आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
जागरण का ताप ही वृत्तियाँ जला देगा || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
27 मिनट
152 बार पढ़ा गया

अष्टावक्र गीता (अध्याय २ श्लोक १८)

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तो निराश्रया।

अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।।

आश्चर्य है मुझमें स्थित हुआ जगत वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है , इसलिए न मेरा बंध है, न मोक्ष है ऐसे विचार से आश्रय रहित होकर मेरी भ्रांति शांत हो गयी है।

वक्ता: तो सवाल है कि बार-बार भ्रांति उठती है कि, ‘’मैं कुछ हूँ।’’ ध्यान देने पर शांत होती है। पर बार-बार उठती क्यों है? बार-बार भ्रांति उठती क्यों है? उस समय सब खो जाता है, सब गलत हो जाता है। आप दिन भर जो कर रहे हो, आप समय में जो जी रहे हो, आपके पास जितनी ऊर्जा संचित है, आप देखो न कि आप उसका प्रयोग किस धारणा की पुष्टि में कर रहे हो। आप देखो कि आप किस धारणा को लगातार बल दिए जा रहे हो। आप किसके पक्ष में खड़े हो।

आप जिसके पक्ष में खड़े होगे, वही जीतता रहेगा, क्योंकि खेल सारा मन का है। ये प्रश्न आत्मा तो नहीं पूछना चाह रही है। ये सारे सवाल मन से उठ रहे हैं। मन धारणाओं में जीता है। आप लगातार इसी धारणा को बल दिए जा रहे हो कि ‘मैं कुछ हूँ,’ तो वही धारणा पुष्ट होती जाएगी। इसमें अब आश्चर्य क्या है?

एक-एक साँस आपकी जगत के लिए है। एक-एक हरकत, एक-एक घटना आपकी इसी नाते है कि, ‘’दुनिया है और मैं हूँ और मैं दुनिया में कुछ कर रहा हूँ।’’ चौबीस में से साड़े-तेईस घंटे आप ऐसे ही चल रहे हो। और फिर आपको ठोकर लगती है, दुःख होता है, तो फिर आप कहते हो कि, अरे!

आप समय का उत्पाद हो। समय की पैदाइश हो। आप वही सब कुछ हो, जो अतीत ने आपको दिया है आप एक शून्य केंद्र के इर्दगिर्द पड़ा बहुत सारा कचरा हो, जो अब घना हो गया है, जम गया है, पुख्ता हो गया है। जैसे सदियों से धूल की तहें एक दूसरे के ऊपर पड़ती जायें, पड़ती जायें और अंततः अपने ही भार के कारण, वो सख्त हो जायें, जम जायें, करीब-करीब पत्थर बन जायें, आप वो पत्थर हो!

केंद्र आपका साफ़ है, शून्य है पर केंद्र तो केंद्र होता है बिंदु बराबर, न कुछ। अब अपनेआप को जो भी कुछ समझते हो, वो अब एक कठोर पिंड बन चुका है। जैसे भाप पानी बने और पानी सख्त बर्फ़ बन जाये। है कुछ नहीं, क्या है? हवा, पानी, कोई उसका अस्तित्व नहीं है। हवा का क्या अस्तित्व? फूँक मारो हट जाये पर इक्क़ठा हो-हो के सख्त हो चुकी है।

उसको गलाना पड़ेगा। उसको ताप देना पड़ेगा, उसको ही तपस्या कहतें हैं। तप, तपाना वही से तपस्या आया है। तपस्या ज़रूरी है, और तपस्या का अर्थ है अपनी वृतियों के विरुद्ध जाना तपस्या का और कोई अर्थ नहीं है। तपस्या का अर्थ यही है कि वैसे नहीं जियूँगा, जैसा अंतर मन से आदेश उठता है। अंतःकरण पर नहीं जियूँगा। आत्मा से जियूँगा, इसी का नाम तपस्या है।और अंतःकरण विद्रोह करेगा इसलिए तपस्या कठिन होती है क्योंकि प्रतिरोध खड़ा होता है सामने। पूरा अंतःकरण, मन, चित, बुद्धि, अहंकार, स्मृति सब खड़े हो जाते हैं। और विरोध करते हैं। ‘’क्यों कर रहे हो ये सब?’’

तपस्या का यह अर्थ नहीं है कि खाना नहीं खायेंगे, या नदी किनारे एक टाँग पर खड़े हो जाएंगे। तपस्या का अर्थ यही है कि प्रतिक्षण साँस-साँस में वृत्तियाँ हावी हैं। ‘’मैं करता ही नहीं हूँ, जो वृत्तियाँ भीतर से आदेश देती हैं। उसको ही मैं कई बार अपनी अंतर आत्मा की पुकार भी बोल देता हूँ, और कुछ नहीं है वो सिर्फ़ वृत्तियों का बहाव है। मैं करता ही लगातार वही हूँ। मैं किधर को देख रहा हूँ, जहाँ को वृत्तियाँ आदेश दे रही है। मैं किस मुद्रा में बैठ रहा हूँ, जहाँ वृत्तियाँ आदेश दे रही हैं। मैं कब मुड़ रहा हूँ, कब हाथ हिला रहा हूँ, कब सीधा बैठ रहा हूँ, कब टेढ़ा हो रहा हूँ, जिधर जो वृत्तियाँ ले जा रहीं है। मैं कब मुसकुरा रहा हूँ, कब पलक झपका रहा हूँ, जिधर को वृत्तियाँ आदेश दे रहीं हैं।

तपस्या का अर्थ है ऐसी सजगता कि वृत्तियों के आदेश की अव्हेलना की जा सके, जाना जा सके कि, ‘’मेरा स्वभाव नहीं है, यह वृत्ति है’’ – यही तपस्या है। तपस्या का अर्थ है जागरुकता।

जागरण ही वो ताप है, जो वृत्तियों को गला देता है।

और आपकी जाग्रति जितनी साफ़ होगी, आपकी आँखों में नींद जितनी कम होगी, इस घनीभूत पिंड को गलने में समय उतना कम लगेगा। इसलिए ये भी कहा गया है कि बोध, जागरण, कैवल्य, मोक्ष जो भी आप उसे नाम देना चाहें, वो तत्क्षण हो सकता है। आपके भीतर यदि यह संकल्प उठे की अभी मुक्त होना है, तो आप तत्क्षण भी हो सकते हो मुक्त। आप अभी निवृत हो सकते हो, सारी वृत्ति गल सकती है।

पर उसके लिए संकल्प में आपकी सारी ऊर्जा लग जानी चाहिए। उसके लिए आपके पास जो कुछ है, उसको इसी पल कुर्बान कर देना होगा। यदि आप जो कुछ हैं, रेशे-रेशे में जो ऊर्जा समाई है, अगर आप उसको इसी समय स्वाह: करने को तैयार हैं। तो आपके लिए मुक्ति इसी क्षण है पर नहीं अभी हमारी वो स्थिति नहीं है। हम तो क्रमशः आगे बढ़ना चाहते हैं, कदम दर कदम।

तो जो लोग कदम दर कदम आगे बढ़ना चाहते हैं, उनके लिए मुक्ति भी क्षणे-क्षणे आती है। क्षणे-क्षणे आये ज़रूरी नहीं है, अभी भी आ सकती है। कितना समय लगना है? तुम कितने समय तक अभी और पीड़ा में जीना चाहते हो, वो तुम्हारे ऊपर है। याद रखियेगा हमने कई बार कहा है आपकी स्थिति कैसी भी हो, संकल्प की शक्ति आप से कभी नहीं छीन सकती, ध्यान की शक्ति आप से कभी नहीं छीन सकती ।

ये ताकत आपके पास हमेशा शेष रहती है कि आप कहें, ‘अभी!’ पर आप कहेंगे नहीं। याद होगा आपको जब हम बोध शिविर में गए थे। मैं केनोपनिषद् पर बात कर रहा था। तो मैंने आप से कहा था कि उपनिषद ‘ना’ से उठता है। और मैंने आप से कहा था कि लिखिए कि क्या है आपके जीवन में जिसको ना कहने का समय आ गया है। और मैंने कहा था जब आप लिखें, तो आपको संकल्पित होना पड़ेगा कि अब इसको ‘न’ कह ही देना है। आपने लिखा ही नहीं! अधिकांश लोगों ने कुछ भी नहीं लिखा क्योंकि आप न कहना ही नहीं चाहते। आप संकल्प लेना ही नहीं चाहते।

आप अभी अपनी दुःख भरी हालत में जीना चाहते हो इसलिए दुःख है। आपके मन में अभी ये संकल्प उठ ही नहीं रहा कि मुक्ति चाहिए।

वो संकल्प आग होता है जो दुःख को भस्म कर देता है।

दुःख क्या है ? वृत्ति पर चलना दुःख है। वृत्ति गल गयी दुःख भस्म हो गया है।

तपस्या का अर्थ होता है: ‘‘मैं बर्दाश्त अब करूँगा ही नहीं! मैं एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं करूँगा कि मेरे होने में अब अंधकार के लिए कोई जगह नहीं रहेगी। मैंने समझौता करना छोड़ दिया है। मैं यह नहीं कहता कि थोड़ा बहुत चलेगा। पाँच प्रतिशत की मिलावट, कोई बात नहीं! मैं अब कुछ भी नहीं करता। एक पैसे की मिलावट नहीं करता।

और हमारे साथ तो यह स्थिति है ही नहीं, कि हम रुपये में एक पैसे की मिलावट न करें। हमारे साथ तो स्थिति यह है कि रुपए में एक पैसा भी सच हो, तो बड़ी बात होती है हम तो सौ के सौ पैसे मिलावटी है। हम अभी यहाँ भी बैठें हुए हैं, हम में से कुछ ही हैं, जिनके चेहरों पर इस समय भी मिलावट नहीं है। अन्यथा हम में से तो कइयों ने तो ठीक इस समय भी समझौता कर रखा है। आप इस समय भी विवेक पर नहीं वृत्ति पर चल रहे हैं। यहाँ पर भी आपके चेहरों पर झूठ की ही छाया है। कोई व्यर्थ मुसकुरा रहा है, उसे अपने से पूछना चाहिए कि ये मुसकराहट क्या है? कहाँ से आ रही है? किसको दिखाई जा रही है? ‘’जो कुछ कहा जा रहा है यदि में एक टीवी स्क्रीन पर देख रहा होता, सुन रहा होता, तो क्या तब भी मुसकुरा रहा होता? निश्चित रूप से मैं किसी को दिखा रहा हूँ अपनी ये झूठी मुसकराहट। जगत है मेरे लिए, दूसरे हैं मेरे लिए अभी।’’

जब जगत है, दूसरे हैं। तो फिर तो द्वैत का भ्रम कायम है। फिर तो आप तुले हुए हैं, वैसा ही रहने में जैसे आप हैं। पूर्णतया तुले हुए हैं। बार-बार कहतें है न कबीर कि ‘सूरमा वो है, जो सबसे पहले अपना सर काट के रख दे, फिर लड़ाई में जाये।’

तपस्या का अर्थ होता है: अपना सर काटना।

तपस्या का अर्थ होता है इस सर को काट के रख देना क्योंकि ये तुमसे जो कुछ करा रहा है वही तुम्हारा नरक है। और तुम गहरे से गहरे अंधकार में डूबे हुए हो, रसा तल में बैठे हो बिलकुल। पाताल! जहाँ सूरज की किरण भी नहीं पहुँचती और तुम्हें वही रहना है। और फिर तुम्हें ताज्जुब होता है, ‘’मुझे कुछ समझ में क्यों नहीं आता? मैं भूल क्यों जाता हूँ? जो करता हूँ, वो ही गलत क्यों होता है?’’ क्योंकि तुमने पाताल में अड्डा बना लिया है, क्योंकि तुम्हारी साँस-साँस में वृत्तियाँ भरी हुई हैं। जो कि अपनेआप में कोई आरोप नहीं है, पर हाँ ये दुर्भाग्य ज़रूर है कि इतना होने के बाद भी, तुम में कोई संकल्प नहीं है मुक्त होने का।

तुम समय के किस मुकाम पर खड़े हो इसके लिए तुमको दोष नहीं दिया जा सकता लेकिन इस बात के लिए तुम पूरी तरह उत्तरदायी हो। अपने को ही उत्तर देना पड़ेगा। तुम इस बात के पूरे उत्तरदायी हो कि जिस भी मुकाम पर खड़े हो, वहां से मुक्त क्योंकि नहीं होना चाहते?

ठीक है! समय ने, स्थिति ने, प्रारब्ध ने, तुमको लाकर के एक गड्ढे में डाल दिया है। तुम नरक में ही पैदा हुए, तुम पिंजरे में ही पैदा हुए, पाताल में ही तुम्हारा घर था। ठीक है ये प्रारब्ध की ही बात है, किस्मत की बात है। इसके लिए दोष नहीं दे रहा तुमको, पर ये तो बताओ न वहाँ से मुक्त होने का संकल्प क्यों नहीं है तुममें? और फिर तुम झूठ-मूठ का नाटक करते हो। तुम बनते हो मुमुक्षु, तुम अभिनय यूँ करते हो जैसे हम तो बड़े सद्गुणी हैं, हम तो उतावले हैं मुक्ति के लिए। मुक्ति ही हमें नहीं मिल रही।

तुम किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? तुम अपना जीवन देखो, हफ्ते भर करते क्या हो? किन जगहों पर काम करते हो? किन लोगों के साथ उठते-बैठते हो? क्या तुम्हारी दिनचर्या है? किस का अन्न खाते हो? उसी से तो निर्मित हो रहे हो न? कल मैं किसी से कह रहा था कि कुछ पेशे ऐसे हैं जिन में मुक्ति की कोई संभावना ही नहीं हो सकती क्योंकि तुम्हारा पूरा शरीर ही, वहां आती आए पर निर्मित है। तुम ऐसे धंधो में हो, जहाँ हिंसा है ही है! तुम्हारे पेशे ने तुम्हारे हाथ में बन्दूक दे दी है। तुम्हारे लिए मुक्ति की क्या संभावना बची?

तुम जो रोटी खा रहे हो, वही खून की रोटी है। तुम हफ्ते भर खून की रोटी खाओ और हफ्ते के अंत में यहाँ आकर के बैठ जाओ, ‘’मुझे तो मुक्ति चाहिए,’’ तो माफ करो! तुम्हारे लिए कुछ नहीं हो सकता। पर तुम बड़े ढोंगी, कहते हो हमारी सुविधाएं बनी रहे, हम जहाँ से रोटी पा रहे हैं वो रोटी चलती रहे। सुविधाओं में कोई कमी न आये और साथ ही साथ मोक्ष भी मिल जाए। काम ही तुम्हारा ये है कि कोर्ट में खड़े होकर के जो भी मुकदमा हाथ में आया है, उससे लड़ना है। उसी की रोटी खाते हो, वही तुम्हारी एक-एक कोशिका में घुस गयी है। वही तुम्हारे रक्त में संचारित हो रही है। दिन भर तुम कोर्ट में झूठ के अलावा कुछ बोलते नहीं क्योंकि वही पेशा है तुम्हारा, और करोगे क्या? या कि सैनिक हो तुम। तो दिन भर किसी को मारने के अभ्यास के अलावा तुम कुछ करते नहीं क्योंकि वही पेशा है तुम्हारा। और उसके बाद तुम कहो मुझे तो मुक्ति चाहिए, तो कैसे होगा?

मैं दोहरा रहा हूँ: जिसको मुक्त होना है , उसे अपनेआप से ही मुक्त होना है। उसे अपने ही विरुद्ध खड़ा होना पड़ेगा।

बच्चा नहीं पैदा होता, वृत्तियों का एक पुंज पैदा होता है। उसे जाना होता है, उसे ख़त्म होना होता है। कई लोग सोचते हैं कि व्रत, उपवास रखे ऋषियों ने, इससे उनको मुक्ति मिल गयी, मोक्ष मिल गया। बड़े-बड़े तपस्वी हुए हैं, जिन्होंने बड़ी तपस्या करीं हैं। महावीर का नाम आता है, बुद्ध का नाम आता है। शरीर गला दिया, हाड़ सुखा दिया। ये सब किसलिए था ज़रा समझो तो, मास गलाने से किसी को मुक्ति नहीं मिल जानी हैं। पर मांस गलाना एक प्रकार का मानसिक अभ्यास है। शरीर महत्व नहीं रखता, मन महत्व रखता है।

मन चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, ‘’मुझे यह चाहिए क्योंकि वही वृत्ति पैदा हो गयी है। देखा है न! बच्चा पैदा होते ही चिल्लाता है, उसे दूध चाहिए। वृत्ति चिल्ला रही है, वही पैदा हुई है, वृत्ति को काटा जा रहा है कि, ‘’तू मांगेगी, मैं तेरे समर्थन में नहीं खड़ा होऊँगा। तेरा तो काम है मांगना मैं तेरे समर्थन में नहीं खड़ा हो जाऊंगा क्योंकि तेरे समर्थन में खड़े होने का अर्थ है नरक के समर्थन में खड़े होना!’’

जिसने अपने विरुद्ध लड़ाई जीत ली , उसी का नाम महावीर है।

दूसरों के हारने से आप वीर कहला सकते हो। महावीर वो , जिसने अपने विरुद्ध लड़ाई जीत ली, बड़ा मुश्किल है!

तुम अपनी वृत्तियों को प्रोत्साहन देते हो। दिन रात वही काम कर रहे हो, प्रतिक्षण वही काम कर रहे हो, जो तुम्हारे शरीर और तुम्हारे मन को सुहाते हैं। ज़बान कहेगी यह खाना है, तुम खा लोगे। मन कहेगा इतना ही पढ़ना है, उतना नहीं पढ़ना; तुम नहीं पढ़ोगे। मन कहेगा इसको धोखा दे दो, तुम खूब दोगे। ये सवाल इस कक्ष में आ के न पूछा करिए कि, ‘फिसल क्यों जाते हैं?’ आप फिसल जाते नहीं है, आप प्रतिक्षण फिसल रहे हैं। आप इतने सोये हुए हैं कि आपको कभी-कभी पता चलता है कि फिसले!

आपकी हालत उस शराबी जैसी है, जो लगातार कीचड़ में ही गोते खा रहा है, पर उसको हर चार घंटे में एहसास होता है कि, ‘’मैंने गोता खाया।’’ तो वो क्या सोचता है? ‘’मैं तो चार घंटे में एक बार कीचड़ में घुसता हूँ।’’ जनाब, आप चार घंटे में एक बार कीचड़ में नहीं गिरते हैं, आप प्रतिक्षण कीचड़ में हैं। और आप इतने ज़्यादा धुत है नशे में कि आपको ये पता भी नहीं है कि आप प्रतिक्षण कीचड़ में हैं। आपको जब ज़रा होश आता है, तो आपको पता चलता है, हम गिरे। जैसे-जैसे आपका होश बढ़ेगा, वैसे-वैसे आपको दिखाई देगा और गिरे, गिरे, और गिरे और आपको आश्चर्य होगा। आप कहेंगे जब ज़्यादा पिए हुए थे, तो कम गिरते थे। अब नशा उतर रहा है, तो ज़्यादा गिरते हैं। नहीं! अब आपको ज़्यादा पता लगना शुरू हुआ है। अब आपको ज्यादा पता लगना शुरू हुआ है। जो जितना बेहोश होता है, उसे उतना कम पता लगता है कि वो बेहोश है। एक बिलकुल ही धुत शराबी हो, वो नाली में लोट रहा होगा। आप उसे पूछिए कहाँ लोट रहे हो? वो कहेगा ये तो निजी स्विमिंग पूल है मेरा। उसे पता भी नहीं है, वो कहाँ लोट रहा है।

आपकी वही हालत है: आप मेरे पास समस्या ये लेकर आये हो, ‘’मैं कभी-कभी फिसल जाती हूँ।’’ मैं आपसे कह रहा हूँ जब आपको पता लगता है आप फिसल जाती हैं, उन क्षणों में तो उत्सव मानिए क्योंकि उन क्षणों में तो आप फिर भी थोड़ी जगी हुई हैं। आपको पता लग गया है कि आप फिसली हुई हैं। ये प्रमाण है कि आप जगी हुई हैं। जिन क्षणों को आप अपनी सामान्य अवस्था समझती हैं, वो आपके नितांत दुर्भाग्य के क्षण है क्योंकि वो, वो क्षण हैं जिनमें आप हैं तो कीचड़ में ही, पर आपको पता भी नहीं है कि आप कीचड़ में हैं। असली नरक वहां है!

आप चमत्कार खोजते हैं। आप कहते हैं: कोई अद्भुत चीज़ मिले, तो मनोरंजन हो। देखिये, इससे बड़ा क्या चमत्कार हो सकता है? कि आप खुद दिन रात जिस नरक का प्रबंध करते हैं, आयोजन करते हैं। फिर उसी के बाद ताज्जुब करते हैं, ‘’अरे! ये मैं कहाँ आ गया?’’ तुमने और कहाँ आने की पूरी तैयार करी है, ये बताओ?

लोग आते हैं, उनकी हालत कोई तीस साल का है, कोई चालीस साल का है। कहते हैं देखिये, अभी मैं फंस गया हूँ। तुम फंस नहीं गए हो, तुम तीस चालीस साल की तैयारी के बाद यहाँ पहुँचे हो। किसी और ने तुम्हें नहीं फँसा दिया। तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी की यात्रा ही ऐसी रही है कि तुम यहाँ पहुँचे हो। पर वहां पर भी ईमानदारी नहीं रहती। हम दावा क्या करते हैं? ‘’नहीं-नहीं! मैं आदमी तो सही हूँ, मैंने धोखे से एक गलत कदम उठा किया जिस कारण में फंस गया हूँ।’’ यही कहते हैं न हम? कि, ‘’मैं वैसे तो बंदा बढ़िया हूँ, धोखे से एक गलत कदम उठा लिया। आप किस को धोखा दे रहे हो? आपने धोखे से कोई गलत कदम नहीं उठा लिया। ये जो हो रहा है, ये आपकी पूरी की पूरी यात्रा का नतीजा है।

आज आप नरक के जिस भी तल पर विराजमान हो, आप पूरी कोशिश कर-कर के यहाँ पहुँचे हो। रोज़ सुबह गाड़ी में बैठ के नरक जाते हो क्योंकि वहां तुम्हारे लिए लालच रखा हुआ है और उसके बाद कहते हो, ‘’अरे! वो जीवन में कष्ट आ गया है, अरे! वो साथी के साथ संबंध प्रेमपूर्ण नहीं है, खिंचाव आने लग गये हैं।’’ नरक में और क्या होगा?

रोज़ कौन शर्ट धारण करता है? रोज़ कौन जूते चमकाता है? रोज़ कौन गाड़ी में चाभी लगता है? रोज़ कौन ड्राइव करके नरक जाता है? और नरक में प्रेम तो नहीं होगा। अब क्यों आ के कहते हो कि उस साथी से संबंध खिंचाव वाले हो गये हैं। नरक में और क्या मिलेगा तुम्हें? मधुर मिलन? परमालिंगन? पर नरक में सैलरी स्लिप है! उसे इ.एम.आई जाती है। बड़े-बड़े चिकने साफ़ सुथरे कमरे। ताज महल में कब्र।

ताज महल पता है न क्या है? कब्रिस्तान है। उसके भीतर कब्रें हैं। बादशाह को, शाहजहाँ को पैसा कम पड़ता, तो वो भी इ.एम.आई. पर बनवाता; पर बनवाता ज़रुर! बुरे पल, ख़ास पल होते हैं। बुरे पलों पर तो हम सभी ध्यान दे लेते हैं। जब आफ़त आती है, तब तो सभी सतर्क हो जातें हैं, पर तब कुछ मिलेगा नहीं। जब हार्ट-अटैक आ ही गया है, तो अब क्या कर लोगे? जॉगिंग जाओगे? दौड़ने से व्यायाम करने से दिल थोड़ा ठीक रहता है पर जिसको अब हार्ट–अटैक आ गया हो, उसे क्या बोलोगे? जा के दौड़ लगाओ! तो अब क्या कर लोगे जब दुःख आ ही गया है? जब दुःख आ गया है, तो कुछ न करो, झेलो!

सतर्क तुम उन पलों में रहो जिनको तुम अपने सामान्य पल बोलते हो। जब अपने दोस्तों-यारों के साथ लगे होते हो, और कहते हो, ‘’ये तो मेरी सामान्य ज़िन्दगी है।’’ तब तुम दुःख का निर्माण कर रहे हो। अभी ये बम फटेगा, अभी ये फल पकेगा। जब हार्ट-अटैक आ गया है, अब दौड़ भाग करने से न होगा कुछ। सतर्क तुम तब रहो, जब तुम्हारे सामान्य पल होते हैं, जब तुम तनाव ले रहे होते हो, और तेल पी रहे होते हो। तब तुम हृदयागघात का निर्माण कर रहे हो, तब सतर्कता दिखाओ। लोग आते हैं, वो हमारे बेटे ने हमारे साथ बड़ा धोखा किया। हमें छोड़ करके चला गया हम बुड्ढे है। हमारी कोई मदद नहीं करता।

अब समझ में आ रही है ये बात? इस बेटे का निर्माण किसने किया? जो ऐसा निकला माँ- बाप तो तुम्हीं हो। इस ज़हरीली चीज़ का निर्माण किसने किया? तुम किस को दोष दे सकते हो? दुनिया तो फिर भी दोष दे, कोई कमीना निकलता है, तो दुनिया पूछती है इसके माँ बाप कौन हैं? कौन है माँ बाप जिन्होंने ये पैदा किया और ऐसा बनाया। पर माँ बाप खुद पूछें कि हमें हमारा बेटा दोष दे रहा है, तो तुम किसको दोष दे सकते हो क्योंकि वो जैसा भी है तुम्हीं ने बनाया है। हम बुड्ढे हैं, हमें छोड़ के चला गया।

किसने सिखाया था उसको अवसरवादी होना? तुम्हीं ने सिखाया था न बेटा जहाँ मुनाफ़ा हो, उधर को जाना। तो उसको अब दिख रहा है इन दो बुड्ढों के साथ क्या मुनाफ़ा मिलेगा। तुम्हीं ने सिखाया था न उसको कि जो चीज़ यूँ ही बोझ बन जाए, और जिसमें अब पैसा रुपये लगने लग जाएँ, उसको छोड़ देना। तो तुम्हीं हो सबसे बड़ा बोझ और दिन रात दोनों बुड्ढे बीमार रहते हो, और तुममें खूब पैसा लग रहा है उसका, तो छोड़ गया। उसके मन की जो भी स्थिति है, वो उसको किस ने दी? तुमने दी! अब तुम्हें ही भारी पड़ रही है। तुम्हीं ने उसको सिखाया था न, बेटा प्रतियोगी बनो! ‘’दुनिया में आगे निकलो,’’ तो दुनिया में आगे निकलने के लिए, वो तुम्हें पीछे छोड़ गया।

किसको दोष दे रहे हो? पर तुम्हें पता नहीं चलता, जब दुःख का निर्माण कर रहे होते हो, तब तुम्हें नहीं पता चलता। जब दुःख फटता है, तब पता चलता है। है दुःख प्रति पल ही। जब निर्माण कर रहे हो, तब तुम दुःख से कोई दूर हो? जिसका निर्माण कर रहे हो, वो तुमसे कुछ दूर है? और भूलना नहीं, दुःखी मन ही दुःख का निर्माण करता है। एक भ्रमित मन ही भ्रम को और फैलाता है। पर तब तुम्हें समझ में नहीं आता। अपनी दिनचर्या को देखो। देखो कि आसपास वालों के साथ कैसे संबंध हैं। पति के साथ, बेटे के साथ, बेटी के साथ, पिता के साथ कैसे संबंध है। तुम्हें समझ में आ जायेगा, तुम किस तरीके से अपनी वृत्तियों को प्रोत्साहन देते हो। देखो कि प्रतिपल करते क्या होI सब समझ में आ जायेगा, बात खुल जाएगी। मन की दुनिया में कुछ भी अकारण नहीं होता। मन में तो, जो कुछ है उसका कारण है। और वो कारण तुम उपलब्ध कराते हो।

बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय

करता था सो क्यों किया , अब कर क्यों पछिताय

क्या कर आ रहे हो? प्रतिपल क्या कर रहे हो? रोज़ क्या कर रहे हो? नहीं साहब, हम रोज़ कुछ ख़ास नहीं कर रहे हैं। हम तो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। सामान्य जीवन! उल्टी दिशा जाओ, और रोज़ उसमें दो कदम बढ़ाओ। तो क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो? सामान्य जीवन है? हमारी पूरी यारी है, अपनी ही दुर्दशा से। हम कुछ भी छोड़ सकते हैं, अपनी दुर्दशा का आयोजन नहीं छोड़ सकते। तुम्हें क्या लग रहा है, अभी मैं ये सब बातें कह रहा हूँ। यहाँ से उठ के जाओगे तुम अपनी गति और अपनी दिशा में कोई भी परिवर्तन लाओगे? नहीं! क्योंकि तुम संकल्प बद्ध हो कि नरक तो नहीं छोड़ना है।

तुम यहाँ आते भी हो न, नरक से बहार निकलने नहीं आते। तुम बस इसलिए आते हो कि अपने बदबूदार कमरों में थोड़ा सा इत्र छिड़क दो। कमरे से बाहर निकलने का कोई इरादा नहीं है। जाना तुम्हें उस दिशा ही है, जिधर को जा रहे हो। वही तुम्हारा सामान्य जीवन कहलाता है। वही सामान्य नौकरी-चाकरी, ब्याह, मोह, लगाव, घर-परिवार वही, जैसे दुनिया चल रही है। चलना तुमको बिलकुल वैसे ही है। कसम खायी है, कुछ हो जाये, नरक से वफ़ादारी नहीं तोड़ेंगे!

स्वामी राम के जीवन से कथा है। एक बार कुछ लोगों से बात कर रहे थे। तो एक दिन, दो दिन हो गया व्याख्यान देते रहे। सत्य पर बोला, मुक्ति पर बोला। तो अंततः लोग बड़े आतुर हो गये। बोलते है नहीं! मुक्ति चाहिए। जब इतना करा है, तो इतना भी बताइए कि कैसे मिलेगी। छोटे से छोटा रास्ता बताइए, तरीका बताइए। अब राम तो समझते ही थे कि इतना नहीं कोई मुमुक्षु यहाँ बैठा हुआ है। चेहरों पर लिखा हुआ था कि बस क्षणिक उतेजना है, अभी उतर जाएगी। पर जब लोगों ने ज़्यादा ही शोर मचा दिया, तो उन्होंने कहा ठीक! अभी दे रहा हूँ मुक्ति। बोलो किस-किस को चाहिए? खड़े हो जाओ, अभी दूंगा। और पूरी दूंगा, पूर्ण और परम मुक्ति दूंगा। किस-किस को चाहिए, खड़े हो जाओ। फिर वही हुआ जो होना था, महफ़िल को सांप सूंघ गया, एक न खड़ा हुआ क्योंकि यारी है हमारी, वफ़ादारी है चलना तो हमको वैसे ही हैं, जैसे चल रहे हैं।

ये सब तो हमारे लिए बस समय काटने के बहाने हैं। आध्यात्मिक मनोरंजन! इसे कोई बदलाव हम नहीं आने देंगे। कल हम फिर वही करेंगे, जिसे हम अपना सामान्य जीवन बोलते हैं। कल हम फिर से फॉर्मल कपड़े पहनेंगे, कल हम फिर से गाड़ी में चाभी लगायेंगे, कल से हम फिर नरक में गाड़ी पार्क करेंगे! और यह दिखाने के लिए कि हम इस नरक के वासी नहीं हैं, हम नरक के भीतर की कुछ खबरें बाहर के लोगों को बतायेंगे कि देखिये ये तो नर्किये लोग हैं, इन्हें तो कुछ आता नहीं है। हम अद्वैत से सम्बंधित रहे हैं, तो हमें कुछ अक्ल आ गयी है। तुम अद्वैत से सम्बंधित होते, तो तुम अभी भी वहां होते?

पुराने रास्तों पर चल-चल के नईं मंजिल तक कौन पहुँच सकता है ?

जो कल किया था शाम को आज भी, तो वही सब करोगे न? और कल भी वही सब करोगे? तो कुछ नया कैसे घटित हो तुम्हारी ज़िन्दगी में बताओ? मैं ईमानदारी से आप सब से सवाल कर रहा हूँ। जो परसों किया वही कल किया? जो कल किया, वही आज करने का इरादा है? और फिर वही कल करोगे? कुछ बदलने का इरादा है? है ज़रा भी संकल्प? ढर्रा तोड़ने को तैयार हो क्या? जहाँ से आये हो, वहीं को वापस जाओगे न? या कहीं और को जाओगे?

जब बिल से बाहर निकले हो, और बिल में ही वापस जाना है, तो चूहे ही तो रहोगे! अपने सिंह रूप को जान लिया होता, तो वापस बिल में क्यों घुसते? बिल से आये हो, बिल में ही जाना है, बीच में तो बस ऐसे ही है। चाय है, रोटी है, दाना है और फिर कितनी मासूमियत से सवाल पूछते हो कि, ‘’मेरी ज़िन्दगी में कुछ बदल क्यों नहीं रहा?’’ कोई नया सूर्योदय क्यों नहीं? कोई क्रांति क्यों नहीं? तुम आने दो, तो न क्रांति आये? सूरज उगने को होता है तो तुम पीठ दिखा के भागते हो सूरज से।

मैं बहुत सरल सवाल पूछ रहा हूँ। जब वही सब कर रहे हो, उन्हीं रास्तों पर चल रहे हो, मन के उन्हीं ढर्रों को बल दे रहे हो जिनको आज तक बल दिया है, तो कुछ नया कैसे घटित हो? और ये चमत्कारों का चमत्कार है कि नहीं, कि यहाँ घंटों-घंटों बैठने के बाद, तुम फिर वही करने लग जाते हो, जो तुम करते आये हो आज तक। कुछ मच्छर हैं, वो बहुत खतरनाक माने जाते हैं, जानते हो क्यों? उनका जो आंतरिक प्रतिरक्षा तंत्र होता है, वो इतना सुविकसित होता है कि वो दवाइयों के विरुद्ध खड़ा नहीं होता। वो दवाइयों को आत्मसाध कर लेता है। तुम्हारी जो पूरी प्रतिरक्षा प्रणाली जो होता है शरीर, का वो जानते हो लड़ता है।

तुम्हारे भीतर कोई वायरस प्रवेश कर जाए, तो शरीर उससे लड़ता है। पर एक बात उससे आगे की होती है कि तुम्हारे भीतर कुछ प्रवेश करे, कोई ज़हर, कोई दुश्मन और तुम उसे सोख ही लो। ये जो मच्छर होते हैं, अब इन्हें मारा नहीं जा सकता। तुम इन पर जिस भी दवाई का इस्तेमाल करते हो, ये उस दवाई को आत्मसाध कर लेते हैं ; को-ऑप्ट कर लेते हैं। अब ये इम्यून हो जाते हैं। बड़ी दिक्कत होती है, नयी दवाई आती है, नया ज़हर आता है, उन्हें मारने के लिए, और वो दो चार साल में वो उसके प्रति इम्यून हो जातें हैं। अब तुम लगाते रहो ज़हर, वो मरेगा ही नहीं।

हमने भी यही किया है, हमने शास्त्रों को, हमने इन सत्रों को, इन सब को भी अपने नरक का ही हिस्सा बना लिया है। को-ऑप्ट कर लिया है, तो जो ढर्रा है जीने का, उसमें एक गतिविधि ये भी शामिल हो गयी है क्या? कि बुधवार को, रविवार को, दो चार घंटे ज़रा मानसिक व्यायाम। अच्छा रहता है! ये मच्छर अब बड़ा मुश्किल है कि मारा जा सके। ये तो दवाई को ही पी गया। इसलिए अक्सर धार्मिक लोगों के लिए कोई सम्भावना बचती नहीं है क्योंकि जो ऊँची से ऊँची दवाई हो सकती थी, अब वो उन पर बेअसर हो चुकी है, वो दनादन श्लोक दोहराते हैं, दोहे गाते हैं। धार्मिक लोगों से बचना! वो स्थायी निवासी हैं नरक के। तुम सब तो किराए पर रहते होगे, उन्होंने अपनी जगह पक्का कर रखी है। हम छोड़ कर नहीं हटेंगे यहाँ से, हमें तो पक्का पता है। वो पी गए हैं ऊँची से ऊँची दवाई। अब उनके लिए क्या संभावना है? अब क्या उनके लिए उपचार हो सकता है। इसलिए सारे धर्मग्रंथ कहते हैं,’हमें सिर्फ वो पढ़े, जो अधिकारी है। कोई दूसरा पढ़ेगा, तो गड़बड़ हो जाएगी।’

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें