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लेख
किसको मूल्य दे रहे हो?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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नाम राम को अंक है, सब साधन है सून।

अंक गए कुछ हाथ नहिं, अंक रहे दस गून।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: तुमने अपनी ज़िंदगी में जो इकट्ठा किया है, सब ‘सून' है। अब सून को सूना मानो चाहे शून्य मानो—असल में दोनों एक ही धातु से निकलते हैं। जिसे तुम कहते हो न ‘सूनापन’, वो शून्य से ही आता है। तुमने ज़िंदगी में जो कुछ इकट्ठा किया है, वो सून है, वो शून्य है। वो तुम्हें सूनापन ही दे जाएगा। उसकी कोई कीमत नहीं है। और तुम बहुत सारे शून्य इकट्ठा करके बैठ गए हो। शून्य माने वो जो मूल्यहीन है। शून्य माने क्या? जिसकी कोई कीमत नहीं। तुम ज़िंदगी में बहुत कुछ ऐसा इकट्ठा करके बैठ गए हो।

वो सब हटाना नहीं है। तुलसी विधि दे रहे हैं जीवन जीने की। वो सब हटाओ नहीं जो इकट्ठा किया है। जो इकट्ठा किया है, ठीक है, उसमें अंक जोड़ दो – ‘एक' जोड़ दो। ‘एक' माने? “एको अहं, द्वितीयो नास्ति"। किसके लिए? एक कौन है जो एक ही है? क्या नाम है उसका जो बस एक है?

प्र: एक ओंकार।

आचार्य: एक ओंकार। और?

प्र: ब्रह्म।

आचार्य: ब्रह्म। और?

प्र: ईश्वर।

आचार्य: ईश्वर। और?

प्र: राम।

आचार्य: राम। और?

प्र: कृष्ण।

आचार्य: वो एक है, दूसरा नहीं है। उस एक को जोड़ दो अपने सारे शून्यों में, तुम अरबपति हो जाओगे। और उस एक के बिना तुम्हारे शून्य सिर्फ झबार हैं; बोझ, ढोते फिरो; जैसे खाली घड़े, बिना पानी के। वो तुम्हारी प्यास तो नहीं ही बुझाएँगे, तुम्हारा बोझ और बनेंगे। गोल-गोल शून्य; गोल-गोल घड़े, सूखे-सूखे।

शून्यों को बचाने की कोशिश में ‘एक’ को गवाँ बैठे तो क्या किया? और तुम करते यही हो। अपने संसार को बचाने की कोशिश में भगवान को गवाँ बैठते हो। भगवान को गँवाते ही तुम इसीलिए हो क्योंकि इतने शून्य इकट्ठा कर लेते हो कि वो ‘एक' कहीं नज़र नहीं आता।

मीठा है, बहुत मीठा है:

राम नाम को अंक है, सब साधन हैं सून।

अंक गए कुछ हाथ नहिं, अंक रहे दस गून।।

संसार तुम्हें जो कुछ दे रहा है, वो सब साधन है, साध्य नहीं। साध्य ‘एक’ है। साध्य माने? जिसको पाने से सिद्धि है। जिसको पाने की कोशिश सार्थक और जायज़ है, वो साध्य। जिसे साधा जा सकता है, जिसकी तरफ प्रयत्न किया जा सकता है, सो साध्य। बाकी सब साधन।

संसार साधन है, राम साध्य हैं। संसार इसलिए नहीं है कि संसार को ही साध्य बना लो। संसार को साध्य बनाया तो मिल जाएँगे बहुत सारे अंडे। अब कर लिए इकट्ठे; साधन से चिपक कर रह गए।

चप्पल पहनी थी मंदिर जाने के लिए और चप्पल को ही चूम रहे हैं: ये वो हैं जो साधन से चिपक कर रह जाते हैं। अब इनका मुँह चप्पल जैसा हो जाए तो कोई क्या करे? चप्पलें-ही-चप्पलें हैं मुँह पर, क्यों? जीवन भर साधनों को ही चूमा है; साध्य का कुछ पता नहीं, ‘एक’ का कुछ पता नहीं; शून्यों का ही पता है।

तुलसी कह रहे हैं, जो साधन हैं संसार भर के, उनका तिरस्कार नहीं करना है, उनको जीवन से हटा नहीं देना है; उनको रखो, रहने दो, पड़े हैं तो पड़े रहें। राम के साथ यही सब चमक जाएँगे। मूल्य से ओत-प्रोत हो जाएँगे।

अभी क्या हैं? बिना मूल्य के! इनमें राम को जोड़ दो। घर है, घर में राम को जोड़ दो। बाज़ार है, बाज़ार में राम को जोड़ दो। अरे तुम जीवन में राम को जोड़ दो, जीवन अरबों का हो जाएगा। जीवन में राम को नहीं जोड़ा, जीवन की कोई कीमत नहीं।

अब बताओ, संसार की कोई कीमत है कि नहीं? बिल्कुल है; पर शर्त के साथ है। शर्त क्या है? राम के साथ हो लो। राम के साथ हो तो संसार की बड़ी कीमत है। राम के बिना संसार…

प्र: कोई मूल्य की नहीं है।

आचार्य: तो उनके फ़रेब में भी मत आना जो कहते हैं कि संसार तो बिना मूल्य का है। निश्चित रूप से उन्होंने संसार का एक ही रूप देखा है, कौन-सा? बिना राम का।

संसार की कीमत खूब है: संसार ही स्वर्ग है; संसार ही मोक्ष है। पर कब? राम के साथ। तो संसार को त्यागना नहीं है, संसार को राम के साथ रखना है।

और राम को कहाँ रखना है संसार के समक्ष? बहुत सारे शून्य हों, उनके पीछे राम खड़ा कर दो, तो क्या कीमत? कुछ नहीं।

कहाँ होना चाहिए उस ‘एक’ को?

प्र: शून्य के आगे।

आचार्य: सब शून्यों से प्रथम; सब शून्यों से अग्रणी; सब शून्यों से पूज्यनीय; सबसे पहले रखो राम को। सबसे पहले उस ‘एक' को रखो, वो अपने पीछे-पीछे सारे शून्यों को प्राण से ओत-प्रोत कर देगा। उसको पीछे मत रख देना।

एक तो होते हैं बिल्कुल ही अधम जो ‘एक’ को भूल ही गए, और वो होते हैं दूसरे जो कहते हैं कि, “न, हम तो याद रखते हैं," पर बस वो ज़बानी याद रखते हैं। वो आखिरी वरीयता देते हैं राम को। वो कहते हैं, “पहले ये शून्य निबटा लूँ, अब ये शून्य निबटा लूँ, ये लड़की की शादी करनी है, ये तीर्थाटन कर आऊँ, ये दुकान बढ़ा लूँ, ये पैसे कमा लूँ, ये सत्तर काम कर लूँ। उसके बाद आखिर में क्या करूँगा?”

प्र: “राम का नाम लूँगा"।

आचार्य: और वो कहेंगे, “देखिए, वर्णाश्रम धर्म है, हमें सिखाया गया है कि ईश्वर का नाम तो सन्यास के बाद ही लेना है। जब जंगल जाएँगे, वानप्रस्थ इत्यादि हो जाएगा, अस्सी-नब्बे साल के मरने को होंगे, तब लेंगे नाम"। ये कुछ नहीं है, ये यही है कि पहले सारे शून्यों में उलझे हुए हो। जब जीवन है, जवानी है, शक्ति है तब तो तुम शून्यों में उलझे रहे, अब जब मरने को हो रहे हो, न दिखाई देता है न सुनाई देता है, हाथ काँपते हैं, तो तुम कह रहे हो – 'राम-राम'। और 'राम-राम' कहते हुए जीभ भी काँप ही रही है।

ये सब नहीं चलेगा कि शून्य सारे पहले लगा दिए, अंत में ‘एक' स्थापित किया है। किसको बेवकूफ बनाते हो? ‘एक' होना चाहिए, पहली बात; दूसरी बात, ‘एक' को ‘एक' की जगह पर होना चाहिए।

इसी को मैं ज़रा अपने अंदाज़ में कहता हूँ, “लेट द फर्स्ट बी फर्स्ट" (प्रथम को प्रथम ही रहने दीजिए)।

‘राम हों', पहली बात; दूसरी बात, राम को राम की ही जगह देना। राम को कोई भी और जगह देना, राम का अपमान है। राम का अपमान करके तुम अपना अपमान कर रहे हो क्योंकि राम का अपमान हो नहीं सकता। जीवन में एक ही चीज़, अगर देखा जाए तो, काम की है: वो ये है कि तुम मूल्य देना जानो, तुम जगह देना जानो। तुम्हें पता होना चाहिए कि किसकी क्या जगह है। सब कुछ है तुम्हारे सामने—ये है, ये है, ये है; जीवन का अर्थ ही है विविधताएँ। जीवन का अर्थ ही है कि तुमको अनेक दिखाई देंगे।

उन अनेकों में तुम मूल्य किसको दे रहे हो?

ये सूत्र सीख लो: अनेकों में ‘एक’ को मूल्य देना है।

अनेकों में ‘एक’ को मूल्य देना है और किसी को नहीं। लाख आकर्षित करें तुम्हें रंग-बिरंगे शून्य, गीत गाते हों, कव्वालियाँ गाते हों, इशारे कर-करके बुलाते हों—जो पहला है उसको पहला ही रखना, उसको भूल मत जाना। पहले का चरण स्पर्श कर लेना, आशीर्वाद ले लेना, फिर बाकी सबकी ओर चले जाना, कोई नुकसान नहीं होगा, लाभ ही लाभ होगा। पहले को भुलाकर बाकी की याद में जाओगे तो वही कहते हैं कबीर कि, “इत के रहे ना ऊत के, बैठे मूल गवाएँ"। मूल नहीं गँवाना।

बात आ रही है समझ में?

प्रथम को प्रथम का दर्जा दीजिए। मन बहुत बताएगा, “ये ज़रुरी है, ये आवश्यक है, अभी ये कर लो"। भूला मत करो भाई कि पहला कौन है। मन कहाँ दूर की देख पाता है! मन को तो जो तात्कालिक है बस वही समझ में आता है। इंसान तो तुम तब हुए न जब तात्कालिक से आगे का देख पाओ; ‘तत-काल' को ही नहीं ‘अ-काल' को देख पाओ। काल से आगे का दिखाई दे।

तुम्हारे सामने तो कोई प्राथमिकता आकर खड़ी हो जाती है, तुम उधर को ही चल देते हो। “आकर्षित किया, ज़रुरी लगा, हम उधर को ही चल दिए।” भूल किसको गए तुम? राम को भूल गए; प्रथम को भूल गए; जो वास्तव में मूल्यवान है उसको भूल गए।

कैसे कर देते हो बार-बार ये भूल?

जब भी कहीं को मन भागे, ज़रा अटक जाओ, अचकचा के रुक जाओ, यकायक थम जाओ। कहो, “आ-हाँ, कुछ खींच रहा है"। प्रवाह में बह मत जाओ, ज़रा-सा थमो, “कुछ खींच रहा है। ठीक है वो खींच रहा है, अच्छी बात है, पर मैं क्या छोड़कर खिंचा जा रहा हूँ?" अगर राम को साथ लेकर खिंचे जा रहे हो, सुन्दर बात। “यत्र-यत्र मनो याति, तत्र-तत्र समाधयः" – जहाँ-जहाँ फिर मन जाएगा, वहाँ-वहाँ समाधि है, खिंचे जाओ। मन इधर जाता है, यहाँ भी समाधि है; मन उधर जाता है, वहाँ भी समाधि है। राम को साथ लेकर गया है मन, जहाँ जाएगा वहीं समाधि है। पर रुको ज़रूर, थमो, ठहरो, जाँचो: जिधर को जा रहे हो, राम को साथ लेकर जा रहे हो कि नहीं जा रहे हो? अकेले मत चले जाना।

जब भी कुछ बुलाए, आवेग से अपनी ओर खींचे, तो थमना, पूछना, “कहीं हड़बड़ी, जल्दबाज़ी में कुछ भूल तो नहीं रहा हूँ? अरे, कुछ छूट तो नहीं रहा है?" घर से निकलते हो तो जाँचते हो न कि ताला दिया कि नहीं, कुछ छूट तो नहीं रहा है, मोबाइल फ़ोन तो नहीं छोड़ आए पीछे? जाँचते हो कि नहीं जाँचते हो?

प्र: जाँचते हैं।

आचार्य: ये ज़रा-सी चीज़ें, ये शून्य सारे जाँच लेते हो, और जब जीवन की तमाम रंगीनियाँ, सुख-दुःख, आशा-निराशा खींचते हैं तुमको, तब जाँचना भूल जाते हो, कि, “अरे, कुछ छूट तो नहीं रहा है? कुछ भूल तो नहीं आए? खिंचे तो चले आ रहे हैं। क्या भूले? क्या भूले? क्या भूले?"

तुम्हारे लिए तो ये ध्यान हो सकता है, ये सूत्र हो सकता है जिसको यदि भज लो तो जीवन का रूपांतरण हो जाएगा। पूछा करो बार-बार अपने से: “क्या भूल रहा हूँ? क्या भूला? भूला तो नहीं?" जैसे कोई कंजूस व्यक्ति बार-बार अपनी जेब पर हाथ रखकर जाँचता है, “माल सलामत है कि नहीं?" तुम भी सीख लो कि बार-बार दिल पर हाथ रखकर जाँचना है कि राम सलामत हैं कि नहीं। इसको ध्यान बना लो अपना। दिल पर हाथ रखो और पूछो, “राम को तो नहीं भूलें? राम सलामत हैं कि नहीं? माल कहीं रास्ते में तो नहीं गिर गया? छोड़ तो नहीं आए? बाज़ार बहुत लुभा रहा था, रौशनियाँ बड़ा खींचती थीं, माल लुटा तो नहीं आए? प्राण लुटा तो नहीं आए? आत्मा लुटा तो नहीं आए? राम गवाँ तो नहीं आए?"

ये पूछा करो, “भूल क्या रहा हूँ?" क्योंकि तुम भूलते बहुत हो। संसार तुम्हें जितना याद पर चढ़ता जाता है, राम तुम्हें उतना भूलता जाता है। पूछा करो, “भूल तो नहीं रहा हूँ कुछ?"

आहिस्ता से अपने-आप से पूछो, क्या? “कुछ भूले तो नहीं?" लिखकर टाँग दो दिवार पर, क्या? “कुछ भूले तो नहीं?" और जब दीवार प्रश्न करे – "कुछ भूले तो नहीं?” तो एक ही जवाब देना, “फिर भूला"। कोई दूसरा तुम जवाब दे नहीं सकते।

और सौभाग्य वाले हो अगर ये जवाब दे पाते हो कि – “फिर भूला"। बड़ी विनम्रता चाहिए ये स्वीकार करने के लिए कि मैं तो भूल गया, मैं तो हूँ ही ऐसा जो बार-बार भूलूँगा।

क्या? “भूला; फिर भूला।"

पहले तो याद करो कि क्या-क्या याद है, फिर ज़रा-सा थम जाओ और याद करो कि क्या भूल गए, फिर भूल गए!

धूमिल की कविता है जिसके अंत में वो कहते हैं – “दफ्तर जाने के लिए साइकिल पर सवार हो रहा हूँ, और ऐसी क्या हड़बड़ी है यारों कि बीवी को चूमना आज फिर भूल गया!" प्रेयसी को चूमना भूल गए सुबह-सुबह जल्दबाज़ी में तो भी कुछ सालता है, दिन भर कुछ कमी-कमी सी लगती है – “सुबह बीवी को चूमना भूल गया," और जो परम प्रिय है, उसको जन्म भर से अगर भुलाए बैठे हो तो सोचो दिल कैसा कसमसा रहा होगा, कितनी पीड़ा उठती होगी।

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