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लेख
क्या सिर्फ़ राम को याद रखना पर्याप्त है?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ताः 'नहिं कलि करम न भगति बिबेकु, राम नाम अवलंबन एकु' - आपको भी सुना कई बार कि नाम एक ऐसी चीज़ है जो निराकार और साकार दोनों के बीच का है। तो मैं बच्चों को ये भी बताता हूँ कि प्रभु के नाम का सहारा लो, उनका स्मरण करो । हर काम करो तो प्रभु को याद करके करो, उनको केन्द्र में रखकर, उनको धन्यवाद देकर करो। 'देह भाव से मुक्त होकर' कुछ ऐसा भी बताता हूँ। तो इसमें मैं खुद क्या करुँ? मैं खुद अंधेरे में हूँ कि प्रभु के नाम का सहारा लिया जाए, उनको स्मरण किया जाए कि इसके अलावा जो रौशनी देने का, समझाने का सत्संग करता हूँ, तो उस संदर्भ में इसको आप थोड़ा और स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांतः "मैं क्या करूँ?" बहुत अच्छा प्रश्न नहीं है, कभी भी बहुत अच्छा प्रश्न नहीं है।

सब इसे ध्यान से समझेंगे।

"मैं क्या करूँ?" बहुत प्रचलित प्रश्न है, बहुत आम सवाल है लेकिन बहुत अच्छा सवाल नहीं है।

अच्छा सवाल यह है कि - "मैं क्या होकर करूँ?" "मैं क्या बनकर करूँ?"

"जब मैं कर रहा हूँ तब मैं कौन हूँ?"

"जब मैं कर रहा हूँ तब मैं हूँ कौन?"

और तुम्हारे सामने हर विकल्प खुला है। 'अहं' वह जो किसी से भी जाकर के सम्प्रत हो सकता है, किसी की भी पहचान पहन सकता है, किसी से भी नाता जोड़ सकता है। तो तुम चाहो तो रावण होकर भी कर सकते हो, तुम चाहो तो राम होकर भी कर सकते हो।

पुरानी कहानियाँ सब इसीलिए तो है कि तुम्हें बताएँ कि जो रावण होता है वह क्या करता है? तो तुम भी अपने-आप से पूछ लो कि - "अभी मैं क्या बनकर कुछ करने जा रहा हूँ?"

पूछ लो अपने आप से कि राम का चरित्र तो मैं जानता ही हूँ। आप रामचरितमानस की बात कर रहे हैं तो राम का चरित्र तो जानते हैं। आप जब कर्म करने जा रहे हो तो अपने आप से पूछ लीजिएगा कि - "इस वक्त राम हूँ क्या मैं?"

"ये जो मैं जा रहा हूँ अपने पड़ोसी का सिर फोड़ने, क्या राम यही करते?" "ये जो मैं जा रहा हूँ किसी को झूठ बोलने, धोखा देने, क्या राम यही करते?" आप बने तो रावण हुए हैं और फिर पूछ रहे हैं - "मैं क्या करूँ?" तो ये कोई अच्छा सवाल कैसे हो सकता है?

क्योंकि रावण बन कर तो अब आप करोगे वही जो रावण कर सकता है। रावण बन कर आप हनुमान वाले कर्म तो कर नहीं पाओगे, या कर लोगे? पूछा करो अपने आप से - "अभी मैं हूँ कौन?" "इस वक्त मैं कौन हूँ?"

कुछ न समझ में आ रहा हो तो जिन चरित्रों को जानते हो - आध्यात्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक; उन्हीं की ओर मुड़ कर देख लो और पूछ लो कि - "इस वक्त में उनमें से किस चरित्र समान आचरण कर रहा हूँ?" तुम्हें दिख जाएगा कि ठीक हो या नहीं हो।

तुममें बदला लेने की भावना आ रही है तो यह तो नहीं कह पाओगे कि - "अभी मैं संत हूँ।" और जब मन ऐसा हो कि जिसने तुम्हारा नुकसान भी किया, उसे भी क्षमा करने का भाव हो तो फिर तुम जानते हो कि - "अभी मैं संत हूँ। अभी मैं वही कर रहा हूँ जो अष्टावक्र पहले ही अध्याय में समझा गये हैं, कि क्षमा, तोस, शील धारण करो। तो अभी मैं अष्टावक्र हूँ।"

"मैं हूँ कौन?" ये प्रश्न तुमको बताएगा।

बच्चों को तो शुरुआती साधना में एक सूत्र यह भी दिया जा सकता है कि बेटा! जब किसी परिस्थिति में फँसे हो, जब निर्णय लेने का समय हो तो अपने आप से पूछ लिया करो कि इस स्थिति में जो भी तुम्हारे इष्टदेव हैं, वह क्या करते?

"बताओ कौन है तुम्हारा इष्ट?"

वो कोई नाम लेंगे - राम, कृष्ण, हनुमान; कुछ और बोलेगा। कोई बहुत धार्मिक नहीं होगा तो कोई और नाम ले लेगा। कोई थोड़ा क्रांतिकारी झुकाव का होगा तो वह कह देगा - भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद। कोई अन्य धर्मों की मान्यता का होगा तो कह देगा - क्राइस्ट, कह देगा - अली। ये सब इष्टदेव हुए जिनको तुम सर उठा के देखते हो, जिनके सामने तुम विनम्र रहते हो।

तो उनसे कहो कि तुम जिसको भी अपने इष्टदेव की तरह देखते हो, जब निर्णय लेने का मौका आये तो अपने-आप से यही सवाल पूछ लिया करो, "इस घड़ी में मेरे इष्टदेव क्या करते? अगर मैं वाकई उनकी साधना करता हूँ, अगर मैं वाकई उनके सामने नमित हूँ, तो आदर्श बनाकर ही सही, मैं यह पूछ लूँ कि - अगर ऐसा मौका होता तो वह क्या करते?"

अच्छा छोड़ो, और नहीं कुछ समझ में आ रहा, आचार्य जी को सुनते हो? तो निर्णय लेने की बेला में यही पूछ लो कि - इस तरह के मौकों पर आचार्य जी ने क्या करने की सलाह दी है? ये एक सूत्र मात्र है। बिल्कुल आरंभिक सूत्र है जिन्होंने अभी-अभी शुरुआत की हो उनके लिए। क्योंकि अगर तुम ये भी नहीं कर पा रहे तो ये दोगलापन हुआ न?

एक तरफ तो तुम कह रहे हो कि तुम किसी को अपना आदर्श मानते हो और दूसरी तरफ तुम कह रहे हो कि जैसा उसने जीवन जिया वैसा जीवन तुम जीना भी नहीं चाहते। एक तरफ तो तुम कह रहे हो कि कोई तुम्हारा आदर्श है और दूसरी तरफ तुम कह रहे हो कि उसने जैसे निर्णय लिए थे हम वैसे निर्णय नहीं लेना चाहते, तो ये पाखंड हुआ कि नहीं हुआ?

तो निर्णय लेने की घड़ी में यही सवाल कर लिया करो अपने-आप से कि - "अभी क्या मैं हूँ कृष्ण जैसा? अभी हूँ मैं अर्जुन जैसा? अभी मैं कैसा हो रहा हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं वही काम कर रहा हूँ जो दुर्योधन ने किये थे? और अगर मैं वही करने जा रहा हूँ जो दुर्योधन ने किया था तो मैं दुर्योधन ही हूँ। और अगर मैं दुर्योधन ही हूँ तो फिर मैं अपने-आप से ये हक वापस लेता हूँ कि अब मैं कभी भी कृष्ण को पूजूँगा।"

दुर्योधन हो तुम तो फिर दुर्योधन की तरह रहो। दुर्योधन क्या जाता था कृष्ण को पूजने? जाता था? तो फिर तुम भी कभी मत जाना कृष्ण को पूजने। अब दुर्योधन बन गये हो तो पूरी तरह दुर्योधन ही बनो। अब ख़बरदार जो तुमने कृष्ण मंदिर में प्रवेश किया तो! अब जाना मत, अब तुम दुर्योधन हो। और अगर कहते हो कि कृष्ण आदर्श हैं मेरे, तो फिर वो करो जो कृष्ण ने किया।

यहाँ बड़ी विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। एक से एक कायर, कमज़ोर बता रहे होंगे - "हमारे आदर्श हैं श्रीराम"। उनके पास तो कुछ नहीं था तो वह जंगल के बंदर भालू की सेना बना कर भी लंकेश से भिड़ गए थे और तुम अपनी हालत देखो। तुम जीवन की साधारण चुनौतियों का भी सामना नहीं कर पाते और कहते हो हम राम मंदिर जा रहे हैं - जय श्रीराम!

अगर 'जय श्रीराम' कह रहे हो तो जीवन की चुनौतियों का सामना करने की सामर्थ्य भी तो दिखाओ। राम ने चुनौती स्वीकार की थी या भाग गए थे वापस? तुम अगर भगोड़े हो जीवन के सामने, डरपोक हो तो क्या 'जय श्रीराम' 'जय श्रीराम' करते हो।

रावण वही नहीं होता किसके दस सिर हैं, दशानन है, लंकेश है तो ही रावण है; जो कोई अधर्म के रास्ते पर चल रहा हो वही रावण है। असली रावण तो तुम्हारे भीतर ही बैठा है न, क्योंकि तुम्हारे ही चित्त में अधर्म के प्रति बड़ा लगाव है।

रावण रोज-रोज खड़ा होता है सामने। अगर उससे नहीं लड़ते तो अपने आपको राम भक्त कहने का क्या अधिकार है तुमको?

तुम्हें डर सता रहा है, तुम्हें लालच लग रहा है और तुमने लालच के सामने घुटने टेक दिये और फिर बोल रहे हो - जय श्रीराम! ये पाखंड हुआ न?

राम ने अयोध्या के सिंहासन का लालच किया था?

किया था क्या?

वो तो लालच त्यागकर के चल दिये थे वन की ओर, और तुम सुबह से लेकर शाम तक रोज लालच के सामने घुटने टेकते हो और उसके बाद कहते हो, "हम राम भक्त हैं" - ये गलत हुआ न?

तो ऐसे निर्णय कर लिया करो कि जिसको भी अपना इष्ट मानते हो, इस स्थिति में वो क्या करते? और जो भी लोग आदर्श बनने लायक रहे हैं, गौर से देखोगे न तो सभी ने एक ही बात बतायी है अलग-अलग तरीकों से। किसी ने तुम्हें ये नहीं सिखाया है कि जब लालच सताये तो लालच के आगे समर्पण कर दो। किसी ने सिखाया है?

फर्क नहीं पड़ता तुम किसे अपना इष्ट मानते हो। किसी भी इष्ट ने यह शिक्षा तो नहीं दी होगी, या दी है? पर हम ऐसे लोग हैं जो अपने इष्टदेव के साथ भी वफ़ादारी नहीं करते। वफ़ा तो हम जानते ही नहीं हैं। वफ़ा माने - निष्ठा। निष्ठा हमारी है भी तो जबानी है, जबान से हम बोल देंगे; हम इनको पूजते हैं, सम्मान देते हैं, इनको अपना कुलदेवता मानते हैं, फलाने हमारे इष्टदेव है; ये सब बातें जबानी हैं।

जो तुम्हारा इष्टदेव हो, जो तुम्हारा पूज्य हो, जो तुम्हारे लिए आराध्य हो, फिर उसके समान जीवन भी तो जी के दिखाओ न। अरे! ठीक उसके जैसा नहीं जी सकते तो कम-से-कम उसकी छाया ही बन के दिखा दो। उसके बराबर नहीं चल सकते तो उसके अनुगामी ही बन के दिखा दो। पर तुम तो उसके बराबर चलना तो छोड़ो, उसका अनुगमन करना तो छोड़ो, उसके विपरीत चल के दिखा देते हो। ये बात ही बड़ी अजीब है।

कहते हो अपने आप को राम भक्त और चलते हो राम के विपरीत!

कहते हो कि मैं तो क्रांतिकारियों का बड़ा कायल हूँ, बड़ा फैन हूँ और निजी जीवन में जब क्रांति करने की बारी आती है तो हवा निकल जाती है। ये दोगलापन है।

बच्चों को यही सिखाइए कि जो कोई तुम्हें इतना ऊँचा, इतना सुंदर, इतना प्यारा लगता हो कि तुम्हारा मन करता हो कि इसी के सामने सर झुका दे, फिर उसके जैसी ज़िंदगी भी बिताना। जिसके सामने सिर झुका दिया, ज़िंदगी भी उसी के जैसी बिताओ। ये नहीं कि सिर तो झुका रहे हो सूरज के सामने और ज़िंदगी बिता रहे हो अंधेरे में।

भूला नहीं करो कि जो भी तुम्हारा आराध्य हो, है तो वो भी तुम्हारी ही तरह हाड़-माँस का ही न। दैवीयता भले उसमें उतरी हो लेकिन जमीन के तल पर तो वह तुम्हारी तरह हाड़-माँस का ही पुतला है। अगर वो एक अद्भुत, उज्ज्वल जीवन जी पाया तो तुम क्यों नहीं जी सकते? और भूलो नहीं उसने जो जीवन जिया है उस जीवन से तुम्हें प्यार है तभी तो वह व्यक्ति तुम्हारा आराध्य है। अगर वो वैसी ज़िंदगी जी गया तो तुम क्यों नहीं जी सकते? या तो उसके जैसी ज़िंदगी जियो या दोबारा ये मत कहना कि ये मेरे आदर्श हैं और आराध्य हैं। दोबारा कहना मत।

प्रः आचार्य जी, हम अपना आराध्य कैसे चुने?

आचार्यः जैसे चुनना हो वैसे चुनो, पूरी छूट है। ये सिर जिस भी उज्ज्वल और ऊँचे रूप के सामने झुकता हो, झुकने दो, बहुत विकल्प हैं।

सब लोगों की अलग-अलग संस्कृतियाँ होती हैं, अलग-अलग संस्कार, अलग-अलग रुझान होते हैं। अपने रुझान के मुताबिक जो तुम्हें सबसे उज्ज्वल और आकर्षक लगता हो तुम सिर उसी के सामने झुका दो। परमात्मा तो हजारों तरीके से अवतार लेता है, तुम्हें जो अवतार भाता हो, तुम उसी के उपासक हो जाओ। लेकिन जिसके उपासक हो जाओ फिर उसकी उपासना ईमानदारी से करो।

तुम 'बुद्ध' भले लगते हो तो फिर तुम चीखते-चिल्लाते नजर नहीं आ सकते, कि एक तरफ तो कह रहे हो कि 'बुद्ध' मुझे बहुत भाते हैं और दूसरी और गली में शोर मचा रहे हो, हाय-हाय कर रहे हो। बुद्ध ने शोर का पाठ पढ़ाया था या मौन का जीवन जिया था? तो तुम कैसे उपासक हो बुद्ध के, जो हर समय चिल्लाते चीखते ही नजर आते हो? कभी होठों से चिल्लाते हो और कभी अंतर चीख पुकार मची रहती है।

कौन-सा तुम्हें अवतार भाएगा - वो अवतार जो तुम्हारी स्थिति से ज़रा मेल खाएगा, ज़रा सहायक होगा। उदाहरण दिये देता हूँ - अगर पैसा है तुम्हारे पास, सांसारिक सुख-वैभव है तुम्हारे पास, और फिर भी चैन नहीं है तो संभावना यही है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे - बुद्ध।

और अगर तुम्हारी स्थिति यह है कि शोषण में जी रहे हो, प्रताड़ना में जी रहे हो, बुरी सामाजिक स्थितियों में जी रहे हो, दुश्मन आक्रामक है और वो तुम्हें धर्म का पालन नहीं करने दे रहा तो संभावना है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे - गुरु गोबिंद सिंह। अगर ऐसे राजनैतिक माहौल में जी रहे हो जहाँ किसी दूसरे ने तुमको राजनैतिक गुलामी में डाल रखा है तो संभावना है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे - भगत सिंह।

स्त्री हो, ऐसे परिवार में हो जहाँ नास्तिकता प्रचलित है पर तुम्हारे मन में भक्ति उदित हो रही है तो संभावना है कि तुम्हारी आदर्श बनेगी - मीराबाई। तो कौन बनेगा तुम्हारा आदर्श, वो तो तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता है। अपनी स्थिति के अनुसार देख लो कि कौन पूजनीय है तुम्हारे लिए। लेकिन जिसको आदर्श बनाओ फिर उससे निष्ठा निभाओ। फिर ये नहीं कि मैं तो मीराबाई की पुजारिन हूँ, और हर रविवार बीस-चालीस हजार की खरीददारी, शॉपिंग करनी तो जरूरी है, ये नहीं चलेगा।

प्रः जब कोई किसी को भी आदर्श बनाता है और चूँकि वो उसके अंदर से तो आता नहीं है, तो अभिनय से शुरुआत करता है, तो क्या ये सही है?

आचार्यः घटिया पात्रों का अभिनय किये जा रहे हो इससे अच्छा तुम राम का अभिनय ही कर लो। तुम रावण का अभिनय कर-करके दूसरों की पत्नियाँ उठाए लिये जा रहे हो तो तुम राम का अभिनय भी सीख लो कि धर्म के लिए लड़ूँगा। अगर तुम्हारी आत्मा जागृत नहीं हुई है तो तुम्हें अभिनय में ही जीना पड़ेगा न? 'अहंकार' तो सिर्फ अभिनय करता है, अभिनय माने नकल। मौलिकता तो सिर्फ आत्मा में होती है। आत्मा अगर जाग्रत नहीं है तब मौलिक तो तुम्हारे पास कुछ हो नहीं सकता। तुम अभिनय में ही जिओगे। मेरी बात थोड़ी अजीब लग रही होगी लेकिन बहुत व्यावहारिक है। मुक्ति का इसमें सूत्र है। जब तुम नकल में ही जीते हो तो रावण की नकल क्यों करते हो, राम की ही कर लो भाई!

ऐसा तो नहीं है कि जब तुम रावण हो तो मौलिक हो और जब राम की नकल कर रहे हो तभी नकलची हो। नकलची तो तुम लगातार हो। लेकिन हमारी बड़ी अजीब विधि है, दुनिया की रीति देखो - कोई रावण की नकल कर रहा हो तो हम उसको नहीं कहते कि "अरे! नकली आदमी है, ये तो नकल ही कर रहा है।" लेकिन जब कोई राम की नकल करने लगता है तो हमें बड़ी तकलीफ होती है, हम कहते हैं, "देखो, यह न तुम सिर्फ नकल उतार रहे हो आदर्शों की।"

भाई! जब तुम घटिया काम कर रहे होते हो, जब तुम एक से एक गिरी हुई और घिनौनी हरकत कर रहे होते हो, तब भी तो तुम नकल ही उतार रहे होते हो न?

या तुम ये कह रहे हो कि तुम मौलिक रूप से गिरे हुए और घिनौने हो? नहीं, तुम मौलिक रूप से तो गिरे हुए या घिनौने नहीं हो लेकिन फिर भी तुम गिरे हुए, घटिया और घिनौने काम कर रहे हो। यानी जब तुम गिरे हुए हो तब भी नकल ही कर रहे हो।

तो मैं कह रहा हूँ - नकल करने में बुराई क्या है?

हाँ, बुरे की नकल करने में बुराई है।

नकल करने में नहीं बुराई है पर बुरे की नकल क्यों करते हो? नकल ही जब करनी है तो अच्छे की कर लो न। अच्छे की नकल करते-करते क्या पता एक दिन अच्छे ही हो जाओ। और अगर नहीं भी हुए अच्छे तो कम से कम बुरे की नकल करने से तो बचोगे। इसके अलावा मैं तुम्हें सलाह भी क्या दूँ? क्योंकि नकलची तो हो ही।

आत्मा जाग्रत हो, मन आत्मा में डूबा हो तो किसी की नकल की जरूरत नहीं पड़ती। राम थोड़ी किसी की नकल कर रहे थे। वो तो मौलिक थे। पर हमें तो नकल में ही जीना है। हम तो अभी साधना के पहले ही चरण में हैं तो हमें तो किसी ना किसी को आदर्श बनाना पड़ेगा। हमें किसी ना किसी का अनुकरण तो करना पड़ेगा। हम अभी ये नहीं कह सकते कि - तुम किसी का अनुकरण मत करो, जब तुम किसी को आदर्श मत बनाओ। अगर ये बात कह दी तो बड़ा नुकसान हो जाएगा।

वो बात आखिरी होती है कि जब तुम किसी का अनुगमन ना करो, जब तुम किसी को आदर्श ना बनाओ। वह बिल्कुल आखिरी बात है। वो बात अवतारों, ऋषियों, पैगंबरों को शोभा देती है कि हम ऑरिजनल हैं, हम मौलिक हैं, हमने किसी की नकल नहीं की।

वो बात किसको शोभा देती है?

वो जो लाखों में एक होते हैं, उनको शोभा देती है।

बाकियों के लिए, जो अभी-अभी साधना की शुरुआत कर रहे हैं उनके लिए तो यही अच्छा है कि जब नकल करते ही हो तो नकल रावण की जगह राम की कर लो भाई।

ऐसा तो नहीं है कि राम की नकल नहीं करोगे तो तुम नकल करना ही बंद कर दोगे। जो राम की नकल नहीं करेगा तो क्या करेगा? "रावण की नकल करेगा।"

नकल करनी ही है, मजबूरी ही है नकल करनी तो सही नकल करो।

आदर्शों का अपना महत्व है। हाँ, एक स्थिति आती है, एक मुकाम आता है जिसके बाद सब आदर्शों का त्याग कर देना चाहिए। पर जो बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, अज्ञान से घिरा हुआ है अगर वह साधना के प्राथमिक चरण में ही कह देगा कि मुझे किसी को आदर्श नहीं बनाना तो वह कोई प्रगति भी नहीं कर पाएगा। तो शुरु में तो तुमको किसी न किसी को आदर्श बनाना ही पड़ेगा। आदर्श किसको बनाना है, इसकी हमने चर्चा कर ली।

किसको बनाना है?

अपनी हालत को देखकर बनाना है। तुम्हारी हालत में जो तुम्हारा सहायक हो सके, उसको अपना आदर्श बनाओ, और फिर उसके नक्शे कदम पर चलते जाओ।

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