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लेख
कर्तव्य और धर्म जितने अलग हैं, धर्म और प्रेम उतने ही एक || आचार्य प्रशांत (2015)

श्रोता १: बेटे और पिता के बीच में प्रेम के अलावा कर्तव्य भी है, मतलब ऐसा किसी भी रिलेशन (रिश्ते) में नहीं है कि कर्तव्य न हो।

वक्ता: बेटा, जब बाहर से कोई बताए कि ऐसा करो, तो उसका नाम होता है ‘कर्तव्य’। और जब पिता के प्रति प्रेम हो और तुम करो, तो वह कर्तव्य नहीं कहलाता। पिता बीमार हैं और तुम जाकर के उनकी सेवा कर दो या दवा दे दो, यह कर्तव्य नहीं है। यह प्रेम है। और तुम सिर्फ़ कर्तव्य के नाते पिता को दवा दे रहे हो, तो बहुत दिन तक नहीं दे पाओगे।

दुनिया में आज यदि यह स्थिति है कि लोग माँ-बाप को छोड़ आते हैं इधर-उधर और यह सब कर देते हैं, तो वो इसीलिए है क्योंकि यह दुनिया कर्तव्य पर चलने वाली दुनिया है। और कर्तव्य हमेशा सीमित होता है। तुम कहोगे- *‘ठीक है, आपने हमारे लिए बहुत किया था*। पर जितना आपने किया था, देखिये, उतना ही अब हमने भी कर दिया। हमारा कर्तव्य पूरा हुआ।’

कर्तव्य हमेशा सीमित होता है। प्रेम असीमित होता है।

प्रेम में तुम गिनती नहीं करते।

श्रोता २: पिता यदि करता है, तो वह कर्तव्य माना जाएगा या प्रेम?

वक्ता: पिता भी अगर सिर्फ़ कर्तव्य के नाते कर रहा है, तो उतना ही करेगा, जितना उसको सिखा दिया गया है कि तुम्हारा कर्तव्य है। और यदि पिता प्रेम के नाते कर रहा है, तो वह बात दूसरी होगी।

कर्तव्य तो होता ही सिर्फ उनके लिए है, जिन्हें उनके धर्म का पता नहीं।

कर्तव्य का अर्थ होता है कि आप जानते ही नहीं कि आपको कैसा जीवन जीना चाहिए। इसलिए दूसरों ने आकर आपको लिखकर दे दिया कि देखो पिता होने के नाते, यह सब तुम्हारे कर्तव्य हैं।

जिन्हें अपना पता है, वह धर्म पर चलते हैं, कर्तव्य पर नहीं चलते।

आपको कर्तव्य स्वयं तो ज्ञात नहीं हुए हैं न? आपके क्या कर्तव्य हैं किसी भी स्थिति में, देश के प्रति, समाज के प्रति, बेटे के प्रति, पत्नी के प्रति। यह कर्तव्य आपको किसी ने बताये हैं! हमें यह आवश्यकता ही क्यों पड़े कि कोई और हमें बताए हमारे कर्तव्य। यदि हमारे भीतर बोध है, तो हम स्वयं जानेंगे न कि हमें क्या करना चाहिए। जब तुम स्वयं जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, तो वह कर्तव्य नहीं कहलाता, तब वह धर्म कहलाता है।

धर्म पर चलो, कर्तव्य पर नहीं।

कर्तव्य बहुत छोटी और बड़ी छुद्र चीज़ है। और क्योंकि हम सिर्फ़ कर्तव्य जानते हैं, इसीलिए दुनिया इतनी बेरौनक है।

कर्तव्य तो वैसा ही है कि मेरा कर्तव्य है अपने दफ्तर में छ: बजे तक रुकना। अब मैं छ: बजे दफ्तर से बाहर निकल रहा हूँ और तभी मैं देखता हूँ कि एक चोर मेरे दफ्तर में घुस रहा है। मैं कहूँगा ठीक है, मैंने अपना कर्तव्य तो पूरा कर दिया न। मेरा कर्तव्य क्या था? छ: बजे तक रुकना। अब यह चोर घुसा जा रहा होगा, इसे रोकना तो पुलिस का कर्तव्य है, मेरा थोड़ी ही है। मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। पुलिस अपना कर्तव्य पूरा करे।

प्रेम में तुम ऐसा नहीं कह सकते। धर्म में तुम ऐसा नहीं कह सकते।

धर्म असीमित होता है।

प्रेम कहीं जाकर रुक नहीं जाता।

श्रोता ३: कर्तव्य में स्वार्थ रहता है या नहीं?

वक्ता: कर्तव्य में स्वार्थ बिलकुल रहता है। जहाँ कहीं भी ‘मैं’ की भावना है – मेरा कर्तव्य – वहीँ पर ‘स्व’ मौजूद है, और जहाँ ‘स्व’ मौजूद है, वहीँ पर स्वार्थ है।

श्रोता ४: पिता-पुत्र में भी तो यही रहता है स्वार्थ।

वक्ता: यदि पिता-पुत्र में रिश्ता स्वार्थ का है, तो दुनिया फिर वैसी ही रहेगी, जैसी आपको दिखाई दे रही है। स्वार्थ का है रिश्ता, बिलकुल है। दुनिया भी तो फिर वैसी ही है न। और बात देखिये, पिता और पुत्र की नहीं है। जब पिता का पूरी दुनिया से रिश्ता स्वार्थ का है, तो बेटे से भी तो उसका रिश्ता स्वार्थ का होगा ही न। मन तो एक ही है।

श्रोता ५: हम तो यह समझते हैं कि पिता का स्वार्थ, एक सार्थक स्वार्थ होता है पुत्र के लिए। मान के चलिए कि संसार है और इसे चलाना ही पिता का धर्म है। तो उसका उद्देश्य जो होता है, वह सार्थक होता है।

वक्ता: देखिए! दुनिया पिताओं से और पुत्रों से भरी पड़ी है और कर्तव्य सबको पता हैं। और दुनिया कैसी है आप देख ही रहे हैं। और वो ऐसी इसीलिए है…

श्रोता ५: संसार ही झूठा है।

वक्ता: न, न। संसार झूठा नहीं है। संसार बड़ा कर्तव्यपरायण है। सब अपने-अपने कर्तव्य की पूर्ति कर रहे हैं। और मात्र कर्तव्य की ही पूर्ति कर रहे हैं। इसीलिए संसार ऐसा है। क्या यहाँ पर पुत्र नहीं हैं? किसी न किसी के पुत्र ही होते हैं न। सभी पुत्र हैं। और दुनिया भरी हुई है भ्रष्ट लोगों से और हत्यारों से। और यह सब पुत्र ही तो हैं। और उनके बड़े सार्थक पिता ही थे। या बिना पिता के भी कोई पैदा होता है? यह जितने लोग अभी भ्रष्टाचार में आपको लिप्त दिखाई देते हैं, यह अनाथ हैं? पिता सबके थे। लेकिन जब पिता को जब मात्र कर्तव्य पता होते हैं और उसके भीतर वह शक्ति नहीं होती कि वह स्वयं अपना धर्म जान सके, तो फिर दुनिया भी वैसी ही रहती है; बेरौनक, सिर्फ़ आदेशों पर चलने वाली।

और यह बिलकुल मत सोचिएगा कि हमारा बाकी जीवन जैसा है, हमारे अपने बच्चों से सम्बन्ध उससे हठकर कुछ हो सकते हैं। जो व्यक्ति जीवन के एक-एक मोड़ पर बेहोश है, जिसके और कहीं प्रेम के सम्बन्ध नहीं हैं, उसका अपने निजी परिवार से भी प्रेम नहीं हो सकता। कृपा करके इस बात को समझें।

जो आदमी सर्वथा हिंसक है पूरी दुनिया के प्रति; जानवरों के प्रति, पेड़ों के प्रति, नदियों के प्रति हिंसक है, वह अपने परिवार के प्रति भी किसी न किसी रूप में हिंसक ही रहेगा। तो यह छोड़िए कि पिता का पुत्र से सार्थक सम्बन्ध होता है। पिता सबसे पहले एक इंसान है। यह देखना पड़ेगा कि वह इंसान कैसा है। अगर वह इंसान बोधयुक्त है, तो उसके सारे सम्बन्ध अच्छे होंगे। और अगर वह इंसान बोधयुक्त नहीं है, तो उसके सारे ही सम्बन्ध खराब होंगे। भले ही वह बाप-बेटे का हो या भले ही वह पड़ोसी के साथ हो। क्योंकि सारे सम्बन्ध निकल तो आपके ही मन से रहे है न।

जब मैंने दुनिया में हर चीज में गड़ना ही की, स्वार्थ ही देखा, तो मैं एक सम्बन्ध को कैसे छोड़ दूँगा बिना स्वार्थ देखे? और अगर मैंने किसी के साथ गड़ना नहीं की, किसी के साथ स्वार्थ नहीं देखा, तो ज़ाहिर सी बात है, मैं अपने बेटे के साथ भी स्वार्थ नहीं देखूंगा। लेकिन हम ऐसा सोचते हैं कि भले ही मैं पूरी दुनिया के प्रति असंप्रक्त रहूँ, वैम्नस्य रखूँ, यहाँ तक की हिंसक रहूँ, पर मैं अपने परिवार के लिए भला हो सकता हूँ। आप नहीं हो सकते।

हममें से जो भी लोग अपने परिवार की भलाई चाहते हों, जो कि मैं समझता हूँ कि सभी चाहते हैं, हममें में से जो भी लोग अपने परिवार की भलाई चाहते हों, वह सर्वप्रथम अपनी भलाई करें और अपना शोधन करें। जब आप सबके लिए भले होगे, तब आप अपने परिवार के लिए भले हो पाओगे, अन्यथा नहीं। जो सबके लिए भला नहीं है, वह अपने परिवार के लिए भला नहीं हो सकता।

श्रोता ६: कर्तव्य से, यह जो प्रेम है, वह अलग कब हो जाता है?

वक्ता: हमेशा अलग है। प्रेम पूर्णतः आंतरिक है। और कर्तव्य की शिक्षा हमेशा बाहरी होती है। प्रेम और कर्तव्य तो कहीं पर मिलते ही नहीं हैं। प्रेम कोई ड्यूटी (कर्तव्य) थोड़ी ही होता है, कोई कर्तव्य थोड़ी ही होता है। तुम कहो कि मैं प्रेम का कर्तव्य निभा रहा हूँ’। तो तुम कैसी बात कर रहे हो! प्रेम और कर्तव्य कभी मिलते ही नहीं हैं।

श्रोता ६: अलग हैं।

वक्ता: बिलकुल अलग हैं।

प्रेम और धर्म एक साथ चलते हैं। प्रेम महाधर्म है।

पर प्रेम और कर्तव्य, या धर्म और कर्तव्य, यह कभी नहीं मिलते। धर्म और कर्तव्य कहीं पर भी जाकर नहीं मिलते। प्रेम और कर्तव्य भी कहीं पर जाकर नहीं मिलते।

कर्तव्य तो है ही उनके लिए जो खुद कुछ समझ नहीं सकते। तो उन्हें कर्तव्य दे दिए जाते हैं। जैसे कि तुम किसी दफ्तर को ज्वाइन (शामिल हो) करो, या कहीं भी तुम नौकरी करो, उर तुम्हें बाते जाता है न, ‘के आर ए ’। ‘के आर ए ’ क्या होता है? या ‘जे डी’- जॉब डिस्क्रिप्शन (नौकरी का विवरण)। यह सब बताया जाता है न? क्योंकि तुम जानते ही नहीं कि तुम्हें करना क्या है। तुम जब दफ़्तर में जाते हो, तुम्हारे कर्तव्य बता दिये जाते हैं कि देखिए आप यहाँ यह सब करेंगे। जो जानता हो, उसे सूची थोड़ी ही थमानी पड़ेगी।

श्रोता ६: उसका धर्म बन जाएगा।

वक्ता: उसका धर्म बन जाएगा न। बात आंतरिक होगी। वह खुद समझेगा कि मुझे क्या करना चाहिए और फिर उसे जो करना होगा, वह बात असीमित होगी। वह कहीं रुकेगी नहीं जाकर के। वह यह नहीं कहेगा कि देखिए यहाँ तक मुझे करना था, इसके आगे थोड़ी ही मुझे करना था।

श्रोता ६: वो अपने काम को बड़े प्रेम से करेगा।

वक्ता: बड़े प्रेम से करेगा।

श्रोता ६: धर्म और प्रेम साथ में हैं।

वक्ता: धर्म और प्रेम साथ में हैं।

श्रोता ७: और इसीलिए पिता का धर्म जब प्रेम के साथ रहता है तो बराबर रूप से चलता है, जब कर्त्तव्य में बदलता है तो वह फिर कहीं न कहीं…

देखो कोई भी व्यक्ति- मामा या पिता या बेटा या बेटी, बाद में होता है। सबसे पहले तो वह इंसान होता है न। इंसान पहले था या पिता पहले बना?

सभी श्रोता: इंसान।

वक्ता: इंसान। तो सर्वप्रथम आपको यह देखना होता है कि आप इंसान कैसे हो। अच्छा इंसान अच्छा पिता अपने आप हो जाएगा। पर अच्छा पिता होकर अच्छा इंसान नहीं हो सकते तुम। जड़ अगर मज़बूत है तो सारी पत्तियाँ अपने आप हरी हो जायेंगी। पर एक पत्ति को चमकाकर के तुम पूरे पेड़ की देखभाल नहीं कर सकते।

मूल रूप से तुम क्या हो उसकी परवाह करो।

फिर तुम्हारे सारे सम्बन्ध ठीक हो जायेंगे।

इंसान अच्छे बनो।

अपने आप अच्छे पिता, पति सब बन जाओगे।

श्रोता ७: पूरे समाज के लिए।

वक्ता: पूरी दुनिया के लिए। पूरी दुनिया के लिए शुभ हो जाओगे। पहले अच्छे इंसान बनो।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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