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लेख
लड़की होने का तनाव और बंदिशें || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2014)

प्रश्न : आचार्य जी, एक लड़की होने के कारण हमारे ऊपर बहुत सारी बंदिशें लगाई जाती हैं, जब भी अगर कुछ गलत होता है तो उसका इल्ज़ाम हम पर ही लगता है, क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत : क्या नाम है?

श्रोता :- शिवांगी।

आचार्य प्रशांत : शिवांगी बैठो। शिवांगी ने कहा कि लड़की हूँ तो कोई भी घटना घटती है कैसी भी, आरोप हम ही पर लगा दिया जाता है कि तुम्हारी ही गलती थी। कहीं जाते हैं, कोई कुछ भी कह देता है, छेड़खानी ये सब। तो गलती हमारी ही निकल दी जाती है कि तुम्हीं ने कोई दोष किया है। उन्होंने गलती निकाल दी, ये उनकी बीमारी, तुमने उनकी बात को गंभीरता से लिया क्यों?

मुझे दुसरों की बात को बेमतलब वजन तभी देना होता है, जब मुझे साफ-साफ नहीं पता होता कि क्या ‘उचित’ है और क्या ‘अनुचित।’

अगर मुझे मेरा अपना ‘उचित’ और ‘अनुचित’ पता है तो दुनिया फिर लाख दोषारोपण करती रहे, मैं कहूँगी, “ठीक है, तुम कहते रहो हमें क्या फर्क पड़ता है।”

लड़की तुम बाद में हो पहले तुम भी एक चैतन्य मन हो। अपने आप को सिर्फ लड़की मत समझ लेना कि यही मेरी पहचान है कि मैं एक लड़की हूँ, फंस *जाओगी*। अगर लड़की हो तो लड़कियों वाले सारे हिसाब-किताब, सारे कायदों का पालन करना पड़ेगा और वो समाज ने निर्धारित किये हैं। तुम्हारी अनुमति से नहीं करे हैं। अपने स्वार्थ के अनुसार करे हैं।

लड़का-लड़की भूलो, ये तुम्हारी पहचान नहीं है। लड़की बाद में हो, पहले तुम ‘बोध’ हो, समझदार हो। कह सकती हो कि मैं समझदार पहले हूँ, लड़की बाद में हूँ। जानती हूँ कि क्या ‘उचित’ है और क्या ‘अनुचित’ है। कोई किसी पर हिंसा करें और जिस पर हिंसा की गई है फिर उसी का दोष निकाला जाए तो मैं अच्छे से जानती हूँ कि ये बात गलत है और बेकार में मुझे बताइये मन नहीं तो आप ही मेरी नज़रों से गिर जाएँगे। अगर आप ये व्यर्थ बातें मुझे बताएँगे, तो आप ही मेरी नज़रों से गिर जाएँगे तो इस तरह की बातें आप करिये भी मत।

लड़की हूँ लेकिन उतनी ही ‘चेतना’ मुझमें है जितनी किसी और में होती है, हो सकता है उनसे ज्यादा भी हो। लड़की हूँ पर उतनी ही ‘बुद्धि,’ उतना ही ‘बोध,’ उतनी ही ‘समझदारी’ मुझमें है, जितनी किसी और में होती है। हो सकता है उनसे ज्यादा भी हो। तो जितना मुक्त होने का उनका अधिकार है, उतना ही मेरा भी है। मुक्ति जैसे उनका स्वभाव है वैसे ही मेरा भी है, मुझ पर व्यर्थ बंदिशें मत लगाइये।

देखो! ग़लत धारणाओं, संस्कारों, परवरिश के कारण मन बहुत हिंसक हो जाता है। भ्रम अनिवार्यतः हिंसा बनता है। हिंसा और कहीं से नहीं आती, भ्रमों से आती है। यह जो दुनिया है ये बड़े भ्रमों से जीती है, भ्रम में। नतीज़ा है–हिंसा। हिंसा हमेशा शिकार खोजती है।

सब को शिकार चाहिए। पुरुषों को भी शिकार चाहिए, स्त्रियों को भी शिकार। हर आदमी शिकार की तलाश में है क्योंकि हर आदमी भ्रमित है तो ‘हिंसक’ है। पुरुष के लिए स्त्री कई मौकों पर एक शिकार के अलावा और कुछ नहीं होती। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि स्त्रियाँ हिंसक नहीं होती है, वो भी होती हैं।

जितना ज़्यादा तुम अपने आप को लड़की समझोगे, *स्त्री* समझोगी उतना ज़्यादा तुम सिर्फ पुरुष के लिए शिकार बनती जाओगी, क्योंकि पुरुष की पहचान ही इसी में है वो कौन जो स्त्री का विपरीत है और जो अपने आप को स्त्री से श्रेष्ठ मानता है।

उसने अपनी मान्यता ही यही बना रखी है अपने मन में यही तो भ्रम है, यही तो हिंसा, अब होगी उसके मन मे कोई गड़बड़, छाए होंगे बादल, होगा कोहरा, धूल, धुआँ। उससे तुम अपना जीवन तो नर्क नहीं कर सकती ना?

घरों के जो मुखिया होते हैं और जो कमाने वाले लोग होते हैं वो अक्सर पुरुष होते हैं तो वो नियम-कायदे तय कर देते हैं कि घर मे जितनी भी लड़कियाँ है, औरतें है, उनका क्या चलेगा — मैं बताऊँगा। अब मन हैं उनके धूल से भरे हुए, तो जो नियम-कायदें भी बनाते हैं वो बड़े बचकाने और *हिंसक*।

तुम्हारे ऊपर कोई बाध्यता नहीं कि तुम उन नियम-कायदों पर चलो और तुम उनकी बातों को महत्व दो।

बड़ी हो, जागरूक हो, तुम इस भ्रांति से ही बाहर निकल आओ कि तुमको एक लड़की की तरह, एक औरत की तरह जीना है। लड़की या औरत की तरह नहीं जीना है, एक इंसान की तरह जीना है। अंतर *समझो*।

*लड़की* बाद में है और इंसान पहले है।

जितने अधिकार किसी भी ह्यूमन बीइंग के होते हैं, ‘तुम्हारे हैं।’ सत्य , मुक्ति , प्रेम , मनुष्य का स्वभाव है और तुम्हारा है। उससे हटकर अगर कभी कोई तुम्हें कोई पाठ पढ़ाये तो उसको मानना मत। कोई आरोप लगाए तो मानना मत, कोई दोष लगाए तो हट जाना, मानना मत।

तुमने कोई ठेका नहीं ले रखा है एक हिंसक मन की हिंसा को झेलने का।

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