आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
लोग झूठे हैं, उनके साथ घुल-मिलकर कैसे रहें? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य ज़ी! आध्यात्मिक व्यक्ति की सामाजिक लाइफ़ (ज़िंदगी) कैसी होनी चाहिए? जीवन में मित्र और रिश्ते भी आवश्यक हैं लेकिन आध्यात्मिक लोगों की संख्या कम है, माया में लिप्त लोगों की ज़्यादा। सामाजिक पक्ष जीवन का कैसे मजबूत करें? मेरा जीवन कटा-कटा सा महसूस होता है, कहीं भी लोगों के साथ घुल-मिलकर रह नहीं पाता। घर, परिवार, सामाजिक जीवन, मानसिक स्वास्थ्य, ऑफिस (दफ्तर) का जीवन इत्यादि सबकुछ अस्त-व्यस्त सा लग रहा है। कृपया समझाने की अनुकम्पा करें।

आचार्य प्रशांत: नहीं, यह जो अभी वर्णन आया यह आध्यात्मिक मन की स्थिति का थोड़े ही है। यह तो एक ऐसे सामाजिक मन की स्थिति का वर्णन है, जो सामाजिक भी नहीं हो पा रहा है ठीक से। आध्यात्मिक आदमी यह थोड़े ही पूछता है कि समाज में मैं किस तरीके से समायोजित हो जाऊँ, एडजस्ट कर जाऊँ। वह यह थोड़े ही पूछता है कि समाज के लोगों के साथ किस तरीके से मैं बड़े सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बना कर रखूँ। यह उसकी वरीयता ही नहीं होती है। उसका केंद्र दूसरा होता है और वह जिस केंद्र पर होता है वहाँ से उसको इस बात से बहुत फ़र्क नहीं पड़ता कि लोग उससे कैसे सम्बन्ध रख रहे हैं।

मज़ेदार चीज़ यह है कि जब आपको इस बात से बहुत फ़र्क नहीं पड़ता कि लोग आपसे कैसे सम्बन्ध रख रहे हैं तो आपके सम्बन्ध बहुत ख़राब नहीं होने पाते हैं। "न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।" फिर हो सकता है आपको “यारां दे जलवे” न मिलें, कि "भाई-भाई हम तो बिलकुल जुड़वा ही हैं।" उतनी तगड़ी यारियाँ न मिलें लेकिन फिर दुश्मनियाँ और बैरियाँ भी नहीं मिलेंगी।

आध्यात्मिक आदमी असामाजिक नहीं हो जाता, वह एक तरह से समाज-निरपेक्ष हो जाता है। वह दुनिया को वैसे देखता है जैसे आप ट्रेन (रेलगाड़ी) की खिड़की से बाहर के खेत-खलिहानों को, पेड़ों को, शहरों को और गाँवों को और भीड़ों को देखते हैं। देख तो रहे हैं पर बहुत लेना-देना नहीं, क्योंकि हमारी दिशा दूसरी है भाई। उन्हीं खेतों के बीच से हमारी रेल गुज़र रही है पर उन खेतों को चुगने का हमारा कोई इरादा नहीं है। या है? जिन खेतों के बीच से आपकी गाड़ी गुज़र रही होती है आप उन खेतों पर दावेदारी ठोंक देते हैं क्या? देख लेते हैं। ऐसा हो जाता है आध्यात्मिक आदमी दुनिया के सन्दर्भ में।

और जब मैं कह रहा हूँ “न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर” तो इसका मतलब यह नहीं है कि बिलकुल कोई सरोकार ही नहीं है दुनिया से। सरोकार क्या है? "कबीरा खड़ा बाज़ार में, माँगे सबकी खैर।" सबकी खैर माँग रहे हैं पर किसी से अपने लिए कुछ नहीं माँग रहे। प्रार्थना हमारी सबके लिए है, सबका कल्याण हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः, पर अपने लिए कुछ नहीं माँग रहे। हमें किसी से व्यक्तिगत तल पर मित्रता इत्यादि नहीं करनी है। क्योंकि हम व्यक्तित्व की ही निस्सारता से परिचित हो चुके हैं। जब हम यही जान चुके हैं कि व्यक्तित्व ही झूठा होता है, व्यक्ति-भाव में ही कुछ नहीं रखा तो व्यक्तित्व के तल पर क्या किसी से रिश्ता बनाएँ। "कबीरा खड़ा बाज़ार में, माँगे सबकी खैर।"

बात समझ में आ रही है?

लेकिन जब आप चाहते हो कि आप सामाजिक बने रहते-रहते जीवन में थोड़ा बहुत अध्यात्म ले आओ, तो फिर बड़ी दुर्गति होती है। क्योंकि अध्यात्म हाथी है और हम रहते हैं चूहे बराबर बिलों में। और मेरा आशय किसी एक व्यक्ति से नहीं है, मेरा आशय व्यक्तित्व मात्र से है। व्यक्तित्व ऐसा होता है जैसे चूहा और सत्य ऐसे होता है जैसे हाथी। अब चूहे का आग्रह यह है कि उसे चूहा ही बने रहना है अपने बिल में और अपने बिल में वह घुसेड़ लेना चाहता है हाथी को। ऐसी कई बार हमारी चाहत होती है।

हम चाहते हैं कि हमारा जो पूर्व निर्धारित तौर-तरीका है, ढर्रा है, हमारी व्यवस्थाएँ हैं, वह चलती रहें और उनमें हम थोड़ा बहुत अध्यात्म भी शामिल कर लें। तो उसमें यही होता है कि हाथी की पूँछ भर आ जाती है बिल के अन्दर, उतना आ (समा) सकता है। हाथी बाहर है, हाथी की पूँछ चूहे के बिल के अन्दर है, और चूहा पूँछ पकड़कर हाथी को खींच रहा है। एक तो चूहा, खींच रहा हाथी को, और वह भी बिल के अन्दर अपने। और जब हाथी खिचड़ नहीं रहा तो बेचारा बड़ा दुःख मना रहा है। बड़े अफ़सोस में आया, "आचार्य जी, यह हाथी बड़ा बावला है। मानता ही नहीं, हमारा आतिथ्य नहीं स्वीकार करता।" हाथी अन्दर नहीं आएगा, तुम बाहर आओ। यह शिकायत करना छोड़ो कि हाथी को बिल के भीतर लाने में बिल ही पूरा अस्त-व्यस्त हो गया है। और भीतर मेरे जितने चूहे रिश्तेदार और दोस्त थे वह सब बुरा मान रहे हैं। वह कह रहे हैं कि देखो यह भीतर हमारा जो बिस्तर है उस पर तुम हाथी को मत सुला देना। उनको बड़ी असुरक्षा की भावना है। वह कह रहे हैं, "देखो यह हमारा बिस्तर है, हाथी इस पर बिलकुल नहीं सोना चाहिए!"

न तो हम यह जानते हैं कि हम कितने छोटे चूहे हैं, न हम यह जानते हैं कि सत्य कितना विशाल हाथी है। हमें लग रहा है कि उस हाथी को बड़ी चाहत है हमारे छोटे-छोटे बिस्तरों की, और झुनझुनों की। तो जब हम देखते हैं हाथी को आते हुए तो हमें बड़ा संदेह, बड़ी शंका, बड़ी ईर्ष्या होती है। अभी तो देखा था मैंने, गोवा में। मैं बीच (समुद्रतट) पर था तभी मैंने देखा कि समुन्द्र के भीतर से पाँच-सात चूहे दन-दना के बाहर को भागते हुए आए, तट की ओर, बीच की ओर। मैंने पूछा कि, "तुम अच्छा ख़ासा तो नहा रहे थे, बाहर काहे को दौड़ते हुए आए?" बोले, "वह हमारा बीच-वियर रखा हुआ है, चड्ढी वगैरह।" मैंने कहा, "तो?" बोले, "वह हाथी आ रहा है, वह पहन कर भाग जाएगा हमारी चड्ढीयाँ।" ऐसे-ऐसे तो हमको संदेह रहते हैं। अब जीवन अस्त-व्यस्त न हो इन संदेहों की परछाईं में तो और क्या हो।

अध्यात्म का मतलब समझते हैं क्या होता है? अध्यात्म ऐसा नहीं है कि आपके कमरे में पाँच-दस चीज़ें रखी हैं उसमें आपने एक चीज़ और जोड़ दी। हमको ऐसे ही लगता है। जो हमारे भीतर मनोभावना है, जो मेंटल मॉडल है, जिस पर हम चलते हैं, वह यह है कि "भाई मेरा जीवन है, जीवन माने मेरा संसार, मेरा विश्व। उसमें मेरे पास इतनी चीज़ें हैं पहले से ही एकत्रित, पंद्रह-बीस चीज़ें, सत्तर-अस्सी चीज़ें, पाँच-सौ, सात-सौ चीज़ें।" कोई भी संख्या ले लो, "और जो मेरे पास चीज़ें हैं वह तो तकरीबन ठीक-ठाक ही हैं। कुछ कमी खलती है, लगता है वह जो अध्यात्म नाम का लड्डू है उसी की (कमी) होगी, तो उसको लाकर के रख लेता हूँ।"

अध्यात्म आपके जीवन के कमरे में जोड़ने के लिए एक और वस्तु का नाम नहीं है। अध्यात्म आपके कमरे में जला दी जानी वाली सर्चलाइट है। एक नई चीज़ जोड़नी नहीं है, जो चीज़ें आपने पहले से जोड़ रखी हैं उनपर रौशनी डालनी है ताकि आपको पता चले आपने कितना कचरा जोड़ रखा है।

एक बात बताओ भाई, रौशनी जलाने से कौन-सा कमरा अस्त-व्यस्त हो सकता है?

श्रोतागण: जो पहले से ही अस्त-व्यस्त था।

आचार्य: हाँ, जो पहले से ही अस्त-व्यस्त था। पहले से ही अस्त-व्यस्त था, लेकिन अँधेरा कर रखा था तो पता ही नहीं चलता था कि अस्त-व्यस्त है। और अगर अस्त-व्यस्त रखना है कमरे को तो अँधेरा बहुत आवश्यक हो जाता है। अँधेरे में उस अस्त-व्यस्तता को लेकर आपको बड़ी अनुज्ञा मिल जाती है। सुविधा मिल जाती है, लाइसेंस , कि आप दावा कर के कह दें कि, "मेरा कमरा तो बिलकुल ठीक है, व्यवस्थित है!" है न? "दिख ही नहीं रहा। जब कचरा दिख ही नहीं रहा, तो मैं मानूँ क्यों कि कचरा है?" भीतर-ही-भीतर मैं जानता हूँ कि कचरा खूब है, इसीलिए मेरे लिए और आवश्यक हो जाता है कि मैं अँधेरा बरक़रार रखूँ। ठीक?

अध्यात्म का मतलब यह नहीं है कि कचरे से भरे हुए कमरे में तुमने झाड़ू लाकर के रख दी। अध्यात्म का मतलब तो यह नहीं है कि जहाँ पहले बहुत कचरा था उसमें तुमने और कचरा जोड़ दिया। अध्यात्म का यह मतलब भी नहीं है कि जहाँ पर कचरा था वहाँ पर तुमने झाड़ू लाकर रख दी। वास्तव में झाड़ू भी पहले से ही कमरे के अन्दर मौजूद है लेकिन तुमने अँधेरा कर रखा है, तो विवेक कहाँ बचा। जब अँधेरा कर रखा है तब पता कैसे चलेगा कि कचरा कहाँ है, और झाड़ू कहाँ है?

अध्यात्म रौशनी है, प्रकाश है। उसकी कोई वस्तुगत सत्ता नहीं होती। मटेरियल चीज़ नहीं है। वस्तु नहीं है कि लाकर कमरे में रख दोगे, रौशनी है। उस रौशनी में तुम्हें कमरे का कचरा, कचरे जैसा दिखाई देता है और कमरे की झाड़ू, झाड़ू जैसी दिखाई देती है। उस रौशनी में अब तुमको ताक़त मिल जाती है कि तुम झाड़ू उठाओ और सफ़ाई कर दो; झाडू भी उपलब्ध है। जिस दुनिया में तुमने इतना कचरा इकट्ठा कर रखा है उसी दुनिया में उस कचरे को साफ़ करने के साधन भी उपलब्ध हैं। पर रौशनी नहीं होगी तो क्या पता चलेगा।

जब रौशनी नहीं हो और सफ़ाई करने की कोशिश करो तो यह और हो सकता है कि तुम कचरा उठा कर झाड़ू को साफ़ कर दो। लेकिन अजब दावा करते हैं आप! आप कहते हैं कि, "जीवन में अध्यात्म आया है तो जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है", जैसे कि कोई कहे कि, "मैंने रौशनी जलाई और कमरा पूरा उथल-पुथल हो गया। मैं गया, मैनें बत्ती जलाई और मेरे बत्ती जलाते ही कमरा पूरा डिसआर्डरली (अस्त-व्यस्त) हो गया।" बड़ी ग़ज़ब बत्ती होगी भाई! ट्यूबलाइट में से हाथ निकलते हैं बाहर और कमरे में उथल-पुथल कर देते हैं। कैसे?

समझ में आ रही है बात?

यह सब लोग समझिए क्योंकि यह सभी की कभी-न-कभी की शिकायत होती है। कहते हैं, "अच्छा ख़ासा जीवन चल रहा था। यह जबसे उस आचार्य के चक्कर में आए हैं, एक के बाद एक मुसीबतें। चुहिया दिन-रात चूँ-चूँ करती है। अब तो बिल्ली भी सगी लगने लगी है। सब उलट-पुलट हो गया। सब बेकार हो गया। चूहों की पंचायत ने मुझे बहिष्कृत कर दिया है। और कचरा अब न जाने कहाँ से इतना आ गया, पहले तो था ही नहीं।" कचरा नहीं आ गया, रौशनी आ गई है।

जो आप की ज़िंदगी में पहले से ही मौजूद था, अध्यात्म बस उसको प्रदर्शित कर देता है। आपको अगर उस प्रदर्शन से बड़ा दुःख होता है, बड़ी आपत्ति है, तो मत देखिए भाई। यह उसी आदमी का हठ है जिसको बीमार रहने में इतना मज़ा आने लगा है कि वह पैथोलॉजी की रिपोर्ट भी नहीं देखना चाहता। वह कह रहा है कि, "मैं तो भला-चंगा था, जिस दिन से रिपोर्ट आई है उस दिन से बीमार हो गया हूँ।" आप उसका तर्क समझ रहे हैं? कह रहा है, "देखो, भले ही मुझे कैंसर था, पर कहाँ था? था ही नहीं। भई, जब तक मुझे पता ही नहीं कैंसर है तब तक मुझे कैंसर है ही नहीं। और जब से इन नीम-हकीम चिकित्सक के पास गए और इसने बोल दिया कि जाकर के चेक (जाँच) तो करा लो, और चेक कराया है, उसमें सब खुलासा हो गया, पर्दाफ़ाश हो गया कि ज़िंदगी में कितने रोगाणु, जीवाणु मौजूद हैं। और भीतर कितने तरह की बीमारियाँ पनप रही हैं। तबसे बड़ी परेशानी है। बहुत परेशानी है, तो मत कराओ भाई *चेकअप*। खुश रहो, मस्त रहो।"

भाई, ज़िंदगी में दो ही तरह की चीज़ें होती हैं, ग़ौर से समझिए — या तो ऐसी जो आपको उठाएँगी, या ऐसी जो आपको गिराएँगी। ठीक? चेतना के एक तल पर हम होते हैं, हमें उठाने वाली ताक़तें भी मौजूद हैं दुनिया में, हमें गिराने वाली ताक़तें भी मौजूद हैं। अध्यात्म का काम है आपको दिखा देना सर्वप्रथम कि उठना ज़रूरी है और उसके बाद यह कि कौन है जो आपको उठाने में सहायक है, और कौन-कौन है जो आपको गिराने को आतुर है। और उसके बाद अध्यात्म आपको छोड़ देता है। प्रकाश और विवेक; प्रकाश इसलिए कि आपको दिख सके कि कौन कैसा है, और विवेक इसलिए ताकि आप भेद कर सकें। और उसके बाद कोई आपसे ज़बरदस्ती का आग्रह नहीं करता। आपको दिखा दिया गया है कि कौन आपको उठा रहा है और कौन आपको गिरा रहा है, अब आपकी मंशा पर है। आप इस बात को बहुत शुभ सूचना भी मान सकते हैं कि आपको पता चल गया है कि कौन आपको उठाता है। जो आपको उठाता हो, आप उसके निकट हो जाएँ। आपके जीवन में जितने भी तत्व हैं जो आपके ऊर्ध्वगमन में सहायक हैं, आप उनसे निकटता करें, आप उनको पोषण दें। और आपके जीवन में जो भी तत्व हैं जो आपका पतन कराते हैं, आप उनसे दूरी बनाएँ। यह आपका काम है। अध्यात्म यह करने के लिए आपको विवश नहीं करता।

आपने कमरे में बत्ती जलाई है, बत्ती जल सकती है, आपको मजबूर थोड़े ही कर सकती है सफ़ाई करने के लिए। आपको सफ़ाई नहीं करनी तो वह आपकी नीयत की बात है। इसमें इतनी जटिलता क्या है कि आप लोग परेशान हो जाते हैं? एक बार दिख गया कि ज़िन्दगी में क्या है जो रखने लायक और बढ़ाने लायक है, उसको रखिए और बढ़ाइए। और दिख गया कि क्या है जो हटाने और छोड़ने लायक है तो उसको छोड़ दीजिए भाई। अटक क्या रहा है? क्या अटक रहा है? नीयत अटक रही है| वह तो आपकी चीज़ है न, उसमें क्या कर सकता हूँ? और ज़्यादा समस्या हो रही है तो? “बत्तियाँ बुझा दो कि नींद नहीं आती है।"

सौ समस्याओं का एक समाधान, क्या?

प्र: बत्ती बुझा दो।

आचार्य: बत्ती बुझा दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। सारी समस्या ही यह ससुरी बत्ती है, अँधेरा कितना भला होता है। अँधेरे में सब चलता है। रौशनी दिक़्क़त वाली चीज़ हो जाती है।

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