आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जो बढ़े-घटे, आकर्षित करे, वो प्रेम नहीं || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: अभी ऋषिकेश में था तो वहाँ एक यूरोपियन महिला सत्रों में आती थीं और जो कुछ भी वो कहती उसमें ये बात लौट-लौट कर आती कि उन्हें गंगा बहतु पसंद है। मैंने पूछा कि आप अपना स्थान छोड़ कर यहाँ क्यों रहती हैं? तो कई बातें बोलें, पर जितनी भी बातें बोलें, उनके केंद्र में गंगा रहे; गंगा बहतु पसंद है।

अब ये सारी बातें हमारी होती थीं ऋषिकेश की गंगा के तट पर। एक कैफ़े था, हम उसमें बैठते थे। थोड़ी ऊँचाई पर, वहाँ से सीधे नीचे गंगा बह रहीं हैं, बड़ा मनभावन दृश्य होता था। वादी जैसा माहौल, आस-पास मंदिर, स्वच्छ जल, रेत, पत्थर, नीरभ्र आकाश, और उससे एक संतुलित दूरी पर बैठे हुए हम। कोई संदेह ही नहीं कि गंगा बड़ी नैनाभिराम लगें। और उन्हें गंगा से प्रेम था, बहुत-बहुत देर तक देखती ही जा रहीं हैं गंगा को। सूर्यास्त के समय प्रायः सत्र हुआ करते थे, तो ढलता हुआ सूरज प्रतिबिबिंत हो रहा है, बड़ा सुन्दर। और वो कहें कि 'गंगा जितनी बार बुलाएगी, ऋषिकेश आऊँगी'।

फिर एक रोज़ मैंने पूछ ही लि या, मैंने कहा कि कुछ वर्ष पूर्व यहाँ उत्तरांचल में बाढ़ आयी थी और तब ऐसी नहीं थी गंगा, तब नज़ारा ही दूसरा था, रौद्र रूप था। तब आप सुरक्षा-पूर्वक तट पर बैठकर के सूर्यास्त का आनदं नहीं ले सकते थे, तब जान के लाले पड़े हुए थे।

जहाँ पर आप अभी खड़ी हुईं हैं, वहाँ तक तो पानी की तीव्र धार थी, क्या तब भी पसंद आती गंगा?

कदाचित इस प्रश्न पर उन्होंने पहले कभी विचार किया ही नहीं था, तो थोड़ा अटपटा-सा लगा उनको। तो बोली कि “नहीं वो तो यदा-कदा की बात है, गंगा का प्राकृतिक रूप तो यही है और बड़ा सुन्दर है।”

मैंने कहा, “जिसे आप प्राकृतिक रूप कह रही हैं वो शायद बस एक अवस्था है, जो बदल जाती है। आप यहाँ दूर खड़े हैं, यहाँ सब कुछ मधुर है, आपके शरीर को पूरी सुरक्षा मिली हुई है, मन को शांति का अनुभव मिला हुआ है, यहाँ से आप चन्द कदम और आगे बढ़ जाएँ, धारा के बीच में चलें जाएँ तो मन डगमगाने लग जाएगा। जैसे-जैसे शरीर डगमगाएगा धारा के आवेग से, वैसे-वैसे मन भी डगमगाने लगेगा; शान्ति विलुप्त।”

गंगा पसंद है या गंगा की एक अवस्था पसंद है? गंगा और अपने मध्य में एक विशेष सम्बन्ध पसंद है? थोड़ा और नीचे चले जाएँ, मुरादाबाद, कानपुर की गंगा देखें, तो क्या इतनी ही चमत्कारिक लगेगी आपको? क्या ऐसे ही मुग्ध होकर के उसके तट पर बैठकर निहारेंगी उसे? और थोड़ा ऊपर चले जाएँ पहाड़ों की बाल-गंगा, नवयौवना गंगा, पत्थरों से, चट्टानों से टकराती हईु , अटखेलियाँ करती हुई गंगोत्री की गंगा, वहाँ आपको शारीरिक सुख ना मिलेगा, वहाँ आप गंगा तट पर बैठकर के * कैफ़े * से चाय नहीं मँगवा पाएँगी।

वहाँ पर हिम से और हवा से सुरक्षा ना होगी, और वहाँ पर आपके मन मुताबिक संगीत ना बज रहा होगा, क्या वो गंगा भी पसंद आएगी?

तथ्य तो ये है कि उस गंगा में खतरा है। वो गंगा आपकी मनोभावना के अनुकूल शायद ही पड़े। ऊपरवाली गंगा में भी खतरा है; नीचे वाली गंगा भी रास ना आएगी; बस ऐसी गंगा जो यहाँ दिखाई देती है, बड़ी प्यारी लगती है। और अभी बाढ़ आदि कोईउपद्रव आ जाए तो यहाँ की गंगा से भी जो रिश्ता है वो बदल जाएगा, टूट ही जाएगा। तो गंगा से प्रेम हुआ या गंगा की एक अवस्था से, एक रूप से, एक छवि से, एक प्रकार से, एक विशेष स्थिति से?'

मेरी बात को सुनकर के वो ज़रा ध्यान में चली गयीं, मैंने भी फिर बात आगे नहीं बढ़ाई क्योंकि अब उचित था कि वो स्वयं ही समझें कि मामला क्या है। हम सब प्रेम के दावे करते हैं, हम सब कहते हैं कि कुछ है जीवन में जिससे हमें बड़ा प्यार है, क्या वो प्यार हमेशा स्थिति-जन्य और स्थिति-सापेक्ष नहीं होता?

किसी ख़ास स्थिति में, किसी ख़ास माहौल में ही उठता है और उसी माहौल पर निर्भर रहता है। माहौल बदला, नज़ारा बदला, प्यार बदल जायेगा। जिस गंगा के पास जाते हो और उसके तट को चूमना चाहते हो, उसी गंगा से भागते फिरोगे।

जब कभी भी प्रेम एक अनुभव बनेगा, तो वो सीमित होगा, दायरा-बद्ध होगा, शर्ते जुड़ी होंगी उसके साथ। गंगा क्या है? जब कभी भी गंगा आँखों से दिखाई देने वाले जल का एक प्रवाह है, तब तक गंगा मात्र तभी तक तुम्हें भाएँगी जब तक वह प्रवाह तुम्हें सुख दे रहा है। आम मन जिसे प्रेम कहता है वो सुख के बहुत करीब होता है, हमारा प्रेम अधिकांशतः आकर्षण होता है। मन सुख की माँग कर रहा होता है, जिस दिशा उसे सुख मिले, उस दिशा खिंचता है, और उस खिंचाव को हम प्रेम कह देते हैं। नहीं, प्रेम एक बिलकुल दूसरा खिंचाव है। सुख की ओर मन का खिंचना प्रेम नहीं।

प्रेम है मन का शांति की ओर खिंचना; प्रेम है मन का उस दिशा खिंचना जहाँ सुख और दुःख दोनों विशेष लगते ही नहीं। सुख की ओर यदि मन खिंच रहा है तो उत्तेजना की ओर खिंच रहा है, तो उसी दिशा खिंच रहा है जिस दिशा उसके संस्कार हैं, जिस दिशा उसकी भावनाएँ हैं, जिस दिशा उसकी मान्यताएँ और धारणाएँ हैं। इसी कारण अलग-अलग लोगों को, अलग-अलग लोगों से प्रेम होता है, और इसी कारण हमारा प्रेम भी चढ़ता-उतरता रहता है।

यूँ ही नहीं कह गए हैं कबीर साहब —

छिन चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम ना होये

हमारे पास है ऐसा कुछ भी जो किसी क्षण चढ़ता और उतरता न हो? हमारे वो रिश्ते भी जिन्हें हम प्रेम के रिश्ते कहते हैं, क्या उनमें प्रेम का ज्वार-भाटा नहीं आता रहता? क्या आप नहीं कहते अपनी पत्नी से कि “आज तो तुम पर ख़ास प्यार आ रहा है”? क्या आपका बेटा भी कभी-कभी ही आपको विशेषतया सलोना नहीं लगता? हर समय तो नहीं पुचकारते आप उसको। किसी विशेष मनोस्थिति में जाते हैं, गोद उठा लेते हैं, चूमते हैं, उसके बालों पर हाथ फेरते हैं, और कहते हैं ”‘चल बाज़ार चल, साथ घूमेंगे।”

प्रेम आकर्षण नहीं है। प्रेम आत्मा की पुकार है, मन का जवाब है। खिंचाव ज़रूर है प्रेम पर इतना सूक्ष्म कि उसका आपको पता भी ना चले। सुख की ओर जब मन खिंचता है तो वो खिंचाव बहुत स्थूल, एक मायने में बड़ा अश्लील होता है, विचारजन्य होता है। आपको पता होता है कि आप खिंच रहे हैं, एक तरह की आंतरिक योजना होती है। आप निर्धारित कर सकते हैं कि इतने बजे जाऊँगा अपने प्रेमी से मिलने, इतने बजे जाऊँगा गंगा तट बैठने। आत्मा का जब खिंचाव होता है तो उसमें आपके विचारों और योजनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता, वहाँ जो घटना घट रही होती है उसका आपको बहुधा पता भी नहीं चलता। और खैरियत है कि आपको नहीं पता चलता, इसी कारण वो घटना निरतंर घट पाती है। जो कुछ निरतंर घट पाए, समय से अछूता रहे उसे ही अनकंडीशनल (शर्तहीन) कहते हैं, कि अब वो स्थितियों से बाहर का हो गया। कंडीशन माने शर्त या स्थिति या अवस्था, अब वो स्थिति-निरपेक्ष हो गया है। स्थितियाँ बदलती रहेंगी, नीचे-नीचे प्रेम की धारा बहती रहेगी, बह इसीलिए पाती है वह अखंड क्योंकि आपको उसका पता नहीं लगता, आपको पता लग जाए तो आप उसे बाधित कर दें। ठीक वैसे जैसे हमारे जीवन में अन्यथा जो कुछ रहता है वह हमारे द्वारा ही निर्धारित, संचालित और अंततः बाधित हो जाता है। प्रेम खींच रहा था आपको, और कहाँ को खींच रहा था? ये तो आपको बहुत बाद में पता चलता है इसीलिए उसको अनुग्रह कहा जाता है कि दिया गया, और बिना बताए दिया गया। तुम्हें दिशा भी दिखा दी गयी और किसी ने एहसान भी नहीं जताया। अपने चले तो तुम कहीं और को ही जाते थे, किसी ने धीरे से ऊँगली पकड़कर रास्ता भी दिखा दिया और अपना चेहरा भी नहीं दिखाया। बहुत बाद में जब मंज़िल पर पहुँच ही जाते हो तब मंज़िल का चेहरा देख के याद आता है कि ऊँगली पकड़ने वाले का चेहरा भी कुछ ऐसा ही था।

मंज़िल ही होती है जो ऊँगली पकड़ कर मंज़िल का पता देती है, तुम्हें नहीं पता लगेगा।

तो इन सारी बातों से तात्पर्य क्या? कुछ वि शेष नहीं, क्योंकि जो होना है वो तो हो ही रहा है, और हम कह ही रहे हैं कि उसका पता लग पाना, उसका आभास हो पाना, उसको संज्ञान में ले पाना इस मन के लिए संभव नहीं है, और मन यदि ये दुश्चेष्टा करे भी तो अच्छा ही है कि असफल रहे।

ये बातें हम सिर्फ इसलिए कह रहे हैं ताकि जिसे साधारणतया हम प्रेम कहते हैं वो प्रेम नहीं, यह बात हम ज़रा विनीत होकर के जान लें। वास्तविक प्रेम क्या है? उसको जाना नहीं जा सकता! वो धार इतनी गहरी बहती है कि वहाँ तक हमारा कोई यत्रं पहुँचेगा नहीं, हमारी साधारण दष्टिृ पहुँचेगी नहीं। हम तो बस इतना कर लें कि जो उथले आकर्षण हैं, उन्हें प्रेम का नाम देना बंद करें । बंद ना भी करें तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, हमारे कुछ करने न करने से वैसे भी फर्क कब कहाँ पड़ता है?

पारमार्थिक रूप से हमारा किया अनकिया सब एक बराबर, पर हाँ, व्यावहारिक रूप से जब मन उदंड रहता है, जब मन सत्य और आत्मा के प्रति विद्रोही रहता है तब अपने लिए ही दुःख का कारण बनता है। जितना ज़्यादा वो अपने लिए दुःख का कारण बनता है उतना ज़्यादा वो सुख की तलाश करता है। सुख की तलाश दुःख से ही उठती है और दुःख को ही पाती है। प्रेम के नाम पर तलाश हम सुख को कर रहे होते हैं, घर बुला लेते हैं दुःख को, बस वही न करें इतना काफ़ी है। बहुत क़ीमती शब्द है प्रेम, बहुत दूर को, बहुत पार को इशारा करता है, उसका हल्के में प्रयोग ना किया करें।

संसार जैसा है, उसे जानें, मन जैसा है, उसे जानें, मन अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता; जहाँ वो जा नहीं सकता, वहाँ जाने का दम्भ भी उसे ना हो। ना कहे मन कि 'मैंने प्रेम किया', प्रेम तुम्हारे करे होगा नहीं। ना कहे मन कि 'अमुक वस्तु बहुत प्यारी लग रही है'; वस्तुओं से प्रेम नहीं होता, वस्तुएँ तो मन का प्रक्षेपण हैं। और जितने प्रक्षेपण हैं मन के वही मन की अशांति हैं, उन्हीं से तो मुक्त होने के लिए मन उद्यत है।

जिससे मुक्ति का नाम प्रेम है, उसी के प्रति आकर्षण को तुम प्रेम बोले जाते हो। वस्तुओं, व्यक्तियों और छवियों से मुक्ति का नाम है प्रेम, और हम कहे जाते हैं कि हमें अमुक व्यक्ति से, फलाना वस्तु से और किसी विशेष छवि से प्रेम है। मूढ़तापूर्ण बात है न? संसार की तरफ़ खिंचते ही इसलिए हो कि दुःख है, और जब खिंचते हो तो आशा होती है सुख की। इसी दुःख-सुख से, इसी आशा-निराशा से मुक्ति की तुम्हारी तड़प का नाम प्रेम है। सुख की तरफ़ खिंचना प्रेम नहीं, सुख और दुःख दोनों से मुक्ति की तरफ़ खिंचना है प्रेम।

इसलिए प्रेम तुम्हें उस रूप में अच्छा न लगेगा जिस रूप में सुख अच्छा लगता है। प्रेम तुम्हें सुख ना दे पाएगा, प्रेम जो तुम्हें देता है वो सुख से कतई भिन्न और कहीं गहरा है। वो एक मौन है, एक विशुध्द नीरवता है, उसे आनंद भी कहा गया है। पाओ यदि तुम कि तुम्हारा प्रेम तुम्हें उत्तेजना देता है और मानसिक गतिविधि देता है, भाँति-भाँति के कम्पन देता है, तो जान जाना कि 'वो नहीं है'। और इसके अतिरिक्त तुम और कुछ जान भी नहीं सकते। ये दावा भी कभी मत करना कि 'वो' 'है'; तुम तो निरंतर यही जाने रहना कि ये भी 'वो' 'नहीं है । तुम्हारा काम सत्य को पहचानना नहीं है, ये तो बड़ी ऊँची बात हो जाएगी। ये तो मन की औकात के ऊपर का दावा हो जाएगा, तुम्हारा काम सत्य को पहचानना नहीं है, तुम्हारा काम बस अपने प्रति सतर्क रहना है।

हम झूठों से भरे हुए हैं, उन झूठों को पहचाने रहो उतना बहुत है, सत्य को नहीं पहचान पाओगे, झूठ को पहचाने रहो। सत्य की तलाश जैसा कुछ होता नहीं, झूठ की पहचान ही काफ़ी है। जो सत्य को तालाशने निकलेंगे वो झूठ के पाँव पर चलकर सच की ओर जाने की कोशिश कर रहे हैं। सर्वप्रथम उनकी मान्यता ये है कि सत्य कहीं पर नहीं भी है, इसी कारण तो वो सत्य की तलाश कर रहे हैं। जिसने शुरुआत ही गलत करी हो उसका अंजाम सही कैसे हो सकता है? 'सत्य का खोजी' सर्वप्रथम तो ये मानता है कि सत्य को खोजने की आवश्यकता है, ये मानना ही बड़ी भूल है। सत्य और प्रेम का बड़ा गहरा रिश्ता है; सत्य के अलावा और किसी से प्रेम हो नहीं सकता, और सत्य के अलावा तुम्हें कोई और प्रेम कर नहीं सकता; मात्र वही बुलाता है।

इधर-उधर के झंझटों से मुक्त हो, शून्य, सत्य की ओर जाने की तुम्हारी प्यास का नाम ही प्रेम है। वो प्यास लगातार है, प्रेम लगातार है, वो धारा अविरल बह रही है, तुम्हें उसमें कोई योगदान नहीं देना है। तुम्हारे किसी प्रकार के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं, तुम बस इतनी कृपा करो कि अपने आप को, उस धारा को, बाधित मत करो। वो स्वयं ही तुम्हें खींच लेगी, उसका काम है खींचना । पर वो कैसे खींचे तुम्हें ? सत्य कैसे बुलाए तुम्हें? प्रेम कैसे अपने पाश में ले तुम्हें?

जब तुम कह उठते हो कि तुम्हें तो बिरयानी से प्यार है, और मिलेंगे लोग ये कहते हुए, इतने मूर्खतापूर्ण रूपों में भी इस शब्द का प्रयोग होता है। अब सत्य और बिरयानी एक ही तल पर रख दिए गए हैं, तो फ़िर तो तुमको बिरयानी ही मिलेगी। खा सकते हो जितनी, खा लो! वो भी तभी तक भाती है जब तक खाई नहीं है। खा चुकने के बाद फिर दी जाए तो भाएगी नहीं। और दो बार खा चुकने के बाद अगर तीसरी बार रख दी गयी, तो सिर पर पाँव रखकर भागोगे। ये है हमारे तथाकथित प्यार की हकीकत। वो सिर्फ तब बुलाता है जब पेट भूखा होता है। पेट भरा नहीं कि उसका बुलाना रुका नहीं। पत्नी से ना मिलो चार दिन तो पाँचवे दिन बड़ा प्यार आता है। पेट खाली है। किसी पर्यटन स्थल पर नहीं गए हो दो साल, तो तीसरे साल बड़ी इच्छा उठती है। पेट खाली है। ये कैसा प्यार है जो दुःख की बुनियाद पर ही खड़ा होता है, कि सिर्फ़ तब तुम प्यारे लगते हो जब बेचैनी और तड़प होती है। इसीलिए हमारे प्यार के सारे अफ़साने अधूरे ही रह जाते हैं। जो हम चाहते हैं वो कभी किसी ऐहिक रूप से मिल सकता ही नहीं।

ये बात अगर शायरों को समझ में आ गयी होती तो ग़ज़लों और कविताओं के निन्यानवें प्रतिशत संग्रह कभी छपे ही ना होते। वो जिसको प्रेम बोले जाते हैं वो कुछ परिस्थिति जन्य खिंचाव है। परिस्थितियाँ बदल जाएँ रूप रंग बदल जाए, नाक-नक्श-मोहरा बदल जाए, कैसा प्रेम, कौन सा प्रेम? और तो छोड़ो, सब कुछ ठीक रहे, तुम्हारा अगर मन बदल जाए, तुम्हारी स्मृतियों का लोप हो जाए, तो कैसा प्रेम? बहुत सारा प्रेम तो सिर्फ याददाश्त के कारण हो जाता है। बहुत समय से तुम किसी के साथ हो उसको नाम तुम प्रेम का दे देते हो। कितने ही लोग हैं जो तुम्हारे जीवन से यदि विलुप्त हो जाएँ यदि तुम्हारे मन से उनकी स्मृति विलुप्त हो जाए; स्मृति गयी, कि लोग गए, तुम उनके पास दोबारा लौटकर नहीं जाओगे। हमारे साधारण प्रेम में बड़ी हिंसा होती है। तुम्हें क्या लगता है कि माफ़ कर दिए जाओगे, जब एक क्षण तो किसी को अपना ईश्वर ही घोषित कर देते हो, और दूसरे क्षण उससे मुँह चुराते हो? और मैं नहीं पूछ रहा हूँ कि तुम्हें ईश्वर माफ़ करेगा या नहीं, मैं पूछ रहा हूँ कि तुम्हें वो व्यक्ति भी माफ़ करेगा क्या? उत्तेजना के क्षण में कितनी कशिश के साथ अपने साथी की तरफ़ भागते हो, और उत्तेजना की परिपूर्ति होते ही उसकी ओर पीठ कर के सो जाते हो। तुम्हें कौन माफ़ करेगा?

साधारणतया हम जिसे प्रेम कहते हैं उसमें बड़ी हिंसा है। हम कहते हैं कि हमें तेरा ये रूप पसंद है, प्रेम निर्भर ही है इसी रूप पर तो तू इसी रूप को बरकरार रख। हम कहते हैं कि मुझे तुझसे प्रेम है, आवश्यक है कि तू मेरी ज़िन्दगी में मौजूद रहे, तो इसलिए तू कभी उड़कर जायेगा नहीं। प्रेम का मतलब ही यही है कि तुझे होना चाहिए मेरे संपर्क क्षेत्र में, मेरी इन्द्रियों के समक्ष। अब कौन महत्वपूर्ण है तुम्हारे लिए? तुम या प्रेमी तुम्हारा? किसका हित साध रहे हो? हिंसा नहीं हुई ये? और ये सब प्रेम के नाम पर होता है। प्रेम हमारा जितना हिंसात्मक है उतनी हिंसा तो किसी युध्द में भी नहीं हो सकती।

यह सूत्र समझ लो — मन सुख की ख़ातिर जिस भी ओर जाएगा, जिसके भी प्रति जाएगा, उसका ही शोषण करेगा। तुम्हें जिससे सुख मिलता है, ये हो ही नहीं सकता कि तुम उसका शोषण ना करो। क्योंकि मन की माँग होती है, निरंतरता की; मन की माँग होती है कि सुरक्षा की आपूर्ति होती रहे। तुम्हें जिससे आज सुख मिला तुम ये निश्चित करना चाहोगे कि कल भी मिले। तुम उसे जकड़ लोगे, उसे बंधन में डाल दोगे। तुम कहोगे, “इस गाय नेआज दूध दिया है, अब जाने कैसे दूँ? कल भी तो देगी।”

सुख तुम्हें मिला नहीं कि तुरंत हिंसक हुए तुम। और ठीक यही बात दुःख के सन्दर्भ में भी लागू होती है, दुःख में ज़रा ज़्यादा स्पष्ट है इसलिए उसकी मैंने बात करी नहीं। दुःख में तो स्पष्ट ही है कि तुम्हें हिंसा उठेगी ही। “तूने मुझे दुःख दिया, मैं भी तुझे दुःख दूँगा”, पर समझने वाली बात ये है कि जहाँ से आपको सुख मिलता है, वहाँ भी आप शोषण और हिंसा करते हो। तो क्या ऐसा प्रेम संभव है जिसमें शोषण न हो, हिंसा न हो, वास्तव में प्रेम हो? हाँ है। पर वो तभी संभव है जब वो हमारे द्वारा आयोजित प्रेम न हो। वो तभी संभव है जब वो विचारजन्य प्रेम न हो।

अगर हमने प्रेम किया है, तो फ़िर हमारा प्रेम हमारे ही जैसा होगा, पर यदि समर्पण किया है और अनुमति दी है स्वयं को, कि प्रेम के प्रवाह में बह जाएँ तब बात दूसरी होगी।

अब यहाँ पर आपको मानसिक सुरक्षा नहीं मिलेगी क्योंकि आपको पता ही नहीं होगा कि ये धारा आपको किधर को ले जा रही है। पर फ़िर प्रेम उनके लिए है भी नहीं जिन्हें अभी सुरक्षा की तलाश है। जिन्हें सुरक्षा चाहिए वो जाएँ और सुरक्षा का दामन पकड़ें; प्रेम तो सूरमाओं के लिए है। प्रेम उनके लिए है जो सिर झुकातें हैं और कहते हैं कि अब जहाँ भी ले चलना है ले चलो। प्रेम उनके लिए है जो बहती धार में आँख बंद करके लेट जातें हैं, और कहते हैं कि अब जहाँ को बहाएगी, बह जाएँगे, जानना भी नहीं है कि पहुँचोगे कहाँ। प्रेम में सुख की कामना नहीं है, इस कारण इसमें हिंसा नहीं है। यहाँ आप किसी और से कुछ चाह ही नहीं रहे।

मात्र एक समर्पित मन ही प्रेम जान सकता है।

किसको समर्पित? किसी प्रेमी को समर्पित नहीं, किसी व्यक्ति , किसी विचार को समर्पित नहीं। क्योंकि अगर किसी व्यक्ति या विचार को समर्पित हो आप, तो अपने आप को ही समर्पित हो, बड़ा अहंकार है। ऐसा मन जो समर्पित होता है, प्रेम जानता है, उसका प्रेम चूँकि किसी व्यक्ति या विचार को समर्पित नहीं है, अतः समग्रता के प्रति है। अब वो ये नहीं कहेगा कि मुझे फलाने से प्यार है, अब उसका प्यार किसी फूल की मिठास, प्यारी सी सुवास की तरह होगा, हर जगह फैलेगा। वो किसी ख़ास के लिए नहीं होगा, वो नहीं कहेगा कि “पूरी दुनिया से तो अनजाने हैं, और प्रियवर, बस तुम्हारे हैं।” अब उसका प्रेम सूरज की तरह होगा जिसकी किरणें सब पर पड़ेंगी। उसका प्रेम उसके हृदय में होगा।

आप अगर इस बात को गौर से देखेंगे तो पाएँगे कि कितनी दूर तक जाती है। इससे हमें पता चलता है कि हमने जितनी संस्थाएँ बना रखी हैं वो मूलतः प्रेम विरोधी हैं। क्योंकि वो सब, व्यक्तियों को प्राथमिकता देती हैं, और विशिष्ट संबधों को केंद्र में रखती हैं। आपको सदा इस रूप में देखा जाता है और आप से सदा यही पूछा जाता है कि “आप कौन हो? किससे जुड़े हो? कहाँ से सम्बंध रखते हो? किस कुनबे से आये हो? किस देश के हो? किसके पति हो? किसके बेटे हो? किस में आस्था रखते हो? कहाँ-कहाँ हो आये हो? क्या पसंद करते हो? क्या नापसंद करते हो?”, देख रहे हैं आप कि पूरा खेल विशिष्टताओं का है। जहाँ विशिष्टता है, वहाँ समग्रता नहीं है।

और इसी कारण प्रेम हमारा हिंसात्मक रहेगा। क्योंकि हमने उसे किसी विशिष्ट की बपौती बना दिया है।

वास्तविक प्रेमी न खुद विशिष्ट होता है, न किसी विशिष्ट के प्रति उसका प्रेम होता है। जब तक आप अपने आप को ख़ास समझेंगे, तब तक आपको किसी ख़ास की तलाश भी रहेगी। और जिस दिन सर झुकेगा, और दिख जाएगा कि आपकी खासियत हवा हुई, उस दिन आपको किसी ख़ास की उम्मीद भी नहीं बचेगी। जो अपनेआप को जितना ऊँचा जानेगा, वो उतना ज़्यादा अपने प्रेम को बाँटेगा। वो कहेगा “अरे तुम! ना-चीज़; तुम ना-कुछ; हम तुम्हारे साथ रिश्ता कैसे जोड़ें? तुम्हें कैसे प्यार करें? हम तो ख़ास हैं, हम सड़क के एक गंदे से कुत्ते को कैसे गले लगा लें?” जब तक आप खास हो, तब तक तो आपको किसी नहाए-धोए कुत्ते की ही तालाश रहेगी।

प्रेम इंसान का इंसान से रिश्ता नहीं है। प्रेम मूलतः मन का सत्य से रिश्ता है।

और जिस मन ने सत्य से रिश्ता साध लिया, वो डोर बाँध ली, वो मन बाकी इंसानों के प्रति बिलकुल प्रेमपूर्ण हो जाता है क्योंकि उसे अब अपने में और बाकी इंसानों में कोई भेद दिखता नहीं। विशिष्टताएँ समाप्त हो गई हैं, सीमाएँ समाप्त हो गई हैं।

प्रश्नकर्ता: जब यहाँ से चले जाते हैं, तो जो पुरानी मान्यताएँ हैं वो ज़्यादा हावी होने लगती हैं, उससे कैसे निकलें?

आचार्य: बड़ा अच्छा होता यदि ये सवाल तुम उस वक़्त पूछते जब वो सब कुछ हावी होने लगता है तुम पर। पर उस समय पूछ नहीं पाते हो, अभी पूछना बड़ा निष्प्रयोजन है। अभी तो सब ठीक ही है। जब सब ठीक हो, उस समय और ठीक करना ठीक को बिगाड़ने जैसा हो जाता है। अभी तो उसकी चिंता ही छोड़ो जो बिगड़ सकता है, जो ग़लत हो सकता है। जो ठीक है, उसमें जियो, उसको पियो। ऐसी लत लगा लो इसकी, कि इसके अतिरिक्त बाकी सब कुछ फीका लगने लगे। ऐसा रगं चढ़े इसका कि फ़िर इसके ऊपर और कोई रंग चढ़ ही नहीं सके।

प्र: क्या कभी हम अपनी पूरी दिनचर्या में कभी कुछ क्षणों के लिए, अनजाने में ही, अनकंडीशनल (शर्तहीन) हो पाते हैं?

आचार्य: बहुत होते हैं, वो ना हो तो विक्षिप्त हो जाएँगे। बस उसमें पेंच ये हैं कि जब वो होगा, तो आपको उसकी कोई याद्दाश्त नहीं रहेगी। वो गुप्तदान होता है, देने वाला अपना नाम-पता छोड़ता ही नहीं। आप जब वास्तव में सहज होते हैं, स्वस्थ होते हैं, उस समय आप होते ही नहीं। तो उन क्षणों का पता आपको उनके जाने के बाद ही लगता है। और ये बड़ा दुर्भाग्य है मनुष्य का, कि जो कीमती है, हम बस उसका अभाव जान सकतें हैं, उसकी उपस्थिति नहीं जान सकते।

जो कुछ भी असली है, सत्य है, महत्वपूर्ण है, केंद्रीय है, उसका होना कभी आपको पता लगेगा ही नहीं क्योंकि पता लगना मानसिक गतिविधि है। मन उस तक जा नहीं सकता, तो मन उसका पता कैसे लगाएगा? हाँ, उसके न होने के बाद, बल्कि यूँ कहें कि उससे विलग होने के बाद मन में जो उपद्रव मचेगा, उसके द्वारा मन को पता चलता है कि कुछ अनहोनी घट गई। फिर दूर हो गए, फिर वियोग हो गया; योग का तो कुछ पता लग ही नहीं सकता। ये बड़ा अभाग है हमारा कि सत्य की याद ही तभी आएगी जब सत्य से दूरी हो जाएगी। जब वो है तब सब कुछ इतना मधुर इतना सरल इतना ठीक होता है कि आपको ये भी याद नहीं रहता कि धन्यवाद दे पाएँ।

प्र: जब तक यहाँ होते हैं तब तक ठीक होता है लेकिन बाहर जाकर सब घेरने लगता है। जब यहाँ पर आना नहीं हुआ था तब तो ये भी नहीं पता था कि कुछ घेर रहा है। यहाँ से जाने के बाद पता चलता है कि कुछ घेर रहा है। यहाँ से अनकंडीशनल होकर ही जाया जाता है क्या बाहर, तभी पता चलता है कि वो घुटन है?

आचार्य: यदि यहाँ जो चल रहा है उसके बाद बाहर कुछ और चले तो जान लीजिए कि यहाँ जो चल रहा था वो भी बस स्थितियों का एक खेल ही था। मैं एक सूत्र दिए देता हूँ, जो यहाँ आएगा और पूरी तरह यहाँ हो पाएगा, दो घंटे, दो लम्हें भी, वो फिर वापस नहीं जा पायेगा। अगर यहाँ के उपरान्त आप किसी दूसरी स्थिति में जा पाते हैं तो जान लीजिए कि ये जगह भी आपके लिए बस एक स्थिति ही थी क्योंकि स्थितयाँ ही बदलती हैं।

ये सवाल मुझसे अब सैंकड़ों बार पूछा जा चुका है कि आपके सामने बैठते हैं तो सब सुन्दर, पर दूर होते ही फ़िर वही सब पुराना लौट क्यों आता है? लौट इसलिए आता है क्योंकि वो कभी गया ही नहीं था। तुम उसे संरक्षण दिए ही हुए थे; फ़िज़ा बदली थी बस, अन्यथा जिसे सच दिख गया एक बार वो झूठ में वापस क्यों जाना चाहेगा? और पूछा है मैंने कई बार कि यदि वही होता है जिसका तुम दावा करते हो, और तुम दावा करते हो कि यहाँ बैठे हो सामने तो तुम्हें दुनिया के झूठ स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, यदि दुनिया के झूठ स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, तो ऐसा हो कैसे जाता है कि उठते हो, जूते पहनते हो और फिर उसी दुनिया में वापस पहुँच जाते हो? जिन्हें बात समझ में आएगी, वो तो रुक ही जाएँगे, वो कहेंगे, "कहानी ख़त्म, अब लौटें कैसे?" वो ये नहीं कहेंगे कि लौट कर जा रहे हैं, अब ज़रा तैयारी करेंगे, पुराने उधार चुकता करेंगे, और उसके बाद लौटकर के आएँगे। ना! वो कहेंगे, सपना था, दिख गया।

उठने के बाद कोई सपने में वापस जाता है?

फिर कह रहा हूँ, सिर्फ स्थितियाँ ही बदलतीं हैं; सत्य में कोई परिवर्तन, कोई कम्पन नहीं होता। वो अरूप होता है; रूप मात्र बदलते हैं।

कुछ बदलता देखो तो समझ लेना कि जो बदल कर आया है, वो भी नकली है और जिस स्थिति से बदलाव हुआ है वो भी नकली थी। अभी फ़िर असली मिला नहीं। असली तो ऐसा होता है कि जकड़ लेता है, छूटकर नहीं जा सकते उससे। पकड़ लिया तो पकड़ लिया। असली के साथ पर्यटन नहीं किया जाता कि दो दिन के लिए घूमने-फिरने आए हैं, फिर लौटकर अपने पुराने घर चले जाएँगे।

असली के साथ तो वास्तव में जन्म-जन्म का रिश्ता होता है, कि अब हो गए फेरे।

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