आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जहाँ समय है, वहाँ कर्मफल है || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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वक्ता: अष्टावक्र गीता, ग्यारहवाँ अध्याय, तीसरा श्लोक :

आपदः सम्पदः काले दैवादेवेति निश्चयी

तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वांछति न शोचति

संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक।

प्रश्न: यहाँ पूर्व कृत कर्मों से क्या अभिप्राय है? इसे कैसे समझा जाए?

वक्ता: आप दो हैं।जिसमें से दूसरा पहले की लीला है। तो वस्तुतः आप एक ही हो। लेकिन दूसरे की दृष्टि से जब भी देखेंगे, तो भेद दिखाई देगा, दो अलग–अलग दिखाई देंगे। तो व्यवहारिक रूप से यह कहा जा सकता है कि हम दो हैं। कैसे दो हैं? एक वो जो समय में जीता है, जिसका आदि-अंत है, जो कार्य-कारण में जीता है। उसकी सीमाएँ हैं। जिसकी इन्द्रियगत नहीं होती है। और दूसरे आप वो हैं, जिसमें गहराई है, जिसमें फैलाव नहीं है, जिसमें विस्तार नहीं है, जो समय में नहीं है, जो बिंदु सामान है। उसका कोई आदि-अंत नहीं है।

जो समय में जीता है उसके ऊपर समय का प्रभाव पड़ता है; मात्र उसको। आपके पास ऐसा जो कुछ है, जो समय से आया है, उस पर समय का असर ही पड़ेगा। वो कर्मफल के सिद्धांत के भीतर ही चलेगा। शरीर आपको समय ने दिया है, तो शरीर पर समय का असर पड़ेगा। शरीर की उम्र बढ़ेगी, परिपक्व होगा, फिर ज़रा जीर्ण होगा और अंततः मृत्यु को प्राप्त होगा। कोई ये चाहे भी कि शरीर समय के पार हो जाए, तो ये हो नहीं सकता है क्योंकि शरीर ही समय है, समय का उत्पाद है। मन भी आपको समय ने दिया है। आपके मन में अभी जो विचार हैं, और विचारों के नीचे जो वृत्तियाँ हैं ये और कहाँ से आई? सब संसार की देन है। संसार माने समय, संसार और समय अलग-अलग नहीं हैं।

तो मन में भी जो कुछ है, वो समय के प्रभाव के अंतर्गत आता है। समय उसमें लहरें उठाएगा। समय यूँ भी प्रतीत होगा कि उसको शांत कर दे रहा है। और मन में जो कुछ भी रहेगा वो स्थायी नहीं रहेगा, समय के बदलने के साथ बदलता जाएगा। तो मन पर भी कर्मफल का सिद्धांत लागू होता है।

शरीर पर ऐसे लागू होता है कि आप किसी दीवार को मारें, तो आपको चोट लग जाएगी। आप गलत आहार-विहार करते रहें, तो शरीर खराब हो जाएगा। और मन पर ऐसे लागू होता है कि जैसे आपके विचार हैं, वैसी मन की संरचना बनती जाएगी। तो वहाँ पर भी कार्य-कारण लागू हो रहा है। एक में बड़े स्थूल तरीके से और एक में बड़े सूक्ष्म तरीके से। और इसमें कोई अपवाद संभव नहीं है। ज़रा सा भी अपवाद संभव नहीं है। मन ने जो सोचा, उसका फल उसे भुगतना पड़ेगा। शरीर ने जो खाया, वो भीतर प्रतिक्रिया करेगा।

आप होंगे आध्यात्मिक रूप से बड़े उन्नत, पर ज़हर खा कर के शरीर को न बचा पाएंगे। आप होंगे बड़े तपस्वी, बड़े ज्ञानी पर सर पर पत्थर पड़ेगा, तो जीवित तो नहीं बचेंगे क्योंकि शरीर, शरीर है। और उस पर संसार के, समय के, भौतिकी के और कर्मफल के सारे नियम लागू होते हैं। मैं दोहरा कर कह रहा हूँ कि कोई अपवाद संभव नहीं है। आप कहेंगे कि इसमें दोहराने की क्या बात है? ये तो बात बहुत ज़ाहिर है। ये बात ज़ाहिर नहीं है, हमारा पूरा जीवन अपवाद की ही तलाश में बीत जाता है। जो होना ही है, जो स्पष्ट ही है, हम उसका प्रतिरोध करते हैं, उससे लड़ते हैं।

आपदः सम्पदः काले दैवादेवेति निश्चयी।

सुख आता है, दुःख आता है, हम इनसे कभी गुजर नहीं पाते। हम दुःख का तो विरोध करते ही हैं, हम सुख को भी कभी पूरी तरह अनुभव नहीं कर पाते। हमने ठान ही रखा है कि हम कर्मफल के सिद्धांत को तोड़ के मानेंगे, जो की हम तोड़ सकते नहीं हैं। हम ये कभी नहीं कहते हैं कि ये देव की बात है, जो अष्टावक्र आपसे कह रहे हैं कि आपद काल हो कि सम्पद काल हो, सुख हो कि दुःख हो, ये देव की बात है। इसको तो हम बदल नहीं सकते हैं, कोई विरोध इसका संभव नहीं है।

पर हम पूरा-पूरा विरोध करते हैं। हम ऐसे नहीं जीते कि सुख-दुःख में से हो कर गुज़र जाएँ। खूब सुना है ना हमने, ‘न सुख, न दुःख’ और उसका अर्थ हमने ये निकाला है कि न सुख आने देंगे, न दुःख आने देंगे। मैं आपसे कहता हूँ कि इसका अर्थ होता है कि न सुख का विरोध करेंगे न दुःख का विरोध करेंगे क्योंकि उनका आना पक्का है।

‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाए। करता था तो क्यों रहा, अब करी काहे पछताए।।’

जो करा है, उसका फल आना पक्का है, अब उससे लड़ो मत। लड़ कर के तुम कर्मों की लम्बी श्रृंखला में एक कड़ी और जोड़ रहे हो। लड़ो नहीं, उससे गुज़रो।

यही कारण है, अब आपको समझ में आएगा कि क्यों कहा गया है कि मात्र योगी ही भोगी हो सकता है। क्योंकि मात्र योगी ही संसार से गुज़रना जानता है, संसार का विरोध नहीं करता। न विरोध करता है, न समर्थन करता है, वो गुज़रना जानता है। वो पूरी तरह अनुभव करना जानता है।

आगे अष्टावक्र कह रहे हैं ‘स्वस्थेंद्रियो’ । स्वस्थेंद्रियो का मतलब होता है जिसकी इन्द्रियाँ पूरी तरह अनुभव करें। वो अगर पानी भी पीता है योगी, तो उसकी इन्द्रियाँ पानी का स्वाद ले पाती हैं क्योंकि वो पानी के विरोध में नहीं खड़ी हैं। वो यदि देखता है तो पूरा देखता है क्योंकि उसकी आँखें संसार के विरोध में नहीं खड़ी हैं। उसके कान सुनते हैं तो पूरा सुनते हैं क्योंकि उसके कानों ने ठान नहीं रखा है कि कुछ ऐसा है, जो सुनने योग्य नहीं है।

जब कान पूरा सुनते हैं, तो पूरा सुनाई देता है। फिर कृष्ण की बाँसुरी सुनाई देती है। बुल्ले शाह कह रहे थे ना हमसे बोध शिविर में ‘मुरली बाज उठी अन्घाता’। वो यही बात है। ‘तृप्तः स्वस्थेंद्रियो’ , जिसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ होती हैं, उसे अनहद सुनाई देता है। वैसे ही नहीं सुनाई देता जैसे सड़क पर चलती कार की आवाज़, सुनने का अंदाज़ दूसरा होता है, पर सुनाई देता है। और सुनाई देने में कोई विशिष्टता नहीं है, बस अविरोध है। क्या विरोध करना? ये जो पूरा संसार है, ये तो जाल है, कार्य-कारण का जाल। जो भी कुछ घट रहा है उसके पीछे कारण, उसके पीछे कारण, उसके पीछे कारण और कारणों के पीछे जो महाकारण है, वो मैं हूँ। कैसे विरोध कर लूँ? संसार का विरोध करने का अर्थ हो जाएगा अपना विरोध करना।’’

याद रखिए जब आप भोगने के लिए उनमत होते हैं, वो भी एक प्रकार का विरोध है। तब आप कह रहे हैं कि जितना मिल रहा है उतना नाकाफ़ी है, मैं अपनी तरफ से भोगूँगा; वो भी विरोध है, वहाँ भी तृप्ति नहीं है। अष्टावक्र आपसे कह रहे हैं ‘ तृप्तः स्वस्थेंद्रियो ’, वहाँ भी तृप्ति नहीं है। वहाँ आप कह रहे हैं, “और चाहिए”, वो भी एक विरोध है। तो विरोध में तो विरोध है ही, मांगने में भी विरोध है। हम हर प्रकार से संसार के विरोध में खड़े हैं। कभी ये कह के कि जो दे रहे हो, वो नहीं चाहिये। कभी ये कह के कि जो दे रहे हो, वो इतना अच्छा है कि पूरा नहीं पड़ता। पर दोनों ही स्थितियों में हम ये कह रहे हैं कि जो हो रहा है, वो ठीक नहीं है हम उसका विरोध करते हैं। कभी कहते हैं कि सुख और चाहिये, और कभी कहते हैं कि दुःख कम चाहिये।

संत, योगी वो है जो सुख से भी पूरा गुज़रे, जो दुःख से भी पूरा गुज़रे और इसी कारण वो सुख और दुःख दोनों से पूरा अछूता रह जाता है। एक बात आपसे कह रहा हूँ, शायद आपको अजीब सी लगे, “जितना सुखी एक योगी हो सकता है, उतना आप कभी नहीं हो पाएँगे और जितना दुखी एक योगी हो सकता है, उतने दुःख की गहराई आपने क्या जानी होगी”। क्योंकि वो पूरा दुखी हो लेता है, इसीलिए उसमे दुःख का चिन्ह मात्र भी शेष नहीं बचता, वो दुःख से पूरा गुज़र जाता है। आप दुःख के विरोध में खड़े हो जाते हैं, इसीलिए दुःख आपके पीछे खड़ा हो जाता है।

दो ज़ेन साधक थे, साथ-साथ रहते थे, साथ-साथ घूमते थे। समय आया, एक की मौत हो गई। जीवन भर वो मौन साधते रहे, वो जहाँ जाते थे चुप-चाप रहते थे। जब एक की मृत्यु हुई, तो लोगों ने समझा कि इस बात से बिलकुल अछूता रहेगा। पर लोगों ने पाया कि वो दहाड़ें मार-मार के रो रहा है, छाती पीट रहा है, रोए ही जा रहा है, रोए ही जा रहा है। लोगों ने कहा कि ये क्या कर रहे हो ज़ेन साधक हो कर के रो रहे हो? उसने कहा, “क्यों, दोस्त मरा है जीवन भर का, रो नहीं सकता”?

यहीँ पर हमारी भूल है। ये कहानी साफ़-साफ़ दर्शाती है कि हमने आध्यात्मिकता को कितना गलत समझा है। हमने समझा है कि आध्यात्मिकता जीवन का नकार है, कि आध्यात्मिक आदमी न हँस सकता है, न रो सकता है, कि उसके आस-पास जो हो रहा होता है, वो उसके प्रति संवेदनशून्य हो जाता है। जैसे उसके भीतर कुछ मर गया हो, जैसे पत्थर। वो पत्थर नहीं होता। वो दुःख को आपसे कहीं ज़्यादा गहराई से अनुभव करेगा। वो सुख को भी आपसे कहीं ज्यादा गहराई से अनुभव करेगा। जो भी कुछ संसार दे रहा है, न उसे उसका विरोध करना है, न उसे उसका समर्थन करना है, उसे उससे गुज़रना है। यही योग है और यही भोग है।

समझ में आ रही है बात? और संसार जो भी कुछ देता है, वो तो इन्द्रियों के ही विषय होते हैं। ऐसी इन्द्रियाँ, जो संसार को उसकी पूर्णता में देख सकें। सुस्त इन्द्रियाँ कहलाती हैं, ऐसी इन्द्रियाँ जिन पर कूड़ा न जमा हो गया हो। समझ लीजिए एक पाईप है, जिससे कुछ गुज़रना है। आपकी आँखों से कोई दृश्य है, जो प्रवेश कर रहा है। मान लीजिए कोई पाईप सी है, उससे उस दृश्य को गुज़रना है। वो पाईप, वो नली आपके आँखों से हो कर के मस्तिष्क तक जाती है। यदि कूड़ा जमा हो उसमें, तो क्या होगा? जो कुछ आ रहा है, उसमें उसका विरोध होगा। होगा कि नहीं होगा, कचड़ा ही तो विरोध करेगा ना? स्वस्थ इन्द्रिय का मतलब है कि जो कुछ है, उसे आने दिया जाए, हम विरोध नहीं करते।

आप वैज्ञानिकों से पूछें, तो वो बतलाएँगे कि हम देखते ही नहीं। जो कुछ हमारे आस-पास हो रहा होता है, हम उसका बमुश्किल एक-दो प्रतिशत ही देखते हैं। इन्द्रियाँ स्वस्थ नहीं हैं। अभी पिछला हमारा सत्र हुआ था, तो तब से मैंने कहा था कि जो भी लोग आएँ, वो कुछ बिंदु लिखें कि क्या सुना ,क्या समझा। आपने पता नहीं गौर किया कि नहीं, कि जितने लोगों ने लिखा था, वो उनहोंने काफ़ी अलग-अलग लिखा था। तो कमाल हो गया ना, बात तो मैं एक ही कह रहा था, तो लोग अलग-अलग कैसे पकड़ रहे थे? क्योंकि इन्द्रियाँ स्वस्थ नहीं हैं। कुछ ऐसा था जिसके आप विरोध में थे, वो आपने सुना ही नहीं। आपकी जो आतंरिक व्यवस्था है, और जब मैं इन्द्रिय कह रहा हूँ तो इन्द्रिय कभी अकेला काम नहीं करती है, उसके साथ मन हमेशा लगा होता है।

तो जो ये अंदरूनी व्यवस्था है, अंतःकरण है, इसने कुछ बातों को खारिज ही कर दिया, सुना ही नहीं। और कुछ बातें थीं, जो उसके अनुरूप थीं तो उनको बहुत ज़ोर से सुना। एक कहा गया, चार बातें सुनी गई, रजिस्टर की गई। ये स्वास्थ्य की निशानी नहीं है। आँखें वो, जो ना कुछ खारिज करने को उत्सुक हों, न एक का चार करने में उत्सुक हों। विनसेंट वॉन गघ की पेंटिंग अगर आपने कभी देखी हो, तो वो पेड़ बनाएगा और चाँद तारे बनाएगा, पेड़ छोटे-छोटे और चाँद तारे बड़े-बड़े। कहीं पर फूल बहुत बड़े-बड़े और पक्षी छोटे-छोटे। उससे लोगों ने पूछा कि ऐसा क्यों भई? उसने बोला कि, ‘’ये वैसा है, जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। मैं जिसको महत्त्व देता हूँ, वो मेरे लिए बड़ा हो जाता है। मैं तारों को बहुत महत्त्व देता हूँ, मेरे लिए तारे, सूरज से ज़्यादा बड़े हैं। और ठीक वैसा ही मैं दर्शाऊंगा।’’

आप उसके चित्रों को देखिये, उसने एक नई परंपरा की ही शुरूआत कर दी, इम्प्रेशनिस्टिक पेंटिंग।

योगी दोनों तरीके से पूरा जीता है। उसके भीतर वो बैठा होता है जिसका न जन्म है, न मृत्यु है और वो उससे पूरी तरह से संयुक्त होता है। ये तो हुआ उसका एक जीवन जो ‘है’ ही। और जो दूसरा जीवन है, जिसकी शुरुआत हुई थी और जिसे खत्म हो जाना है, वो उसे भी पूरा-पूरा जीता है। और वो कैसे जीता है? उसे पूरा-पूरा ये बात गौर करने की है क्योंकि हम तो जब भी कहते हैं पूरा-पूरा जियो, तो हमारे मन में उन्मुक्त भोग के आलावा और कोई चित्र उठता ही नहीं। पूरा जीने का और कोई आशय समझ नहीं पाते। पूरा जीने का अर्थ हम यही जानते हैं कि जाओ, लूटो और खसोटो भिखारी की तरह या डकैत तरह। जीवन क्षणिक है, कल का भरोसा नहीं तो आज ही जितना उड़ा सकता हो, उड़ा लो।

योगी का भोगना दूसरा है और जिस तरह से वो जीता है, उसी को कहते हैं कर्मों को काटना। पुराना भोगते जा रहे हैं, नया पैदा नहीं कर रहें। पुराना तो जो था वो भोगना पड़ेगा, पर उसका विरोध कर के नया पैदा नहीं करेंगे। और उसमें लिप्त हो कर भी नया पैदा नहीं करेंगे। सुख आएगा, सुख से गुज़र जाएँगे। उसका कोई निशान, चिन्ह, अवशेष नहीं रहने देंगे। वही है, जिसको की कबीर कहते हैं कि ‘चुनरिया पर दाग नहीं लगने देंगे’। सुख आया था ना, सुख का क्षण था और तुमने सुख को ठुकरा दिया; पड़ गया चुनरी पर दाग। ध्यान दीजियेगा, ये बात आम तौर पर धर्म के क्षेत्र में सुनने को नहीं मिलती।

सुख आया और तुमने सुख को ठुकरा दिया ये कह कर के कि हम सुख को नहीं भोगते। लग गया चुनरी पर दाग। और दुःख आया और तुम ज़रा भी संकुचित हो गए, डर गए दुःख से; लग गया चुनरी पर दाग। जब दुःख आए तो दिल कड़ा कर के, चौड़ी छाती के साथ दुःख का स्वागत करो, ज़रा भी विरोध नहीं। सहो पूरे कष्ट को। मन पर चोट लगेगी, आघात लगेंगे, रो, पूरी तरह उसे गुज़र जाने दो। वो गुज़र जाएगा, तुम वैसे के वैसे शेष रह जाओगे, ‘जस की तस धर देनी चदरिया’ । वैसे के वैसे रह गए। दुःख आया, पूरा गुज़र गया। पर वो पूरा गुज़रेगा नहीं अगर तुमने धारणा बना रखी है कि दुःख बुरा है और सुख अच्छा है क्योंकि अगर दुःख बुरा है तो उसका क्या करोगे, विरोध करोगे ही करोगे।

न दुःख बुरा न सुख अच्छा। हँसी आए, खूब हँसो, दुःख लगे, खूब रोओ, निष्प्राण मत हो जाओ। धार्मिक आदमी निर्जीव नहीं होता है कि काठ से बैठे हुए हैं, जीवन का कुछ पता ही नहीं लग रहा है। अगर तुम्हें फर्क नहीं पड़ता है, तो तुम बहुत बड़े सांसारिक आदमी हो, और, ढोंगी और हो। ये तुमने एक नया मुखौटा पहना है, ज़रूर किसी को दिखाने के लिए, ज़रूर लालच है, ज़रूर साजिश चल रही है मन की डकैती के लिए, किसी न किसी को लूटना है छद्मवेश धर के। जो नकली चेहरा बना रखा है, वो लूट के लिए ही बनता है। हर नकली चेहरा हिंसा की तैयारी है।

आपदः सम्पदः काले दैवादेवेती निश्चयी। तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो न वान्छति न शोचति।।

न मांगता है न शोक करता है। न वांछना है न शोचना है। लेकिन जो बात पहले कही थी उसको दोहरा रहा हूँ। ‘न सुख है, न दुःख है’, इसका अर्थ ये नहीं है कि तुम दोनों के प्रति मृत हो गए हो। इसका अर्थ है:

* ‘न सुख का विरोध है, न दुःख का विरोध है’ ।*

सुख का विरोध हम कैसे करते हैं? और सुख मांग के। दुःख के विरोध को हम कैसे कहते हैं? दुःख को कम करने की मांग कर के। न और सुख मांगेंगे, न दुःख को कम करने की फ़रियाद करेंगे। सुख मिल गया, जितना मिल गया, तृप्त हैं। दुःख मिल रहा है, जितना मिल रहा है, कोई कारण होगा, कर्म फल है। क्यों शिकायत करें? क्यों कहें कि नहीं मिलना चाहिए था? उससे पूरा-पूरा गुज़रेंगे, ज़रा भी विरोध नहीं करेंगे। इस बात को भारत में कुछ लोग अति तक भी ले गए हैं। अति पर ले जाने पर वो बात हास्यास्पद हो गई है लेकिन बात तब भी विचारणीय है।

द्या सम्पदाय के भीतर से कुछ आवाजें रही हैं जिन्होंने ये तक कहा है कि अगर कोई आदमी पीड़ा में हो, तो उसे पूरी पीड़ा भोगन दो, कर्मफल कट रहा है उसका।उसकी मदद कर के तुम उसको उसके दुःख का विरोध सिखा रहे हो। तो मदद वांछनीय नहीं है, न करो मदद, ये तक कहा है।

अब वो एक अलग मुद्दा है। उसमें अलग जाया जाएगा क्योंकि वहाँ पर कोई दूसरा आ गया है चित्र में। अभी हम अपनी बात करते हैं। ये हमको देखना होगा कि हम किन-किन तरीकों से दुःख से बचने की कोशिश करते हैं, हमने कैसे चारों तरफ अपने सुरक्षा चक्र लगा दिए हैं कि दुःख हम तक न आए। याद रखिये वो ऋण है आपके ऊपर, आपको चुकाना तो है ही; जितना देर में ऋण चुकाओगे ब्याज़ उतना ज़्यादा देना होगा। तो दुःख कल भोगने से बेहतर है आज भोग लो, कर्ज़ा उतरेगा। और सुख को भी कल मत टालो कि नहीं-नहीं, अभी हमने हक नहीं दिया अपनेआप को सुखी होने का। हम ये करते हैं, खूब करते हैं। हम कहते हैं, “पहले कुछ बन कर दिखाएँगे उसके बाद सुखी होंगे, अभी कोई मौका है सुखी होने का, न”।

सुख भी समय की लहर है, कर्मफल है तुम्हारा, उसे कुछ विशेष मत मान लो। सुख में और दुःख में मूलतः कोई अंतर थोड़े ही है। तुम क्यों भेद करते हो? तुम क्यों कह रहे हो कि हमें लगता है कोई पुरस्कार वगैरह मिल रहा है सुख के रूप में। कोई पुरस्कार- वुरस्कार नहीं मिल रहा। सुख और दुःख, ध्यान से अगर देखोगे तो दोनों विक्षेप ही हैं, डिस्टर्बेंसेस। दोनों को गुज़र जाने दो। दोनों में मूलतः कोई अंतर नहीं है। पर तब हमारी ये धारणा भी खड़ी हो जाती है कि सुख मिलने का अर्थ ये है कि हमने कोई अच्छा काम किया, तो सुख मिल रहा है। अच्छे कामों से क्या मिल रहा है, सुख, बुरे कामों से क्या मिलता है……

श्रोतागण: दुःख।

ये पागलपन है।

न अच्छे कामों से सुख मिलता है , न बुरे कामों से दुःख मिलता है। कामों के अटके रह जाने से जो मिलता है, उसे सुख-दुःख कहते हैं

और सुख-दुःख साथ-साथ चलते हैं, जिसे सुख मिल रहा है उसे कहीं न कहीं दुःख भी मिल ही रहा होगा। ये बहुत बड़ी भ्रान्ति है। और धार्मिक आदमी इस भ्रान्ति को बिलकुल दिल से लगा कर देखता है। बल्कि वही है नैतिक आदमी। वो कहता है अच्छे काम कर, अच्छे काम करने से पुण्य मिलता है और बुरे काम से बचो, बुरे काम से पाप लगता है। ये पागलपन की बात है।

पाप-पुण्य दोनों एक हैं, दोनों अवशेष हैं। दोनों चुनरिया पर दाग हैं। दोनों एक हैं, कर्मफल जब आपको मिलता है, तो उसे सुख-दुःख कहते हैं। हाँ, आप उसे सुख का नाम दे रहे हैं या दुःख का नाम दे रहे हैं, ये आपकी वर्तमान स्थिति पर निर्भर है। आप खड़े हुए हैं दरवाज़े पर और आप उम्मीद कर रहे हैं कि खबर आएगी की आपकी तरक्की हो गयी है। तभी फ़ोन की घंटी बजती है; सुख। आप खड़े हुए हैं और आप आशंकित हैं कि आपके मित्र की मृत्यु न हो जाए, बहुत बीमार है। तभी फ़ोन की घंटी बजती है; दुःख है। एक ही घटना हुई है, क्या? फ़ोन की घंटी बजी है। वो कभी सुख है कभी दुःख है, वो आपके ऊपर है, आपकी अवस्था के ऊपर। फ़ोन की घंटी सिर्फ़ कर्मफल है।

संसार, समुद्र की एक लहर है, जो आकर आपको लग गई है। उससे गुज़र लीजिए। न वो सुख है, न वो दुःख है, वो संसार है। न उसको आमंत्रित करिए, न उससे लड़िये। न उसको आमंत्रित करिए, न उससे लड़िये। उसके स्वभाव को जानिये, उसकी प्रकृति को समझिये।

‘न वांछति, न शोचति’ , जितना कीमती ये वचन है, उतना ही कीमती उसका सही अर्थ करना है क्योंकि ऊँचे से ऊँचे वचन का हमने गिरे से गिरा अर्थ किया है। ‘न वांछति न शोचति’ का बड़ी संभावना है कि हम यही अर्थ कर दें, ‘न सुख, न दुःख’। तो फिर ज़िन्दा किसलिए हो? तो फिर शरीर और मन कहाँ हैं, क्यों है? शरीर और मन तो द्वैत की दुनिया में ही जीते हैं। वहाँ समय है, संसार है, फैलाव है, सर्दी-गर्मी है और तुम कह रहे हो, “न सर्दी, न गर्मी”। मुर्दों के साथ होता है ऐसा।

तुम कह रहे हो न सुबह न शाम। न, ‘न सुबह न शाम’ नहीं; ‘सुबह भी और शाम भी’। तुम कह रहे हो, ‘न दिन, न रात’। न, ‘दिन भी रात भी’। तुम कह रहे हो, ‘न सुख, न दुःख’। न, ‘सुख भी और दुःख भी’। अब पूरा-पूरा, जितना रोकोगे, वो आगे के लिए संचित हो जाएगा। रोको नहीं। तुम भुगत ही अभी वही रहे हो, जो तुम ने अतीत में रोक कर रखा था। पहले न रोका होता, तो आज क्यों भुगत रहे होते? अब उससे गुज़र लो।

आध्यात्म कभी निषेध की भाषा में बात नहीं कर सकता। ये बड़ी विडंबना है, बड़ी त्रासदी कि हम सोचते हैं कि धर्म, आध्यात्म, ‘न’ करते हैं – इसको न करो, उसको न करो, ये न करो, ऐसे रहो। वहाँ न नहीं है, वहाँ महा स्वीकार है। हमने कहा था हम दो हैं और दूसरा, पहले से निकलता है। दूसरे का विरोध, पहले का विरोध है। और दूसरे की लालसा, पहले की लालसा है। लालसा भी गलत क्योंकि लालसा बताती है कि पाने में कुछ कमी रह गई। लालसा इस बात का प्रमाण है कि पाने में कमी रह गई। न विरोध, न लालसा।

इसीलिए संतों के रंग-ढंग आम आदमी के समझ में नहीं आते। उसको खाने को मिलता है, खूब मिल गया तो खा भी लेगा खूब। वो मना नहीं करने आएगा। आप उसे सोने की थाली में खूब पकवान बना के दीजिए, उसे कोई विरोध नहीं है, वो जमकर खाएगा। वो यहाँ तक खाएगा कि आपको बुरा लगने लगे। आप कहेंगे कि, ‘कैसा संत है ये, हमने तो सुना था संत मिताहारी होते हैं, जरा सा खा के उठ जाते हैं, भोगियों में भोगी है, खाए जा रहा है।’ वो खाए जाएगा। ज़बरदस्ती भी नहीं ठूसेगा कि इतने दिनों बाद मिला है, तो खा लें। मिल रहा है, तो विरोध भी नहीं करेगा। और नहीं मिलेगा, तो शिकायत करने नहीं आएगा। दो दिन भूखे पेट है, तब भी मस्त है, घूम रहा है।

न माँगना है, न ठुकराना है। इन दोनों के अतिरिक्त जो तीसरा है, उसे ही अहंकार कहते हैं। मिल गया तो ले लेंगे, नहीं मिला तो नहीं लेंगे। इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा होता है, जानते हो कौन? वो कहता है कि नहीं मिला तो अर्जित करेंगे, उसका नाम ही अहंकार है। उसका ही नाम कर्ताभाव है। जब मिलता हो, तो ठुकराना नहीं, जब न मिलता हो, तो भीख न माँगना। उसी को सहज जीवन कहते हैं।

पर इन शब्दों को इस्तेमाल मत करने लगना। हम बड़े धोखेबाज हैं कि देखो, सर ने कहा था कि जब मिल रहा हो तो ठुकराना नहीं, तो अभी मौका मिला है लूट का, अब काहे को ठुकराएँ, चलो लूटें। तो तुमसे कह तो रहा हूँ, पर साथ में चेतावनी भी दे रहा हूँ कि इन बातों को अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ती के लिए मत इस्तेमाल कर लेना।

खुल के जियो। तुम कभी नाचे हो जैसे बुल्ले शाह नाचते थे? तुम कभी रोए हो जैसे मीरा रोती थी? तुम कभी हँसे हो, जैसे बोधिधर्म हँसा था? तुमने कभी प्रेम किया है कृष्ण की तरह? वो जिए हैं, उनके पास सिर्फ़ आत्मा ही नहीं थी, उनके पास मन और शरीर भी पूरा था। पर नहीं, यहाँ तो धारणाएँ हैं। यहाँ तुम्हें कोई संत नाचता हुआ दिख जाए तो तुम कहोगे, ”ये देखो, ढोंगी”। ठीक-ठीक हमें कभी समझ में ही नहीं आया कि कृष्ण की रासलीला कहाँ से आ गई और सोलह हज़ार रानियाँ कहाँ से आ गईं। तो उस बात को हम यूँ ही आया-गया कर देते हैं।

चलो गीता की ओर ध्यान लगाओ, रासलीला छोड़ो अभी। कैसे छोड़ दें, एक है कृष्ण?

जो गीता में कहा है, वो रासलीला में करा है, छोड़ कैसे दें? गीता अगर आत्मा है तो रास शरीर है, छोड़ कैसे दें? और जहाँ आत्मा में गीता होगी, वहाँ शरीर रास करेगा। पर नहीं, हमें गीता चाहिए, रास से हमें विरक्ति है। नतीजा, खंड-खंड होना, विभाजित रहना, दीवार खड़ी करना। कर लो दीवार खड़ी फिर। कृष्ण तो सबकुछ दिखाते हैं, सुदामा आता है, तो भाव-विभोर हो जाते हैं। उसके पाँव पखारने लगते हैं। ये कौन सा संत है, भावुक हो गया?

अब बुद्ध के ऊपर पूरी मानवता को बचने का दायित्व। और एक बकरी कट रही थी तो बुद्धा बोलते हैं इसको ना काटो, मुझे काटो। बड़े गैर ज़िम्मेदार आदमी थे। भावुकता में इंसान गलत निर्णय ले लेता है, सेंटीमेंटल फूल , बकरी के लिए अपनी जान दे रहे थे। उन्हें तो सोचना था कि अगर तुम मर गए, तो इंसानियत का कितना नुकसान हो जाएगा। अरे! तुम्हारे ऊपर भार है, जिम्मेदारियाँ हैं, पहले उनको पूरा करो। लोगों के ऊपर एक बीवी और बच्चे का भार होता है, तो वो जीवन भर राग अलापते रहते हैं कि, ‘देखिये! साहब अभी हम और कुछ नहीं कर सकते, हम पर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं।’ बुद्ध के कन्धों पर तो पूरी पृथ्वी का भार था। उसके बाद भी बकरी के लिए जान दिए दे रहे हो। बड़ी गलत बात है।

पर ऐसा ही होता है सब, वो भावुक भी पूरा होता है। हम भावुक भी पूरा होना नहीं जानते, हमारी भावुकता में भी मिलावट होती है। हमारे आँसू भी समय और मौका देख कर के गिरते हैं। जहाँ हमें पता हो की पिट जाएँगे, वहाँ हम गुस्सा कभी नहीं करेंगे। हमारा गुस्सा भी बड़ा नपा-तुला होता है। यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा हुआ है, जिसे गुस्सा न आता हो। पर तुम्हारा सारा गुस्सा छू-मंतर हो जाएगा जब तुम्हें पता हो कि अब बस पिट ही जाओगे। हाँ, तुमसे कोई कमज़ोर हो उसके सामने खूब गुस्सा दिखा लोगे। गौर किया है कभी कि हमारा गुस्सा भी कितना नपुंसक होता है।

न हमारे आँसू सच्चे, न हमारी हँसी पूरी, न हमारा क्रोध पूरा; रूद्र का क्रोध होता है पूरा। वो फिर तांडव होता है। फिर कुछ बचेगा नहीं। अब तुम उन्हें ये न कह पाओगे कि देखिये, साहब संयम बड़ी बात है, ‘अतिसर्वत्र वर्जयेह’। ठीक है आप नाचें, आप प्रलय ले कर आएँ, पर ज़रा मॉडरेशन में। इतना ज़्यादा भी नहीं, मध्यम मार्ग। न, फिर वहाँ गुस्सा है, तो पूरा है। कभी देखा है कि पुरानी कहानियाँ कैसे समय की सीमाओं को तोड़े रहती हैं। तपस्या होती है, तो पांच हज़ार सालों तक होती है, इससे कम तो होती ही नहीं। मतलब समझ रहे हो, कि कोई सीमा नहीं है फिर। फिर विरोध नहीं करेंगे, अब हो रहा है, तो पूरा हो।

एकांत में गए हैं, भ्रमण कर रहे हैं, तो वर्षों तक चल रहा है। हफ्ते भर का अवकाश नहीं ले कर के गए हैं। और वो बरसों तक मौज में है, लौट ही नहीं रहे। हम तो घड़ी बाँध के जाते हैं। और जहाँ पूरा है वहाँ शेष क्या बचता है?‘शून्य’। यही आत्मा की उपलब्धि है। जहाँ पूरा गुज़र गया, वहाँ जो शेष बच गया, सो तुम हो। और जहाँ पूरे में से ज़रा भी ठहर गया, वहाँ जो शेष बचता है, वही तुम्हारा क्लेश है। फिर वो याद आएगा, फिर वो पुकार-पुकार के कहेगा कि मुझे पूरा होना है।

जो करना है कर लो, जो होता है होने दो। उल्टा चलो, सीधा चलो, पर खत्म करो। हम खत्म नहीं होने देते। और हमारी सारी व्यवस्था ही इसीलिए है कि हम खत्म न हों। बच्चा डरा हुआ है, बाहर बगीचे में भूत घूम रहा है। बहुत कम माएँ होंगी, जो कहेंगी, ‘चल, आधी रात को बगीचे में, भूत से मिल कर आएँगे। अब उठा है ना डर, तो डर को पूरा अनुभव करेंगे, आ’। और वो बच्चा सिहरेगा, काँपेगा, रोएगा, घबराएगा, पूरा गुजर जाएगा। यही मोक्ष है, यही मुक्ति है। अगले दिन नहीं रोएगा। पर माँ क्या करेगी, “अरे नहीं, लल्ला, आ तुझे कम्बल में लपेट दूँ। चिंता न कर माँ है ना। माँ भूत को भगा आएगी”। और माँ अगर भूत को भगा आएगी, तो क्या सिद्ध हो जाएगा? कि भूत है। भूत था, माँ गई भगा आई।

और हर घर में यही बेवकूफी चल रही है। अनेक प्रकार के भूत हैं, जो बगीचे में टहलते हैं, भविष्य का भूत, तुलना का भूत, समाज का भूत, प्रगति का भूत। और माएँ तत्पर हैं, रक्षा करने में। वो लाल को भिड़ने नहीं देती हैं भूतों से, वो रक्षा करने में उत्सुक है। तो फिर क्या होगा? प्रेम का अर्थ भी तुमने यही लगाया है कि जिससे हमें अनुराग है, हम उसकी भूतों से रक्षा करेंगे। नहीं, रक्षा कर सकते, भूत ही तो कर्मफल है। इस बात को गाँठ बांध लो। वहाँ कोई निस्तार नहीं है, कोई छूट नहीं है। शरीर और मन को कर्मफल भुगतना ही पड़ेगा। और कर्मफल उसी के लिए है जो कर्मफल से बचना चाह रहा हो।

क्या ये बात याद रख पाओगे? कर्मफल उसी के लिए है, जो कर्मफल से बचना चाह रहा हो। जो कर्मफल को स्वीकार कर ले, वो कर्मफल से मुक्त हो गया। जो प्रारब्ध को स्वीकार कर ले, वो प्रारब्ध से मुक्त हो गया। चोट लगती है विरोध के कारण। तुम पूरा स्वीकार कर लो चोट को, चोटें लगने बंद हो जाएँगे। साठ मील प्रतिघंटे की रफ़्तार से चलता हुआ ट्रक आके तुम्हें मारे, तो तुम्हारा क्या होगा? क्या होगा? कहीं के नहीं बचोगे। कुछ भी नहीं होगा अगर तुम साठ की रफ़्तार से दौड़ रहे थे। चोट विरोध से लगती है। जिस गति से तुम्हें मारा गया, तत्क्षण अगर तुम भी वो गति पकड़ लो, तो तुम्हें जरा भी चोट नहीं लगेगी।

ट्रक क्या, तुम्हारे ऊपर यदि टैंक चढ़ जाए, जितनी गति से टैंक चढ़ रहा था, ठीक उतनी ही गति यदि तुम्हारी है तो तुम्हें जरा भी चोट नहीं लगेगी। विरोध चोटिल करता है, विरोध करना छोड़ दो। समूचा स्वीकार, जो है सो है, ‘ना कहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ । बात गहरी जाती है, सतह पर मत ले लेना, ये दूसरी-तीसरी बार चेतावनी दे रहा हूँ। विरोध करना छोड़ो, इसका अर्थ ये भी है कि यदि समय आ गया है कि विरोध करो, तो अपने भीतर से उठते विरोध का भी विरोध करना छोड़ो। यदि समय अब आ ही गया है कि हो विरोध, तो फिर विरोध का विरोध छोड़ो।

जेन में इसी लिए खोखले बाँस का प्रतीक खूब इस्तेमाल किया जाता है। समझते हो ना क्यों? क्यों? क्योंकि वो विरोध नहीं करता। समर्थन भी नहीं करता। उसके भीतर से जो गुज़रता है, वो गुजर जाता है। भारत ने उसी बात को एक कदम और आगे बढ़ा कर के रखा हुआ है। उसी खोखले बाँस को भारत ने दूसरा नाम दिया, बाँसुरी। कहा इतना भर नहीं है कि इससे गुज़र भर जाता है, जो भी कुछ गुज़रना रहता है।जब गुजरता है, तो संगीत पैदा होता है। यही जीवन संगीत है।

जब न तुम विरोध करते हो, न समर्थन करते हो, तो संगीत पैदा होता है। वही कृष्ण की मुरली है। ऐसे मत हो जाना कि लोगों को हँसते हुए देखो, तो तुम्हारे मन से लांछना निकले कि अरे! ये तो कुत्सित लोग हैं, गिरे हुए लोग हैं, देखो-देखो कितना हँस रहे हैं। और अगर तुम लोगों को रोते हुए देखो, तो कहो, “अरे, अबूझ, अज्ञानी हैं दुःख मना रहे हैं, जानते ही नहीं कि दुःख क्या है, मन का विक्षेप है, रो रहे हैं“। सुख का मौक़ा हो, हँस लेना, दुःख उठे, रो लेना; अछूते गुजर जाना। फिर पूछता हूँ, अछूता कैसे गुज़र सकते हो? तभी जब गुज़र लिए। न कामना की, न वांछति, न विरोध किया, न शोचति। न माँगा, न विरोध किया।

तू रुलाए, रो लें हम। तू हँसाए, हँस लें हम। न वांछति न शोचति।

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