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लेख
मैं अपना दुख स्वयं हूँ || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
33 मिनट
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‘स्वरूप निर्वाणं,’ ऋषि मंत्र दे रहे हैं —

स्वरुप निर्वाणं

निर्वापित होने का अर्थ होता है जो जल रहा है उसका शमित हो जाना | जहाँ आग लगी हुई है उसका बुझ जाना, बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है जो ऋषि नें हमें दे दिया है दो ही शब्दों में, स्वरुप निर्वाणं | जो कुछ भी तुम्हारे जीवन में जलता हुआ प्रतीत होता है वो तुम्हारा स्वरुप है | तुम ही हो जो जल रहे हो | वो सबकुछ जो तुम अपनें आप को समझते हो वही वो आग है जो तुम्हें जलाय दे रही है | वही वो पीड़ा है जो दिन रात तुम्हारे कलेजे में चुभ रही है | तुम्हारी आग परिस्थिति जन्य नहीं है |

तुम्हारे दुःख तुम्हें संसार नें नहीं दिए | आकस्मिक संयोग नहीं थे तुम्हारे जीवन में जितने भी कष्टप्रद मौके आये | वो सबकुछ तुम्हारे तुम होनें का अंजाम थे |

आप लोगों से बात करता हूँ, अब सैकड़ों नहीं तो हजारों लोगों से मिल चुका हूँ, पर अभी तक किसी एक भी ऐसे से मिलना बाकी है, जो अपनें दुःख कारण स्वयं न हो | मैंने कोशिश भी करी है किसी तरह से ये बात बैठानें की, कि व्यक्ति ‘शांत’ था, मन केन्द्रित था, परन्तु दुःख फिर भी आया, लेकिन ये असम्भवता है | ऐसा हो नहीं सकता |

शास्त्र भी जिन तीन प्रकार के तापों को उल्लेख करते हैं, वो तीनों दिखते भले बाहरी हों पर तीनो में ही तपनें वाला कोई मौजूद होना चाहिये | वो तपने वाला तुम्हारा स्वरुप है | ताप्त्र जब आप पढ़ते हो तो ये सवाल अक्सर पूँछना भूल जाते हो कि ताप किसको है ? दुःख किसको है ? जिसनें ये सूत्र समझ लिया, जिसना इस सूत्र को अपनें भीतर गहराई से बैठ जानें दिया, उसको वो मिल जाए जो मनुष्य की सदा से अभिलाषा रही है पर अभी उसे प्राप्त होती नहीं |

‘दुःख’ की समझ और ‘दुःख’ से मुक्ति |

दुःख कोई बाहरी होता नहीं, ताप कोई बाहरी होता नहीं | ‘स्व’ रुप ही दुःख है | तुम स्वयं अपना दुःख हो, दुनिया को दोष देना छोड़ो | असल में तुम जिस दुनिया की बात कर रहे हो वो दुनिया भी तुमसे बाहर, तुम्हारे अतिरिक्त कहीं और है भी नहीं | यहाँ पर जितनें लोग बैठे हुए हैं उतने विश्व यहाँ हैं हम सब अपना-अपना व्यक्तिगत विश्व साथ ही लिए हुए हैं, तो कोई कैसे कहे की विश्व मेरा दुःख है | विश्व तुम्हारा वही है जो तुम हो |

निर्वाण का, जो कि कई अर्थों में मोक्ष का पर्याय है, ‘निर्वाण’ का अर्थ बस इतना ही है कि अपने आप से मुक्त हो जाओ | अपनें मन से, अपनी धारणाओ से, अपनें ढर्रों से, अपनें तौर तरीकों से, और अपनें रूप अर्थात व्यक्तित्व से मुक्त हो जाओ | याद रखना तुम्हारा व्यक्तित्व दुःख से मुक्त नहीं हो सकता | हाँ, तुम अपनें व्यक्तित्व से मुक्त हो सकते हो | अंतर समझना,

जब तक तुम, ‘तुम हो,’ तुम दुःख में ही रहोगे | तुम्हारे लिए इस दुःख से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है | हम असंभव की माँग करते हैं | जब हम कहते हैं की काश मैं दुःख के पार जा सकूँ | ‘तुम स्वयं ही दुःख हो’ | तुम कैसे दुःख के पार जाओगे ? तुम असंभव की माँग कर रहे हो |

दुःख तुम अपने साथ लिए घूम रहे हो |

तुम्हारी हालत बिलकुल वैसी है जैसे किसी नें अपनी जेब में बम रखा हुआ हो और जान बचानें के लिए पुरे जोर से दौड़ रहा हो | अपनीं मृत्यु तुम अपनें साथ लेकर घूमते हो तुम कैसे बाच जाओगे दुःख से ?

हाँ, अपने आपको धोखा देनें के लिए, अपने आपको बहाने में रखनें के लिए, तुमनें अपनें से बाहर शिकार ढूंढ लिए हैं | तुम्हारी ऊँगली सदा बाहर की ओर जाती है, की कोई और है विधि, संयोग, दुनिया, व्यवस्थाएँ, जो उत्तरदाई हैं तुम्हारे क्लेश के लिए |

दुःख से मुक्ति जिसनें माँगी उसे सिर्फ और दुःख ही मिला है | जिसनें स्वयं से मुक्ति माँगी, उसे मुक्ति मिली है दुःख से | तो फिर प्रश्न ये उठता है कि यदि बात इतनीं साफ़ है कि दुःख से मुक्ति नहीं मिल सकती खुद से ही मुक्ति माँग लो तो लोग क्यूँ नहीं मुक्त हो जाते खुद से ? वो इसलिए नहीं मुक्त हो जाते क्योंकि, दुःख कभी अकेला नहीं आता | इस द्वैतात्मक दुनिया में दुःख और सुख हमेशा साथ चलते हैं | अच्छे से जानते हैं हम कि वो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन चूँकि हम सिमित हैं और हमारी द्रष्टि सिमित है इसीलिए किसी एक पल पर हमें सिक्के का सिर्फ एक पक्ष ही दिखाई देता है |

जब आप सिक्के का पूर्व पक्ष देख रहे होते हैं तो आप भूल ही जाते हैं कि उत्तर पक्ष मौजूद है बस आपको दिख नहीं रहा है | जब आप किसी के जन्म का समारोह मन रहे होते हैं, तब आप भूल ही जाते है कि मृत्यु भी आ ही गयी है, बस बीच में समय का अन्तराल है, इस कारन आपको दिख नहीं रही है |

दुःख, सुख कि सहायता से खड़ा रहता है, अन्याथा दुःख कब का चला गया होता | दुःख कि कोई हैसियत नहीं थी कि हमारे जीवन में मौजूद होता लेकिन चूँकि हमें सुख कि बड़ी आकांक्षा है, इसलिए दुःख मौजूद रह जाता है | हम सुख के लिए दरवाजे खोलते हैं, और हमें पता भी नहीं होता कि सुख का दूसरा नाम दुःख है, हमनें सुख के साथ-साथ दुःख को भी घर बैठा लिया है, और सुख के लिए हमारे दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं | ये जो ‘स्व’ रुप है, यह कुछ भी नहीं है ये सुख कि आकांक्षा और दुःख कि आशंका है | आप अपनें आपको पूरी तरीके से देखिये, आप अपनीं चेष्टाओं को देखिये, आप अपनें संबंधों को देखिये, उनमें रखा क्या है ?

इन दो के आलावा या तो आप सुख की अभीप्सा करते हैं या आप दुःख से भागते हैं | इसके आलावा आपनें कभी कुछ तीसरा किया हो, तो मुझे बता दीजियेगा | चाहें तो आज सुबह से जो कार्यक्रम रहा है उसे देख लें, चाहें तो पिछले महीने का देख लें, चाहें तो अपनें पुरे जीवन का देख लें और चाहें तो संसार में कितने ही व्यक्तियों का पूरा जीवन वृत्त उठा करके देख लें, उन्होंनें किसी भी क्षण कुछ भी और किया हो कृपया मुझे बता दें | या तो वो सुख की ओर भागे है या तो वो दुःख से दूर भागे हैं | भागनें के आलावा उन्होंने और कुछ और किया नहीं है | और यही दो छोर हैं जो हमारे भागनें को उर्जा देते हैं |

भारत में बार-बार अद्वैत की बात हुई, इसीलिए हुई क्योंकि जिसनें जीवन के द्वैतात्मक अधार को नहीं समझा वो हमेंशा चाहेगा कुछ और, और, पायेगा कुछ और | ‘द्वैत’ का अर्थ ही यही है कि तुम चाह कुछ और रहे हो और तुम्हें पता भी नहीं चल रहा कि तुम पा बिलकुल उसका विपरीत जाओगे | इसीलिए भारत नें कहा ‘अद्वैत,’ इसीलिए ऋषियों नें समझाया, कि जहाँ दो हैं वहीँ दुःख हैं | लेकिन ये बात हमें समझ में आती नहीं है | जहाँ दो हैं वही दुःख है |

इसी बात को समझा पश्चिम में भी गया है | भनक उन्हें भी लगी है, ज़्यादा दिन नहीं हुए, सौ साल भी नहीं, यूरोप के अस्तित्ववादी विचारकों नें कहा ‘*दूसरा नर्क है*‘ | उसका अर्थ यही था, उसको यदि गौर से देखेंगे तो देखेंगे की दूसरा जहाँ है, ‘नरक’ वहीँ है, दुसरे का अर्थ है — ‘द्वैत’ |

दुनिया को जब भी देख रहें हो, जब भी इन्द्रियों से ये संसार अपनीं ओर उपस्थिति का एहसास करा रहा हो, तो इन्द्रियों का दमन करने कि जरूरत नहीं है, तुरंत ही यह कह देनें कि जरूरत नहीं है, कि संसार झूठा है, धोखा है, की माया है | मैं विपरीत बात कहता है, ये तो आप ने खूब सुना है की जो आँखो से दिख रहा होगा वो है ही नहीं | मैं आपसे कहता हूँ, इससे उल्टा चलो | मैं कह रहा हूँ, आँखों से जो दिख रहा है वो तो है ही, उससे ज्यादा भी कुछ है |

आँखों से आधा दिख रहा है बस | जब आँखों से दुःख दिखाई दे तो समझ जाओ की आधा देखा | इसके पीछे कुछ और है जो दिख नहीं रहा है | सुख , छिपा हुआ है | और आँखे जब सुख देखें, और ‘मन’ जब खूब सुख मनाये तो कहो ठहर जाओ, कहो कि आधा ही दिखा | बाकी आधा दिख नहीं रहा है | ये कहना जरा मुश्किल पड़ता है कि जो कुछ दिख रहा है वो मिथ्या है भरम है, ‘*जगत मिथ्या*‘ |

तुम कहो कि कैसे मिथ्या हो सकता है ? ये दरवाजा दिखता है और अगर सड़क का पत्थर चोंट देता है तो, मिथ्या कैसे हो गया ? तो ‘मिथ्या’ मत कहो, ‘अपूर्ण’ कह लो, ‘आधा’ कह लो | जब दिन सामने आये, तो जान जाना की रात छुपी हुई है इसी में | जब पेंडुलम एक तरफ को जाए तो जान जाना कि दूसरी तरफ की यात्रा शुरू हो चुकी है | जब आकर्षण खींचे तो जान जाना कि एक दिन इसी वस्तु से घबरा के भागोगे, आज जिस वास्तु से आकर्षित हो रह हो |

जब बहुत आदर देनें का मन करे किसी को, तो समझ जाना जिसको आदर दे रहे हो, उसके प्रति बहुत गहरा अनादर भी उठ रहा है | और एक दिन विस्फोट होगा | आँखे जो देखें, समझ लो उतना ही अभी और मौजूद है | स्वरुप निर्वाणं का अर्थ हुआ कि ‘आधे से मुक्ति’ | स्वरुप निर्वाणं का अर्थ हुआ, ‘द्वैत के एक सिरे से मुक्ति’ क्योंकि तुम्हारा स्वरुप यही है — ‘आधा,’ क्योंकि जब ये सुख देखता है, तो दुःख नहीं देख पाता, ‘आधा’ | अब शंका उठेगी मन में, जिसका काम ही है शंकालु रहना कि अगर स्वरुप हट गया तो बचा क्या? मैं कहाँ गया? और, मेरा क्या होगा? क्योंकि मैंने तो अपनें आप को इस रूप, इस व्यक्तित्व के अलावा, कुछ जाना नहीं है | स्वरुप चला गया तो मेरा क्या ? और ये सवाल बहुत बड़ी बाधा बन जाता है |

हम कहते हैं कि वर्तमान में मुझे जो कुछ अनुभव हो रहा है, ठीक है, वो आधा है, अधुरा है, विषाक्त है, बीमार है लेकिन है तो सही | कुछ तो है, सिक्का भले ही खोटा है पर मेरे हाँथ में है | मन सवाल खड़ा करता है मन कहता है जो अभी मेरे पास है, इसको बह जाने दूँ विसर्जित हो जाने दूँ, निर्वापित हो जानें दूँ, तो मेरे पास बचेगा क्या? अभी कम से कम मेरे पास उम्मीदें तो हैं | मैं इन्हें भी जाने दूँ ? ये मेरी उम्मीदें, मेरे स्वरुप का हिस्सा हैं, इन्हें भी ख़त्म हो जाने दूँ ? दो तरह के जवाब हो सकते हैं, अगर मन जरा श्रद्धालू हो तो | जवाब है, कि जब तुम नहीं रहोगे तो वो रहेगा जो तुमसे कहीं ज्यादा श्रेष्ठ, कहीं साफ़ और कहीं ज्यादा पूर्ण है | उसको एक बार मौका देकर के देखो |

तुम जिसको होना कहते हो वो सिर्फ तुम्हारी व्याधियों का होना है | जब तुम नहीं रहोगे तो स्वास्थ्य रहेगा, उसे एक बार मौका देकर देखो | इतना मत डरो, कि मैं तो नष्ट ही हो जाऊँगा, ख़त्म हि हो जाऊँगा | मृत्यु से ज्यादा कष्ट, मृत्यु का विचार देता है | मिट जाने का खौफ, हमसे बड़ी बेतुकी और मूर्खतापूर्ण हरकते करवाता है | मैं नहीं रहूँगा, मैं कैसे नष्ट हो जाने दूँ अपने आपको | और जब हम बात करते हैं नष्ट हो जानें की, तो हम सिर्फ शारीरिक मृत्यु से ही नहीं डरते, हमारे स्वरुप हमारे व्यक्तित्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, ‘हमारे ख्याल’, ‘हमारे विचार’, ‘हमारी जीवन दृष्टि’ |

आपनें देखा है, हम कितनें आक्रामक और हिंसक हो जाते हैं जब मौका आता है, जिसमें हमारे ढर्रे बदल सकें हमारी जीवन दृष्टि बदल सके | जब कोई हमारे मतों पर आघात करता है, हम कितनें आक्रामक हो जाते हैं, ‘आत्म-रक्षा’ के लिए कितनें प्रस्तुत हो जाते हैं, उसका कारण ही यही है क्योंकि ढर्रों का धारणाओं का मान्यताओं का बदलना भी एक प्रकार कि मृत्यु है | वो हमारे स्वरुप का हिस्सा है. अगर यह सिद्ध हो गया जो हमारे मन में भरा हुआ है, वो व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण है, तो एक प्रकार कि मौत है ये | हम उससे उतना ही डरते हैं जितना हम मौत से डरते हैं, लेकिन

जब मन धारणाओं से साफ़ हो जाता है तब मन में, उस अव्यक्त के लिए जगह बचती है | जिसको हजार नाम दिए गए हैं जिनमें से एक नाम परमात्मा भी है |

और अगर श्रद्धा कि कमी हो तो आपके लिए दूसरा जवाब है, वो जवाब है कि फर्क क्या पड़ता है कि तुम्हारे मिट जाने के बाद क्या बचेगा | तुम तो बस इतना देखो कि तुम तो घोर पीड़ा में हो |

तुम स्वीकार करो या न करो, तुम प्रतिपल जल रहे हो और जलते हुए व्यक्ति को ये पूछने का हक नहीं होता कि आग बुझ जाने के बाद मेरा क्या होगा ? तुम तो बस अपनी आग को बुझने दो | तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि अभी जिस अग्नि में जल रहे हो वो शमित हो जाये |

तुम आगे कि चिंता छोड़ो, तुम्हारी अभी ऐसी स्थिति ही नहीं कि तुम आगे के बारे में प्रश्न उठा सको | तुम तो बस अभी देखो अपने आपको पैनी नज़र से देख भर लो, क्या हालत बना राखी है तुमनें अपनी ? क्या हो सकता था जीवन और क्या कर लिया है तुमने | यही जीवन आनंदपूर्ण हो सकता था, इसी जीवन में मुक्ति की उड़ान मिल सकती थी, इसी जीवन में तुम प्रेम को पा सकते थे, पर पाये हैं तुमने सिर्फ रीति-रिवाज़, बंधन, आकर्षण और तमाम तरह के आडम्बर और धारणाएँ | देखो जीवन कैसा व्यर्थ गया, और इतना देखना ही काफी है | इसके बाद कोई और शेष नहीं रह जाएगा |

जिसनें हाँथ में तपता हुआ कोयला पकड़ रखा हो, उसे यह प्रश्न नहीं पूँछना चाहिए कि कोयले के बाद मेरा क्या होगा | फ़िलहाल इस कोयले को तुम छोड़ो | इस कोयले को छोड़ देना ही स्वरुप का ‘निर्वाण’ है | तुम्हारे दुःख यूँ ही नहीं आ गए हैं, तुमने अपनी पूरी ताकत से उनको पकड़ रखा है |

आगे से कभी प्रश्न उठे कि निर्वाण क्या है ? मोक्ष किसे मिलता है? तो

तुम जानते हो, मोक्ष मिलता है उसको जिसको तुमनें ‘मैं’ का नाम दे रखा है | *मोक्ष* का क्या अर्थ है? *दुःख* से मुक्ति ? नहीं, मोक्ष का अर्थ है दुःख और सुख दोनों से ‘मुक्ति’ | निर्वाण का क्या अर्थ है? संसार का त्याग ? नहीं, संसार का पूरी तरह से जान लेना | ‘निर्वाण’ का अर्थ है, ‘अधूरेपन का त्याग’ |

श्रोता: दुःख के समय याद रखे कि सुख भी आएगा और सुख के बाद दुःख भी आएगा, तो ज्यादातर क्या होता है कि जब सुख का समय चल रहा होता है, तो लगता है दुःख आएगा, लेकिन चलो अभी ये सुख जी लें | लेकिन वही बात दुःख के समय होती है, तो क्या लगता है; हाँ, कि दुःख के बाद सुख होगा तो इसको नजरंदाज कर दें, और एक तरीका मिल जाता है न जीने का दुःख को | जो पूरी तरीके से जिया जा सकता था, अब मैनें उसको पूरी तरीके से उम्मोदों में और सपनों में जीना शुरू कर दिया है की आयेगा … आयेगा|

आचार्य जी: देखिये पहली बात ये है कि दुःख वास्तव में सुख के बाद नहीं आता है, और सुख वास्तव में दुःख के बाद नहीं आता | सुख और दुःख एक साथ हैं जैसा हमनें कहा था, सिक्के के दो पहलू | हम सीमित हैं हमारी नजर ज़रा कम देख पाती है, तो हमें एक बार में एक ही पक्ष ही दिखाई देता है | आम तौर पर समझदार लोग भी ऐसी बात कर जाते हैं कि दुःख अभी है, सुख बाद में आएगा | ये द्वैत है, द्वैत का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है, कि दुःख यदि अभी है तो सुख बाद में आएगा |

‘द्वैत’ का अर्थ है कि सुख और दुःख के बीच में समय का अन्तराल होता ही नहीं | समय स्वयं मिथ्या है, जब दुःख है उसी समय सुख है और जब सुख है उसी समय दुःख है तुम देख नहीं पा रहे हो | गौर करना, तुम्हें सुख मिल सकता है क्या अगर तुम दुखी न होओ ? जिसे अनिष्ट कि आशंका न हो, उसे अनिष्ट के ताल जाने पर सुख कैसा होगा ? कुछ इष्ट होता है तुम्हारा | किसी कि इच्छा होती है तुम्हें, वो मिल जाता है, तो तुम कहते हो कि कुछ हो रहा है, पर यदि मिलनें पर सुख हो रहा है तो इसका अर्थ है, ‘नहीं’ मिलनें पर लगातार झेल ही रहे थे, और जो लगातार दुःख झेल रहा था वो अच्छे से जानता है की ये दुःख लौट सकता है |

ठीक सुख के क्षण में भी तुम्हें पता होता है कि ये क्षण बहुत लम्बा चलेगा नहीं, इसीलिए तो तुम सुख को भोगना चाहते हो, इसीलिए तो तुम इतनें उत्तेजित हो जाते हो सुख मिलनें पर | एन सुख के मौके पर भी ये आशंका तुम्हें छोड़ती नहीं है कि ये जो मिल गया है, ये छिन जाएगा | इसीलिए तो तुम्हें जो मिला होता है, उसे तुम मुट्ठियाँ भींच कर पकड़ लेना चाहते हो, जिसे कुछ ऐसा मिल ही जाए, जो अब छिन नहीं सकता, वो सुख क्यूँ मनायेगा?

गौर करना मेरी बात पर, जिसे मिट जानें का, जिसे छिन जानें का भय न हो वो सुख मना ही नहीं सकता | ऐसी चीज़ यदि तुम्हें मिल जाए, जो पक्का है जो समय के पार है और उसका कोई विपरीत नहीं उसके अलावा और कोई अवस्था तुम्हें मिलनीं नहीं है तो तुम सुख नहीं मानओगे | उस अवस्था को ‘आनंद’ कहते हैं और आनंद क्षणभंगुर नहीं होता, सुख होता है क्षणभंगुर | ‘आनंद’ में, न लिप्सा होती है, न भोग होता है | सुख में लिप्सा भी होती है और भोग भी होता है |

‘आनंद’ किसी घटना का मोहताज नहीं होता | सुख सदा घटनाओं का मोहताज होता है | सुख के तुम मौके अवसर खोजोगे | तुम कहोगे कि आज मौका है, सुख मनाने का | ‘आनंद’ का कोई अवसर नहीं होता |

आनंद तो ऐसा है, जैसे ह्रदय में लगातार एक महीन सा संगीत बज रहा है | लगातार जो सुखी है, वो सुखी हो ही नहीं सकता अगर उस सुख के छिनने की आशंका न हो | एन सुख की घड़ी में भी दुःख की छाया मौजूद है और तुम डरे हुए हो | इसी तरीके से दुःख के मौके पर भी, आशा तुम्हारा साथ नहीं छोड़ती | तुम कितने भी दुखी हो अभी तुम्हें उम्मीद रहेगी | इन दोनों पर गौर करना, जब सुखी हो, तब भी दुःख को आशंका है, ठीक उसी समय, आगे पीछे नहीं | और जब दुखी हो, तब भी तुम्हें सुख की आशा है | शंका है, आशा है, जब दुखी हो तब भी तुम्हें पता है की दुःख आयेगा और वो आशा ही तुम्हें सुख दे रही है |

अगर तुम पूरे ही तरीके से दुखी हो जाओ, पूरे ही तरीके से, तो फिर तुम दुखी नहीं रह सकते | हम ‘पूर्ण दुःख’ जानते नहीं | हमारा दुःख हमेशा, ‘आशा-मिश्रित दुःख ‘ रहता है |

हम पूरे तरीके से निराश दुःख को कभी जानते नहीं | इसीलिए अष्टावक्र तुमसे कहते हैं कि, आशा ही परमं दुखम | तुम्हारे ही दुःख को उर्जा ही आशा से मिलती है | तुम जब भी दुखी हुए हो कभी पुरे दुखी नहीं हुए हो | तुमनें आशा लगातार बनाये रखी है कि सुख रहेगा | दुःख में सुख की मिलावट रहती है | सुख पर दुःख की छाया रहती है, दुःख में सुख की मिलावट रहती है | दोनों लगातार एक साथ मौजूद हैं, पर इतना ध्यान तुम देते नहीं | ध्यान तुम इसलिए नहीं देते क्योंकि तुम भोग में लिप्त हो जाते हो |

जब भोगनें में मन बहुत लगा हो, तो वो ठीक से ध्यान दे नहीं पाता की कौन भोग रहा है और क्या भोग रहा है ?

इसीलिए जाननें वालों नें दोनों विधियाँ अपनाई | बुद्ध नें तुमसे कहा, “संसार दुःख है, जन्म दुःख है, जीवन दुःख है, जरा दुःख है, मृत्यु दुःख है” | उन्होंने तुम्हें दुःख की पूर्णता से रुबरु कराया | उन्होंने कहा, “तुम दुःख को पूरा-पूरा देख लो और जो दुःख को पूरा-पूरा देख ले, वो दुःख से मुक्त हो गया | जो दुःख को पूरा देख ही ले कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ उसी में दुःख है मेरी एक-एक साँस, मेरी ह्रदय की एक-एक धड़कन में दुःख है, वो दुःख से मुक्त हो जाएगा क्योंकि आशा नहीं बचेगी उसके पास कि कहीं सुख हो भी सकता है | वो कहेगा की कहीं सुख है ही नहीं | दिख गया मुझे कि दुःख ही दुःख ही जीवन में, वो दुःख से मुक्त हो जाएगा |

क्यों ‘मुक्त’ हो जाएगा ? क्योंकि दुःख का संबल क्या है, सुख |जिसको पूर्ण दुःख दिख गया सुख जिसके लिए बचा नहीं, दुःख का संबल गिर जाएगा और वो दुःख से मुक्त हो जाएगा |” ये बुद्ध का मार्ग था | और जो दूसरा मार्ग रहा है वो उपनिषदों का रहा है, जिन्होनें तुमसे कहा कि, “तुम आनंद रूप हो, जिन्होनें तुमसे कहा कि, ‘सच्चिदानंद’ स्वाभाव है तुम्हारा | उन्होंने तुमसे कहा कि, छोटे-मोटे सुख की क्यों कामना करते हो ? तुम्हारे सारे सुख जिनके पीछे तुम भागते हो, वो बहुत छोटे हैं, छुद्र हैं और तुम विराट हो | तुम सुख को छोड़ो, तुम तो आनंद को पाओ, वो हक़ है तुम्हारा |”

आनंद को पाना, सुख से मुक्ति है | समझना बात को, और ‘निर्वाण’ दुःख से मुक्ति है, और ‘आनंद’ और ‘निर्वाण’ एक है | ‘ऋषि’ तुमसे कहते हैं, “पूर्ण सुख को प्राप्त कर लो” और ‘बुद्ध’ तुमसे कहते हैं कि, “दुःख से शून्य हो जाओ” | इनको अलग-अलग मत समझ लेना वो पूर्णता और ये शून्यता एक है |

हम न पूरे दुखी होते हैं, न पूरे दुखी होते हैं | नजर की बात है, कभी लगता है सुखी हैं, कभी लगता है दुखी हैं | ये ऐसे ही है जैसे, एक आदमी बहुत ठण्ड से एक घर में प्रवेष करे, तो घर भले ही ठंडा हो पर उसे लगेगा कि सुख मिला | बाहर और ज्यादा ठण्ड थी और भीतर आया तो कहेगा कि थोड़ी गर्मी मिली | भले ही घर खूब ठंडा हो पर, बाहर कि अपेक्षा गर्म प्रतीति होता है और उसी घर में जो लोग पहले से बैठे हैं वो क्या कहेंगे? बड़ी ठण्ड है | दुःख और सुख को विपरीत मत मानना वो तो ऐसे ही है जैसे एक ही स्केल हो और उस पर कहीं पर तुम कह दो कि अब सुख शुरू हुआ और कहीं कह दो कि अब दुःख शुरू हुआ |

दो अलग-अलग तल नहीं है वो दो अलग-अलग आयाम नहीं है | वो एक ही हैं | ये तुम्हारी इच्छा पर होता है कि तुम किस बिंदु पर कहना शुरू कर देते हो कि ये सुख है | वो सुना है न, दो आदमी हैं और दोनों कि जेब में पचास-पचास हजार रुपये हैं | एक रो रहा है और एक हँस रहा है | एक सुख मना रहा है | एक दुःख मन रहा है | एक सुख इसलिए मन रहा है की उसके पास कुछ नहीं था और उसको पचास हजार रूपये हासिल हो गए, और एक रो इसलिए रहा था क्योंकि एक लाख लेकर निकला था और पचास हजार चोरी हो गए हैं |

दोनों के पास एक बराबर हैं | अब ये तो तुम्हारी स्थितियों पर और तुम्हारी इच्छा पर है कि तुम ऊँगली कहाँ रख देते हो, तुम कब कहना शुरू कर देते हो कि, अब मैं दुखी हूँ, कि अब मैं सुखी हूँ | बहुत सोचनें कि जरूरत नहीं है | अपनें मन को ही देख लेने कि जरूरत है | जब बहुत आह्लादित हो रही हूँ, जब बहुत उत्सव का मन कर रहा हो तब अपनें मन से पूँछना, “तू सचमुच सुखी है ?” जब झूम के नाचने की ही उत्तेजना उठ रही हो तो अपनें मन से पूँछना कि झूठ क्यूँ बोल रहा है ? बहाने क्यों बना रहा है ? तू सचमच सुखी है क्या?

तुम पाओगे कि दुःख मौजूद है, उसी समय | बाद में नहीं आएगा, उसी समय मौजूद है | और जब मन बहुत दुखी हो रहा हो, फूट-फूट कर रो रहे हो, तब भी अपने आप से पूछना, तू वास्तव में पूरे तरीके से निराश हो गया है क्या ? तुम पाओगे की सुख मौजूद है | सुख मौजूद न होता तो अगली साँस नहीं ले पाती | तुमने वहीं पर सबकुछ छोड़ दिया होता अ| पना पूरा होना त्याग दिया होता |

बस अपनें आप से झूठ बोलना छोड़ो | जब कहते हो, “हम खुश हुए,” तो पूछो अपने आप से, “सचमुच ? ” और जब रोने लग जाते हो की हम बड़े दुखी हुए, तो पूछना अपने आप से “सचमुच ? ” खिचड़ी सा मिश्रित जीवन है इन्सान का | न हम पूरे इधर के होते हैं, न हम पूरे उधर के होते हैं | ऐसे ही बीच में घूमते-टहलते पूरा जीवन बीत जाता है | मृत्यु सामनें ख़ड़ी हो जाती है और आखिरी क्षण में भी कहानी बस यही होती है कि कुछ नहीं पाया | जीवन व्यर्थ गया | बहुत बड़ा अवसर मिला था, पूर्णतया व्यर्थ गया | दुःख कभी देखा नहीं, गौर किया नहीं|

श्रोता : आचार्य जी, सुख और दुःख, है तो सारा विचार ही | जैसे कि आपने कहा कि, एक स्थिति है, पचास हजार वाली; एक के लिए वो ‘शुभ विचार’ है और एक के लिए ‘अशुभ विचार’ है, तो फिर ऐसा क्यूँ है कि ये सब जानते हुए भी कि ये सब विचार का खेल है, हम फिर भी इसमें बार-बार भाग लेते हैं, या ऐसा क्या बच जाता है जो हमें बार-बार मजबूर करता है कि, आप बार-बार इसमें भाग लो|

आचार्य जी : कुछ नहीं, इसको समझाने के लिए नाम बहुत दिए गए हैं, अगर तुम्हें नामों से ही खेलनें का शौक हो — चाहे ‘माया,’ कहो, चाहे ‘अविद्या’ कहो, चाहे ‘प्रकृति’ कहो | सब इसी को समझाने के लिए कह दिया जाता है | लेकिन सवाल इसलिए नहीं है कि इसको क्या नाम दें ? नाम तुम्हारी मर्ज़ी है, जो कहना चाहो कह लो | ‘तमसा’ बोलना चाहो, ‘तमसा’ बोल लो | असली बात ये है कि इससे मुक्त कैसे हों, बीमारी के क्या नाम हैं, ये जान लेनें से उपचार नहीं हो जाता | बड़ी बात है उससे मुक्ति |

मुक्ति बहुत सीधी है | युक्ति तुम्हें दे ही दी है, जब खुश हो जाओ और उत्सव में भागीदार बनने जाओ तो पूँछ लो अपने आप से, “सचमुच उत्सव कि कोई बात है ?” दिल से पूँछों | दिल, “तू सचमुच खुश है ?” तुम पाओगे वो अभी रो रहा है, अभी भी रो रहा है और जब दिख जाए कि दिल अभी भी रो रहा है, तो चेहरे पर झूठी हँसी मत ले आना |

हमारी मक्कारी का, हमारी दुनियादारी का कोई अंत नहीं है न | दिल रो रहा होता है, और हम चहरे से ऐसा दिखाते है की हम कितनें खुश हैं | ‘सम्बन्ध’ रखनें हैं, ‘मर्यादायें’ रखनी हैं, किसको झूठ बोल रहे हैं? किसको बेवकूफ बना रहे हैं? हासिल क्या हो जाएगा ये करके? इतनी इमानदारी रखो कि जब दिख ही जाए कि दुःख में सुख कि मिलावट है, तो व्यर्थ ही हँसते न फिरो |

ठीक उसी तरीके से, जब पाओ अपने आपको कि दुःख के मौके पर भी सुख कि उम्मीद अभी छोड़ी नहीं है, तो व्यर्थ ही अपने भाग्य को कोसो मत | न कहते फिरो कि, “हम तो बड़े दुखी हैं | हम तो बड़े दमित हैं | हम तो बड़े दलित हैं | हमारे साथ तो बहुत बुरा हुआ है |” बुरा क्या हुआ है? तुम तो अभी भी भोग के उत्सुक हो | बुरा क्या हुआ है? तुम्हारी रीढ़ टूट गयी है क्या? तुम्हें तो अभी भी आस बंधी ही हुई है कि आज छिना है तो कल मिलेगा | घात लगाकर तो तुम बैठे ही हो की शिकार कल कर लेंगे, आज भले भूखे रह गए | व्यर्थ फिर ये चेहरे पर आँसूं छलकाने की जरूरत नहीं है |

ईमानदार रहो, ईमानदारी काफी है |

श्रोता : आचार्य जी, आशा बनी ही रहती है, जैसे मैनें देखा है कि, एक ऑब्जेक्ट ख़त्म होता है वैसे ही एकदम अन्दर से दूसरा ऑब्जेक्ट आ जाता है | जैसे कोई मूवी ख़त्म हुई, तो तुरंत ही मैगी पॉप उप करके सामनें आ जाती है फिर मैगी ख़तम होती है तो तीसरा सामने आ जाता है | हालाँकि वो दिखता बाद में है लेकिन वो रहता है | एक के बाद एक यहाँ से गए फिर वहाँ से आ गया तो कड़ी बनी रहती है ये कहीं भी स्थिर नहीं रहने देती|

आचार्य जी : अभी पिछले हफ्ते ईशावास्य उपनिषद के ऋषि हमसें क्या कह रहे थे? “हे! मेरे संकल्पात्मक मन अपने किये को याद कर, याद कर |” कितनीं कहानियाँ तुमने देखीं हैं, कितनी मूवी तुमने देखीं है, कितनी बार तुमने उन्हीं यार दोस्तों के साथ मज़े किये हैं, कितनी बार तुमने अपने को बहलाया है, अपने आपको मनोरंजन दिया है, कितनी बार तुम तमाम उत्सवों में सहभागी हुए हो; तुम्हें क्या मिल गया और किसी को क्या मिल गया? जब सौ दफे नहीं मिला, तो एक-सौ-एकवीं बार करके कैसे मिल जाएगा ?

जिस दुकान से तुम सौ बार खली हाथ होकर लौटे हो, उस दुकान में एक-सौएकवीं बार तुम्हें क्या हाँसिल हो जाना है ? लेकिन उसके लिए पहले तुम्हें ईमानदारी से यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जीवन असफलताओं कि लम्बी श्रंखला है हमारा | वो मान लेने में अहंकार को चोट लगती है | ये मान लेने में हमें बड़ा आघात होता है, बड़ा दुःख होता है | हमारा गर्व टूटता है, कि मेरा जीवन विफलता रहा है पूरी की पूरी | समग्र रूप से विफल रहा है |

जिसने अपनी दीनता को, अपनी हार को, इमानदारी से स्वीकार कर लिया, सिर्फ वही अपनी हार के पार जा पता है |

हम अपनी हार को मानते भी तो नहीं न, हम दावा यही करते हैं कि मेरा जीवन तो सफल रहा है | तुम किसी से मिलो कोई ही होगा ऐसा, ‘ऐसा जीवट वाला’, ‘ऐसा मर्द’ जिसमें स्वीकार कर पाने कि हिम्मत हो, कि जिसका जीवन एक पूर्ण विफलता रहा है | हम तो डरपोंक लोग हैं, ‘कायर’ | हम नहीं मान पाते | हम कहते हैं कि मेरे जीवन में कुछ बातें तो ऐसी रही हैं जिन पर मैं फक्र कर सकूँ | मेरी कुछ सफलताएँ हैं, मेरी कुछ उपलब्धियाँ हैं, मेरे कुछ सम्बन्ध हैं, जो अच्छे हैं, निर्मल हैं, ऊँचे हैं | जबकि सच बात तो यही है कि तुम्हारे जीवन में जो कुछ है, ‘मलिन है’, ‘अस्वच्छ है’, ‘व्याधि ग्रस्त’ है |

जब अपनी पूर्ण विफलता को देखते हो तब निराशा सध जाती है | संतों नें तुम्हें समझाया है बार-बार, जब तक पूर्ण निराशा नहीं आती तुम्हारे पास, तब तक तुम छोड़ोगे नहीं अपनी मूर्खताएँ | तुम्हारी उम्मीद बंधी ही रहेगी | ये मत कहो कि हम सुख चाह रहे हैं और दुःख से दूर जा रहे हैं | तुम्हारे पास कुछ संस्कार हैं | मन ढर्रों कि एक व्यवस्था है | तुम जो कुछ चाह रहे हो उसका नाम तुमने सुख दिया है |

तुम सुख नहीं चाह रहे, क्योंकि सुख का अपना कोई वस्तुगत अस्तित्व थोड़े ही है, सुख कोई चीज़ थोड़े ही है, जिसे तुम चाह रहे हो | तुम जिसे चाहते हो और चाहने का अर्थ है, ‘एक दिशा में जाना’ | जिस दिशा में तुम जाते हो उस दिशा का नाम तुम सुख रख देते हो और जब तुम एक दिशा में जा रहे हो तो सीधी सी बात है, किसी दिशा के विपरीत भी जा रहे हो उसी दिशा का नाम तुम दुःख रख देते हो | जहाँ इच्छा है, वहीँ तो *सुख*– दुःख हैं न ? जहाँ इच्छा से प्रेरित गति है, वहीँ तो *सुख*– दुःख हैं न ? जिस दिशा में तुम चले उसी का नाम तुमने सुख रख दिया ?

जो जिधर को जाना चाहता है, उसी दिशा का नाम वो सुख रख देता है वरना सुख कुछ नहीं है | तुम्हारे पास हसरतें हैं, उन्ही हसरतों कि कल्पना को तुम सुख का नाम देते हो |

श्रोता : क्या ये इतना शारीरिक है ? जैसे दवा है की किसी को बता दो और वो अच्छी लग जाए |

आचार्य जी : एक बात समझो की बहुत कम है तुम्हारे जीवन में जो वास्तव में ‘शरीर’ के लिए है, तुम जिसको ‘शरीर’ से जोड़कर भी देखते हो, वो वास्तव में एक मानसिक घटना है | चाहे खाने कि बात हो, चाहे सेक्स कि बात हो, ये सब घटनाएँ प्रतीत ऐसी होती हैं कि शारीरिक हैं, ये भी तो मानसिक ही हैं न ? तुम खाते हो तो शारीर के लिए थोड़े ही खाते हो | इसी प्रकार से तुम शरीर को जब भोगते, तो वहाँ पर भी जो इकाई वास्तव में भोग रही होती है, वो वास्तव में शारीर नहीं है, वो मन है |

भोगने कि इच्छा शारीर की अंश मात्र ही है | भोगने को भी आतुर मन ही है | हाँ, वो शरीर का भी मात्र उपकरण की तरह इस्तेमाल करता है | जैसे वो सबकुछ भोगना चाहता है वैसे वो दूसरे शारीर को भी भोग लेना चाहता है | इस भ्रम में मत पड़ जाना कि शारीर भोगना चाहता है | शरीर तो अधिक से अधिक एक सन्देश देता है कि मैं हूँ और उस सन्देश से मन में तमाम तरह कि वृत्तियाँ जागृति होती है कि अगर ये है, तो ये मिट भी सकता है और अगर ये मिट भी सकता है तो इसके मिटने से पहले इस जैसे कई और पैदा कर दिए जाएँ | चलो संतानोत्पत्ति करो, खौफ के मारे | और तुम जानते हो न खौफ, ‘इच्छा है,’ ‘कामना है’ और मृत्यु के डर के मारे तुम तत्पर हो जाते हो दूसरे शरीर को भोगने के लिए तो इसमें बात ये नहीं है कि कुछ ऐसा है, जिसका कारण शरीर है, शरीर भी आखिरी बात तो ये है कि है कहाँ ? ‘मन’ ही तो है |

श्रोता : जो शारीरिक कंडीशनिंग है वो भी एक प्रकार से मानसिक कंडीशनिंग है, तो क्या एक प्रकार से शारीरिक कंडीशनिंग को भी बदला जा सकता है ?

आचार्य जी : और ये विचार कहाँ से आ रहा है ?

श्रोता : मन से |

आचार्य जी : और ये मन कौन सा है? जो अभी अपने आपको ही, अपनी जो बिलकुल सतही कंडीशनिंग है, उसको भी चुनौती नहीं दे पा रहा या उसको भी चुनौती अभी देना नहीं चाह रहा ? और ये किसको बदलने और चुनौती देनें की बात कर रहा है ? जो गहरी से गहरी तुम्हारी व्यवस्था है, जो तुम्हारी मूल शरीर वृत्ति है | और ये क्यूँ उतनी दूर की बात कर रहा ? ताकि जो बात सामने है उससे हटने का मौका मिल जाए | जो बात बिलकुल सामने है, देखो उसकी चर्चा छोड़कर तुरंत ये किस चर्चा में लग गया | इसका अर्थ तो ये है कि ये जो त्रि-आयामी संसार है, इसमें मन का प्रक्षेपण है, ये भी बदला जा सकता है |

अरे! भाई, तुम अपनें कपड़े तो बदल नहीं पा रहे हो | तुम अपनी जुबान पर कोई नियंत्रण तो रख नहीं पा रहे हो | तुम अपने संसार का आकार प्रकार बदलने कि बात पहले कर रहे हो | क्यूँ कर रहे हो? देखो इसमें कितनी बेईमानी छुपी हुई है | यही बात पकड़ने कि होती है | इसी बात के प्रति सतर्क रहना होता है |

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