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लेख
ख़ुद को क्या समझते हो? दुनिया को कितना जानते हो? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: क्या ऐसा जीवन सम्भव है जिसमें मान्यताओं का कोई भी स्थान ना हो? ना अपने बारे में कोई मान्यता और ना ही दूसरों के बारे में। मैं छवियों में जीती हूँ। ऐसा लगता है जैसे जीवन जीने के लिए, लोगों को परखने के लिए मेरे पास आँखें नहीं हैं, बक्से हैं और मैं इन बक्सों में सबकुछ फिट (समायोजित) करती रहती हूँ। समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: मान्यताएँ तो रखनी पड़ेंगी। ये बड़ी क़िताबी और निरि सैद्धांतिक बात है कि सब मान्यताओं का त्याग कर दो, सब मान्यताओं से मुक्त हो जाओ।

आदमी का पारिभाषिक गुण है उसका ज्ञान। वो मानता है। ये आदमी का, मैंने कहा, पारिभाषिक-चारित्रिक गुण है। उसकी बड़ी केंद्रीय पहचान है कि वो मानता है। मानता है माने? वो ज्ञान पर चलता है। अब वो ज्ञान हो किसी भी कोटि का सकता है - ऊँचा ज्ञान, नीचा ज्ञान, स्पष्ट ज्ञान, धुंधला ज्ञान। पर कोई आपको मनुष्य ऐसा नहीं मिलेगा जिसके पास ज्ञान ना हो, और जिसका अपने ज्ञान पर विश्वास ना हो, माने वो अपने ज्ञान पर चलता ना हो। हम सब अपने-अपने निजी, व्यक्तिगत ज्ञान पर ही चलते हैं।

ज्ञान माने ही मान्यता, ठीक है? जिस चीज़ को आपने मान लिया कि सच है, उसको हम कह देते हैं कि अब वो हमारे लिए सत्य के तौर पर मान्य हो गया। वही है 'मान्यता'। जो चीज़ आपके लिए सत्य के समकक्ष मान्य हो गई उसको कह देते हैं 'मान्यता'। मान्यता माने ज्ञान। हमारे पास कुछ ज्ञान होता है और ज्ञान सदा क्या कहता है? 'फलानी चीज़ ऐसी है'। यही तो सत्य है न। हम क्या कह रहे हैं परोक्ष-रूप से? हम कह रहे हैं फलानी चीज़ का सच ऐसा है। यही ज्ञान है, ठीक है?

जब आप उदाहरण के लिए कहते हैं कि, "सामने दीवार है", तो आप कह रहे हैं, "मुझे सचमुच पता है कि मेरे सामने दीवार है"। तो आपका ज्ञान हुआ न कि सामने मेरे दीवार है। लेकिन ये जो ज्ञान है आपका, इस ज्ञान के माध्यम से आप यही कह रहे हैं कि आपको सत्य पता है। कोई ये कहता है, "मेरा ज्ञान झूठा है"? नहीं न। अगर ज्ञान झूठा ही साबित हो जाए तो फिर वो ज्ञान तो त्याग दिया जाता है।

तो हम कह रहे हैं आदमी वो जीव है जो ज्ञान पर चलता है। यहाँ पर आदमी में और पशुओं में भेद है। पशुओं को ज्ञान इत्यादि पर नहीं चलना पड़ता, या ये कह लीजिए कि उनके पास ज्ञान अर्जित करने की कोई विशेष क्षमता नहीं होती। आप पशुओं को संस्कारित तो कर सकते हैं; उन्हें ज्ञानी नहीं बना सकते। इस बात को मैं और ज़्यादा नपे-तुले तरीके से कहूँ तो बात ये है कि जिसे हम संस्कार कहते हैं वो ज्ञान ही है। बस वो ज्ञान का बड़ा निचला प्रकार है। जो जिस रूप में संस्कारित हो गया, जिसके मन में जो संस्कार ड़ाल दिया गया, वो अपने भीतर बैठे संस्कार को सच ही तो समझता है न।

मान लीजिए, आपके भीतर बचपन से ये संस्कार डाल दिया गया है कि फलानी दिशा पूजनीय है। तुम्हें पूजा करनी है तो फलानी दिशा को मुँह करके करो। तो है तो ये संस्कार कि फलानी दिशा पूजनीय है, या फलाना पेड़ पूजनीय है, या फलाना पर्वत पूजनीय है, या फलाना पशु पूजनीय है, नदी पूजनीय है, कुछ भी। हैं तो ये सब संस्कार ही, लेकिन हम इन संस्कारों को सच बराबर ही मान्यता दे देते हैं न? तो संस्कार भी एक तरह का ज्ञान ही है पर वो बड़े निचले तल का ज्ञान है। उस पर कभी अलग से बाद में चर्चा होगी।

तो पशुओं में ज्ञान नहीं होता, पशुओं में हद-से-हद संस्कार होते हैं। पशुओं को भी आप संस्कारित कर सकते हैं, प्रशिक्षित कर सकते हैं। सर्कस (करतब) में आप देखते ही हैं, प्रयोगशालाओं में ऐसा होता है कि पशुओं को कुछ काम वगैरह करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। संस्कार हैं जो उनको दिए जा रहे हैं पर ज्ञान नहीं होता उनमें, और जो ज्ञान उनमें होता है वो प्रकृति-प्रदत्त होता है।

उदाहरण के लिए, बंदर को ये ज्ञान है कि सामने वाले पेड़ पर जो लटक रहा है फल उसका नाम अमरुद है और वो अमरुद स्वादिष्ट होता है, उसको खाने से भूख मिटती है। ये बंदर को ज्ञान है पर ये ज्ञान उसने कोई साधना वगैरह करके या श्रम से अर्जित नहीं किया है, प्रयोग से अर्जित नहीं किया है। किसी प्रयोगशाला में उसने जाकर अनुसंधान नहीं किए है, जान नहीं लगाई है। उसे बस पता है, जन्मजात-रूप से उसे पता है। खरगोश का छोटा बच्चा पैदा होता है, उसको पता है सामने घास है, जाकर खालो। ज्ञान उसको भी है पर ये ज्ञान उसको उसकी देह ने ही दे दिया। उसको अर्जित नहीं करना पड़ा।

तो पशु भी ज्ञान पर चलते हैं पर उनका ज्ञान कैसा है? उनका ज्ञान ऐसा है कि मुफ्त में मिल गया है। मेहनत तो करी नहीं, यूँ ही मिल गया। ये सबसे निम्न-कोटि का ज्ञान है क्योंकि इसके लिए कोई मूल्य ही नहीं चुकाया गया। आप पैदा हुए ज्ञान के साथ। आमतौर पर मैं कभी भी, आपको जो जन्मगत ज्ञान मिलता है, उसको ज्ञान का नाम नहीं देता, बस आज दे रहा हूँ। आमतौर पर मैं कहता हूँ कि आप पैदा होते हो अपनी जन्मगत वृत्तियों के साथ। मैं कहता हूँ, आप अपने दैहिक-संस्कारों के साथ पैदा होते हो। पर इस प्रश्न के संदर्भ में मैं स्पष्ट किए दे रहा हूँ कि संस्कार भी एक तरह के ज्ञान ही होते हैं, बस वो बहुत निकृष्ट कोटि का ज्ञान होते हैं।

तो एक तो वो हो गया मुफ्त ज्ञान जिसके लिए आपने कोई साधना नहीं करी, कोई कीमत नहीं चुकाई, जान नहीं लगाई, पसीना नहीं बहाया, अपने विरुद्ध आपने कोई लड़ाई नहीं करी, आपको यूँ ही मिल गया। ये पाश्विकता की निशानी है। पशु भी मान्यताओं में जीते हैं। बड़ी उनकी जैविक-मान्यता होती है। अब शेर के पास भी मान्यता तो है ही न कि हिरण मारूँगा, खाऊँगा तभी जीऊँगा। मान्यता तो है ही।

इस बहस में मत जाइए कि ये उसकी मान्यता उसके जीवन के लिए कितनी उपयोगी है इत्यादि-इत्यादि। बात ये है कि शेर इस बात को मानता है और शेर इस बात को माने इसके लिए हमें उसे किसी विद्यालय नहीं भेजना पड़ता। ये बात उसे जन्म से पता है कि वो सामने हिरण है, उसको मारकर खाना है। तो ये ज्ञान शेर को भी है पर बड़ा सस्ता ज्ञान है। यूँही मिल गया।

तो इससे हमें ज्ञान की कोटि नापने की, ज्ञान का स्तर, ज्ञान की श्रेष्ठता नापने का एक पैमाना मिल गया, एक सूत्र मिल गया। क्या मिल गया?

जिस ज्ञान के लिए जितनी कीमत चुकाई गई हो उस ज्ञान का स्तर उतना ही ऊँचा है।

जिस ज्ञान के लिए जितनी कीमत आपने चुकाई वो ज्ञान उतनी ही ऊँची कोटि का है। और अभी इस प्रश्न के सन्दर्भ में ज्ञान बराबर मान्यता क्योंकि प्रश्न मान्यताओं के बारे में था। जिस ज्ञान को आपने मुफ्त ही पा लिया वो ज्ञान दो-कौड़ी का। पशुओं के पास भी ज्ञान है, जो संस्कार हैं, जो मुफ्त मिले हुए हैं। वो कोई बात नहीं, उनमें कोई दम नहीं। वो फिर जानवर जैसा ही जीवन जीते रह जाते हैं।

मैं पशुओं को जब कह रहा हूँ जानवर जैसा ही जीवन जीते रह जाते हैं, तो मैं पशुओं को नीचा साबित करने के लिए ये सब नहीं कह रहा हूँ। मैं यहाँ पर पशु का उदाहरण बस इसीलिए ला रहा हूँ क्योंकि आदमी जब पशु समान हो जाता है तो फिर उसको बहुत दुःख मिलता है। बस इस संदर्भ में और मात्र इस सन्दर्भ में मैं पशुओं को इस प्रकार दिखा रहा हूँ कि जैसे उनके पास जो कुछ है वो बहुत मूल्य का नहीं है। अन्यथा पशु अपने आप में तो सहज हैं, सुखी हैं, संतुष्ट हैं, वो बहुत मनुष्यों से बहुत बेहतर हैं।

फिर आता है वो ज्ञान जो आपको देह से नहीं मिला पर आपको हवाओं से मिला है। आप इधर-उधर देख रहे हैं और आपको पता भी नहीं चल रहा कि बिना चाहे ही, बिना माँगे ही आपने कितना ज्ञान अर्जित कर लिया। आप किसी नई जगह चले जाइए। आपने उस नई जगह के बारे में हो सकता है कभी कोई किताब ना पढ़ रखी हो, विकिपीडिया वगैरह पढ़े बिना पहुँच गए हों। उस जगह के किसी बाशिंदे को आप कभी जानते ना हों, उस जगह से लौटे किसी यात्री से आपने पहले कभी बातचीत ना करी हो फिर भी आप किसी नई जगह पहुँच जाइए। वहाँ दो घण्टे बस सड़कों में घूम लीजिए, बाज़ारें देख लीजिए और आपको उस जगह के बारे में बहुत कुछ पता चल जाएगा। ये ज्ञान कहाँ से आया? ये हवाओं से आया, देखकर पता चल गया। न जाने कितनी बातें हैं जो आपको पता चल जाएँगी।

इसी तरीके से वो जो छोटा बच्चा होता है उसको आप ज़रूरी नहीं है कि सक्रिय रूप से संस्कारित करें। बस वो जिन हवाओं में साँस ले रहा होता है, जिन दीवारों को देख रहा होता है, समाज में जो दृश्य देख रहा होता है, जो गतिविधियाँ देख रहा होता है, जो बातचीत सुन रहा होता है उन सबसे वो बहुत कुछ सोख लेता है। ये सामाजिक ज्ञान है। ये भी मान्यता बनता है। ये भी बहुत निचली कोटि का है क्योंकि इसके लिए भी वास्तव में बहुत मूल्य चुकाया नहीं गया। इसके लिए बस इतना किया गया है कि जहाँ जो कुछ हो रहा है उसको जाकर देख लिया।

बहुत लोगों के लिए इतना ही ज्ञान काफी होता है और वो इस पर अपनी पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं। वो ज्ञान जो उनको उनकी देह से मिल गया और वो ज्ञान जो उनको समाज से मिल गया।

समाज से जो ज्ञान मिल गया उसमें भी दो श्रेणियाँ हैं। एक वो ज्ञान जो समाज ने अव्यवस्थित तरीके से आपको दे दिया है। जैसे कि मैंने कहा कि आप बाज़ारों में घूम रहे हैं, वहाँ आपने इधर-उधर कुछ देखा और आपको कुछ ज्ञान मिल गया, या आप सिनेमा देख रहे हैं, टीवी देख रहे हैं, वहाँ आप पर्दे पर जो कुछ देख रहे हैं उससे आपको समाज, समाज की प्रथाओं इत्यादि के बारे में कुछ पता चल गया।

एक दूसरे तरह का ज्ञान भी समाज आपको देता है जो बिलकुल व्यवस्थित ज्ञान होता है। वो कौन-सा होता है? वो होता है जो आपको स्कूलों-कॉलेजों में, तमाम तरह के शिक्षण-प्रशिक्षण केंद्रों पर मिलता है। वो सामाजिक-ज्ञान की तुलनात्मक रूप से ऊँची कोटि है। वो मिल गया, उस ज्ञान के लिए आप कीमत भी चुकाते हो। आप जाकर जहाँ पढ़ रहे हो वहाँ की फीस देते हो। इसके अलावा आप वहाँ के अनुशासन का पालन करते हो। आप वहाँ जाते हो, अपने दो साल, चार साल, दस साल समय, अपने वर्ष देते हो। तो इस तरह से आपने कीमत चुकाई है इसीलिए वो ऊँची कोटि का ज्ञान हो गया।

हमने तीन तरह के तलों की बात कर दी है ज्ञान की और इन तीनों तलों पर हमें मान्यताएँ मिल जाती हैं। लेकिन ये जो तीनों ही तल हैं, ये तीनों ही तल कभी आपको प्रेरित नहीं करते हैं ज्ञान लेने वाले ज्ञानी के बारे में ज्ञान पाने के लिए। आप ज्ञान पाते रहते हो उन सब विषयों के बारे में जो बाहर हैं। शेर को हिरण का पता है, अपना कुछ नहीं पता है। आप बातचीत करते हो, आपको ये नहीं पता होता कि आप क्यों बातचीत कर रहे हो। बातचीत करने वाला कौन है? वो वास्तव में चाह क्या रहा है? हम बहुत दावा कर भी लें कि हमें दुनिया का इतना पता है, ये सब है लेकिन जो ये दावा कर रहा है उसके बारे में हमें कितना पता है, इस पर हमारी कम ही निगाह जाती है।

तो जो फिर सबसे ऊँची कोटि का ज्ञान होता है वो होता है अपने आप को देखना। इस ज्ञान की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, इसमें बड़ा कष्ट होता है। आप बड़े-से-बड़े विश्वविद्यालय में दाखिला पा जाओ, अधिक-से-अधिक क्या होगा? कि वहाँ पर बहुत-बहुत सारा पैसा आपको देना पड़ जाएगा। उसमें आपका प्रवेश हो सके, आपका दाखिला हो सके इसके लिए आपको कोई बहुत कड़ी प्रवेश-परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ सकती है। आप यही सब तो कीमतें चुकाओगे न? कि आपने दो साल, तीन साल लगाकर प्रवेश-परीक्षा की तैयारी करी।

फिर जब आपको प्रवेश मिल गया तो हो सकता है कि आपको बीस-पच्चीस लाख रूपए या पचास-साठ लाख रूपए या करोड़-दो करोड़ रूपए वहाँ पर जाकर शिक्षण-शुल्क के रूप में देने पड़े हों। यही तो हो सकता है न? फिर ये भी हो सकता है कि वहाँ आप दो साल, चार साल, छह साल पढ़ें, और वहाँ की व्यवस्था बड़ी कड़ी थी तो आपको बड़े अनुशासन में रहकर पढ़ाई करनी पड़ी। यही है, ये अधिकतम मूल्य है जो आप चुकाते हो सांसारिक ज्ञान का।

अपने बारे में जानने का जो मूल्य चुकाना पड़ता है वो इन सब से बहुत ऊपर का है। एक आदमी से उसका रुपया छीन लो, वो बुरा मानेगा पर किसी तरह झेल जाएगा। एक आदमी से तुम उसकी पहचान ही छीन लो, वो बहुत-बहुत बुरा मानता है। वो तुम्हें माफ़ नहीं करेगा।

आध्यात्मिक ज्ञान की ये कीमत चुकानी पड़ती है - अपनी पहचान खोनी पड़ती है।

ऐसा नहीं है कि आप शुरुआत इस नियत के साथ ही करते हो कि अपनी पहचान खोनी है। नियत आपकी बस ये होती है कि अपनी पहचान की जाँच-पड़ताल करो, अनुसंधान करो। लेकिन अनिवार्यतया उसका नतीजा निकलता ये है कि आप जितनी जाँच-पड़ताल करते हो, आपको अपनी पहचान झूठी ही पता चलती है तो पहचान फिर आपकी खो जाती है। आप इरादा बनाओ चाहे ना बनाओ, आपको दिख जाता है कि आप झूठों में जी रहे थे, आप स्वयं ही एक बड़ा झूठ हो। ये बहुत बड़ी कीमत है। ये ऐसी-सी कीमत है जैसे कि आपने अपने प्राणों की ही आहुति दे दी। भाई, बाकी तो आप जितनी चीज़ें देते हैं, वो देते हैं जो आपके पास हैं। ठीक है न?

कोई आया, उसने आपसे बहुत सारे पैसे माँगे तो आपने अपनी जेब से निकालकर कुछ दे दिया न। आपने कुछ ऐसा दिया जो आपका था। 'आप' का था, 'आप' के पास था। आपने कुछ ऐसा दिया जिस पर आपका अधिकार था। लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान की कीमत देनी पड़ती है कि आपको अपने आप को ही दे देना पड़ता है।

अरे, बड़ी भारी बात है। बहुत बड़ा जिगर चाहिए इसके लिए। हम अपनी चीज़ें तो देने को तैयार हो सकते हैं, ख़ुद को कैसे दे दें भाई? ख़ुद को दे देना आध्यात्मिक-ज्ञान की कीमत है और वहाँ से फिर मिलती है उच्चतम मान्यता।

तो मैं आपसे कह रहा हूँ आपके प्रश्न के उत्तर में कि मान्यताएँ तो आपको रखनी पड़ेंगी। आप ये देखिए आप किस कोटि की मान्यता में जी रही हैं। एक मान्यता होती है जिसमें जानवर जीते हैं। फिर एक मान्यता होती है जिसमें सामाजिक-पशु जीते हैं। फिर एक मान्यता होती है जिसमें सामाजिक-ज्ञानी जीते हैं। और फिर एक मान्यता होती है जिसमें आध्यात्मिक ज्ञानी जीते हैं। आप किस मान्यता में जी रही हैं?

ये सब छोड़िए। आप पूछ रहे हैं कि "मैं ऐसा जीवन कैसे जिऊँ, आचार्य जी, जिसमें मान्यताओं का कोई भी स्थान ना हो?" ये आपने बड़ी असम्भव और बड़ी ख़तरनाक माँग कर ली है अपने लिए। मान्यताओं का कोई स्थान ना हो, ये प्रश्न व्यर्थ है।

आप सही मान्यता रखें, आप ऊँची मान्यता रखें, और मैं आपसे कह रहा हूँ, आपको जितनी ऊँची मान्यता रखनी है, आपको उतनी ऊँची कीमत चुकानी पड़ेगी। जीवन और क्या है? जीवन यही है, अपनी नीचाइयों से ऊँचाइयों की ओर निरंतर बढ़ते रहना, उठते रहना। यही जीवन है, और क्या है? और उठते रहने का क्या मतलब है? उठते रहने का मतलब ये है कि एक मंज़िले मकान से दो मंज़िले में पहुँच गए फिर चार मंज़िले में पहुँच गए और फिर जाकर चालीस मंज़िली इमारत की छत पर खड़े हो गए? मैं इस ऊँचाई की बात कर रहा हूँ, मैं अपना कद बढ़ाने की बात कर रहा हूँ, मैं आपके बैंक बैलेंस में जो राशि है वो बढ़ाने की बात कर रहा हूँ, मैं किस ऊँचाई की बात कर रहा हूँ?

जीवन का अर्थ ही है निरंतर आत्म-विकास की यात्रा। अपने आप को लगातार बेहतर-से-बेहतर बनाना है। अब पशु अगर अपने आप को बेहतर-से-बेहतर बनाएगा तो क्या करेगा? पशु भी हो सकते हैं बेहतर। आप डार्विन से जाकर पूछेंगे, वो कहेंगे बिलकुल ऐसा होता है। वहाँ भी होते हैं जो कम फिट (योग्य) होते हैं और ऐसे होते हैं जो ज़्यादा फिट (योग्य) होते हैं और एक होते हैं जो फिटेस्ट (योग्यतम)। तो पशुओं में भी इस तरह की श्रेणियाँ होती हैं कि एक नीचे का पशु, ऊपर का, ऊपर का।

ऐसा नहीं कि मैं बात कर रहा हूँ यहाँ पर भेड़िये की और खरगोश की, और हम कहें कि जहाँ तक ताक़त का मामला है, भेड़िया खरगोश के ऊपर है। नहीं, हम कह रहे हैं कि खरगोशों की प्रजाति में भी आप दस खरगोश ले लीजिए, उसमें एक होगा ऐसा जो बाकी दस पर धौंस चलाता होगा। तो वहाँ भी ये होता है। पर खरगोश या कोई भी जानवर जब बेहतर होता है तो अधिक-से-अधिक शरीर के तल पर हो जाता है क्योंकि वही उसकी मान्यता का तल है।

आदमी को अगर बेहतर होना है तो उसे अपने ज्ञान का स्तर बढ़ाना पड़ता है। जब मैंने कहा जीवन एक निरंतर आत्म-विकास की यात्रा है तो आत्म-विकास से मेरा आशय है जीवन निरंतर ऊँचे-से-ऊँचे आत्म-ज्ञान की यात्रा है। माने जीवन निरंतर ये यात्रा है कि आप अपने आप को दस साल पहले क्या समझते थे, फिर पाँच साल पहले क्या समझते थे, और आज क्या समझते हो। और दस साल बाद क्या समझोगे।

अगर आपका अपने प्रति जो नज़रिया है, आपकी जो आत्म-परिभाषा है, आपकी जो अपने प्रति दृष्टि है जिसको आप सेल्फ कॉन्सेप्ट (स्व-संकल्पना) बोलते हैं अगर वो उत्तरोत्तर प्रगति नहीं कर रहा है तो आप जी ही नहीं रहे, आप ठहरे हुए हो। और आदमी का तो देखिए ऐसा है कि जैसे ठहरा हुआ पानी सड़कर गंदा हो जाता है, ख़राब हो जाता है वैसे ही जो आत्म-विकास की यात्रा अपनी रोक देता है वो आदमी ठहर गया, सड़ गया, गंदा हो गया। वो बर्बाद हो जाएगा।

मान्यताओं को ऊँचे-से-ऊँचा करना है। अपने ज्ञान का स्तर निरंतर बढ़ाते चलना है। और ज्ञान का स्तर बढ़ाने में, याद रखिएगा, अगर आप ज्ञान लगातार बाहर की चीज़ों के बारे में, देश-दुनिया के बारे में ले रहे हैं तो आप रह गए सामाजिक स्तर पर ही। ये सामाजिक ज्ञान की ही कोई ऊँची कोटि हो सकती है लेकिन उससे ऊपर कुछ नहीं।

अपने-आपको देखने का तरीका बदलना होगा। 'हम क्या हैं?' ये प्रश्न बार-बार पूछना होगा। अपनी जो मान्यता है अपने प्रति उसको ही बेहतर करना होगा। और मज़ेदार बात ये है कि जैसे-जैसे आप देखते जाते हैं कि आप वो नहीं हैं जो अपने आप को समझ रहे थे, आपका दुनिया से रिश्ता बिलकुल बदलता जाता है।

आप अपने आप को अगर गुड़ मानेंगे तो दुनिया की सारी मक्खियाँ आपकी दुश्मन हो जाएँगी न? देखिए रिश्ता बदल गया, मक्खी से आपका रिश्ता बदल गया क्योंकि अपने-आपको गुड़ मानते थे। आप अपने आप को अगर नमक मानने लग जाओ तो अब आपको कीड़ों से और मक्खियों से क्या दुश्मनी? मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप आज कहना शुरू कर दें कि आप नमक हैं। मैं बस उदाहरण के तौर पर समझा रहा हूँ कि दुनिया से आपका रिश्ता क्या बनता है वो इस पर निर्भर करता है कि आप अपने आप को मानते क्या हैं।

आप अपने-आपको प्राथमिक-रूप से देह ही मानते हैं, मान लीजिए आप अपने-आपको पुरुष की देह मानते हैं, तो दुनिया भर में जितनी स्त्रियाँ होंगी और खासतौर पर जो युवा और आकर्षक स्त्रियाँ होंगी उनसे आपका एक ही तरह का रिश्ता बन जाना है - काम का रिश्ता, आकर्षण का रिश्ता, राग का रिश्ता। आप अपने आप को कुछ और मानना शुरू कर दो, दुनिया से आपका रिश्ता बदल जाना है।

तो दुनिया से आपका सही रिश्ता बन सके, जैसे आपने यहाँ लिखा न, "मैं छवियों में जीती हूँ, ऐसा लगता है जैसे जीवन जीने के लिए, लोगों को परखने के लिए मेरे पास आँखें नहीं हैं, बक्से हैं। मैं इन बक्सों में सबकुछ फिट करती रहती हूँ", इत्यादि-इत्यादि, वो इसीलिए होता है। लोगों को आपको बक्सों में इसीलिए फिट करना पड़ता है क्योंकि आपने अपने आप को एक ऐसे बक्से में फिट कर रखा है जहाँ से कुछ दिखाई ही नहीं देगा। आप अगर कह दें कि "मैं बक्सा नहीं हूँ, मैं बोध-स्वरूपा हूँ", अब आप कैसे किसी को बक्से में फिट करेंगी? क्योंकि अब आप स्वयं ही उस बक्से से बाहर आ गईं।

बोध किसी बक्से की चीज़ है क्या? बक्से में ज्ञान हो सकता है। ज्ञान की सीमाएँ होती हैं, जैसे बक्से की होती हैं, बोध की नहीं होती। और समझिएगा, बोध कोई अंतिम स्थिति मात्र नहीं है। जब मैं बोध कह रहा हूँ तो मेरा आशय है निरंतर-निरंतर बोध का वृहद से वृहदतर होते जाना। बोध कोई ठहरी हुई इकाई नहीं है, जो ठहरी हुई चीज़ है वो तो मृत हो गई। अनंतता को आप कोई ठहरी हुई, रुकी हुई चीज़ मत समझिएगा। जो रुक गया वो निश्चित रूप से सीमित होगा। अनंतता की पहचान यही है कि वो निरंतर सुविकसित होती रहती है, वो निरंतर अपना विस्तार करती रहती है। तो इसी तरह बोध का मतलब है निरंतर बोध का ही विस्तार करते रहना। अब आप ये मान्यता बनाइए अपनी और मुझे बताइए बक्से कहाँ जाएँगे?

अगर आपने कह दिया कि, "मैं वो हूँ जो लगातार जानती रहती हूँ, नाम है मेरा जिज्ञासा", अब आप कैसे अपने आप को या दुनिया में किसी और को भी बक्से में फिट कर लेंगी? दुनिया को बक्से में फिट करने के लिए, ध्यान दीजिएगा, सर्वप्रथम अपने आप को किसी बक्से में रख देना ज़रूरी है। बक्से का मतलब समझ रहे हैं न? पूर्व-निर्धारित जड़ परिभाषा। "मैं तो यही हूँ"। आपको कैसे पता आप क्या हैं? क्या आपका ज्ञान एकदम उच्चतम कोटि का हो गया?

अगर नहीं हो गया तो उस पर इतना यकीन क्यों कर रहे हैं? मैं बताता हूँ यकीन क्यों कर रहे हैं, क्योंकि उच्चतम कोटि का ज्ञान पाने के लिए, जैसा थोड़ी देर पहले कहा, कीमत चुकानी पड़ती है। हम कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। हम कहते हैं "हम घटिया ज्ञान से गुज़ारा कर लेंगे, हम अपने ही प्रति एक भ्रामक मान्यता, भ्रामक परिभाषा रख लेंगे, लेकिन ऊँचे ज्ञान की जो कीमत हो सकती है वो तो साहब चुकाएँगे नहीं"।

वो आप नहीं चुकाएँगे तो फिर वही आपकी दशा रहेगी कि ना दुनिया का कुछ पता ना अपना कुछ पता। मानिए, लेकिन सही बात मानिए न। मानने में क्या बुराई है? मानना तो पड़ेगा ही जीने के लिए। जिसे जीना है उसे मानना पड़ेगा, मान्यता रखनी पड़ेगी, पर बात, मैं पूछ रहा हूँ कि, क्या माने ले रहे हो और किसकी माने ले रहे हो? और जब मैंने कहा किसकी माने ले रहे हो, यहाँ भी एक नया अध्याय खुल जाता है।

जो निचला आदमी होगा जिसकी अपनी परिभाषा ही भ्रमित होगी वो निचली बात ही बड़ी आसानी से मान लेगा और जिसमें ऊँचा बढ़ने की ललक होगी वो ऊँचे-से-ऊँचे स्रोत के पास जाएगा और उसकी बात मानेगा क्योंकि वो कह रहा है कि ज़िंदगी का तो मतलब ही है निरंतर उत्कर्ष। ऊपर नहीं उठ रहे तो जी क्यों रहे हैं? कल जैसे थे, आज उससे बेहतर नहीं हुए तो जी क्यों रहे हैं? जीवन मिला ही इसीलिए है ताकि अपने दोषों से, अपने विकारों से ऊपर उठ सको और अंततः मुक्ति पा सको। अगर कल जो विकार थे मुझमें वो आज भी हैं तो मैंने किया क्या वक़्त बर्बाद करने के अलावा?

और अगर मुझे ऊपर उठना है तो फिर मुझे संगति भी उन्हीं की करनी पड़ेगी न जो ऊपर वाले हैं। ऊपर उठना है मुझे तो मैं एक की संगति तो कतई नहीं करूँगा, अपनी, क्योंकि मैं तो हूँ ही नीचे वाला, ये प्रमाणित कैसे होता है? प्रमाणित इससे होता है कि मुझे ऊपर उठना है। नीचे वाला हूँ तभी तो ऊपर उठना है और अगर मुझे ऊपर उठना है तो मैं अपनी क्यों सुन रहा हूँ? और अगर मुझे ऊपर उठना है तो खासतौर पर ऊपर वाले के ख़िलाफ़ मेरे मन में जो आवाज़ें हैं मैं उनको क्यों सुन रहा हूँ?

लेकिन बहुत आसान होता है। नीचे वालों की आवाज़ हमें सुकून दे देती है, हमें ढाँढ़स बँधा देती है, सांत्वना दे देती है, हमें एक झूठे भ्रम में रख देती है कि हम बढ़िया हैं, अच्छे हैं, ऊँचे हैं। ऊपर वाले की आवाज़ जब भी कानों में पड़ेगी, छेद जाएगी क्योंकि ऊपरवाले की आवाज़ तो सच की आवाज़ होती है, वो बिलकुल छील देती है। दस जगह से हमारी हस्ती में खून निकाल देती है। मन के चिथड़े कर देती है। हम कहते हैं, "बड़ी भारी कीमत है यार, ये हम नहीं देंगे। इससे अच्छा तो ये है कि अपने पूर्वाग्रहों में जी लो। इससे अच्छा तो ये है कि अपने सपनों में, अपने झूठों में जी लो।"

कीमत चुकाइए, ऊँचे उठते जाइए। मानिए बात को, पर सही बात को मानिए। मानिए बात को, पर ऊँचे लोगों की मानिए। अगर आपको ये 'परमहंस-गीता' उपलब्ध है तो आप क्यों किसी टीवी एंकर (उद्घोषक) को व्यावहारिक रूप से अपना गुरु बनाए ले रहे हैं? बताइए ज़रा। मान्यता रखनी ही है, मान्यता माने? मानना, मान्यता अगर रखनी ही है तो भाई, उस चीज़ को मान्यता देंगे न जो यहाँ पर जड़-भरत कह रहे हैं, कि कपिल-मुनि कह रहे हैं, उस चीज़ को मान्यता देंगे न। उस बात को थोड़े ही मान्यता देंगे जो टीवी पर ये छिछोरे लोग आकर बोल रहे हैं।

मान्यता देनी ही है तो किसी आत्म-ज्ञानी की बात को देंगे न, या फ़िल्मी-तारिकाओं को और तमाम तरह उथले सेलेब्रिटीज़ को अपना पथ-प्रदर्शक बना लेंगे? किसको मान्यता दे रहे हैं? आध्यात्मिक विषयों पर भी अब राजनीतिज्ञों की सुनोगे क्या? जीवन के महत्त्वपूर्ण विषयों पर तुम फैसला करोगे अपने दोस्तों-यारों और रिश्तेदारों की सुनकर? किसकी बात सुन रहे हो? किसको मान्यता दे रहे हो? यही प्रश्न है जो तुम्हारी क़िस्मत का फैसला कर देगा। तुमने किसकी बात को मान्य कर लिया, तुमने किसको 'मान्यवर' कह दिया? इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं होता।

फिर दोहराए दे रहा हूँ, याद दिलाए दे रहा हूँ, वो जिसकी बात नहीं सुननी है, बाहर तो पसरा ही हुआ है, भीतर बहुत बैठा हुआ है। आज के समय का गहरे-से-गहरा भ्राँतिपूर्ण दुष्प्रचार यही है "अपनी सुनो, अपनी करो"। एक बहुत सड़कछाप जुमला फैला हुआ है, "सुनो सबकी, करो मन की"। ये सड़कछाप जुमले हैं, ये उपनिषदों के श्लोक नहीं हैं। इन पर आधारित जो जीवन होगा, कहे देता हूँ, सड़कछाप ही होगा। सड़कछाप जीवन अगर जीना हो तो सड़कछाप जुमलों पर जी लो। खूब इस तरह के सड़कछाप जुमले चल रहे हैं। "भाई, अपनी अक्ल लगा।" बचना।

तुम अगर इस क़ाबिल ही होते तो तुम्हारा जीवन उस क़ाबिलियत का उत्सव होता न। अपने जीवन को देखो। तुम अगर इस क़ाबिल ही होते कि तुम्हारी सारी मान्यताएँ सत्य के निकट होतीं तो मैं कह रहा हूँ तुम्हारे जीवन में वो क़ाबिलियत परिलक्षित हो रही होती न। कहाँ दिखाई दे रही है तुम्हें वो क़ाबिलियत? फिर भी तुम सबसे ज़्यादा भरोसा अपनआप पर ही करते हो। बचो।

लोग हुए हैं, वो तुम्हारे शुभेच्छु हैं जो तुमको राह दिखाने के लिए बड़े उत्सुक हैं। वो तुमसे कुछ नहीं ले रहे और ऊँची-से-ऊँची बात तुम्हारे लिए छोड़ गए हैं एक प्रेम भरे तोहफ़े की तरह, प्यार की एक भेंट की तरह। उस उपहार को अस्वीकार मत करो। तुम्हें इतना ही करना है कि उनके पास जाओ, बैठो, उनको पढ़ो, उसके बाद ये जो दुनिया का ज्ञान है, ये दुनिया में तमाम तरह के फंडे (सिद्धांत) चलते हैं, ये फंडे (सिद्धांत) तुमको सड़े हुए अंडे ही लगने लगेंगे। फिर बिलकुल भूल जाओगे ये सब सड़कछाप-फुटकर जुमले जो आजकल ज्ञान के नाम पर फैलाए जाते हैं। एक बार जाओ तो सही, पढ़ो तो। लेकिन जब पढ़ोगे तो आनंद तो आएगा, पीड़ा भी होगी।

पीड़ा इसलिए होगी क्योंकि जो कुछ तुम आजतक सच मानते आए थे, तुम्हें सप्रमाण और सुस्पष्ट दिखाई देगा कि वो सब झूठ ही है। आनंद आएगा झूठ से मुक्ति का और पीड़ा उठेगी झूठ से आसक्ति की। अब तुम देख लो कि तुम्हारे लिए मुक्ति का आनंद बड़ा है या आसक्ति की पीड़ा बड़ी है। इस देखने मात्र से, मैंने कहा, तुम्हारी क़िस्मत का निर्धारण हो जाना है।

जब भी तुम किसी ऊँची जगह के पास जाओगे, इन दोनों का अनुभव होगा। मुक्ति का आनंद मिलेगा और जो पुरानी आसक्तियाँ हैं उनके टूटने की पीड़ा मिलेगी। बहुत लोग होते हैं जो कहते हैं "ना बाबा, पीड़ा नहीं बर्दाश्त हो रही, हम तो दूर जा रहे हैं।" तुम दूर ही जाओ, हर कोई सुपात्र होता नहीं।

आसानी से मत मानिए ,सवाल पूछा करिए। अपनी मान्यता को ऊँचे-से-ऊँचा स्तर दीजिए। आपका ज्ञान उच्चतम कोटि का होना चाहिए। सांसारिक भी और आत्म-ज्ञान भी, दोनों साथ-साथ ही चलते हैं।

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