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लेख
कब सुनोगे उसकी आवाज़? || आचार्य प्रशांत, यीशु मसीह पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वक्ता : फॉर मैनी आर काल्ड बट ओन्ली फ्यू आर चोज़न

बात समझ में आ रही है? बुलाया बहुतों को जा रहा होगा पर तुम्हें सुनाई भी तो दे कि तुम्हें बुलाया जा रहा है। तुम्हें आवाज दी जाए तो थोड़ा-बहुत तुम्हें सुनाई भी तो देना चाहिए न कि तुम्हें बुलाया गया है। अगर नाश्ते में, दोपहर में और रात में नशा ही लेते हो तो कितनी आवाजें दी जाएँ तुम्हें? सुनाई क्या देगा? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि आवाज़ देने वाला अपनी ओर से कोई चुनाव करता है। बिल्कुल मत सोचना ऐसा कि जो आवाजें दे रहा है वो चुनाव करता है कि कौन आएगा और कौन नहीं आएगा। न आने का चुनाव तुम करते हो।

उदाहरण ले लो- कल यहाँ शाम को मैंने बहुतों को बुलाया, लिख करके बुलाया, एक-दो आए और कुछ नहीं भी आए। अब कहो कि मैनी आर काल्ड बट ओन्ली फ्यू आर चोज़न तो बुलाने वाले के साथ अन्याय है। उसने तो बुलाया था। अपनी और से उसने कोई भेद नहीं किया। उसने आवाज़ सबको दी, पर तुम्हें सुनाई पड़ती है क्या? तुममें थोड़ी तो इच्छा होनी चाहिए न, मुक्ति की, जानने की, समझने की। तुममें ज़रा तो साहस होना चाहिए न, अपने ढर्रों से, पिंजरों से बाहर आने की।

अभी तुम पिंजरों की बात कर रहे थे थोड़ी देर पहले, जो पक्षी उड़ना चाहता हो उसको तुम ताली बजाओ बाहर से, आवाज़ दो तो वो उसके लिए प्रेरणा बन जाती है और जो पक्षी पिंजरे में ही रहना चाहता हो उसको तुम बाहर से, पिंजरे का द्वार खोल के ही सही, ताली मारो, आवाज़ दो, वो उसके लिए खौफ़ बन जाता है।

समझना बात को।

अगल-बगल दो पिंजरे रखें हों, दोनों के द्वार खोल दो। एक उड़ना चाहता है, उसको ताली मारो वो उड़ जाएगा। ताली उसके लिए सूचना बन जाएगी। ताली उसके लिए इशारा बन जाएगी कि उड़ और दूसरा जो उड़ना नहीं चाहता उसका द्वार खोल दो और ताली मारो तो वो और संकुचित हो जाएगा, वो सहर उठेगा। ताली उसके लिए धमकी बन जाएगी।

मैं भी तुमसे कुछ कह रहा हूँ, यह ताली जैसा है। जिन्हें मुक्ति चाहिए उनके लिए यह उड़ान का इशारा है। जिन्हें पिंजरे चाहिए उनके लिए तो लेकिन ये खौफ़नाक चेतावनियाँ ही हैं। उन्हें तो यूँ ही लगेगा कि कोई उनकी शान्ति भंग कर रहा है, कोई उन्हें व्यर्थ परेशान कर रहा है। कोई उनका कुछ अहित कर देना चाहता है।

खेल मूलतः यह है कि आप क्यों बैठें हैं यहाँ मेरे सामने। यह आपकी स्वजात इच्छा है या परिस्तिथियों का खेल है। पूछना पड़ता है कि दोहे और श्लोक भी आप कहाँ से लेकर के आए हैं। पढ़ें भी हैं या युहीं कहीं से उठाए हैं। कल मैं विचार कर रहा था कि मार्च का महिना ख़त्म हो रहा है, अप्रैल लगने वाला है तो आप लोगों को एक सन्देश लिख दूँ कि रविवार को और बुधवार को आना है। आवश्यक नहीं है आपके लिए। आपकी मर्ज़ी पर है। पर दो बातें थी उसमें, पहला मर्ज़ी से तो आप तब भी नहीं आएँगे। तब भी जो आएँगे उनके पास कारण तो बाहरी ही होंगे। किसी को अपने ही आप को कुछ सिद्ध करना है। किसी को अपनी ही नज़रों में आध्यात्मिक बने रहना है। किसी को मेरी नज़रों में कुछ सिद्ध करना है। किसी को घर से थोड़ी छूट चाहिए। और जो नहीं आएँगे उनके भी कारण बाहरी ही होंगे। तो मैं अटक गया। हालाँकि करूँगा कुछ।

एक विचित्र सा जमावड़ा है, माहौल है जिसमें आप कभी खेंच कर, कभी धकियाए जाकर डॉक्टर के पास आते हैं पर यह पक्का करके आते हैं कि बीमारी छोड़नी नहीं है। यह ऐसी बीमारी है जिसने अस्पताल को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। जो बीमार अस्पताल को भी अपने अनुकूल बना ले उसका कोई इलाज अब संभव नहीं है।

बीमारी को दवाई नहीं ठीक करती, बीमारी को सबसे पहले आपकी ठीक होने की अभीप्सा ठीक करती है। दवाई तो बाद में आती है। उपचार आपके प्राण से उठता है। और इसी लिए जिसमें प्राण नहीं है उसका कोई उपचार संभव नहीं है। किसी मुर्दे को कोई फायदा होते देखा है दवाई से। जिसके प्राणों से अब यह आवाज ही न आ रही हो कि कुछ बदलना चाहिए, मैं स्वयं स्थित नहीं हूँ, मैं बीमार हूँ, उसकी तो दवा शुरू हो ही नहीं सकती, यह तो छोड़िये कि दावा कारगर होगी कि नहीं होगी, दावा शुरू ही नहीं हो सकती और उसमें समय का कोई स्थान नहीं है।

आप छह साल, दस साल, साठ साल अस्पताल के चक्कर काटते रहें पर अगर आपको ठीक नहीं होना है तो आप नहीं ही होंगे। कितना लम्बा समय आपने लगाया है, इससे फर्क नहीं पड़ता।

फॉर मैनी आर काल्ड बट ओन्ली फ्यू आर चोज़न इसमें एक बात जोड़े दे रहा हूँ – ”*इस तथ्य को जानना ही बुलाया जाना है। उस पुकार के स्वीकार को ही बुलाया जाना कहते हैं। कोई ऐसा नहीं है जिसे बुलाया न गया हो और कोई ऐसा नहीं है जिसने जाना हो कि उसे बुलाया गया है और उसे चुना न गया हो।*” आवाज़ जब भी आई है तुम्हारे बेहोश कानों पर पड़ी है और बेहोश कानों के लिए बुलाने वाले को दोष मत दे देना।

यह न कह देना कि अगर हम बेहोश हैं, तो इसमें भी परमात्मा का ही दोष है उसी की मर्ज़ी है। वो तो बुला ही रहा है। उसने तुमसे नहीं कहा कि तुम बेहोश रहो। तुम बेहोश हो क्योंकि तुम्हारा आहार बेहोशी का है, क्योंकि जिस हवा में तुम सांस लेते हो वो बेहोशी की है।

जो खाना तुम खा रहे हो, जो पानी तुम पी रहे हो उसमें नशा है। जिनके शब्द तुम्हारे कानो में पड़ते हैं उनमें नशा है। नशे के साथ ही उठ-बैठ रहे हो और कोई मजबूरी नहीं है। परमात्मा का फ़रमान नहीं है बल्कि तुम्हारा अपना चुनाव है यह। इससे पहले कि तुम यह पूछो कि परमात्मा मुझे क्यों नहीं चुनता तुम अपने आप से पूछो कि क्या तुमने परमात्मा को चुना है।

इससे पहले कि तुम यह पूछो कि तुम्हें आज़ादी क्यों नहीं मिलती अपने आप से पूछो कि क्या तुम आजादी को मिले हो। किसी को नहीं पाओगे दोष देने को। तुम अपने-आप को भी नहीं पा सकते दोष देने को। तुम यह भी नहीं कह सकते कि मेरे पुराने कर्मों का परिणाम है मेरा आज का दुःख। परमात्मा को तो छोड़ो, तुम कर्मफल को भी दोष नहीं दे सकते। दोषी है तो तुम्हारी इसी पल की बेहोशी और यह तुम चुन रहे हो। तुम अभी जग जाओ तो तुम्हारे सारे कर्मफल कट जाएंगे। तुम बिलकुल मत कहो कि किया है, सो भुगत रहा हूँ। भुगतने का अंत अभी हो सकता है, ठीक अभी। तुम बिलकुल न कहना कि हम क्या करें भाई, इश्वर की मर्ज़ी है। नहीं, उसकी ऐसी कोई मर्ज़ी नहीं है बल्कि तुम्हारी मर्ज़ी है।

‘शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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