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लेख
माँ का अर्थ जानो और स्वयं को जन्म दो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: क्या माँ का अपने बच्चे के प्रति प्रेम आसक्ति है?

वक्ता: ये जो शब्द है, ‘माँ’ इसके दो अर्थ हो सकते हैं। सच तो ये है कि शब्दकोष में जितने भी शब्द पाये जाते हैं, उनके हमेशा दो अर्थ होते हैं। और दो अर्थों से मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि पर्यायवाची शब्द हैं । वो दोनों बड़े विपरीत अर्थ होते हैं। एक ही शब्द के दो अर्थ और दोनों बड़े विपरीत अर्थ। विपरीत कहना भी उचित नहीं होगा। मैं कहूँगा, वे दोनों अलग-अलग आयामों के अर्थ होते हैं; अलग-अलग डाइमेंशन्स में होते हैं। एक अर्थ ज़मीन का है और एक अर्थ आसमान का है; और हैं दोनों ही। भाषा में दोनों ही प्रयुक्त होते हैं। चाहे दोस्त हो, चाहे माँ हो, चाहे जीवन हो, चाहे मृत्यु हो, चाहे प्रेम हो, चाहे हिंसा हो, ये सब कोई एक अर्थ नहीं रखते। इन सब के अर्थ इस बात पर निर्भर करते हैं कि किस मन से इनको देखा जा रहा है। और जैसे दुनिया में दो ही प्रकार के मन होते हैं- समझदार और नासमझ- उसी प्रकार शब्दों के दो अर्थ होते हैं। बात समझ ही गए होगे। एक अर्थ वो- जो निकलता है समझ से, और एक अर्थ वो -जो निकलता है नासमझी से।

तो जो तुमने ‘माँ’ शब्द कहा, उसी तरह से उसके भी दो अर्थ हैं। एक उनके लिए जिन्होंने जाना कि क्या है माँ होना, और जन्म क्या है, और क्या मायने हैं प्रेम के। और दूसरा अर्थ उनके लिए, जिन्होंने कुछ जाना नहीं, जिनको जो दिखाई दे गया, जिन्होंने बस जो कुछ सुन लिया, उसी को मान कर के बैठ गए। एक अर्थ हो सकता है माँ का वो जिससे एक दूसरा शरीर निर्मित होता है। और सामान्यतया जहाँ कहीं भी हम देखते हैं कि एक व्यक्ति के शरीर से दूसरे व्यक्ति के शरीर का निर्माण हो रहा है, हम बड़ी आसानी से उस व्यक्ति को माता का या पिता का नाम दे देते हैं। ये बात सिर्फ शारीरिक है और इसीलिए बहुत सतही है। एक दूसरी माँ भी होती है। जो तुम्हें शरीर से जन्म नहीं देती पर तुम्हें इस लायक बनाती है कि तुम समझ सको कि मन, शरीर और ये संसार क्या हैं। वो तुम्हारी वास्तविक माँ है।

इस धरती पर परंपरा रही है द्विज हो जाने की। द्विज- जिसका दूसरा जन्म हुआ हो। दूसरे जन्म का यह अर्थ नहीं कि पहले शरीर की मौत हो गयी हो, और फिर कहीं जा कर दूसरा जन्म ले रहे हो। नहीं। जिसका इसी शरीर के साथ दूसरा जन्म हो गया हो। और समझा गया है इस बात को कि वो जो पहला जन्म है, वो तो पशुओं का भी हो जाता है। शरीर को तो हर पशु भी जन्म दे देता है। उसके लिए कुछ नहीं चाहिए, किसी पात्रता की ज़रुरत नहीं है। लेकिन जो दूसरा जन्म होता है, ‘द्विज’ हो जाना, ये बड़ा महत्वपूर्ण होता है। तो हम किस माँ की बात कर रहे हैं, जो पहला जन्म देती है या दूसरा? क्योंकि पहला जन्म कुछ विशेष नहीं है। सच पूछो तो वो जन्म है ही नहीं; क्योंकि शरीर लेकर भी हुआ क्या, अगर ये जाना ही नहीं कि शरीर क्या है? पहली माँ मात्र शरीर देती है, और जो दूसरी माँ होती है, वो शरीर से मुक्ति देती है। शरीर से मुक्ति देती है, इसका अर्थ, है वो समझा देती है कि शरीर क्या है, मुक्ति क्या है और ये संसार क्या है? पहली माँ के पास मात्र ममता होती है, दूसरी माँ के पास मातृभाव होता है और इन दोनों शब्दों में भी ज़मीन-आसमान का फर्क है, समझना। तुम अपने आस-पास जो माएँ देखते हो उसमें से हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे माएँ सिर्फ ममता जानती हैं। तो ममता पशुओं में भी होती है। पर मातृभाव कोई-कोई माँ ही जानती है। मातृभाव का अर्थ है, वास्तविक रूप से जन्म देना। सृजन(क्रिएटिविटी), वास्तविक जन्म (रियल बर्थ)। तो तुम किस माँ की बात कर रहे हो? जो पहली माँ है उसके पास ममता के अलावा कुछ नहीं होगा। ममता शब्द के मूल में संस्कृत का ‘मम्’ है और ‘मम्’ का अर्थ होता है ‘मेरा’। ‘ममता’, मेरा का भाव। और उस मेरे के भाव में कुछ नहीं रखा है, वो ऐसा ही है जैसे कि मेरे कपड़े, मेरा घर, मेरा चूल्हा, मेरा चौका, मेरे बर्तन, मेरी कार, मेरा मोबाइल, वैसे ही – मेरा बच्चा। वो सिर्फ एक मालकियत की भावना है। ममता को प्रेम मत समझ लेना। ममता सिर्फ ये भाव है कि ‘मेरा है’ क्योंकि मेरे शरीर से उत्पन्न हुआ है।

मातृभाव बिल्कुल दूसरी चीज़ है। मातृभाव का अर्थ है वास्तव में जननी हो पाना। और उसके लिए ये आवश्यक नहीं है कि तुमने शारीरिक रूप से किसी को जन्म दिया हो। गुरु होता है वास्तविक माँ। क्योंकि वो तुमको वास्तविक जन्म देता है। तुम खुद भी अपने गुरु हो सकते हो, तुम स्वयं अपने माँ हो सकते हो, तुम स्वयं अपनेआप को जन्म दे सकते हो। इसीलिए जानने वालों ने परम को अपनी माँ कहा है, या पिता कहा है। निर्भर इस पर करता है कि वो जो जन्म देने वाला व्यक्ति है, माँ या पिता, वो स्वयं कैसा है। एक व्यक्ति जो स्वयं घिरा हुआ है, जिसको स्वयं अपना ठिकाना नहीं, जिसे खुद अपने जीवन का होश नहीं, वो अगर बच्चे को जन्म भी देगा, तो उस बच्चे को अपने अंधेरों के अलावा क्या दे पायेगा। मैंने खुद कभी रोशनी जानी नहीं, तो मैं अपने बच्चे को प्रकाश कहाँ से दे सकता हूँ। बच्चा पैदा हो जाए ये तो बड़ी साधारण-सी घटना है। एक उम्र आती है और प्रकृति तुम्हारे शरीर को ऐसा कर देती है कि अब वो संतानोत्पत्ति कर सकता है। मनुष्यों के साथ होता है, पशुओं के साथ होता है, कि एक उम्र आयी नहीं कि संतानोत्पत्ति करने के लायक तुम हो गए। उसमें कुछ विशेष बात नहीं है। माँ कहलाने की काबिलियत ऐसे नहीं आ जाती। वास्तविक माँ वो है, जो इतने प्रकाश से भरी हुई हो कि उसका प्रकाश बच्चे तक भी पहुंचे। और ज़रूरी नहीं है कि वो बच्चा उसका शारीरिक बच्चा हो, उसके शरीर से निकला हो।

एक या दो बच्चे जो मेरे शरीर की पैदाइश हैं, उन तक सीमित रह जाना तो ममता का काम है। भूलना नहीं, ये काम तो पशु भी करते हैं। पशुओं को भी अपने बच्चे से बड़ा जुड़ाव होता है, और वो सब रासायनिक होता है। तुम देखो गाय को, या तुम देखो किसी भी और पशु को। बछड़ा होने के बाद एक अवधि तक वो उसका ख्याल रखेगी, किसी को उसके पास आने नहीं देगी। पर वो सब रासायनिक है। उसने कुछ जाना नहीं, कुछ समझा नहीं। और एक अवधि बीतेगी और अब उसी बछड़े से उसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रह जाएगा। इसमें प्रेम नहीं है। इसमें मात्र रसायन-शास्त्र है, केमिस्ट्री है, हॉर्मोन्स हैं। वास्तविक माँ वो जो प्रेम जाने। वास्तविक पिता भी वही, जो प्रेम जाने। पर बच्चा पैदा करने से तुम प्रेम नहीं जान पाओगे। जब तुम्हारे जीवन में कभी रोशनी रही नहीं, तो सिर्फ एक शिशु के घर आ जाने से वो रोशनी तुम्हें अचानक से नहीं उपलब्ध हो जायेगी। उसके लिए तुम्हें एक प्रकार का जीवन जीना पड़ेगा, तुम्हें स्वयं बोधयुक्त होना पड़ेगा। मैं कह रहा हूँ कि माता से, पिता से ज्यादा सम्माननीय कोई नहीं, पर वास्तविक माता, वास्तविक पिता। समझो इस बात को और बात माता-पिता तक भी सीमित नहीं है। इसी बात को तुम आगे बढ़ाओगे तो समझोगे कि वास्तविक मित्र कौन होता है, असली दोस्त कौन होता है? एक दोस्त वो जो तुमको बेहोशी में रखे और एक दोस्त वो जो तुमको जगा ही दे, जिसके होने मात्र से तुम होश में आ जाओ। वो असली दोस्त हुआ। ठीक उसी तरीके से असली माँ कौन हुई?

वो नहीं जिसको तुम्हारे शरीर की बड़ी फिक्र हो। और तुम देखो माँओं को। कोई साधारण माँ होती है, उसकी चिंता इस बात से ज्यादा जाती ही नहीं कि बेटा तूने खाना खा लिया? बेटा तुझे बीमारी तो कोई नहीं हुई, हृष्ट -पुष्ट दिख रहा है ना। छोटा शिशु होगा, उसके शरीर की मालिश कर देंगी। उसकी आत्मा का क्या हो रहा है, माँ को इस बात की कोई परवाह ही नहीं। वो वास्तविक माँ नहीं है। उसके मन को क्या हो रहा है, माँ को इस बात की कोई परवाह ही नहीं। और परवाह का अर्थ ये नहीं है कि माँ निष्ठुर है, या माँ बच्चे का बुरा चाहती है। माँ स्वयं जानती नहीं, तो वो बच्चे को क्या समझाएगी। जिसने स्वयं को सिर्फ शरीर जाना है और शरीर के अतिरिक्त कुछ नहीं, जिसने अपने मन का कभी शोधन किया नहीं, जिसने अपनेआप से ये प्रश्न ही कभी नहीं पूछा कि मैं हूँ कौन, कोहम्; वो अपने बालक को भी मात्र शरीर जानेगी। वो उसके शरीर की तो परवाह कर देगी, उसको खाना खिला देगी, उसको कपड़े पहना देगी, नहला देगी, धुला देगी, पर उसके मन को क्या हो रहा है वो कभी समझ ही नहीं पायेगी। और इसी कारण तुम पाओगे कि हृष्ट-पुष्ट बच्चे होते हैं, पर उनके मन काले, दूषित और संस्कारित। और वो सारे दूषण, सारे संस्कार अक्सर उन्हें घर से ही मिल रहे होते हैं। तो घर तुम्हारे शरीर की तो परवाह कर ले रहा है, पर जीवन शरीर से कहीं आगे की बात है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि जीवन शरीर नहीं है। पर मात्र शरीर भी नहीं है। बहुत आगे तक जाता है। उसकी माँओं को सुध ही नहीं होती। उन्हें लगता यही है कि वो अपने बच्चे का बड़ा हित कर रहीं हैं, पर हित करते-करते वो अपने बच्चे का बड़ा नुकसान कर जा रहीं हैं।

तुम अगर पूछो किसी भी माँ-बाप से तो वो यही कहेंगे कि हम अपने बच्चे का बड़ा भला चाहते हैं। और वो ठीक कहेंगे, बिल्कुल ठीक कहेंगे। उनकी इच्छा यही होती है कि मेरे बच्चे का कल्याण हो। पर तुम किसी का कल्याण चाह कैसे सकते हो जब तुम खुद अभी नासमझ हो। हित की तुम्हारी परिभाषा ही उल्टी-सीधी होगी। तो चाहोगे तो ये कि बच्चे का भला हो जाए और कर दोगे उसका महाविनाश। और यही हो रहा है इस दुनिया में। क्योंकि अधिकांश मनुष्यता अँधेरे में डूबी हुई है और इसीलिए उनके घरों से जो संतानें निकलतीं हैं, वो भी गहरे अँधेरे में डूबी रहतीं हैं। मैं उसको जन्म मानता नहीं, मैं ऐसी माँओं को माँ मानता नहीं। मैं दोहरा रहा हूँ, वास्तविक माँ वो है जो वास्तविक जन्म दे। एक जन्म शरीर का और दूसरा जन्म ज्ञान का, वास्तविक जन्म। वास्तविक माँ वो है। बड़े सौभाग्यशाली होगे तुम यदि तुम्हारी पहली माँ ही तुम्हारी दूसरी माँ बन सके। इतिहास में ऐसे किस्से हुए हैं, पर लाखों में एक हुए हैं ,यदा-कदा हुए हैं जहाँ पर पिता ही गुरु बन गया, या माँ ही गुरु बन गयी। बहुत कम हुए हैं। पर तुम इतना तो कर सकते हो ना कि तुम समझो और जब तुम समझोगे तो तुम्हारी रोशनी सब तक पहुंचेगी।

कहते हैं कि जो सत्य को जान जाता है, मात्र वही नहीं तरता उसका पूरा कुल तर जाता है। तो इस बात को भूलो कि तुम्हारे साथ अतीत में क्या हुआ। तुम जग जाओ और तुम्हारे साथ और लोग जग जायेंगे, जिसमें तुम्हारे माँ -बाप भी शामिल हैं। तुम्हें तो नहीं रोका ना किसी ने प्रेम में उतरने से, और ऐसे भी उदाहरण हैं इतिहास में जब बेटा अपने बाप का बाप बन गया है। जब पिता ने आ कर बेटे के पांव छूए हैं कि *तुम मेरे गुरु हो। तुमसे मुझे बोध मिला*। मैं पूछ रहा हूँ कि तुम वैसे बेटे क्यों नहीं हो सकते? डूबा होगा संसार अँधेरे में, तुम क्यों नहीं चमक सकते? तुम क्यों आश्रित हो कि तुम्हें कहीं से जन्म मिले? तुम क्यों नहीं दूसरों के जन्म का कारण बन सकते? तुम क्यों आश्रित रहो कि कोई आये और तुम्हें कहे कि आँखें खोलो? क्यों नहीं तुम्हारी आँखें खुलें और तुम माध्यम बनो दूसरों के भी उठ बैठने का? क्या वो सच्चा प्रेम नहीं होगा? तब तुम होगे अपने माँ-बाप के असली हितैषी। तुम माँ-बाप के हितैषी नहीं हो अगर तुम उनको उनके अंधेरों में ही रहने दे रहे हो ये कह कर कि ‘*हम उनकी भावनाओं को आहत कैसे करें’, ‘अरे अब उनकी इतनी उम्र हो गयी, अब वो हमारी बात नहीं सुनेगें’*। यही तर्क देते हो तुम। या कि ‘*हम तो बच्चे हैं’। ‘हमें बहस नहीं करनी चाहिए, हमें उनकी धारणाओं को छेड़ना नहीं चाहिए’*। ये सब बेकार की बातें हैं।

तुम्हें अगर वास्तविक प्रेम होगा, तो तुम खुद भी जागोगे और औरों को भी जगाओगे। तुम्हें अगर वास्तविक प्रेम होगा तो तुम कहोगे कि जो मुझे मिला है वो मैं बाँटू और औरों को भी दूँ। और ये है मातृभाव।

ममता नहीं, मातृभाव। ये हुआ वास्तविक अर्थों में माँ होना। पैदा तो कोई भी कर देता है पर वास्तविक अर्थों में माँ हो पाना, पिता हो पाना बड़ा मुश्किल काम है। वो कोई-कोई होता है। वास्तविक पिता हो पाओ, बच्चे को जन्म दे पाओ, उसके लिए तुम्हारे सामने एक शर्त रखता हूँ। तुम माँ हो पाओ, तुम पिता हो पाओ, उससे पहले एक शर्त रख रहा हूँ तुम्हारे सामने: सबसे पहले खुद को जन्म दो। जिसने पहले स्वयं को जन्म नहीं दिया वो किसी और को जन्म नहीं दे पायेगा। एक के बाद एक जन्मदिन मनाते हो। कितने जन्मदिन मना लिए तुमने? अब एक जन्मदिन ऐसा भी मनाओ जिस दिन वास्तव में तुम्हारा जन्म हो जाए। अभी तक तो तुम्हें बस लगता है कि हम हैं। तुम हुए नहीं हो। तुमने अपनी निजता तक को भी पाया नहीं है। तो एक असली वाला जन्मदिन भी मनाओ और फिर तुम अधिकारी बनोगे कि एक दिन तुम किसी और को भी जन्म दे पाओ। भूलना नहीं, जिसने स्वयं को जन्म दे दिया है सिर्फ वही अधिकारी होता है किसी और को जन्म देने का और फिर ये अधिकार की बात भी नहीं रह जाती। उसके माध्यम से कितनों को ही जन्म मिलता भी है। ‘द्विज’- वो असली जन्म। बात आ रही है समझ में?

प्रेम जानों। तुम पाओगे तुम्हारे माध्यम से सब तक फैलेगा। जब पूरे संसार को मिलेगा, तो माँ -बाप को तो मिलेगा ही। और वही तुम्हारी असली सेवा होगी। बेटे हो, बेटियाँ हो, तो माँ-बाप की सेवा करना चाहते हो ना? यही असली सेवा है। मैंने बोध पाया और आप तक पहूँचाया, यही असली सेवा है। ये सेवा नहीं है कि आपके जो पूर्वाग्रह थे, मैं उनको आगे बढ़ाता गया। आपकी मान्यताओं को मैंने कभी चोट नहीं लगने दी। आपके अंधविश्वासों को मैंने कभी चुनौती नहीं दी, ये नहीं है सेवा। असली सेवा करो, और सेवा का अधिकारी वही जो पहले स्वयं को पा चुका हो। स्वयं को पाओ और दूसरों की सेवा करो। तब तुम असली बेटे बनोगे और जो असली बेटा होगा वो असली पिता भी होगा। बात टेढ़ी है पर समझ में आ रही है ना?

-’संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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