, तेरी शकल पर लिखा है।” तुम्हें कुछ पता है कि तुम क्या कह रहे हो। तुम्हें ज़रा भी पता है, एक भी शब्द, जिसका तुम इस्तेमाल करते हो उसका अर्थ क्या है? तुम्हें अपने छोटे-छोटे शब्दों के अर्थ नहीं पता, तुम ऐसा शब्द निकाल लोगे, जिसमे परमात्मा समा जाए?

तुम जिन शब्दों में दिन रात खेलते-कूदते रहते हो, तुम जिन शब्दों में लगातार जी रहे हो, जो शब्द तुम्हारे मानस-पटल पर दिन-रात उभरते रहते है तुम्हें उनका ही कुछ नहीं पता। तुम्हें पैसे का पता है? बताओ पैसा क्या है, समझाओ? तुम बार-बार कहते हो कैरियर, समझाओ बात, ठीक से समझाओ बात कैरियर क्या है। तुम कहते हो तरक्की, प्रगति, समझाओ ठीक-ठीक तरक्की माने क्या? तुम कहते हो परिवार, थोड़ा बता दीजिये, परिवार माने क्या? और बात साफ़-साफ़ करियेगा, छुपाने की नीयत से नहीं, खोलने की नियत से करियेगा।

तुम्हें कुछ नहीं पता, तुम्हें परमात्मा का क्या पता होगा। जिसे परमात्मा का पता हो उसे सब पता चल जाता है। जिसे सत्य का पता है उसके लिए सारे तथ्य सार्थक हो जाते है। फिर सारे तथ्य, सत्य की रोशनी में चमकने लगते है। जिसे सत्य का नहीं पता उसके लिए जितने तथ्य है वो सब मुर्दा है। उनका कोई अर्थ नहीं।

जिसे सत्य का पता है वो देखेगा पदार्थ को, शरीर को देखेगा। आँखे शरीर ही देखेंगी, शरीर तथ्य है। पर अब उसके लीए शारीर जो है, वो उसके लिए कभी नहीं हो सकता जिसे सत्य का कुछ पता नहीं। जो सत्य को जाने बिना शरीर को देख रहा है, उसके लिए शरीर सिर्फ एक मुर्दा इकाई है। थोड़ा सा माँस, कुछ किलो माँस।

आश्वस्ति से बचिये, सर्टेनिटी से बचिये। इस भाव से बचिये कि ऐसा तो है ही। साफ़-साफ कह रहा हूँ आपसे, आप जैसा भी समझते हो कि है, वैसा तो नहीं है। नहीं कुछ मामलो में वैसा नहीं है या हर मामले में वैसा नहीं है? हर मामले में वैसा नहीं है। आप जहाँ कहीं भी सोचते है कि ऐसा है, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है। शुरू में आपको ये बात अजीब सी लगेगी, लेकिन जैसे-जैसे ज़रा सी श्रद्धा के साथ इस पर आगे बढ़ेंगे आपको दिखता जाएगा, कि हाँ हम जो भी, जैसा भी समझते थे वैसा तो नहीं था, वैसा तो नहीं था। और फिर आपके लिए और सरल होता जाएगा, अपने विश्वास पर अविश्वास करना।

फिर आप कहोगे ये विश्वास अगर कुछ मामलो में धोखा दे रहा था तो हो सकता है कि हर मामले में धोखा दे रहा हो। हो सकता है कुछ भी वैसा न हो जैसा मैंने सोचा। कुछ भी, कुछ भी, कुछ भी। अंश मात्र भी वैसा न हो जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। जैसे-जैसे आपको आपके ज्ञान से मुक्ति मिलती जाती है, वैसे-वैसे आप सत्य में स्थापित होते जाते हो। इसका ये अर्थ नहीं है कि एक प्रकार के ज्ञान से आप दूसरे प्रकार के ज्ञान में चले जाते हो। इसका अर्थ इतना ही है कि बस…इसका अर्थ ये नहीं है कि आप सत्य जान जाते हो। इसका अर्थ है कि आप सत्य में स्थापित हो जाते हो। सत्य आपसे बड़ा है, आप वहाँ जाकर के अवस्थित हो जाते हो। आप वहाँ बैठ जाते हो।

YouTube Link: https://youtu.be/vSb8o8KkP-A

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