आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
लड़की या स्त्री होने को अपनी पहचान मत बना लेना
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: हम जैसे अपने अभिभावकों के लिये एक बोझ की तरह होते हैं। जैसे कि आज मैं यहाँ (शिविर)पर हूँ, तो मेरे घर पर भी बहुत कुछ चल रहा है, कि क्यों मैं चली आयी, तो फिर यह एहसास करवाया जाता है कि तुम्हारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं और घर पर भी तुमको समझना चाहिए कि तुम्हारी माँ तुम्हें इन सब के लिये नहीं जाने दे सकती; मेरे पिताजी नहीं हैं, तो तुमको थोड़े कायदे से रहना चाहिए, सम्भलकर रहना चाहिए, क्योंकि समाज ऐसा है और तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियों को देखना चाहिए।

लेकिन मुझे कुछ चीज़े अनावश्यक लगती हैं और मैं नहीं उनके अनुसार चलना चाहती। लेकिन फिर कहीं न कहीं मैं अपराध-भाव से भर जाती हूँ, कि मेरी वजह से परेशान हो रहे सब लोग। तो मैं अगर ये चीज़े न करूँ तो उनकी परेशानियाँ नहीं होगीं, तो इन चीज़ो को लेकर मैं भी परेशान हो जाती हूँ, तो मतलब, कैसे संभालू इस स्थिति को?

और एक सवाल यह है मेरा कि जैसे बहुत ज़्यादा मेरे अन्दर द्वंद चलते रहते हैं, मतलब मानसिक रूप से काफ़ी द्वंद चलते हैं क्योंकि मैं अपने आप को बहुत बंधा हुआ महसूस करती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं जो करना चाहती हूँ, जो ठीक भी मुझे लगता है कि वैसे नहीं ऐसे, इस तरह से करना चाहिए, तो मैं वो नहीं कर पाती हूँ। इसलिए वो करने वाला और जो मैं नहीं कर पाती, उन दोंनों की वज़ह से बहुत ज़्यादा द्वंदों से घिरी रहती हूँ और ऐसा लगता है कि मैं अपनी ज़िदगी जी नहीं पा रही हूँ, कृपया राह दिखायें।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे जो आंतरिक भ्रम हैं और द्वंद हैं, मूलतः यहाँ से निकल रहे हैं कि तुम्हें स्पष्टता नहीं है कि तुम हो कौन। हम जो होते हैं उससे हमारे कर्त्तव्य निर्धारित हो जाते हैं। यही तो तुम्हें नहीं स्पष्ट है न कि क्या करूँ, क्या न करूँ, क्या करना उचित है, क्या करना नहीं उचित है।

प्र: कुछ रुकाव सा लगता है।

आचार्य: रुकाव माने द्वंद। एक तरफ को मन चलता है, जिधर को चलता है उसके विपरीत भी चलता है। द्वंद है भीतर, इसको कहते हैं- किंकर्त्तव्यविमूढ़ता। हम नहीं जान रहे कि हमारे लिए क्या करणीय है, "मेरा कर्त्तव्य क्या है?" मुझे पता ही नहीं चल रहा।

प्र: अगर जान भी रहें हैं कि क्या करना सही है, तो तब भी बहुत हिचक महसूस होती है।

आचार्य: न, जो जान गया कि ठीक क्या है, उसको हिचक महसूस नहीं होती। एक बार स्पष्ट हो जाए कि यही ठीक है, उसके बाद हिचक नहीं हो सकती। हिचक अगर हो रही है तो इसका मतलब है, अभी द्वंद है, अभी अस्पष्टता है। अभी एक नहीं, दो-तीन बातें ठीक लग रहीं हैं और उन दो-तीन बातों में परस्पर विरोध है, तब भीतर हिचक होती है, द्वंद होता है, रुकाव होते हैं।

कर्त्तव्य साफ़ पता हो, उसके लिए ये पता होना चाहिए कि कर्ता कौन है। "मैं कौन हूँ?"

मुझे अपनी पहचान साफ़ पता हो, तो मुझे अपने कर्म का भी सहज बोध हो जाएगा। मुझे अगर पता हीं हो कि मैं ठीक-ठीक कौन हूँ, तो "मेरे लिए सम्यक कर्म क्या है?" ये भी मुझे तत्काल पता चल जाएगा क्योंकि "मुझे क्या करना चाहिए?" वो मेरे होने से स्वतः निर्धारित हो जाता है।

अगर एक बेटी हो तुम, तो फिर एक ही कर्त्तव्य है तुम्हारा, माँ की इच्छा का पालन करो, फिर कोई हिचक होनी ही नहीं चाहिए। छात्रा हो, तो एक ही कर्त्तव्य है, शिक्षक की इच्छा का पालन करो, इसी तरह पचासों पहचानें हो सकती हैं तुम्हारीं, जो भी पहचान तुम पकड़ लोगी वो तुम्हारा कर्त्तव्य साफ़-साफ़ निर्धारित कर देंगी। बात ये है कि कौन-सी पहचान तुम्हें पकड़नी चाहिए, कौन-सी असली है। उस पहचान पर उँगली रखो और उसी पहचान के अनुसार अपने कर्त्तव्य का पालन कर लो।

प्र: फिर मुझे डर भी बहुत लगता है।

आचार्य: डर किसको लगता है?

प्र: मुझे

आचार्य: किसको? कौन हो तुम? डर भी किसी पहचान को ही आता है। किसको डर आ रहा है? जो तुम्हारी पहचान होगी, उसे उसी अनुसार डर आएगा। डर भी न तो शून्य को आता है, न आत्मा को आता है। शून्य को आ नहीं सकता क्योंकि शून्य कुछ है ही नहीं, तो डरेगा कैसे? आत्मा को इसलिए नहीं आ सकता क्योंकि आत्मा पूर्ण है, तो डर भी किस बात से लगेगा उसे। डर भी 'अहं' को आता है, सारी पहचानें अहं की होती हैं। तो क्या पहचान पकड़ रखी है तुमने, तदानुसार तुम्हें डर लग जाएगा। सबको क्या एक से डर लगते हैं? सबको अलग-अलग डर क्यों लगते हैं? क्योंकि सबकी पहचान अलग-अलग होती है, जिसकी जो पहचान उसका वैसा डर।

तो जब तुम कहतीं हो कि मुझे डर लगता है माने तुमने कोई पहचान पकड़ी है, उसे ही डर लगता है। जो डर तुम्हें लगता है, क्या वो डर इन्हें (दूसरे साधक की ओर इशारा करते हुए) भी लगता है? जो डर तुम्हें लगता है क्या वो डर इनको (एक अन्य साधक की ओर इशारा करते हुए) भी लगता है?

कई बार तो एक ही घटना घट रही हो, तो भी उससे संबन्धित डर अलग-अलग होते हैं। एक गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई, पेड़ से टकराकर। किसी की पहचान ये है कि वो पेड़ प्रेमी है, तो उसे क्या डर लगेगा? "पेड़ को क्या हुआ?"

इन्श्योरेंस कंपनी को क्या डर लगेगा?

(सभी साधक हँसते हुए)

समझ में आ रही बात?

एक ही घटना से अलग-अलग लोगों को अलग-अलग डर लगते हैं। गाड़ी में तुम्हारे दोस्त बैठे थे तो तुम्हें एक तरह का डर लगेगा, गाड़ी में तुम्हारे दुश्मन बैठे थे तो तुम्हें दूसरे तरह का डर लगेगा। गाड़ी चोरी की थी, फिर तो पता नहीं कौन-सा डर लगेगा।

क्या पहचान पकड़ रखी है?, कौन हो तुम?

और एक नहीं, हम चार-पाँच तरह की, रंग-रंग की, भाँति-भाँति की पहचानें पकड़ते हैं और उनका एक अद्भुत मिश्रण बनाते हैं, जिसमें हमें ही नहीं पता चलता कि हम हैं कौन। जैसे कि तुमसे कोई कहे कि अपना पहचान-पत्र दिखाओ, तुम एक दिखाओ जिसमें लिखा है- टॉमी शर्मा, एक दिखाओ जिसमें किसी पशु की तस्वीर बनी हुई है, एक दिखाओ जिसमें लिखा हुआ है-अहं ब्रह्मस्मि और इस तरह के पाँच आधार कार्ड दिखा दिए तुमने उसको। हमें ही नहीं पता कि हम कौन हैं, हम तुम्हें क्या बतायें, क्या हमारा नाम, क्या पता? कभी लगता है ब्रह्म हैं, कभी लगता है गधे हैं; तो सब हम लेकर के चलते हैं। तुम हो कौन?

अभी बैंगलोर में विश्रांति थी तो मैंने उनको कहा कि तीन दिन तक एक चीज़ रटो बस, "मैं अतृप्त चेतना हूँ।"

ये सबसे उपयोगी पहचान है तुम्हारे लिए, इसके आधार पर अब तुम जो कर्म करोगे, अब तुम्हारा जो कर्त्तव्य निर्धारित होगा, वो तुम्हारे लिए भला होगा। अपनी बाकी सब पहचानें एक तरफ रखो, बस एक ये पहचान याद रखो, "मैं एक अतृप्त चेतना हूँ।"

ये मैं हूँ, अब देखना है कि मुझे करना क्या है। अगर मैं एक अतृप्त चेतना हूँ तो मुझे वो करना है जो मुझे तृप्ति देगा, बाकी किसी बात को मुझे कोई वज़न ही नहीं देना है। ये मूल मंत्र है, जो इसको याद रख लेगा, उसकी ज़िंदगी द्वंद से और आंतरिक उथल-पुथल से एकदम मुक्त रहेगी। जब भी निर्णय की घड़ी आए, अपने-आप को याद दिला दो कि तुम हो कौन। तदानुसार निर्णय अपने-आप हो जाएगा।

तो सत्र में आना है और पतंग उड़ाना है? ऐसे दो विकल्प हैं तो, मैं कौन हूँ? अतृप्त चेतना। तो अतृप्त चेतना को तृप्ति कहाँ मिलेगी? जहाँ मिलेगी वहाँ चली जाओ। पतंग उड़ाने से मिलती है तो पतंग उड़ा लो, सत्र में आने से मिलती है तो सत्र में आ जाओ।

मैं अतृप्त चेतना हूँ, सत्र में आना चाहती हूँ, अम्मा रोक रही है। कह रही है "ना! लड़कियों को इस तरह से धर्म, वैराग्य की बातें नहीं सुननी चाहिए, खासकर जवान होती लड़कियों को, उन्होंने ये सब सुन लिया तो बस फिर सब राज खुल जाता है और, पंछी उड़ जाता है।"

या तो उनकी बात सुन लो या याद रख लो कि तुम हो कौन और तुम्हें चाहिए क्या?

हिंदुस्तान में अभी भी दो जगह हैं जहाँ पर लड़कियाँ बहुत कम पाईं जाती हैं, लड़कियाँ-स्त्रियाँ सब; एक शमशान घाट, दूसरा सत्संग। दोनों ही जगहों पर सच दिख जाता है न? और दोनों ही जगहों पर देह की नश्वरता दिख जाती है न? यहाँ गिन लो, आज तो फिर भी बहुत हैं। आज तो फिर भी करीब-करीब एक चौथाई हैं, नहीं तो पचास में एक, और जो वो एक भी होती है वो अपने अकेलेपन से घबराकर इधर-उधर हो जाती है।

समाज नहीं चाहता है कि किसी को भी सच पता चले और विशेषकर स्त्रियों को तो बिल्कुल भी नहीं पता चलना चाहिए। तो स्त्री को बाज़ार जाना बिल्कुल मान्य है। हाँ, बाज़ार जाओ, गहनें खरीदो, चूड़ियाँ खरीदो, कपड़े खरीद लो, पिक्चर देख लो, पर सत्संग मत चली जाना और शमशान मत चली जाना। शादियों में जाओ लेकिन मौत पर मत चली जाना।

मज़ेदार बात है कि जो यहाँ पुरुष बैठे होते हैं वो सब प्रश्न स्त्रियों के बारे में कर रहे होते हैं अक्सर, पर जिन स्त्रियों के बारे में प्रश्न कर रहे होते हैं वो यहाँ कभी दिखाई नहीं देती।

(एक साधक की ओर इशारा करते हुए) क्यों, सही बोला न?

अगर दस प्रश्न किये होंगे इन्होंने, तो उनमें से आठ किन्हीं स्त्रियों के बारे में, पर जिनके बारे में हैं वो यहाँ नहीं आती कभी। (अन्य स्वयंसेवकों की तरफ देखकर) जिधर देख रहा हूँ वही कहानी है। वो यहाँ आ ही जातीं तो समस्या ही नहीं सुलझ जाती?

तो इसीतरह तुम्हें (प्रश्नकर्ता) भी किसी की समस्या बनना होगा, तो तुम पर भाँति-भाँति के दबाव डाले जा रहे हैं कि यहाँ न आओ। बात अद्भुत है कि नहीं? सवाल तीन-चौथाई स्त्रियों के बारे में, और स्त्रियाँ यहाँ कहीं नज़र नहीं आती। जब उनकी यहाँ आने की बारी होती है, तो अक्सर वही लोग, जो उनके बारे में सवाल पूछ रहे होते हैं, वही उन्हें यहाँ आने नहीं देते।

तब तो ये हो जाता है कि, "आचार्य जी को नशा चढ़ जाता है, आधी रात तक बोलते रहते हैं, कहाँ जाओगी बेकार में। ये कोई भले घर की औरतों के काम हैं क्या, जो आधी-आधी रात को बाहर बैठी हुयीं हैं।"

तब तो "नहीं-नहीं तुम घर में रुको, हम जाएंगे।"

उनको घर में छोड़ के यहाँ आ जाते हो, फिर यहाँ बैठकर रोते हो कि वो घर में बहुत परेशान करती है, ख़ून पी लिया है।

तो छोड़ के क्यों आये हो?

(एक साधक की ओर इशारा करते हुए) क्यों, बात जच रही है कुछ?

(दूसरे साधक की ओर इशारा करते हुए) तुम कैसे नज़रे झुका रहे हो, प्रश्न तुम्हारा भी आज देवियों के बारे में ही है, पर वो देवियाँ यहाँ नहीं हैं।

समझ में आ रहा है न? कि समाज ने, पुरुष ने स्त्रियों के साथ क्या करा है? क्या करा है? कि रोशनी से, सच्चाई से उनको वंचित रखा है और जितना तुम उन्हें रोशनी से, सच्चाई से वंचित रखोगे, उतना ही वो सबके लिए, अपने लिए भी और तुम्हारे लिए भी समस्या का कारण बनेंगी, क्योंकि जिसको तुम अंधेरे में रखोगे, वो रोशनी को बहुत पसंद तो नहीं करेगा न?

कितनी ही बार ये मन में आ चुका कि महीने में जो ये एक दिल्ली वाला शिविर होता है, जो ग्रेटर नोएडा में आयोजित होता है, इसको ऋषिकेश इत्यादि में स्थानान्तरित कर देते हैं। ये बात कम से कम पाँच-सात बार छिड़ चुकी है, पर फिर कई वजहों से उसको कार्यान्वित नहीं करते, कहते हैं नहीं, महीने का एक छोटा शिविर ग्रेटर नोएडा में भी होता रहे। उसमें कई वजहें हैं, एक वजह ये भी है कि बहुत सारी महिलाएं हैं इस क्षेत्र में, जो ये कहती हैं कि अगर बाहर कहीं शिविर हुआ तब तो हमें बिल्कुल हीं आने की अनुमति नहीं मिलेगी। दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर भी शिविर हुआ तो हमारे घर वाले हमें आने नही देंगे। और ये लड़किययाँ ही नहीं, पचास-साठ साल की औरतें भी यही कह रहीं होती हैं कि दिल्ली से आप सौ किलोमीटर दूर भी चले गये, दो घण्टे की दूरी पर भी चले गये तो हमें उतना भी आने को नहीं मिलेगा।

हर महीने जब शिविर आयोजित होने का समय आता है तो कुछ फोन कॉल्स आती हैं, "सत्र दिन में नहीं हो सकते क्या? मैं चाहती हूँ कि पति के घर लौटने से पहले वापस पहुँच जाऊँ और एक दिन आऊँगी, शनिवार को, रविवार को वो घर पर होते हैं।"

(सभी हँसने लगते हैं)

हँसो नहीं, ये बहुत भयानक बात है।

उस बेचारी(प्रश्नकर्ता) को अभी भी ठीक-ठीक समझ में नहीं आ रहा है कि अगर मेरे घर वाले मुझे रोकते हैं तो क्या वास्तव में बहुत बुरा करते हैं? वो बहुत बुरा नहीं करते, वो अपराध करते हैं। अगर उन्हें वाकई चिंता है तुम्हारी शारीरिक सुरक्षा की तो ये करना चाहिए कि बेटी तुम जा रही हो, हम भी साथ में चले चलेंगे। रात में देर से लौटोगी, लौटने में दिक्कत हो सकती है, तो हम साथ रहेंगे, हम साथ लिवा लाएँगे।

वो कोई बात हुई।

ये बात थोड़ी ही हुई कि जाने पर ही पाबंदी लगा दी। अगर वाकई बेटी से प्यार है तो उसके आने-जाने पर पाबंदी लगाओगे कि ये कहोगे कि अगर सुरक्षा की समस्या है तो हम साथ चलते हैं, पर उसके आवागमन पर ही पाबंदी लगा दो। उसका ऐसी जगह जाना प्रतिबंधित कर दो, जहाँ जाना उसके लिए उपयोगी है, आवश्यक है।

तो तुम्हारे मन में बेटी के लिए प्रेम है भी या नहीं है?

और दूसरों के मन में तुम्हारे लिये प्रेम हो न हो, तुम इस बात की मोहताज बनकर नहीं रह सकती। तुम अपनी पहचान याद रखो और तुम अपना कर्त्तव्य याद रखो।

प्र: मैं कौन हूँ और मेरा सम्यक कर्म क्या होना चाहिए?

आचार्य: जो अभी उसको (पहली प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) बताया न कि तुम ये हो, ये तुम्हारी पहचान है, वही हम सबकी पहचान है। लिंग अलग-अलग होगा, उम्र अलग होगी, पृष्ठभूमि अलग होगी, मूलतः तो सब एक हीं है।

प्र: आचार्य जी, अगर पता चल जाये कि मैं अतृप्त चेतना हूँ तो फिर मेरा सम्यक कर्म क्या होना चाहिए?

आचार्य: अगर पता चल गया कि मैं प्यासा हूँ, तो सम्यक कर्म क्या होना चाहिए?

प्र: प्यास को बुझाना।

आचार्य: बस! सामने जो भी विकल्प हैं, उनमें देख लो कि तृप्ति कहाँ है, भोग कहाँ है, उत्तेजना कहाँ है, आमोद-प्रमोद कहाँ है, विलास कहाँ है, वासना कहाँ है, और तृप्ति कहाँ है?

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