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लेख
कृष्ण का वक्तव्य कृष्ण से ही सुनो || महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
10 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मेरा प्रश्न है कि युद्ध के मैदान में अर्जुन अपनों को सामने पाकर मोहवश उदास होता है, कहता है कि, "मैं अपने सगे-संबंधियों को कैसे मार सकता हूँ! यह उचित नहीं।" तो श्रीकृष्ण उससे कहते हैं कि जब सिद्धांतों की लड़ाई होती है, तब केवल कर्तव्यों का ही ध्यान रखा जाता है। इस कथन को मुझे किस प्रकार समझना चाहिए, कृपया समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: कृष्ण ने कभी ऐसा कुछ कहा ही नहीं तो मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि इस कथन का आशय क्या है? यह कहाँ से उठा लाए, बेटा?

गीता उपलब्ध है न, गीता को सीधे पढ़ो। गीतासार मत पढ़ा करो, गीता के अनुवाद मत पढ़ा करो, गीता पर जो टीका-टिप्पणी होती है, वो न पढ़ा करो। यह तो तुम जो महाभारत सार पढ़ रहे थे, उसमें गीता की चंद पंक्तियाँ लिखी हुई थीं, उसमें से तुम उठा लाए। गीता को महाभारत का हिस्सा ही भर मत मान लेना, गीता को चंद पंक्तियों भर में ही मत समझ लेना। बिलकुल भी नहीं कहा है यह कृष्ण ने, बल्कि कृष्ण की बात इसके बिलकुल ही विपरीत है।

तुम कह रहे हो, "जब सिद्धांतों की लड़ाई होती है, तब केवल कर्तव्यों का ही ध्यान रखा जाता है।" कृष्ण ने इसका बिलकुल विपरीत बोला है। कृष्ण तो कह रहे हैं कि कर्तव्य तो छोड़ो, तुम अपने सारे धर्मों को ही छोड़ दो – "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।" तुम कह रहे हो कि कृष्ण कह रहे हैं कि कर्तव्यों का पालन करो, वो तो कह रहे हैं कि सब धर्मों का भी परित्याग कर दो। एक ही धर्म है – कृष्ण का अनुसरण, और कोई धर्म भी नहीं होता। तुम कर्तव्य के तल पर ले आए कृष्ण को?

ऐसे ही एक गीता को ले करके चलता है, उसमें तमाम पोस्टर रहते हैं – "जो हुआ सो अच्छा हुआ, जो हो रहा है सो अच्छा हो रहा है, जो होगा सो अच्छा होगा", और उसमें कृष्ण की तस्वीर चिपका दी जाती है। कृष्ण भी ताज्जुब करते होंगे, “ऐसा तो कभी बोला नहीं!” पोस्टर लेकिन धड़ल्ले से बिकता है।

बड़ा अच्छा लगता है — जो हो रहा है, सब बढ़िया हो रहा है। थोड़ी देर पहले ही मुँह फुड़वाकर आए हैं, नशे में थे, गड्ढे में गिरे — जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। दारू की अगली बोतल खोलने की तैयारी है — आगे भी अब जो होगा, अच्छा ही होगा। बुरा तो मानो ही मत। कीचड़ में गिरो, गोबर से लथपथ रहो, और अपनी हालत पर लाज न आए इसलिए इस वक्तव्य का सहारा ले लो – जो हुआ सो अच्छा ही हुआ। बढ़िया है, जो हो रहा है सो अच्छा ही हो रहा है।

तुम नहीं जानते कि जो हो रहा है, वह दुर्दशा है तुम्हारी? तुम्हें वाक़ई लगता है कि जो हो रहा है, अच्छा ही हो रहा है?

जो हो रहा है, अगर अच्छा हो रहा है, तो तुम्हारा थोपड़ा ऐसा क्यों है? आँखें देखो अपनी, ये अच्छेपन का सबूत हैं?

ज़िंदगी से मुँह चुराना पड़ता है, नज़र झुकानी पड़ती है — यह शुभ संकेत है? चोरों की तरह सच से डरे-छुपे फिरते हो, यह अच्छा हो रहा है?

लेकिन, साहब, पोस्टर धड़ल्ले से बिक रहा है, नाम नीचे चिपका दिया है श्रीकृष्ण का, और श्रीकृष्ण ही नहीं, नीचे साथ में यह भी लिख देते हैं, ‘गीतासार’। कौन-सा अध्याय, भाई? कौन-सा श्लोक? हमें भी बता दो।

अगला भी प्रश्न वही है, उद्धरित किया है, कोटेशन मार्क्स के साथ है बिलकुल, श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, "कर्तव्य का पालन करते समय मनुष्य को मोह-माया इत्यादि से दूर रहना चाहिए।"

तुम अर्जुन के मुँह में भी शब्द ठूँस दोगे और कृष्ण के मुँह में भी?

कह रहे हैं कि महाभारत पढ़ते हुए यह प्रश्न उठा कि “यह सब क्या प्रभु की ही लीला है, सब खेल है जिसमें पहले से किरदार निर्धारित थे? कुछ नायक, कुछ खलनायक, सबने अपना किरदार निभाया, यह सब पहले से ही तय था? हम तो जिसे अपना कर्तव्य मानते हैं, वह तो उठा ही राग-द्वेष, मोह-माया से है, फिर सच्चा कर्तव्य क्या है?”

सिद्धांतों से नीचे उतरो। यह मत पूछो कि जो हुआ, क्या वो प्रभु की लीला थी, किरदार वगैरह इत्यादि। तुम मुझे यह बताओ कि तुम्हारी ज़िंदगी में जो कुछ घट रहा है, क्या तुम उसे लीला की तरह देख पाते हो?

मैं कह दूँ, “हाँ, महाभारत तो कृष्ण की लीला भर थी। सब कठपुतली थे और सबकी डोर कृष्ण के हाथ में थी, और कृष्ण ने सबको नचाया और बढ़िया तमाशा चला, कह लो कई शताब्दियों का या कह लो अट्ठारह दिन का। सबका बड़ा मनोरंजन हुआ क्योंकि लीला का तो अर्थ ही है क्रीड़ा। सबने तमाशा देखा, खेल ख़त्म।” यह मैं कह सकता हूँ, इससे तुम्हारा क्या लाभ होगा? तुम्हारे जीवन में तो जो कुछ चल रहा होगा, तुम तो उसके प्रति गंभीर ही रहोगे।

बैठे महाभारत पर चर्चा कर रहे हो और कह रहे हो, "अरे! ये जो दस लाख लोग मरे, ये तो बस लीला थी", और तभी बाँह में मच्छर काट जाता है और कहते हो, "भाग ससुरे!" दस लाख लोग मारे तो वह तो लीला थी, और तुम्हारी बाँह पर मच्छर काट गया तो यह यथार्थ है, अब यह लीला नहीं है? तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में जो कुछ हो रहा है, वह यथार्थ है, तुम्हारे जीवन का तो मच्छर भी यथार्थ है, क्योंकि तुम सबसे बड़े यथार्थ हो न? अहंकार यही तो कहता है कि, "एक हम सबसे बड़े सत्य हैं! जब हम सबसे बड़े सत्य हैं, तो हमारी बाज़ू पर जो मच्छर बैठा हो, उसे भी सत्य होना पड़ेगा, पर बाक़ी सब लीला है।"

पड़ोसी मर गया, वह तो लीला है, अपनी साइकल में पंक्चर हो गया, तो यह कलियुग है और महापाप है। आसमान से विमान नीचे गिर गया, ढाई-सौ लोग मर गए। “अरे, कुछ नहीं, न कोई मरा है, न कोई जिया है, आत्मा का कोई जन्म-मृत्यु होता है? कुछ नहीं है, यह तो बस लीला है।” यहाँ अपनी साइकिल में पंक्चर हो गया तो दुनिया को गरिया रहे हो कि सरकार गिरा देनी चाहिए। सड़क पर कंकड़ कितने हैं! वो भी ठीक हमारे घर के सामने। हमारी सड़क पर कंकड़ हैं, तो सरकार गिरनी चाहिए, भारत भर की नहीं, पूरी दुनिया की सरकारें गिराओ।

कृष्ण गोपियों के साथ रास करते हों, तो कहोगे कुछ हुआ ही नहीं, लीला है। और तुम्हारे पड़ोस में लीला देवी रहती हों, उन पर गिरे जा रहे हो, मरे जा रहे हो, मुँह, हाथ, घुटना, ईमान सब तुड़वा चुके हो, तो तब तो लीला देवी भी लीला नहीं है।

क्या फ़र्क़ पड़ता है? और यह प्रश्न बहुत पूछे जाते हैं। मुझे माफ़ करना अगर मैं थोड़ा उग्र होकर जवाब देता लगूँ तो, पर मैं इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यह बात हमेशा पूछी जाती है। “सीता का हरण हो गया, राम रो रहे थे, वो लीला ही थी न?” हाँ, थी लीला। वह लीला ही थी, तो उससे क्या हो गया? राम तो रो रहे थे कि सीता का हरण हो गया, तुम रोते हो कि तुम्हारी पत्नी का हरण नहीं हो रहा। अरे, अपनी ज़िंदगी की बात करो, भाई।

वो सुना है न, एक आदमी रो ही नहीं रहा था जब उसकी बीवी मर गई। बैठा हुआ है अपना, उसको देख रहा है, वो मरी पड़ी है। लोगों ने कहा कि यह तो बड़ी बदनामी की बात है, रोना चाहिए। तो एक बोला कि, "अभी रुलाए देता हूँ", वह गया और कान में कुछ फूँककर आया, वह फूट-फूटकर रोने लग गया, अपनी छाती पीटकर रोने लग गया। लोगों ने कहा, “क्या बोला था?” कहने लगा, “मैंने बोला कि पक्का नहीं है कि मरी है।”

तुम्हारे जीवन में जो कुछ हो, वो सब बहुत कीमती, उसके प्रति बड़ी गंभीरता, उसको ऐसे देखोगे, “अरे, आज दो रुपया नहीं मिल रहा है, काम वाली ने चुराया है क्या?” उससे कहोगे कि, "पूरी तलाशी दे, दो रुपया मिलना ही चाहिए।" और बैंक लुट जाए कोई दूर का, तो लीला है। अपने जीवन में ज़रा निस्पृह हो पाओ, निरपेक्ष हो पाओ, तो ‘लीला’ शब्द उच्चारित करना, नहीं तो काहे को ‘लीला-लीला’?

इंटरनेट पर वीडियो पड़ा हुआ है, जाने वो सत्संग दे रहे हैं, जाने कुछ पढ़ा रहे हैं, पहले देखा था, पर वो जो कुछ कह रहे हैं, उसका लब्बोलुवाब यही है कि यह सब यूँ ही है, आँखों का खेल है, इंद्रियों का धोखा है, बेकार है। और एक छिपकली गिर पड़ती है उनके ऊपर, पढ़ाते-ही-पढ़ाते पट्ट से गिरी, वो उछलकर भागे, टेबल -वेबल गिरा दी, पन्ने बिखरे पड़े हैं। एक ज़रा-सी छिपकली तो लीला लगती नहीं, बाकी क्या लीला है!

फिर पूछ रहे हो कि “सच्चा कर्तव्य क्या है?”

इसका उत्तर दे चुका हूँ। मत पूछा करो कि सच्चा कर्तव्य क्या है, बड़ी अकड़ है इस सवाल में। तुम ऐसे पूछ रहे हो कि जैसे पुश्तैनी हक़ हो तुम्हारा सच पर। "सच बताओ!"

तुममें क्या योग्यता है, क्या पात्रता है कि तुम्हें सच बताया जाए? और तुम्हें क्यों लग रहा है कि तुम्हें आज तक सच बताया नहीं गया, कि जैसे सच कहीं छुपा हुआ है तुमसे डर करके और तुम खोजने निकले हो कि, "इस ससुरे सच को तो खोजकर निकालूँगा! हम कुछ हैं ही ऐसे दबंग कि हमारे सामने सच छुप जाता है, तो हम सत्य की तलाश में निकले हैं।”

जैसे लोग अपने कुत्ते की तलाश में निकलते हैं जो शाम को खो गया है, तो ऐसे ही बड़े-बड़े खोजी हैं जो बताते हैं कि हम तो सत्य के पथिक हैं, हम सच की तलाश में निकले हैं।

“क्या कर रहे हैं?”

“खोजी हैं।”

“क्या खोज रहे हैं?”

“परमात्मा।”

"अच्छा, दुबक गया होगा कहीं। आपका जलवा ही कुछ ऐसा है!"

सच को मत खोजो, तुम जहाँ खड़े हो, तुम झूठ को खोजो। झूठ को खोजो, आसानी पड़ेगी, बहुत सारा है, सामने है, भीतर है, लगातार है।

मत पूछो कि, "मेरा सच्चा कर्तव्य क्या है?" पूछो कि, "जिन कर्तव्यों का पालन किए जा रहा हूँ, इनमें कितना सच है?" पूछो कि ये कहाँ से आए। ख़ुद ही कह रहे हो न कि ये आते हैं राग-द्वेष, मोह-माया से। अगर यहाँ से आते हैं, तो फिर बताओ कि क्यों इनका पालन किए जाते हो।

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