एक बार फिर,
हाँ, फिर से एक बार,
नफरत हो गई है
अपनी कल्पनाओं से,
उन्मुक्त उड़ने, स्वच्छन्द सोचने वाले हृदय को
सीना फाड़ कर निकलने
और सामनें रख कर,
उस की उद्दंडता के लिए
उस के टुकड़े कर देने
की इच्छा है एक बार फिर
(पर क्या यह काम नियति मुझसे पहले ही नहीं कर चुकी?)
एक बार फिर,
अपरिचय का मेरा दायरा थोड़ा और बढ़ गया है,
मेरी गणनाएँ गलत हो गई हैं, और मैं पराजित
मेरी सृजनशीलता, मेरा विवेक,
मेरा ज्ञान, मेरी शक्ति,
और, और मेरा घायल ह्रदय,
एकांत में बैठे रो रहा हैं,
रीतें आसूँ ,
(पता नहीं इनमें से ज़्यादा आहत कौन है)
एक बार फिर,
रेत का अन्धड़,
दुपहरिया का पसीना
और मैं,
एकाकार हो उठे हैं,
अजनबी हो गया हूँ मैं स्वयं से ही, और बहुतों से,
इस अन्धड़ के सागर में,
सूजी हुई आँखें दुखती हैं,
जब मेरा कवि चेष्टारत है
स्मृतियों पर नकाब डालने को, एक बार फिर
(यद्यपि सब कुछ भुला पाना उस के भी बस की बात नहीं)
मेरी आस्था, मेरे विश्वास का घरौंदा,
पैरों की ठोकर खा,
बिखरा पड़ा है मेरे सामने,
अपने अस्तित्व की चिता पर;
और ह्रदय का स्पन्दन, विह्वल है
जब सारी व्यथाएँ कागज़
पर उड़ेलने को विवश हूँ में, एक बार फिर
(पर क्यों, क्यों एक बार फिर?)
~ आचार्य प्रशांत (3 मई 1996, दोपहर 12:30, IIT से लौटने के पहले दिन)