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लेख
माँ-बाप को कैसे समझाएँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: सर, सत्र के बाद ये सभी बाते हम तो समझ रहे हैं कि हमें क्या चाहिए, जागरुकता बढ़ गई है, हम समझ सकते हैं लेकिन माता-पिता को कैसे समझाएँ? वो हमारा भला ही चाहते हैं।

आचार्य प्रशांत: भला चाहने भर से नहीं होता। भला तो दुनिया में हर माँ-बाप ने चाहा है, पर देखो संतानों को, भला चाह-चाह कर कैसी हो गई है दुनिया। मैं खुद नासमझ हूँ, मैं भला चाहूँगा भी तो भी मैं खुद बुरा ही कर दूँगा। मुझे नहीं आती है ब्रेन-सर्जरी, मैंने शरीर के, मन के विज्ञान को कुछ जाना नहीं है, मुझे वैसी कभी कोई सही शिक्षा ही नहीं मिली, और मैं अपनी बेटी के ब्रेन का ऑपरेशन करूँ, मैं चाहूँगा यही कि मैं अच्छा ऑपरेशन करूँ, पर मैं अपनी बेटी को मार डालूँगा क्योंकि मुझे ब्रेन की कोई समझ नहीं है। चाहने भर से क्या होता है? देखो न तुम भी तो अपने दोस्तों का भला चाहते हो। "चल पीने चलते हैं!" ये तुम भला ही तो चाह रहे हो। तुम्हें लग रहा है कि ये उदास है और उदासी का इलाज है, शराब। तुमने भला ही तो चाहा है? पर अपनी नासमझी में तुम भला भी चाहोगे, तो बुरा ही करोगे। और यदि वास्तव में तुम्हें प्रेम है किसी से, तो तुम उसकी नासमझी में सहायक नहीं बनोगे। तुम अड़ जाओगे। तुम कहोगे, "आप जो कह रहे हैं, वो बात समझदारी की नहीं है, आप मुद्दे को ठीक से देख नहीं रहे हैं। आइए, बैठिए मेरे साथ, मैं भी जवान हूँ, बात करेंगे। हम समझेंगे कि बात क्या है।" तुम डर नहीं जाओगी, ना तुम ये कह दोगी कि, "बड़ों की आज्ञा है तो तोड़ कैसे दें?"

माँ-बाप बाद में है, पहले तो व्यक्ति हैं, इंसान हैं। और इंसान दो ही तरीके के होते हैं; जिन्होंने मन को सुलझा दिया और जिनके मन में अभी गाँठें हैं। यदि मेरे मन में गाँठें हैं, तो हो सकता है मैं पिता हूँ पर पिता होने से मुझ में कोई अंतर थोड़े ही पड़ जायेगा। तुम सब भी अब जवान हो। कुछ वर्षों में माँ-बाप बन सकते हो। तो जिस दिन बच्चा पैदा होगा, उस दिन से क्या तुम देवी-देवता हो जाओगे? जैसा उलझन में घिरा हुआ मन अभी है, वैसा ही तब भी रहेगा। अब तुम्हारा बच्चा कहे, "ये देवी हैं, माँ हैं" तो पागल है बच्चा। तुमको उसको खुद कहना चाहिए, "बच्चा पैदा कर लेने से मुझ में क्या अंतर आ गया? बच्चा पैदा करना तो बड़ा आसान है, जानवर करते ही रहते हैं।" बच्चा पैदा कर लेने से तुम दिव्य आत्मा थोड़े ही हो जाते हो। दिव्य आत्मा बनना तो एक अलग ही प्रक्रिया है, वो एक अलग ही शिक्षा है। अगर वो तुमको नहीं मिली है, तो भले ही तुम २५ साल के हो, ४५ के या १०५ के, तुम मूढ़ के मूढ़ ही रहोगे। उम्र से क्या हो गया? क्या नाम है तुम्हारा?

प्र: मिताली।

आचार्य: कौन सी इंजीनियरिंग कर रही हो?

प्र: मैकेनिकल।

आचार्य: मैं तुमसे एक बात पूछ रहा हूँ। तुम कभी ये तो नहीं कहती हो कि, "मुझे कार्नो इंजन समझना है तो मैं ९० साल के व्यक्ति के पास जाऊँगी क्योंकि उसका अनुभव बहुत है।" या कहती हो, "अरे! होगा ९० साल का, जब उसने मैकेनिकल इंजीनियरिंग कभी पढ़ी नहीं तो मुझे कैसे बता देगा?" काम्प्लेक्स नंबर समझने के लिए तुम माँ-बाप के पास तो नहीं जाते। अगर उन्होंने गणित में यह पढ़ा नहीं, तो तुम्हें कैसे समझा देंगे? ठीक इसी प्रकार जब उन्होंने जीवन पढ़ा नहीं, मन पढ़ा नहीं, तो तुम्हारे मन के और जीवन के निर्णय वो कैसे ले सकते हैं? गणित में तुम कभी नहीं कहते कि, "माँ-बाप मान नहीं रहे, माँ-बाप कह रहे हैं कि पाई की वैल्यू चार होनी चाहिए, तो ठीक ही कह रहे होंगे।" पर जब मनोविज्ञान की बात, मन के शास्त्र की बात हो जाती है, तब तुम खड़े हो जाते हो कि माँ-बाप नहीं मान रहे। अरे नहीं मान रहे तो नहीं मान रहे, उनके ना मानने से सच कोई बदल जाएगा? बल्कि अगर प्रेम करते हो तो उनको समझाओ कि, "मानिए, सच को देखिये!" वही तुम्हारा धर्म है कि खुद भी जानेंगे और जो उसकी रोशनी होगी वो आपको भी देंगे।

मैं बताता हूँ कि तुम क्यों डरते हो। तुम इसलिए डरते हो क्योंकि तुम्हें छोटी-मोटी सुविधाओं का लालच है। तुम निर्भर हो। तुम्हें कुछ सुख-सुविधाएँ मिली हुई हैं, उनको तुम छोड़ना नहीं चाहते। इस कारण तुम निर्भर बने ही रहते हो। और कोई बात नहीं है। ऐसा नहीं है कि, "प्रेम इतना है कि हम बात काट नहीं सकते!" ये प्रेम का मामला नहीं है क्योंकि प्रेम में डर नहीं होता। प्रेम में घुटन नहीं होती। प्रेम में उठ कर के यूँ सवाल नहीं पूछे जाते। ये मामला प्रेम का नहीं है। ये मामला स्वार्थ का है। ये मामला है कि तुम्हें जो कुछ मिल रहा है उनसे, तुम उसको छोड़ना नहीं चाहते। ये मामला व्यापार का है। उस लालच में तुमने अपनी स्वतंत्रता को बेच दिया है, वरना कोई कारण नहीं है।

तुम आठ साल के नहीं हो। वोटिंग का हक़ तुमको है, ड्राइविंग का हक़ तुमको है। तुम में से कई जा कर चुनाव में भी खड़े हो सकते हैं। क़ानून भी कहता है कि तुम व्यस्क हो, प्रकृति भी कहती है तुम व्यस्क हो। तुम बच्चे नहीं हो। तुम पुरुष हो और तुम स्त्री हो, पूरे-पूरे। प्रकृति ने भी तुम्हें बता दिया है कि अपने आप को बच्चा मत कहना, पुरुषऔर स्त्री कहना। पर तुम्हें बच्चे बने रहना है क्योंकि उसमें तुम्हारा स्वार्थ है। बच्चा रहने से फायदा होता है कि कोई और आकर खिला-पिला देता है, कोई और आकर तुम्हारी सुरक्षा कर देता है। तो इस कारण तुम बच्चे बने रहना चाहते हो। ये मामला प्रेम का नहीं है। बाकि मामलों में तुम बहुत बड़े-बड़े हो लेकिन जब ये मामला सामने आता है, तो तुम कहते हो कि, "अभी तो हम छोटे हैं!" अगर वास्तविक रूप से माँ-बाप से प्रेम है, तो खुद भी जगो और उनको भी जगाओ। दूसरों को जगा सको, इसके लिए ज़रूरी है पहले खुद जगो। और दूसरे यदि ना जागें, तो उनके साथ सो मत जाओ कि, "तुम सो रहे हो तो हम भी सोएँगे।" प्रेम और स्वार्थ में अंतर करना सीखो।

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