आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
किसके पीछे चलता है मन
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज दोपहर में बुल्लेशाह जी की काफ़ियाँ गा रहे थें, और गाते-गाते हम बहुत रम गए, और मन बहुत शुद्ध होता सा महसूस हुआ; और जब से यहाँ पर हैं तब भी बहुत मन शुद्धता महसूस करता है। तो एक बात, जब अवलोकन लिख रहे थे, तो ये प्रश्न उठ रहा था बार-बार, कि अभी तक मुझे यह समझ में आया कि हम अगर शरीर को महत्वता देते हैं तो जो मन है वो शरीर की ही इन्द्रियों से बना है; और मन शुद्ध होने के लिए भी तैयार है, और मन ही अशुद्ध हो जाता है। तो मुझे मन की गलती वहां पर दिखाई नहीं दे रही थी। मतलब मुझे यह समझ में आ रहा था कि मन तो तैयार है, शुद्ध होने के लिए भी और अशुद्ध होने के लिए भी; तो कौन है जो मन को अनुमति देता है, शुद्ध होने के लिए और अशुद्ध होने के लिए?

आचार्य प्रशांत: मन को फिर अनुमति इत्यादि नहीं दी जाती न, ऐसे कहलो की, अशुद्ध मन किसका होता है और शुद्ध मन किसका होता है। जब तुम कह रहे हो मन ये होने को भी तैयार है, मन वो होने को भी तैयार है; तो वस्तुतः तुम कह रहे हो की मन की तैयारी किसी भी ओर की नहीं है; मन निरपेक्ष है। अर्थात मन की अपनी कोई निजी इच्छा या सत्ता ही नहीं है। मन किसी का अनुगामी है, मन किसी की छाया है, ये कह रहे हो तुम। तो जैसे छाया इधर भी जाने को तैयार होती है, और उधर भी जाने को तैयार होती है, तो वैसे ही तुम कह रहे हो की मन है; इधर भी जा सकता है, उधर भी जा सकता है। छाया अगर दाएँ जा रही है इसका क्या मतलब है? तुम्हारी छाया अगर दाएँ जा रही है तो इसका मतलब क्या है? तुम दाएँ जा रहे हो। तुम्हारी छाया अगर बाएँ जा रही है तो इसका क्या अर्थ है? तुम बाएँ जा रहें है, ठीक। मन अगर शुद्धि की ओर जा रहा है तो इसका क्या अर्थ है? हम शुद्धि की ओर जा रहे है। मन अशुद्धि की ओर जा रहा है तो क्या अर्थ है? हम अशुद्धि की ओर जा रहे है।

मन अहं की छाया है।

तुम अपने आप को जैसे परिभाषित करोगे, तुम अपनी जो मान्यता रखोगे; मन वैसा ही हो जाएगा। द्वैत में जीतें हैं हम, द्वैत माने- 'दो', अहं और संसार। मन क्या? जिसमें संसार है। तो अहं और संसार का द्वैत ऐसा है, जैसे कोई वृत्त और उसका केंद्र, 'दो' हुए न? एक हुआ केंद्र, और दूसरा हुआ वृत्त का क्षेत्र, ठीक? ये द्वैत ऐसा नहीं है जैसे किसी चुम्बक के दो ध्रुव होते हैं। ये द्वैत हैं। वृत्त का केंद्र, पहला ध्रुव; और वृत्त का फैलाव, पसार, क्षेत्रफल - दूसरा ध्रुव। वृत्त का केंद्र और वृत्त का क्षेत्र। केंद्र का क्या नाम है? अहं। और उस अहं के इर्द-गिर्द फिर जो पूरा संसार बन जाता है उसका क्या नाम है? मन। तो मन को निर्धारित कौन करता है? अहं।

तुम जाकर के किसी कीचड़ वाले स्थान पर खड़े हो जाओ। तुम्हारी छाया के ऊपर क्या दिखाई देगा? कीचड़। कीचड़ ही कीचड़ न? तुम जाकर के किसी गंदी जगह पर खड़े हो गए तो तुम्हारी छाया पर क्या दिखाई दे रहा है? कीचड़। गंदगी ही गंदगी, क्या छाया गंदी है? तुम जहाँ खड़े हुए हो वो जगह गंदी है। तुम हट जाओ वहां से छाया साफ़ हो जायेगी। इसी तरह से अहं अपने आप को जहाँ स्थापित कर रहा है, वो जगह 'शुद्ध' या 'अशुद्ध' होती है। वो जगह अगर शुद्ध है तो मन शुद्ध रहेगा, वो जगह ही अशुद्ध है तो मन अशुद्ध ही रहेगा। हम बड़ा उल्टा खेल खेलते है, हम खड़े तो गंदी जगह पर रहते है, और अपनी छाया को घिस-घिस कर साफ़ करते हैं। खड़े हैं हम गंदी जगह पर और घिस-घिस कर साफ़ कर रहे हैं अपनी छाया को। और उसको हम कहते हैं-मनोविजय, मनोनिग्रहः, मन की सफाई, मन का निरोध। मन हो पायेगा साफ़?

तुमने ज़िद पकड़ रखी है किमैं तो गंदा ही रहूँगा, मन मेरा साफ़ रहे। तुम गंदे हो मन साफ़ कैसे हो जाएगा। मन को साफ़ करने में सबकी रुचि है।

अमित ने प्रश्न पूछा उसमें मन शब्द दो बार, चार बार आया होगा और मन की शुद्धि, अशुद्धि की बात भी आयी इनके प्रश्न में? पर इनके प्रश्न से जो एक शब्द नदारद था वो क्या था? अहं। अपनी बात नहीं करी। क्योंकि अपनी बात करदी तो फिर, समस्या। 'मैं' का जो नाम रखोगे, वही नाम मन का निर्धाता हो जाता है। चलो 'मैं' का कुछ नाम रख के देखते हैं, प्रयोग करके देखते हैं। अब ये अमित बैठे हैं। इन्होंने अपने 'मैं' का नाम रख दिया - 'मैं पुरुष हूँ'। तो अब मन में क्या घूमेगा लगातार? स्त्रियों के विचार। क्योंकी द्वैत तो है ही न! द्वैत के एक सिरे पर है 'वृत्त का केंद्र', और दूसरे सिरे पर है 'वृत्त का क्षेत्र'। अगर 'मैं' का नाम हो गया पुरुष, 'मैं पुरुष हूँ'; तो अब पूरे वृत्त में क्या घूमती नज़र आएँगी, स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ।

फिर कहेंगे, मन बड़ा गंदा है। मन गंदा है, या 'मैं' की तुम्हारी मान्यता ही दूषित है - बोलो। और अब मन बेचारे के पास विकल्प ही क्या बचा क्योंकि वो तो द्वैत के नियम का पालन करेगा ही करेगा। एक बार तुमने कह दिया, 'मैं पुरुष हूँ', तो अब मन के पास कोई विकल्प बचा क्या? मन को तो स्त्रियों से अब अपने आप को भरना ही पड़ेगा। 'मैं गरीब हूँ'। अब 'मैं' के प्रति तुमने मान्यता बनायी कि 'मैं गरीब हूँ', अब मन में क्या भर जायेगा? पैसे का विचार। और तुम कहोगे मन बड़ा गंदा है। इस मन में हर समय पैसे के विचार आते हैं। सपने भी पैसे के ही आ रहे हैं, इस मन में। मन की कोई भूल? मन तो अहं के पीछे-पीछे चलता है। अहं ने बोल दिया, 'मैं निर्धन', तो मन में भर जाएगा धन ही धन।

'मैं' को लेकर के क्या मान्यता बनायी है, और मान्यता के बिना हम जीते नहीं, जी सकते ही नहीं हैं। कौन हूँ मैं? क्या नाम दिया मैने स्वयं को? वो नामकरण अगर ठीक करा है तो जीवन संवर जाएगा; और वो नाम ही अगर गलत दे दिया है, तो बर्बादी से कोई नहीं बचा सकता हमको।

अब मज़े की बा! अक्सर हमें पता भी नहीं होता कि हमने अपने आप को नाम क्या दे रखा है। क्योंकि हम इतने बेहोश लोग हैं कि हमारा नामकरण भी बेहोशी में हो जाता है, जैसे छोटे बच्चों का। आपको पता है आपका नाम विशाल क्यों? दादीजी ने रखा था। तो जो काम हमारा अतीत कर रहा हो, बिना हमसे परामर्श लिए, उसी को कहा जाता है बेहोशी का काम। काम हो रहा है, और चैतन्य मन को पता भी नहीं कब हो रहा है, कैसे हो रहा है। हम सबके नाम गवाही देते है, प्रमाणित करते है, कि हम कैसे जी रहे हैं। नाम हम सबके पास हैं, लेकिन हम में से किसी को भी होश नहीं कि वो नाम आ क्यों गया, कहा से आ गया, आना चाहिए था भी की नहीं आना चाहिए था।

'मैं' के साथ हमने जो बहुत मूलभूत नाम जोड़ रखे हैं, बताइएगा की क्या वो आपकी मर्ज़ी से, आपकी चेतना से, आपके होश से आये हैं? अभी तो हमने आपके पहले नाम की बात करी। तो मैंने कहा कि क्या विशाल नाम आपकी सहमति से आया? आपने कहा, "नहीं", ठीक! मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं यादव हूँ, मैं पंजाबी हूँ, मैं खत्री हूँ; 'मैं' इन सबके साथ बड़ी ज़ोर से जुड़ा रहता है न? कितने लोग हैं जिन्होंने चुनाव किया था अपनी जाती, अपने धर्म, अपने वर्ण का? पर 'मैं' के साथ तो वो जुड़ गया। 'मैं' स्री हूँ', 'मैं पुरुष हूँ' कितने लोग हैं, जिन्होंने अपने लिंग का चुनाव करा था; पर 'मैं' के साथ उसे कितनी मज़बूती से जोड़े हुए हो। 'मैं' के साथ, अर्थात, हमने एक ऐसी चीज़ जोड़ दी जो बेहोशी से भरी हुयी है। तो अब मन किससे भर जायेगा? बेहोशी से भर जायेगा। इसमें अब ताज्जुब क्या है? तुम कहते हो मन में कुछ भी आता रहता है अनाप-शनाप, न जाने कैसे-कैसे विचार उठते है। अरे जब 'मैं' के साथ ही इतना कुछ अनाप-शनाप जुड़ा है, तो मन में कुछ भी अनाप-शनाप क्यों नहीं आएगा। जब 'मैं' ही तुम्हारी मर्ज़ी का नहीं है, तो मन तुम्हारी मर्ज़ी का कैसे हो जायेगा। कैसे हो जाएगा?

तुम्हारा जो 'I' वक्तव्य है, 'मैं' वकतव्य है, अहं की जो घोषणा है, क्या वो तुम्हारी चेतना से निकल रही है? बोलो। क्या वो तुम्हारी चेतना से निकल रही है? क्या वो तुम्हारी सहमति से आयी है? तो फिर इसीलिए मन में भी जो कुछ आता है, वो तुम्हारी सहमति सेनहीं आता, तो फिर परेशान होते हो कि मन में चिंता क्यों आ रही है? हमने तो बुलाई नहीं। तुमने तो अपने उपनाम को भी नहीं बुलाया था, अपनी जाती को भी नहीं बुलाया था, अपने लिंग को भी नहीं बुलाया था, अपने धर्म को भी नहीं बुलाया था, अपनी जातीयता, अपनी राष्ट्रीयता को भी नहीं बुलाया था; पर वो आ भी गए। और तुमने उनको पकड़ भी लिया, स्वीकार कर लिया, गले लगा लिया। उन्हें छोड़ने को तैयार होने की बात दूर है, छोड़ने का विचार ही नहीं है। जब इतनी सारी चीज़ें, बेहोशी में और बेख़बरी में पकड़ ही रखी है ज़ोर से तो मन में भी फिर क्या भरी रहेगी - बेहोशी और बेख़बरी। फिर अचम्भा क्यों मानते हो, फिर मन को क्यों दोष देते हो कि मन का क्या है, कहीं को भी भाग जाता है, बड़ा चंचल है।

मन नहीं चंचल है। मन ठीक वैसा ही है जैसी तुम्हारी तुम्हारे जीवन के बारे में मान्यता है।

जीवन के विषय में यदि तुम्हारी मान्यताओं का कोई दृढ़ आधार हो तो मन भी दृढ़ता के साथ आधार से जुड़ा रहेगा। हवा के झोंके की तरह इधर-उधर चंचल हो कर भागेगा नहीं। पर जब 'मैं' में ही दृढ़ता नहीं, जब 'मैं' की ही कोई आधारशीला नहीं। तो मन में कौन-सी दृढ़ता रहेगी? मन किस आधार पर दृढ़ खड़ा रहेगा? और इन बातों पर हम अपना पूरा जीवन आधारित कर देते हैं न। मैं फलानी आय वर्ग का, फलानी जाती का, फलाने धर्म का, फलानी परंपरा का पुरुष हूँ। अब इसके आधार पर तय हो जाता है कि तुम काम क्या करोगे, तुम ब्याह कैसे करोगे, तुम किन परंपराओं पर चलोगे, तुम्हारा घर कैसा होगा। ज़िंदगी का पूरा ताना-बाना ही निर्धारित हो जाता है इन बातों से, हो जाता है की नहीं?

तो ये जो अहं का वक्तव्य है, जो 'I' वक्तव्य है। ये पूरे जीवन को चला रहा है; और अगर यही ठीक नहीं है तो जीवन तो चिथड़ों में ही रहेगा। ऋषियों ने बार-बार कहा, बेटा अपने आप को जो समझते हो, एक बार देख तो लो वो तुम हो भी। तुम्हें कैसे पता की अपने आप को जो मान रहे हो तुम वही हो। पर हम बड़े आत्मविश्वासी लोग हैं। हमें पक्का पता है कि हम अपने बारे में जो सोचते हैं, मामला वैसा ही है। वो बेचारे विनम्रता से, सहृदयता से, हमें प्रेरित ही करते रह गए कि थोड़ा और गौर से देखना। हमने न बात समझनी थी, न समझी। पूछिए अपने आप से, न पड़े होते मुझ पर जो प्रभाव पड़े हैं तो भी क्या मैं अपने बारे में वही सोचता जो आज सोचता हूँ; और अगर मैं अपने बारे में वो सब नहीं सोचता, तो आज मुझे जीवन के जो निर्णय लेने की बड़ी इच्छा उठती है क्या वो निर्णय मैं तब भी लेता?

जो बातें आपके मन में नाचती रहती हैं, वो इसलिए नाचती हैं क्योंकि आप बुरी तरह प्रभावित हैं। मन इसलिए बेचैन है क्योंकि अहं संक्रमित है, इन्फेक्टेड है। इन्फेक्शन का मतलब समझते हो? जो चीज़ तुम्हारे तंत्र में नहीं होनी चाहिए, वो प्रवेश कर गयी है। जो जीवाणु, विषाणु तुम्हारी व्यवस्था के भीतर नहीं होने चाहिए, वो हमारी व्यवस्था का अंग बन गए हैं, हमारा अहं संक्रमित है। जो बातें हमे 'मैं' के साथ ज़रा भी संयुक्त नहीं करनी चाहिए, हमने उन बातों को 'मैं' से जोड़ लिया है। मैं उच्च वर्ण के एक इज़्ज़तदार, और अमीर परिवार की लड़की हूँ। अब एक बार ये तुम्हारा 'मैं' वक्तव्य बन गया, तो फिर राम जाने। अब कौन बचाएगा तुमको, अब तो इसी हिसाब से आगे बढ़ोगे, ऐसा ही मन रहेगा, ऐसे ही जीवन के सारे निर्णय रहेंगे। और हम इतनी भी समझदारी, इतनी भी परख नहीं दिखाते कि हम अपने आप से पूछे कि ये 'मैं' वक्तव्य मैंने पाया कहाँ से। मुझे किसने सीखा दिया इस तरह से सोचना और जिसने मुझे सीखा दिया उसे किसने सीखा दिया; और जो मुझे सीखा रहा है अगर उसे स्वयं ही नहीं पता की उसे किसने सीखा दिया, तो मैं उससे क्यों सीख रही हूँ।

मुद्दे की बात पकड़ लीजिये। मन परेशान हो तो मन पर ध्यान मत दीजिएगा, 'अहं' पर ध्यान दीजिएगा। मन तो बेचारा है। बेचारा माने, जिसके पास कोई विकल्प न हो, कोई चारा न हो। मन 'मैं' का मारा हुआ है। मन को पता नहीं क्या-क्या बोलते हो- धृष्ट है, ज़िद्दी है, अकड़ू है, पागल है, मजबूर है। वास्तव में क्या है - मजबूर है। किसके हाथों मजबूर है? आपके हाथों। अब मत कहना कि दिल है कि मानता नहीं। वो क्या माने, क्या न माने वो तो लाचार है।

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