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लेख
क्या अपने पिछले जन्म को जाना जा सकता है? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: ओशो ने जाति-स्मरण के बारे में काफ़ी बोला है। वे अपने शिष्यों को बोलते थे कि तुम जाति- स्मरण में जाओ, उससे तुम्हें साधना में मदद मिलेगी।

जाति-स्मरण क्या है और इसमें कैसे जाया जाए?

आचार्य प्रशांत: कल वो कुत्ता हमारे साथ बाहर निकला, बाकी सबने उसपर भौंकना शुरू कर दिया। ये काम क्या सिर्फ़ कुत्ते ही करते हैं? कोई बाहर वाला आ गया तो उसपर भौंकना शुरू कर दिया। ये काम क्या सिर्फ़ कुत्ते ही करते हैं? इंसान भी करते हैं। तो बस कुत्तों को देख कर तुम्हें याद आ जाएगा कि कभी तुम भी कुत्ते थे। यही है जाति-स्मरण। बीज को वृक्ष बनते देख रहे हो न? देखा है न! तो तुम भी तो छोटे-से बीज थे इतने बड़े वृक्ष हो गए हो। दिख नहीं रहा कि बात एक ही है?

आमतौर पर तुम मुहावरा भी तो ऐसे ही इस्तेमाल करते हो, “क्यों बिल्लियों की तरह झगड़ रही हो?” जब दो लड़कियों को लड़ते देख कर के तुम्हें तुरंत याद आ जाता है कि बिल्लियाँ भी ऐसे ही लड़ती हैं। तो याद आ गया न तुम्हें कि कभी तुम बिल्ली ही थे। और वो बिल्ली तुम्हारे भीतर से अभी तक निकली नहीं है। तभी जैसे बिल्लियाँ लड़ती हैं वैसे ही तुम लड़ रहे हो। और जैसे कुत्ते लड़ते हैं वैसे ही तुम लड़ रहे हो। और जैसे नर पशु मादा पशु का पीछा करता है वैसे ही तुम मादाओं का पीछा कर रहे हो। और जैसे पशु रोटी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है वैसे ही तुम रोटी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो। यही है जाति-स्मरण।

व्यक्तिगत कुछ भी याद नहीं रहेगा। तुम्हें ये तो साफ़ दिखाई पड़ सकता है कि तुम कभी बिल्ली थे पर तुम्हें ये नहीं साफ़ दिखाई दे सकता कि कभी तुम पिंकी नामक बिल्ली थे। व्यक्तिगत नहीं कुछ याद आएगा। जो कुछ व्यक्तिगत होता है वो तो देह के साथ मिट जाता है। तुम्हें अपना पशुत्व तो याद आ सकता है। समझो। तुम्हें अपना पशुत्व तो साफ़ दिखाई पड़ जाएगा पर तुम कौनसे विशिष्ट विलक्षण पशु थे वो तुम्हें नहीं याद आएगा। कि तुम कहो कि, “मैं कभी मेहू नामक गाय हुआ करता था।" ना! ये नहीं। ना तुम ये कह सकते हो कि, “मैं कभी सुंदर नगर में एक बंदर हुआ करता था।” बंदर थे तुम ये पक्का है पर अगर तुम ये याद करने लग गए कि तुम सुंदर नगर में बंदर थे तो ये तुम ग़लत बोल रहे हो। तुम बंदर मात्र थे। तुममें वानरत्व है। तुममें सभी बंदरो की मूल वृत्ति मौजूद है। वो एक बात होती है। बात समझ रहे हो न?

पर तुम यह कहने लग जाओ कि “मैं वो ख़ास बंदर हूँ जो उस सुंदर नगर के चौराहे वाले पीपल के पेड़ पर बैठता था।" तो ये तुम ज़बरदस्ती की बात कर रहे हो, बेवकूफ़ी की बात है।

प्र: आचार्य जी, लेकिन शारीरिक मृत्यु के बाद सारी सूचना जो हमारे अंदर है वो तो नष्ट हो जाएगी?

आचार्य: वो जो टेंडेंसी है, वृत्ति है वो वृत्ति समय में बहती चली आ रही है। तुममें भी मौजूद है। वो जो वृत्ति है वो निरव्यक्तिक है, इमपर्सनल है। तो तुम्हें पर्सनल तौर पर नहीं कुछ याद आ जाएगा कि, “मैं अभी एक व्यक्ति हूँ और तब मैं एक दूसरा व्यक्ति था”, ना!

वृत्ति कायम है व्यक्ति चला गया। वृत्ति आगे को प्रवाहमान रहती है, व्यक्ति का तो एक ही जन्म होता है, व्यक्ति मिट जाता है। वृत्ति का पुनर्जन्म होता रहता है।

प्र: आचार्य जी, इन वृत्तियों को जान लेने के बाद हमें अध्यात्म में सहायता कैसे मिलेगी?

आचार्य: अच्छा नहीं लगेगा। अहंकार को थोड़ी चोट लगे, अच्छा ही है। बड़े सम्मानीय बनते हो। और पाओ तुम कि अपने महल में जो हरकतें कर रहे हो वो हरकतें वास्तव में वही हैं जो कुत्ते सड़क पर कर रहे हैं। तो तुम्हारे सम्मान को, अभिमान को चोट लगेगी न। अच्छा है चोट लगे।

क्योंकि महलों के भीतर भी जो हरकतें चलती हैं वो हरकतें हैं तो गली की ही। बस कुत्ते खुलेआम करते हैं। जब महलों में होती हैं तो बंद दरवाज़ों के पीछे होती हैं, सम्माननीय कहलाती हैं। तो जिसको दिख जाए कि जिस तरीके से वो जी रहा है वो तरीका पूरे तरीके से, पूर्ण-रूपेण पशुओं का ही तरीका है, उसको ज़रा झटका लगेगा, उसकी आँखें खुलेंगी।

बंदर दिन भर फिरता है, क्या कर रहा होता है? या तो कुछ उपद्रव, बेवकूफ़ी या फिर पेट भरने का इंतज़ाम, या तो दूसरे बन्दरों को दाँत दिखा रहा होगा, दौड़ा रहा होगा या किसी बंदरिया के पीछे भाग रहा होगा, या कहीं से कुछ खाने-पीने का चुरा रहा होगा, पेड़ से पत्ते तोड़ दिए, शाख तोड़ दी। और आम आदमी क्या करता है दिन भर? वो भी तो यही करता है दिनभर। पेट भरने का ही तो कार्यक्रम करता रहता है दिनभर। दिनभर पेट भरने के लिए घूमता है और जब दफ़्तर से वापस आता है तो बंदरिया से खै-खै करता है। तो तुममें और बंदर में अंतर क्या है? बंदर की भी ज़िन्दगी में दो ही चीज़ हैं; पेट और बंदरिया। तुम्हारी भी ज़िन्दगी में दो ही चीज़े हैं या तो दफ़्तर है या वापस आओगे तो बंदरिया है। और उस बंदरिया के साथ भी दो ही तरीके का रिश्ता है। बंदर-बंदरिया कभी साथ बैठ करके ध्यान भजन तो करते नहीं। बंदर-बंदरिया या तो एक दूसरे का मुँह नोचते हैं या फिर कामवासना में लिप्त रहते हैं। तो तुम भी तो जब घर आते हो तो बंदरिया से दो ही तरीके का रिश्ता रखते हो, या तो एक दूसरे का मुँह नोंच लेंगे या फिर बिस्तर में रोल-पोल करेंगे।

जैसे ही ये बात साफ़ दिखाई देगी बड़ी शर्म आएगी। लो हो गया जाति-स्मरण, सब साफ़ हो गया। कि हम बन्दर थे नहीं, बंदर हैं। और पहले तो ज़रा ईमानदार बंदर थे, जो कर रहे थे खुले में कर रहे थे। अब बड़े बेईमान बंदर हैं। वृत्ति अनावृत हो गई। भीतर की जो पशु-वृत्ति है उसका खुलासा हो गया, उद्घाटन हो गया। अब चूँकि उसका खुलासा हो गया इसीलिए अब तुम उसके पार जा सकते हो। अब तुम उसे जीत सकते हो।

प्र: आचार्य जी, मुझे उस वृत्ति के बारे में कैसे पता चलेगा, कि वो मुझमें पहले भी थी और आज भी है?

आचार्य: तुम्हें ये निष्कर्ष करने की ज़रूरत ही नहीं है कि पहले क्या था। अध्यात्म तुक्के मारने का नाम नहीं है, अनुमान लगाने का नाम नहीं है। तुम बस इतना देख लो कि अभी तुम जैसे हो तुम निन्यानवे-प्रतिशत जानवर ही जैसे हो, तो बहुत है। ये सब मान्यता बनाने की, अनुमान करने की ज़रूरत नहीं है कि कैसे, “मेरे भीतर की कौनसी वृत्ति मगरमच्छ से आई है, हाथी से आई है, गाय से आई है, कुत्ते से आई है।" छोड़ो, वो सब अनावश्यक है। इतना तो साफ़ दिख रहा है न कि अभी तुम्हारी हरकतें कुछ गीदड़ जैसी हैं, कुछ साँप जैसी हैं, कुछ गाय जैसी हैं, कुछ बिल्ली जैसी हैं। दिख रहा है न? बस इतना बहुत है देख लेना। ये देख लो।

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