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लेख
जीवन में अनुशासन कैसे आए? || निरालम्ब उपनिषद् पर (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता : प्रणाम आचार्य जी, मैं अनुशासित नहीं रह पाता और मेरे मन में कामुक विचार छाए रहते हैं। अभी आपने जो बताया कि उलझना ही ठीक नहीं, तो मुझे ये समझ नहीं आता कि अगर मैं इन कामुक विचारों से न उलझूँ, तो मुझे फिर मुक्ति कैसे मिलेगी?

आचार्य प्रशांत: अनुशासन बहुत सहज, बहुत सरल बात है। अनुशासन का मतलब होता है कि मन आत्मा के इतने निकट है, कि आत्मा उसे सहज शासित कर रही है। मन आत्मा के इतने निकट है, इतने प्रेम में है आत्मा से, कि वो आत्मा के शासन में आ गया है। ये अनुशासन है।

आत्म-अनुशासन ही अनुशासन है। और ‘आत्म’ से मेरा मतलब ये नहीं कि अहंकार स्वयं को अनुशासित करने की कोशिश करे; नहीं, वो बात नहीं है। आत्मा का शासन ही आत्म-अनुशासन है। अपनेआप को आत्मा से शासित होने दो, वही तुम्हारी मलिक रहे, सत्य ही तुम्हारा स्वामी रहे, ये अनुशासन चाहिए। तो अनुशासन अपनेआप हो जाता है, जब तुम सच के पास होते हो। क्योंकि वो बात बड़ी सुंदर है, वो वस्तु ऐसी है कि उसमें बड़ा आकर्षण है, तुम उसकी उपेक्षा, अवहेलना नहीं कर सकते। उसे ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करना पड़ता, उसकी बात ऐसी है कि तुम्हें वो बात माननी ही पड़ती है, तुम विवश हो जाते हो। समझ में आ रही है बात? उसके आगे तुम्हारी चलती नहीं है, तुम सहज ही अनुशासित हो जाते हो।

अब अगर तुम पाओ कि जीवन में अनुशासन नहीं है, तो मतलब साफ़ समझ लो कि तुम जिस विषय के पास हो, उसमें इतनी जान ही नहीं है कि वह तुम्हें अनुशासित कर पाए। स्वयं को अनुशासित करने की चेष्टा मत करो, उपयुक्त विषय ढूँढो, या जिस विषय के पास हो उसकी सच्चाई पहचानने की कोशिश करो। समझ में आ रही है बात? सच्चाई देखोगे, और अगर उस विषय में दम होगा तो वो खुद ही तुम्हें बाँध लेगा। और दम नहीं होगा तो तुम्हें और स्पष्ट हो जाएगा कि इसके तो आगे जाना है, इस पर रुकना नहीं है।

अनुशासन की कमी और चित्त का भटकना—वासना आदि में, जैसा इन्होंने कहा—बड़ी आम समस्या है। सबको यही है कि लक्ष्य बना रखा है, उसके पीछे एक संयम के साथ, एक नियम के साथ चल नहीं पाते, फोकस नहीं होता, मन भाग जाता है इधर-उधर, एकाग्रचित्त होकर के लक्ष्य में एकजुट नहीं हो पाते; हर आदमी का यही रोना है। और मैं बार-बार यही कहता रहा हूँ कि तुम्हारा लक्ष्य है कैसा? या तो तुमने लक्ष्य ग़लत चुना है या फिर अगर लक्ष्य सही चुना है तो तुमने उसको आज तक पहचाना नहीं, तुम उसकी महत्ता जानते नहीं। जब लक्ष्य में मन न लग रहा हो, तो थोड़ा थमकर के लक्ष्य की पूरी जाँच-पड़ताल करो। लक्ष्य यदि इस लायक होगा, उसमें यदि यह मूल्य होगा कि उसकी तरफ बढ़ा जाए तो उसकी ओर बढ़ जाओगे। और पता चला कि लक्ष्य इस लायक ही नहीं है, तो मैं कह रहा हूँ कि फिर वहाँ पर रुककर के अनुशासन आदि की चेष्टा मत करो; फिर तो उस लक्ष्य को ही त्याग दो। समझ में आ रही है बात?

अधिकांशतः जो हम पाते हैं कि हमारे प्रयत्नों में एक व्यवस्था की कमी रहती है, हमारे जीवन में जो एकजुटता, एकाग्रचित्तता नहीं रहती, उसका कारण ये है कि हमने अपने लिए लक्ष्य ही बेमतलब के, व्यर्थ, मूल्यहीन चुन लिए होते हैं। और मूल्यहीन लक्ष्यों को चुनने की हमारी ऐसी आदत लग जाती है कि अनुकंपा से अगर हमें कोई मूल्यवान लक्ष्य मिल भी जाये, तो हमें उसका मूल्य समझ में नहीं आता। क्योंकि हमें आज तक किसी लक्ष्य का मूल्य समझ में कहाँ आया था। मूल्य समझ में आने का अर्थ होता है- मूल्यहीनता भी समझ में आना। तुम्हारे लक्ष्य आज तक मूल्यहीन रहे थे, तुम्हें ये बात समझ में आयी नहीं; आज तुमको एक ऊँचा लक्ष्य मिल गया, वो मूल्यवान है, तुम्हें ये बात भी कैसे समझ में आएगी?

अगर तुम लक्ष्यों का मूल्य लगा ही सकते, तो पहले तुमने लक्ष्यों की मूल्यहीनता नहीं देख ली होती अपने? न तुम अपने पुराने लक्ष्यों की मूल्यहीनता देख पाए, न तुम मूल्यवान लक्ष्य का मूल्य समझ पाओगे। न तुम्हारा पुराने लक्ष्यों में कभी मन लगा, न तुम्हारा नए काम में मन लगेगा, क्योंकि मूल्यांकन ही नहीं आता तुमको। और दुनिया ऐसी अंधी, कि बात ही नहीं करती कि करना क्या चाहते हो? किस चीज़ के पीछे जा रहे हो? किसको साध्य बना लिया? निशाना किस पर है? पूजा किसकी कर रहे हो? ऊँचा स्थान किसको दे दिया है? कामना क्या है? ये नहीं! ये बात ही नहीं!

अंधा लक्ष्य चुन लिया—उसमें चुनाव भी कुछ नहीं है, संयोग मात्र है—अंधा लक्ष्य चुन लिया और अब चाह रहे हैं कि हम अपनी पूरी ऊर्जा इसमें दे दें। एक काम मिल गया है, इसको बड़े जतन से करें, तन-मन से करें। कैसे कर लोगे? जो मन है तुम्हारा, उसको तो बस किसी एक की आस है। वह बाकी किसी और से निष्ठा रख ही नहीं सकता। उसको बहुत पहले से पता है कि वो किसका प्रेमी है। उस अति पुराने प्रेमी के अतिरिक्त और कोई भी मिलता है मन को, तो मन उसके प्यार में पड़ नहीं पाता। और तुम मन को ठेलते हो फिर पीछे से, धक्का लगाते हो। कहते हो, 'ज़बरदस्ती प्यार कर न, ज़बरदस्ती प्यार कर न! लव योर जॉब !' अरे भाई! मन सिर्फ़ सच से प्यार कर सकता है—उसे तुम सत्य बोल दो, परमात्मा बोल दो, आत्मा बोल दो, ब्रह्म बोल दो, तुम्हें जिस नाम से बोलना है, बोल लो। पर वो एक ही है जिससे मन प्रेम कर सकता है और तुम चाहते हो मन प्रेम करने लगे, तुमने अभी-अभी जो नई जॉब ज्वाइन करी है उससे। और तुमने वो नई नौकरी पकड़ी क्यों है? क्योंकि पुरानी नौकरी से पाँच हज़ार रुपये ज़्यादा मिल रहे थे उसमें; और फिर तुम्हें बड़ी तकलीफ़ है कि मन नहीं लगता, काम में प्यार नहीं उठता!

तेईस साल के हो, सॉफ्टवेयर में हो, जानी हुई बात है (प्रश्नकर्ता के विषय में बोलते हुए)। नैसकॉम की स्टैट्स है कि इक्कीस-बाईस साल में जो बीटेक करके निकलते हैं इंजीनियर, अगले चार साल तक सबसे ज़्यादा इन्हीं का एट्रिशन रेट (कंपनी छोड़ने की दर) रहता है, क्योंकि कुछ पता नहीं होता ज़िंदगी का। एक नौकरी कैंपस में लग गई; घुस गए वहाँ जाकर के। अब वो एक आईटी हब है, जहाँ एक के बाद एक सब सॉफ्टवेयर कंपनियाँ हैं। अपनी कंपनी के दरवाज़े से बाहर निकलो तो सामने दूसरी है, पाँच-छह महीने बाद वहाँ जाकर घुस गए दूसरी में। तो ऐसे प्यार हो जाएगा कि अपने घर से निकले और बगल वाले घर में घुस गए? फिर कह रहे हैं कि मुझे तो परम प्रेम हुआ है, सच्चा इश्क हुआ है। ऐसे होगा?

बात यह नहीं है कि तुम छह-छह महीने में नौकरियाँ बदलते हो, बात ये है कि किसकी ख़ातिर बदलते हो, तुम्हें कुछ पता भी है? कंपनियाँ बेचारी थर्राई रहती हैं कि ये बाईस-चौबीस साल वालों को ले तो रहे हैं, पर पता है कि छह महीने से ज़्यादा टिकेंगे नहीं। वो एक जगह ज्वाइन करता है, और ज्वाइनिंग के दिन ही अपने सीवी में बस ये जोड़ देता है कि आज मैंने यहाँ ज्वाइन कर लिया, और अपना सीवी फिर से जॉब मार्केट में फ्लोट कर देता है। उसे बस अपने सीवी में ये बात जोड़नी है कि आज मैंने यहाँ पर अब ज्वाइन कर लिया, और ये करके वो फिर से जॉब मार्केट में अपना सीवी फ्लोट कर देता है कि जैसे ही अब कोई नया-बढ़िया खरीददार आएगा, हम फिर बिक जाएँगे।

मैं फिर कह रहा हूँ, मैं बिलकुल नहीं कहता कि तुम्हें कोई बेहतर नौकरी मिल रही हो तो तुम करो नहीं, पर तुम्हारे पास बेहतर जानने की दृष्टि नहीं है, मूल्यांकन तुम्हें करना आता नहीं; फिर तुम चाहते हो कि जीवन में अनुशासन रहे, कैसे रहेगा? किसी भी तरीके का अनुशासन नहीं रहेगा, न काम में अनुशासन रहेगा, न आराम में अनुशासन रहेगा। तुम मौज करना चाहोगे, उसमें भी नहीं रहेगा। तुम खेलना-कूदना चाहोगे, उसमें नहीं रहेगा। तुम लिखाई-पढ़ाई करना चाहोगे, उसमें नहीं रहेगा, क्योंकि तुम जो भी करना चाह रहे हो, उसका लक्ष्य सत्य नहीं है। जहाँ सत्य लक्ष्य होता है, वहाँ तो बेटा! अनुशासन बिना बुलाए आ जाता है। तुम चाहो भी कि अनुशासन न रहे, तो भी आ जाएगा।

अभी पिछले माह हम ऋषिकेश में थे और संकल्प कर लिया था कि संपूर्ण दुर्गा-सप्तशती पर नवदुर्गा के दौरान कोर्सेज लोगों तक लेकर आएँगे। अब यह आसान नहीं होता है; तीन चरित्र हैं, तेरह अध्याय हैं, कोई संक्षिप्त ग्रंथ नहीं है सप्तशती। तो रात में देर तक रिकॉर्डिंग्स चलती थी और नौ ही दिन की नवदुर्गा, वह नौ दिन बड़े महत्वपूर्ण! तो उद्देश्य ये रहता था कि लोग सुबह सोकर के उठें, उससे पहले उन तक हमारा ब्रॉडकास्ट पहुँच जाए। और उस ब्रॉडकास्ट में हम उनको बता दें कि आज आपके लिए ये दो घंटे की रिकॉर्डिंग लाए हैं, इसको देखिए। तो रात में देर तक हो रही है रिकॉर्डिंग और तीन-तीन चार-चार घंटे के सत्र। और सत्रों में चेतना एक ऊँची स्थिति पर पहुँच जाती है, एकदम जागृत हो जाती है। उस ऊँची जागृति के बाद तत्काल नींद नहीं आ सकती। आ ही नहीं सकती! तो सत्र की समाप्ति के बाद एक-दो घंटा लगे सोने में, और मैं पाऊँ कि मेरी नींद अपनेआप सुबह पाँच-छह बजे खुल जाती थी अपनेआप! और ये मेरे साथ जीवन में हमेशा हुआ है, जब भी कोई वास्तविक लक्ष्य सामने रहा है तो मुझे अनुशासन की आवश्यकता नहीं पड़ी है; अनुशासन अपनेआप आ गया है, अलार्म भी नहीं लगाना पड़ा है। अपनेआप को बोलना भी नहीं पड़ा है कि आज इतना करना है, उतना नहीं करना है। ये सच्चाई का ज़ोर है।

हम सोचते हैं कि अध्यात्म तो साहब वैरागियों-सन्यासियों इत्यादि के लिए होता है। नहीं! जीवन में जो भी लोग कोई ऊँचा काम करना चाहते हों—जीवन में, संसार में, इसी संसार में जो भी लोग—कोई ऊँचा लक्ष्य पाना चाहते हों, अध्यात्म उनके लिए है। ऊँचा लक्ष्य बना लो, इतनी ज़ोर से काम करोगे कि तुम्हें ही ताज्जुब होगा कि ये मैं हूँ! मैं इतना काम कर ले रहा हूँ! बिना डाँट-फ़टकार के! कोई मेरे ऊपर नहीं खड़ा हुआ है कि ये करो और वो करो और मैं सब करे ले रहा हूँ! समझ में आ रही है बात?

संतो ने बहुत बार इसीलिए परमात्मा से शिकायत करी है। कहते हैं, 'निर्मोही है, बेदर्दी है।' यहाँ तक कि कसाई तक बोल दिया है। क्या है? कसाई है। यही वजह है। कहते हैं, 'एक बार उसके प्यार में पड़ जाओ, बड़ा काम कराता है। काम बहुत कराता है! और उसकी बात ही यही है, उसका अनुशासन बड़ा सख़्त है, निर्मम है वो। वो तुम्हारी सुख-सुविधा के लिए, तुम्हारी ममता के लिए कोई गुंजाइश छोड़ता नहीं। और वो तुम्हारे मन में भी ये गुंजाइश नहीं छोड़ता कि तुम उसके प्रेम के विरुद्ध—और उसका प्रेम ही उसका आदेश है, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि उसके आदेश के विरुद्ध, उसका प्रेम ही उसका आदेश है—कि तुम उसके प्रेम के विरुद्ध विद्रोह भी कर पाओ। तुम्हें दिख रहा है कि वो कसाई है, तुम्हें काट रहा है, पर तुम विद्रोह नहीं कर पाओगे। तुम्हें बुरा लग रहा होगा पर तुम ये नहीं कह पाओगे कि न! अब और नहीं झेलेंगे; तुम झेलते जाओगे। तुम क्यों झेलते जाओगे, तुम्हें ही नहीं पता होगा क्यों झेल रहे हो। ये होता है असली अनुशासन।

स्वरचित अनुशासन तुम्हारी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर पाएगा। अगर अनुशासन की व्यवस्था तुमने ही परिभाषित करी है, तो वो व्यवस्था तुम्हारी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाएगी। वो व्यवस्था तुमने रची ही होगी अपनी सीमाओं को सम्मान देते हुए। लेकिन उसका अनुशासन जब आता है, तो वो तुम्हारी सब व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देता है, तुम्हारी सीमाओं को तोड़ देता है। तुम्हारे मन में होगा अपनी सीमाओं के लिए सम्मान, तुम्हारी सीमाएँ ही तुम्हारा अहंकार है, तुम्हारा अस्तित्व है। उसके मन में—अब कहना पड़ रहा है इस तरीके से कि उसके मन में, उसका कोई मन नहीं होता लेकिन बात की बात है—उसके मन में तुम्हारी सीमाओं के लिए कोई आदर नहीं है। क्यों? क्योंकि उसे प्रेम है तुमसे। तो उसका जब आदेश आता है तो ऐसे आता है कि 'बेटा अपनी एंबेसेडर तीन सौ की स्पीड पर चला दो।' तुमसे कहा जाए कि अधिक-से-अधिक स्पीड पर चलाओ! तो तुम कह दोगे कि चलो! आज एक सौ चालीस पर चला देते हैं इसको। तुमने बड़ा ज़ोर लगाया, तुमने बड़ा अनुशासन दिखाया। आज तुमने बिलकुल इंतेहा कर दी तो एक सौ चालीस पर पहुँच गए। और वहाँ से फ़रमान सीधे आता है- तीनसौ। अरे! समझ में नहीं आता क्या लिखकर भेज दिया? तीनसौ करना है, कैसे कर लेंगे? तीनसौ कैसे हो जाएगा? मजे़दार बात ये है कि हो भी जाता है। तुमसे नहीं होगा, वो जब करवाएगा तो हो जाएगा। तुम बस ये कर सकते हो कि निकट रहो।

उसकी आदत नहीं है बहुत लंबा हाथ बढ़ाने की। कानून के हाथ लंबे होते होंगे, परमात्मा से तो तुम्हें जाकर गले मिलना पड़ता है। वो अपना हाथ बढ़ाकर के तुम्हें नहीं पकड़ने वाला, तुम्हें ये स्वाधीनता है कि तुम उसके निकट जाओगे या नहीं जाओगे। तुम्हें अपने हाथ बढ़ाने पड़ेंगे, तुम पाओगे कि वो गले मिलने को तैयार है। तुम उसके निकट रहो, वो तुम में अनुशासन ला देगा। और इसके अलावा कोई तरीका नहीं है जीवन को अनुशासित रखने का। तुम्हारे जीवन में अगर नहीं है अनुशासन, मन लगातार इधर-उधर भटकता रहता है, कामनाएँ छटपटाती रहती हैं, कभी इस गली, कभी उस रास्ते ठोकर खाते रहते हो, तो वजह एकदम साफ़ है कि तुम्हें लक्ष्य बनाना नहीं आता, तुम्हें काम समझना नहीं आता। मूल्यहीन काम तुम पकड़ लेते हो।

मूल्यवान काम वैसे भी विरल होता है, मिलता नहीं आसानी से। और जो मूल्यवान चीज़ है, वो कभी संयोगवश तुम्हारे सामने आ भी जाती है तो तुम उसे सम्मान नहीं दे पाते हो। तो ले-देकर के तुम कहीं के नहीं रहते। घटिया काम करते हो, उसमें अनुशासन आ ही नहीं सकता तो आता ही नहीं। और अच्छा काम कभी मिल जाता है तो तुम उसमें भी अनुशासित नहीं हो पाते क्योंकि अच्छे काम की अच्छाई को जानने वाली दृष्टि तुमने कभी विकसित करी नहीं। तुम्हें पता ही नहीं कि उस अच्छे काम का मूल्य क्या है। तुम उस बात की गंभीरता के प्रति जागृत ही नहीं हो पाए, तो फिर तुममें अनुशासन नहीं है। अच्छी चीज़, अच्छा कुछ आ भी गया तुम्हारे सामने तो सोए पड़े हो, गिरे पड़े हो; गधा-घोड़ा सब एक बराबर। समझ में आ रही है बात कुछ?

अपने-आपको अनुशासित करने की कोशिश मत करो। हाउ टू बी मोर डिसिप्लिन्ड , ये-वो पचास बातें, सुबह इतने बजे उठो, फिर ये कर लो, वो कर लो; बेकार की बातें हैं, बल्कि घिनौनी बातें हैं क्योंकि ये सारी बातें बस तुम्हें मदद देती हैं वैसे ही रहने में, जैसे तुम हो। और कुछ दिनों के लिए लाभ भी हो जाता है। तुम एक घटिया नौकरी कर रहे हो, दफ़्तर जाते हो तो उल्टियाँ आती हैं, साँस नहीं ली जाती, जिया नहीं जाता और तुम चले जाओगे किसी वैलनेस कोच के पास, वो तुमको बता देगा कि अपनी नौकरी में और ज़्यादा सकारात्मक कैसे रहें! और जो वो तुम्हें तरीके बताएगा, वो दो-तीन महीने असरदार भी रहेंगे। कोई तुमसे ये नहीं पूछता कि तुम ये काम कर क्यों रहे हो और ऐसे काम में अगर अनुशासित हो गए, तो क्या ये 'कोढ़ में खाज' जैसी बात नहीं होगी कि एक तो काम घटिया, और उसको कर रहे हो पूरी निष्ठा, पूरे अनुशासन के साथ? ये कोई नहीं बताता।

और मैं तुमको बताए देता हूँ, दुनिया में ज़्यादातर काम वैसे ही हैं, जैसी ये दुनिया है। जैसी ये दुनिया है, वैसे ही इस दुनिया के काम हैं; उन कामों में उलझ क्यों रहे हो, आगे बढ़ो न! यही बात तो अभी ऋषि बता रहे थे। ग़लत काम में अपनेआप को अनुशासित करने की कोशिश मत करो, ग़लत काम का त्याग करो। कामवासना तुम्हें पकड़ रही है, इसमें कामवासना का दोष नहीं है। कामवासना तो एक आंतरिक उर्जा है। जवान आदमी हो भाई, शरीर मेहनत करने के लिए छटपटा रहा है, जब तुम उसे मेहनत करने के लिए कोई सही स्थान देते ही नहीं तो उसको मेहनत करने का एक ही ज़रिया पता चलता है कि किसी विपरीत लिंगी को पकड़ लो और उसके ऊपर चढ़कर मेहनत करो।

दुनिया में कोई भी अच्छा काम ऐसा नहीं है जो तुम्हें पूरी तरह से थका नहीं देगा। अच्छे काम की पहचान ही यही है कि वो तुमसे तुम्हारा आपा पूरा छीन लेता है, तुम्हारा सर्वस्व चूस लेता है वो। काम अगर अच्छा होगा तो ऐसा नहीं है कि वो तुम्हें बड़ा आनंदित-प्रफुल्लित छोड़ देगा, वो तुमको खाली छोड़ देगा, तुम्हारे पास जो कुछ भी था उसने ले लिया और तुम ऐसे पड़ जाओगे। और ऐसे पड़ इसलिए नहीं जाओगे कि काम पूरा हो गया, ऐसे इसलिए पड़ जाओगे कि अब कुछ बचा ही नहीं, काम करने वाला ही काम में ख़त्म हो गया। यही तो अच्छे काम की पहचान है, वो तुम्हें ख़त्म कर देता है। अध्यात्मिक हो तो ख़त्म ही कर देता है।

सुबह उठोगे तो फिर कुछ अनर्गल करने के लिए वक़्त नहीं है। सुबह उठते ही क्या करना है? काम करना है भाई, वासना कहाँ से आएगी! वासना भी वक़्त माँगती है, वक़्त नहीं है, समय नहीं है। हमारे पास जो कुछ था, वो काम ने ले लिया, वो काम ही ऐसा है। अनंत का काम अनंत, उसका कभी अंत तो आता नहीं, कभी अंत उसका आ ही नहीं सकता। उसकी महत्ता इसमें है कि उस अनंत काम को करते-करते हमारा अंत आ जाएगा, इसीलिए तो वो काम मजे़दार है। वो काम ऐसा है कि उसको करते-करते हमारा अंत आ जाएगा, हम ख़त्म हो जाएँगे; बला टली! राहत मिली! हम बचे रहते तो अपने लिए मुसीबत ही बनते। बलिहारी उस काम के जिसने हमें ख़त्म ही कर दिया। 'न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।' अब कौन सी कामवासना? बांसुरी ही नहीं। समझ में आ रही है बात?

और मैं ये नहीं कह रहा हूँ—पता नहीं किस तरीके से तुम इस बात को समझोगे—कि जो ऊँचे लक्ष्यों में लगते हैं, उनमें कामवासना बचती नहीं है। जब आप ऊँचे लक्ष्य में लगते हो तो आपकी वासना भी उदात्त हो जाती है, वो भी एक ऊँचा तल पकड़ लेती है। वासना माने कामना ही तो होती है न? मन जहाँ जाकर वास करने लग जाए- वासना। बेमतलब की चीज़ों की ओर फिर मन आकर्षित नहीं होता, मन को सच का स्वाद लग गया है। क्या लग गया है? सच का स्वाद लग गया है। दुनिया कहेगी इसके मन की आदत बिगड़ गई, इसको अब छोटी-मोटी चीज़ें अच्छी नहीं लगती। ऐसा ही हुआ है। > तुमने अपने मन को सच की आदत लगा दी है, अब उसे वासना भी उठेगी तो किसकी उठेगी? किसी सच्ची चीज़ की उठेगी। चीज़ सच्ची होगी तो ही तुम्हें उसकी वासना लगेगी। ठीक है, अच्छी बात है न! वासना यदि लगनी भी है तो किसी बढ़िया, ऊँची, श्रेष्ठ, शुद्ध चीज़ की लगे। मक्खी की तरह बार-बार गुड़ पर बैठने की क्या वासना! बेकार की बात! समझ में आ रही है बात?

त्याग समस्त अध्यात्म के मूल में है। तुम आत्मा हो, ऊँचे-से-ऊँचे हो तुम; किसी निचली जगह पर रुक मत जाना और हम सब रुके हुए हैं, इसलिए त्याग करो। त्याग का मतलब छोड़ना नहीं होता है, त्याग का मतलब होता है तुम्हारा अपमान हो रहा है बहुत ज़्यादा, उस अपमान का त्याग करो। तुम्हारे साथ ग़लत हो रहा है बहुत ज़्यादा, उस माहौल का त्याग करो, अपनी ग़लती का त्याग करो। त्याग के अतिरिक्त अध्यात्म कुछ नहीं है। पाना तो कुछ है ही नहीं, जो तुमने भूलवश पकड़ लिया है, उसको छोड़ देना है। और जो तुमने भूलवश पकड़ लिया है, उसकी पहचान इसी तरीके से होती है। क्या? अनुशासन नहीं आता, काम में मन नहीं लगता, मन इधर-उधर छितराता है, भटकता है, वासनाएँ उठती हैं। ये सब यही बता रहा है कि जो तुमने पकड़ लिया है, वो त्याग योग्य है।

त्याज्य वस्तु, हीन वस्तु के साथ संबंध मत रखो। बात कोई नैतिकता आदि की नहीं है, बात तुम्हारे स्वभाव की है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा बैठा है, जो किसी छोटी चीज़ से सहमत नहीं हो सकता, मेल नहीं बैठा सकता। तुम्हें पूर्णता चाहिए, तुम्हें अनंतता चाहिए, तुम्हें एक अंतिम श्रेष्ठता चाहिए।

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